मानमदुरा-अभिनन्दन का उत्तर – आध्यात्मिक दान का महत्व
मानमदुरा में शिवगंगा तथा मानमदुरा के जमींदारों एवं नागरिकों द्वारा मानपत्र स्वामीजी को भेंट किया गया। इस मानपत्र के उत्तर में स्वामी विवेकानंद ने जो उत्तर दिया, उसमें धर्म और दान के महत्व पर उन्होंने प्रकाश डाला है।
इस व्याख्यान में उन्होंने बताया है कि अध्यात्म-जीवन का दान वस्तुतः विद्यादान, प्राणदान और अन्नदान से भी श्रेष्ठ है। आइए, स्वामी जी के इस व्याख्यान को पढ़ें और अपने भीतर धर्म व दान के पारम्परिक भारतीय मूल्यों को दृढ़ रूप से स्थापित करें।
यह व्याख्यान उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “भारतीय व्याख्यान – कोलम्बो से अल्मोड़ा तक” से लिया गया है।
मानपत्र
स्वामी विवेकानन्द जी,
महानुभाव,
आज हम शिवगंगा तथा मानमदुरा के जमींदार एवं नागरिक आपका हार्दिक स्वागत करते हैं। हमें इस बात का कभी अपने जीवन के पूर्णतम आशा के क्षणों में अथवा अतिरंजित स्वप्नों में भी विचार न था कि आप जो हमारे हृदय में सदैव से रहे हैं, एक दिन यहाँ हमारे स्वदेश के इतने समीप पधारेंगे। पहले जब हमें इस बात का तार मिला कि आप यहाँ आने में असमर्थ हैं तो हमारे हृदय में निराशा का अन्धकार फैल गया, और यदि बाद में आशा की एक सुनहरी किरण न मिल जाती तो हमको अत्यधिक निराशा होती। जब हमें यह पहले-पहल ज्ञात हुआ कि आपने हमारे नगर में पधारकर हम सब को दर्शन देना स्वीकार कर लिया है तो हमें यही अनुभव हुआ कि मानो हमने अपना उच्चतम ध्येय प्राप्त कर लिया। हमें तो ऐसा जान पड़ा मानो ‘पहाड़ ने मुहम्मद के पास जाना स्वीकार कर लिया’ और फलस्वरूप हमारे हर्ष का पारावार नहीं रहा। परन्तु फिर जब हमें पता चला कि ‘पहाड़’ के लिए स्वयं चलकर यहाँ आना सम्भव नहीं होगा तथा हम लोगों को सब से अधिक शंका इस बात की थी कि हम स्वयं चलकर ‘पहाड़’ तक जा सकेंगे, उस समय तो केवल आपने ही महती उदारता से हमारे दृढ़ाग्रह को पूरा कर दिया।
समुद्री मार्ग की इतनी कठिनाइयाँ तथा अड़चनें होते हुए भी जिस उदार एवं निःस्वार्थ भाव से आप प्राची का महान सन्देश पाश्चात्य देशों को ले गये, जिस अधिकारपूर्ण ढंग से आपने वहाँ अपने उद्देश्य को कार्यरूप में परिणत किया तथा जैसी आश्चर्यजनक अद्वितीय सफलता आपको अपने जगत्कल्याण के प्रयत्नों में प्राप्त हुई, उससे आपकी कीर्ति अमर हो गयी है। ऐसे समय में जबकि रोटी की समस्या का समाधान करनेवाला पाश्चात्य भौतिकवाद भारतीय धार्मिक भावों को अधिकाधिक आक्रान्त करता जा रहा था तथा जब हमारे ऋषियों के कथनों और ग्रन्थों की लोग मात्र गिनती करने लगे थे, आप जैसे एक नये गुरु का अवतीर्ण होना हमारी धार्मिक प्रगति के इतिहास में एक नये युग का आरम्भ ही है। और हम आशा करते हैं कि धीरे धीरे समय आने पर आप हमारे