सर्वांग वेदान्त – स्वामी विवेकानंद
“सर्वांग वेदान्त” नामक यह भाषण स्वामी विवेकानंद ने स्टार थिएटर, कलकत्ता में दिया था। इसे “भारत में विवेकानंद” नामक पुस्तक से लिया गया है। पढ़ें “सर्वांग वेदान्त” हिंदी में–
बहुत दूर – जहाँ न तो लिपिबद्ध इतिहास और न परम्पराओं का मन्द प्रकाश ही प्रवेश कर पाता है, अनन्त काल से वह स्थिर उजाला हो रहा है, जो बाह्य परिस्थितिवश कभी तो कुछ धीमा पड़ जाता है और कभी अत्यन्त उज्ज्वल, किन्तु वह सदा शाश्वत और स्थिर रहकर अपना पवित्र प्रकाश केवल भारत में ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विचार-जगत् में अपनी मौन अननुभाव्य, शान्त फिर भी सर्वसक्षम शक्ति से उसी प्रकार भरता रहा है, जिस प्रकार प्रातःकाल के शिशिरकण लोगों की दृष्टि बचाकर चुपचाप गुलाब की सुन्दर कलियों को खिला देते हैं – यह प्रकाश उपनिषदों के तत्त्वों का, वेदान्त दर्शन का रहा है। कोई नहीं जानता कि इसका पहले-पहल भारतभूमि में कब उद्भव हुआ। इसका निर्णय अनुमान के बल से कभी नहीं हो सका। विशेषतः इस विषय के पश्चिमी लेखकों के अनुमान एक दूसरे के इतने विरोधी हैं कि उनकी सहायता से इन उपनिषदों के समय का निश्चय नहीं किया जा सकता। हम हिन्दू आध्यात्मिक दृष्टि से उनकी उत्पत्ति नहीं स्वीकार करते। मैं बिना किसी संकोच के कहता हूँ कि यह वेदान्त, उपनिषद्-प्रतिपाद्य दर्शन अध्यात्म राज्य का प्रथम और अन्तिम विचार है, जो मनुष्य को अनुग्रह के रूप में प्राप्त हुआ है।
इस वेदांत-रूपी महासमुद्र से ज्ञान की प्रकाश-तरंगें उठ-उठकर समयसमय पर पश्चिम और पूर्व की ओर फैलती रही हैं। पुराकाल में वे पश्चिम में प्रवाहित हुई और एथेन्स, सिकन्दरिया और अन्तियोक जाकर उन्होंने यूनानवालों के विचारों को बल प्रदान किया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्राचीन यूनानवालों पर सांख्य दर्शन की विशेष छाप पड़ी थी। और सांख्य तथा भारत के अन्यान्य सब दार्शनिक मत, उपनिषद् या वेदान्त पर ही प्रतिष्ठित हैं। भारत में भी प्राचीन काल में और आज भी कितने ही विरोधी सम्प्रदायों के रहने पर भी सभी उपनिषद् या वेदान्त रूप एकमात्र प्रमाण पर ही अधिष्ठित हैं। तुम द्वैतवादी हो, चाहे विशिष्टाद्वैतवादी, शुद्धाद्वैतवादी हो, चाहे अद्वैतवादी अथवा चाहे और जिस प्रकार के अद्वैतवादी या द्वैतवादी हो, या तुम अपने को चाहे जिस नाम से पुकारो, तुम्हें अपने शास्त्र, उपनिषदों का प्रामाण्य स्वीकार करना ही होगा। यदि भारत का कोई सम्प्रदाय उपनिषदों का प्रामाण्य न माने तो वह ‘सनातन’ मत का अनुयायी नहीं कहा जा सकता। और जैनों-बौद्धों के मत भी उपनिषदों का प्रमाण न स्वीकार करने के कारण ही भारतभूमि से हटा दिये गये थे। इसलिए चाहे हम जानें या न जानें, वेदान्त भारत के सब सम्प्रदायों में प्रविष्ट है और हम जिसे हिन्दू धर्म कहते हैं – यह अनगिनत शाखाओं वाला महान वटवृक्ष के समान हिन्दू धर्म – वेदान्त के ही प्रभाव से खड़ा है। चाहे हम जानें, या न जानें, परन्तु हम वेदान्त का ही विचार करते हैं, वेदान्त ही हमारा जीवन है, वेदान्त ही हमारी साँस है, मृत्यु तक हम वेदान्त ही के उपासक हैं और प्रत्येक हिन्दू का यही हाल है। अतः भारतभूमि में भारतीय श्रोताओं के सामने वेदान्त का प्रचार करना मानो एक असंगति है। परन्तु यदि किसी का प्रचार