भारतीय-दर्शन-रूपी सुवर्ण पर कुछ समय के लिए जम गयी मैल को धो बहाने में पूर्ण रूप से सफल होंगे, और उसी को आप अपनी सशक्त मानसिक टकसाल में ढालकर एक ऐसा सिक्का तैयार कर देंगे जो समस्त संसार में मान्य होगा। जिस उदार भाव से आपने भारत के दार्शनिक चिन्तन का झण्डा शिकागो धर्ममहासभा में एकत्र विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच विजय के साथ लहरा दिया है, उससे हमें इस बात की प्रबल आशा हो रही है कि शीघ्र ही आप अपने समय के राजनीतिक सत्ताधारी के ही सदृश इतने बड़े साम्राज्य पर राज्य करेंगे जिसमें सूरज कभी नहीं डूबता, अन्तर इतना ही होगा कि उसका राज्य भौतिक वस्तुओं पर है तथा आपका मन पर होगा। और जिस प्रकार इस राष्ट्र ने इतने अधिक समय तक तथा इतनी सुन्दरता से राज्य करके राजनीतिक इतिहास की सारी पूर्वनिर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण किया है, उसी प्रकार हम सर्वशक्तिमान् ईश्वर से विनम्र प्रार्थना करते हैं कि जिस कार्य का बीड़ा आपने निःस्वार्थ भाव से केवल दूसरों के कल्याण के लिए उठाया है, उसे पूर्ण करने के लिए वह आपको दीर्घजीवी करे तथा आध्यात्मिकता के इतिहास में आप अपने सभी पूर्वजों में अग्रगण्य हों।
परमपूज्य स्वामीजी,
हम है आपके परम विनम्र तथा भक्त सेवकगण
स्वामी विवेकानंद ने निम्नलिखित उत्तर दिया :
स्वामी विवेकानंद का धर्म व दान पर प्रकाश डालता उत्तर
तुम लोगों ने हार्दिक तथा दयापूर्ण अभिनन्दन द्वारा मुझे जिस कृतज्ञता से बाँध लिया है, उसे प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्दों का सर्वथा अभाव है। अभाग्यवश प्रबल इच्छा के रहते हुए भी मैं ऐसी स्थिति में नहीं हूँ कि एक दीर्घ व्याख्यान दे सकूँ। यद्यपि हम लोगों के संस्कृतज्ञ मित्र ने कृपा-पूर्वक मेरे लिए बड़े सुन्दर सुन्दर विशेषणों की योजना की है; पर मेरे एक स्थूल शरीर भी तो है, चाहे शरीर-धारण विडम्बना मात्र क्यों न हो। और स्थूल शरीर तो जड़ पदार्थ की परिस्थितियों, नियमों तथा संकेतों पर चलता है। अतः थकान और सुस्ती भी कोई ऐसी चीज है जिसका असर स्थूल शरीर पर पड़े बिना नहीं रहता।
पश्चिम में मुझसे जो थोड़ा-सा काम हुआ है, उसके लिए देश में हर जगह जो अद्भुत प्रसन्नता तथा प्रशंसात्मक भाव दिखाई देता है, वह सचमुच महान् वस्तु है। मैं इसे इस ढंग से देखता हूँ : इसे मैं उन महान् आत्माओं पर आरोपित करना चाहता हूँ, जो भविष्य में आनेवाले हैं। अगर मेरा किया यह थोड़ा-सा काम सारी जाति से इतनी प्रशंसा पा सकता है, तो मेरे बाद आनेवाले, संसार में उथल-पुथल मचा देनेवाले, आध्यात्मिक महावीर इस राष्ट्र से कितनी प्रशंसा न प्राप्त करेंगे? भारत धर्म की भूमि है; हिन्दू लोग, धर्म – केवल धर्म समझते हैं। सदियों से उन्हें इसी मार्ग की शिक्षा मिलती आयी है, जिसका फल यह हुआ कि उनके जीवन के साथ इसी का घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया, और तुम लोग जानते हो कि बात ऐसी ही है। इसकी कोई जरूरत नहीं कि सभी दूकानदार हो जाएँ या सभी अध्यापक कहलाएँ या सभी युद्ध में भाग लें, किन्तु इन विभिन्न भावों में ही संसार की भिन्न भिन्न जातियाँ सामंजस्य की स्थापना कर सकेंगी।