करना है तो वह इसी वेदान्त का, विशेषतः इस युग में इसका प्रचार अत्यन्त आवश्यक हो गया है। क्योंकि हमने तुमसे अभी-अभी कहा है कि भारत के सब सम्प्रदायों को उपनिषदों का प्रामाण्य मानकर चलना चाहिए, परन्तु इन सब सम्प्रदायों में हमें ऊपर-ऊपर अनेक विरोध देखने को मिलते हैं। बहुत बार प्राचीन बड़े बड़े ऋषि भी उपनिषदों में निहित अपूर्व समन्वय को नहीं समझ सके। बहुधा मुनियों ने भी आपस के मतभेद के कारण विवाद किया है। यह मतविरोध किसी समय इतना बढ़ गया था कि यह एक कहावत हो गयी थी कि जिसका मत दूसरे से भिन्न न हो, वह मुनि ही नहीं – नासौ मुनिर्यस्य मतं न भिन्नम्। परन्तु अब ऐसा विरोध नहीं चल सकता। अब उपनिषदों के मन्त्रों में गूढ़ रूप से जो समन्वय छिपा हुआ है, उसकी विशद व्याख्या और प्रचार की आवश्यकता सभी के लिए आन पड़ी है, फिर चाहे कोई द्वैतवादी हो, विशिष्टाद्वैतवादी हो या अद्वैतवादी, उसे संसार के सामने स्पष्ट रूप से रखना चाहिए। और यह काम सिर्फ भारत में ही नहीं, उसके बाहर भी होना चाहिए। मुझे ईश्वर की कृपा से इस प्रकार के एक महापुरुष के पैरों तले बैठकर शिक्षा ग्रहण करने का महासौभाग्य मिला था, जिनका सम्पूर्ण जीवन ही उपनिषदों का महासमन्वयस्वरूप था – जिनका जीवन उनके उपदेशों की अपेक्षा हजार गुना बढ़कर उपनिषदों का जीवन्त भाष्यस्वरूप था। उन्हें देखने पर मालूम होता था, मानो उपनिषद् के भाव वास्तव में मानवरूप धारण करके प्रकट हुए हों। उस समन्वय का कुछ अंश शायद मुझे भी मिला है। मैं नहीं जानता कि इसको प्रकट करने में मैं समर्थ हो सकूँगा या नहीं। परन्तु मेरा प्रयत्न यही है। अपने जीवन में मैं यह दिखाने की कोशिश करूँगा कि वैदान्तिक सम्प्रदाय एक दूसरे के विरोधी नहीं, वे एक दूसरे के अवश्यम्भावी परिणाम हैं, एक दूसरे के पूरक हैं, वे एक से दूसरे पर चढ़ने के सोपान हैं, जब तक कि वह अद्वैत तत्त्वमसि – लक्ष्य प्राप्त न हो जाय।
भारत में एक वह समय था जब कर्मकाण्ड का बोलबाला था। वेदों के इस अंश में अनेक ऊँचे आदर्श हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। हमारी वर्तमान नित्यपूजाओं में से कुछ यद्यपि अभी भी वैदिक कर्मकाण्ड के अनुसार ही की जाती हैं, इतना होते हुए भी भारत में वैदिक कर्मकाण्ड का प्रायः लोप हो गया है। अब हमारा जीवन वेदों के कर्मकाण्ड के अनुसार बहुत ही कम नियमित और अनुशासित होता है। अपने दैनिक जीवन में हम प्रायः पौराणिक अथवा तान्त्रिक हैं, यहाँ तक कि जहाँ कहीं भारत के ब्राह्मण वैदिक मन्त्रों को काम में लाते हैं, वहाँ अधिकांशतः उनका विचार वेदों के अनुसार नहीं, किन्तु तन्त्रों या पुराणों के अनुसार होता है। अतएव वेदों के कर्मकाण्ड के विचार से अपने को वैदिक बताना हमारी समझ में युक्तिपूर्ण नहीं जँचता, परन्तु यह असन्दिग्ध है कि हम सभी वेदान्ती हैं। जो लोग अपने को हिन्दू कहते हैं, अच्छा होता यदि वे अपने को वेदान्ती कहते। और जैसा कि हमने तुम्हें पहले ही बतलाया है कि उसी वेदान्ती नाम के भीतर सब सम्प्रदाय – द्वैतवादी हों, चाहे अद्वैतवादी आ जाते हैं।