जान पड़ता है कि इस राष्ट्रीय एकता में आध्यात्मिक स्वर अलापने के लिए हम लोग विधाता द्वारा ही नियुक्त किये गये हैं। और यह देखकर मुझे बड़ा आनन्द होता है कि हम लोगों ने अब तक परम्परागत अपने उन महान् अधिकारों को हाथ से नहीं जाने दिया, जो हमें अपने गौरवशाली पूर्वपुरुषों से मिले हैं, जिनका गर्व किसी भी राष्ट्र को हो सकता है। इससे मेरे हृदय में आशा का संचार होता है; यही नहीं, जाति की भावी उन्नति का मुझे दृढ़ विश्वास हो जाता है। यह जो मुझे आनन्द हो रहा है, वह मेरी ओर व्यक्तिगत ध्यान के आकर्षित होने के कारण नहीं, वरन् यह जानकर कि राष्ट्र का हृदय सुरक्षित है और अभी स्वस्थ भी है। भारत अब भी जीवित है। कौन कहता है कि वह मर गया? पश्चिमवाले हमें कर्मशील देखना चाहते हैं। परन्तु यदि वे हमारी कुशलता लड़ाई के मैदान में देखना चाहें, तो उनको हताश होना पड़ेगा, क्योंकि वह क्षेत्र हमारे लिए नहीं है, जैसे कि अगर हम किसी सिपाही जाति को धर्मक्षेत्र में कर्मशील देखना चाहें तो हताश होंगे। वे यहाँ आएँ और देखें, हम भी उनके ही समान कर्मशील हैं; वे देखें, यह जाति कैसे जी रही है और इसमें पहले जैसा ही जीवन अब भी वर्तमान है। हम लोग पहले से हीन हो गये हैं, इस विचार को जितना ही हटाओगे, उतना ही अच्छा है।
परन्तु अब मैं कुछ कड़े शब्द भी कहना चाहता हूँ। मुझे आशा है, उनका ग्रहण तुम असहानुभूति के साथ नहीं करोगे। अभी अभी तुम लोगों ने जो यह दावा दायर किया कि यूरोप के भौतिकवाद ने हमको लगभग प्लावित कर दिया है, सो सारा दोष यूरोपवालों का नहीं, अधिकांश दोष हमारा ही है। जब हम वेदान्ती हैं, तो हमें सभी विषयों का निर्णय भीतरी दृष्टि से, भावात्मक सम्बन्धों के आधार पर करना चाहिए। जब हम वेदान्ती हैं, तो यह बात हम निस्सन्देह समझते हैं कि अगर पहले हम ही अपने को हानि न पहुँचाएँ, तो संसार में ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो हमारा नुकसान कर सके। भारत की पंचमांश जनता मुसलमान हो गयी, जिस प्रकार इससे पहले प्राचीन काल में दो-तिहाई मनुष्य बौद्ध बन गये थे। इस समय पंचमांश जनसमूह मुसलमान है; दस लाख से भी ज्यादा मनुष्य ईसाई हो गये हैं, यह किसका दोष है? हमारे इतिहासकारों में से एक का चिरस्मरणीय भाषा में आक्षेप है – ‘जब सतत प्रवाहशील झरने में जीवन बह रहा है, तो ये अभागे कंगाल भूख-प्यास के मारे क्यों मरे?’ प्रश्न है – जिन्होंने अपना धर्म छोड़ दिया, उन लोगों के लिए हमने क्या किया? क्यों वे मुसलमान हो गये? इंग्लैण्ड में मैंने एक सीधी-सादी लड़की के सम्बन्ध में सुना था, जो वेश्या बनने के लिए जा रही थी। किसी महिला ने उसे ऐसा काम करने से रोका। तब वह लड़की बोली, “मेरे लिए सहानुभूति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय यही है। अभी मुझे किसी से सहायता नहीं मिल सकती, परन्तु मुझे पतित हो जाने दीजिए, गली-गली ठोकरें खानेवाली स्त्रियों की हालत को पहुँच जाऊँ, तब सम्भव है, दयावती महिलाएँ मुझे लेकर किसी मकान में रखें और मेरे लिए सब कुछ करें।” आज हम अपने धर्म को छोड़ देनेवालों के लिए रोते हैं, परन्तु इसके पहले उनके लिए हमने क्या किया? आओ, हम लोग अपनी ही अन्तरात्मा से पूछें कि हमने क्या सीखा; क्या हमने सत्य की मशाल हाथ में ली? अगर हाँ, तो ज्ञानविस्तार के लिए उसे लेकर कितनी दूर बढ़े? – तो समझ में आ जाएगा कि उन पतितों के घर तक ज्ञानालोक विकीर्ण करने के लिए हमारी पहुँच नहीं हुई। यही एक प्रश्न है, जो अपनी अन्तरात्मा से हमें पूछना चाहिए। चूँकि हम लोगों ने वैसा नहीं किया, इसलिए वह हमारा ही दोष था – हमारा ही कर्म था। अतएव हमें दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए, इसे अपने ही कर्मों का दोष मानना चाहिए।
भौतिकवाद, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म या संसार का कोई ‘वाद’ कदापि सफल नहीं हो सकता था, यदि तुम स्वयं उसका प्रवेशद्वार न खोल देते। नर-शरीर में तब तक किसी प्रकार रोग के जीवाणुओं का आक्रमण नहीं हो सकता, जब तक वह दुराचरण, क्षय, कुखाद्य और असंयम के कारण पहले ही से दुर्बल और हीनवीर्य नहीं हो जाता। तन्दुरुस्त आदमी सब तरह के विषैले जीवाणुओं के भीतर रहकर भी उनसे बचा रहता है। अस्तु, पहले की भूलों को दूर करो, प्रतिकार का समय अब भी है। सर्वप्रथम, पुराने तर्क-वितर्कों को – अर्थहीन विषयों पर छिड़े हुए उन पुराने झगड़ों को – त्याग दो, जो अपनी प्रकृति से ही मूर्खतापूर्ण है। गत छह-सात सदियों तक के लगातार पतन पर विचार करो – जब कि सैकड़ों समझदार आदमी सिर्फ इस विषय को लेकर वर्षों तक तर्क करते रह गये कि लोटा भर पानी दाहिने हाथ से पिया जाए या बाँये हाथ से, हाथ चार बार धोया जाय या पाँच बार, और कुल्ला पाँच दफे करना ठीक है या छह दफे। ऐसे अनावश्यक प्रश्नों के लिए तर्क पर तुले हुए जिन्दगी की जिन्दगी पार कर देनेवाले और इन विषयों पर अत्यन्त गवेषणापूर्ण दर्शन लिख डालनेवाले पण्डितों से और क्या आशा कर सकते हो? हमारे धर्म के लिए भय यही है कि वह अब रसोईघर में घुसना चाहता है। हममें से अधिकांश मनुष्य इस समय न तो वेदान्ती है, न पौराणिक और न तान्त्रिक, हम है ‘छूतधर्मी’ अर्थात् ‘हमें न छुओ’ इस धर्म के माननेवाले हमारा धर्म रसोईघर में है। हमारा ईश्वर है ‘भात की हाँड़ी’ और मन्त्र है ‘हमें न छुओ, हमें न छुओ, हम महापवित्र हैं।’ अगर यही भाव एक शताब्दी और चला, तो हममें से हर एक की हालत पागलखाने में कैद होने लायक हो जाएगी। मन जब जीवनसम्बन्धी ऊँचे तत्त्वों पर विचार नहीं कर सकता, तब समझना चाहिए कि मस्तिष्क दुर्बल हो गया है। जब मन की शक्ति नष्ट हो जाती है, उसकी क्रियाशीलता, उसकी चिन्तनशक्ति जाती रहती है, तब उसकी सारी मौलिकता नष्ट हो जाती है। फिर वह छोटी से छोटी सीमा के भीतर चक्कर लगाता रहता है। अतएव पहले इस वस्तुस्थिति को बिल्कुल छोड़ देना होगा। और फिर हमें खड़ा होना होगा, कर्मी और वीर बनना होगा। तभी हम अपने उस अशेष धन के जन्मसिद्ध अधिकार को पहचान सकेंगे, जिसे हमारे ही लिए हमारे पूर्वपुरुष छोड़ गये हैं और जिसके लिए आज सारा संसार हाथ बढ़ा रहा है। यदि यह धन वितरित न किया गया, तो संसार मर जाएगा। इसको बाहर निकाल लो और मुक्तहस्त इसका वितरण करो। व्यास कहते हैं, इस कलियुग में दान ही एकमात्र धर्म है, और सब प्रकार के दानों में अध्यात्मजीवन का दान ही श्रेष्ठ है। इसके बाद है विद्या-दान, फिर प्राण-दान, और सब से निकृष्ट है अन्न-दान। अन्न-दान हम लोगों ने बहुत किया, हमारी जैसी दानशील जाति दूसरी नहीं। यहाँ तो भिखारी के घर भी जब तक रोटी का एक टुकड़ा रहता है, वह उसमें से आधा दान कर देगा। ऐसा दृश्य केवल भारत में ही देखा जा सकता है। हमारे यहाँ इस दान की कमी नहीं, अब हमें अन्य दोनों – धर्मदान और विद्यादान – के लिए बढ़ना चाहिए। और अगर हम हिम्मत न हारें, हृदय को दृढ़ कर लें और पूर्ण ईमानदारी के साथ काम में हाथ लगाएँ, तो पचीस साल के भीतर सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा और ऐसा कोई विषय न रह जाएगा, जिसके लिए लड़ाई की जाए, तब सम्पूर्ण भारतीय समाज फिर एक बार आर्यों के सदृश हो जाएगा।
मुझे तुमसे कुछ कहना था, कह चुका। मुझे योजनाओं पर ज्यादा बहस करना पसन्द नहीं। बल्कि मैं अपनी योजनाओं के विषय में चर्चा करने की अपेक्षा कुछ करके दिखाना चाहता हूँ। मेरी कुछ खास योजनाएँ हैं, और यदि परमात्मा की इच्छा हुई और मैं जीवित रहा, तो मैं उन्हें सफलता तक पहुँचाने की कोशिश करूँगा। मैं नहीं जानता, मुझे सफलता मिलेगी या नहीं, परन्तु किसी महान् आदर्श को लेकर, उसी के पीछे अपना तमाम जीवन पार कर देना मेरी समझ में एक बड़ी बात है। नहीं तो इस नगण्य मनुष्यजीवन का मूल्य ही क्या? जीवन की सार्थकता तो इसी में है कि वह किसी महान् आदर्श के पीछे लगाया जाए। भारत में करने लायक बड़ा काम इस समय यही है। मैं इस वर्तमान धार्मिक जागरण का स्वागत करता हूँ, और मुझसे महामूर्खता का काम होगा, यदि मैं लोहे के गर्म रहते उस पर हथौड़े की चोट लगाने के इस शुभ मुहूर्त को हाथ से जाने दूँ।