वर्तमान समय में भारत में जितने सम्प्रदाय हैं, उनके मुख्यतः दो भाग किये जा सकते हैं – द्वैतवादी और अद्वैतवादी। इनमें से कुछ सम्प्रदाय जिन छोटे-छोटे मतभेदों पर अधिक बल देते हैं और जिनकी सहायता से वे विशुद्धाद्वैतवादी और विशिष्टाद्वैतवादी आदि नये-नये नाम लेना चाहते हैं, उनसे विशेष कुछ बनता बिगड़ता नहीं। उन्हें या तो द्वैतवादियों की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है अथवा अद्वैतवादियों की श्रेणी में। और जो सम्प्रदाय वर्तमान समय के हैं, उनमें से कुछ तो बिलकुल नये हैं और दूसरे पुराने सम्प्रदायों के नवीन संस्करण जान पड़ते हैं। पहली श्रेणी के प्रतिनिधिस्वरूप में मैं रामानुजाचार्य का जीवन और दर्शन प्रस्तुत करूँगा और दूसरी के प्रतिनिधि रूप में शंकराचार्य का जीवन और दर्शन।
“रामानुज उत्तरकालीन भारत के प्रधान द्वैतवादी दार्शनिक हैं। अन्य द्वैतवादियों ने प्रत्यक्षतः या परोक्षतः अपने तत्त्व-प्रचार में और अपने सम्प्रदायों के संगठन में, यहाँ तक कि अपने संगठन की छोटी-छोटी बातों में भी उन्हीं का अनुसरण किया है। रामानुज और उनके प्रचार-कार्य के साथ भारत के दूसरे द्वैतवादी वैष्णव सम्प्रदायों की तुलना करो तो आश्चर्य होगा, कि उनके आपस के उपदेशों, साधना-प्रणालियों और साम्प्रदायिक नियमों में बड़ा सादृश्य है। अन्यान्य वैष्णवाचार्यों में दाक्षिणात्य आचार्य मध्वमुनि और उनके बाद हमारे बंगदेश के महाप्रभु श्रीचैतन्य का नाम उल्लेख योग्य है, जिन्होंने मध्वाचार्य के दर्शन का बंगाल में प्रचार किया था। दक्षिण में कई सम्प्रदाय और हैं, जैसे विशिष्टाद्वैतवादी शैव। शैव प्रायः अद्वैतवादी होते हैं। सिंहल और दक्षिण के कुछ स्थानों को छोड़कर भारत में सर्वत्र शैव अद्वैतवादी हैं। विशिष्टाद्वैतवादी शैवों ने ‘विष्णु’ नाम की जगह सिर्फ शिव नाम बैठाया है और आत्माविषयक सिद्धान्त को छोड़ अन्यान्य सब विषयों में रामानुज के ही मत को ग्रहण किया है। रामानुज के अनुयायी आत्मा को अणु अर्थात् अत्यन्त छोटा कहते हैं, परन्तु शंकराचार्य के मतानुयायी उसे विभु अर्थात् सर्वव्यापी स्वीकार करते हैं। प्राचीन काल में अद्वैत मत के कई सम्प्रदाय थे। ऐसा लगता है कि प्राचीन समय में ऐसे अनेक सम्प्रदाय थे, जिन्हें शंकराचार्य के सम्प्रदाय ने पूर्णतया आत्मसात् कर अपने में मिला लिया था। वेदान्त के किसी-किसी भाष्य में, विशेषतः विज्ञानभिक्षु के भाष्य में शंकर पर बीच-बीच में कटाक्ष किया गया दिखायी देता है। विज्ञान-भिक्षु यद्यपि अद्वैतवादी थे फिर भी उन्होंने शंकर के मायावाद को उड़ा देने की कोशिश की थी। अतः साफ जान पड़ता है कि ऐसे अनेक सम्प्रदाय थे जिनका मायावाद पर विश्वास न था, यहाँ तक कि उन्होंने शंकर को ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ कहने में भी संकोच नहीं किया। उनकी यह धारणा थी कि मायावाद को बौद्धों से लेकर शंकर ने वेदान्त के भीतर रखा है। जो कुछ भी हो, वर्तमान समय में सभी अद्वैतवादी शंकराचार्य के अनुगामी हैं; और शंकराचार्य तथा उनके शिष्य उत्तर भारत और दक्षिण भारत, दोनों क्षेत्रों में अद्वैतवाद के विशेष प्रचारक रहे हैं। शंकराचार्य का प्रभाव हमारे बंगाल में और पंजाब तथा काश्मीर में ज्यादा नहीं फैला; परन्तु दक्षिण के सभी स्मार्त शंकराचार्य के अनुयायी हैं, और वाराणसी अद्वैतवाद का एक केन्द्र होने के कारण उत्तर भारत के अनेक स्थानों में उनका प्रभाव बहुत ज्यादा है।
परन्तु मौलिक तत्त्व के आविष्कार करने का दावा न शंकराचार्य ने किया है और न रामानुज ने। रामानुज ने तो साफ कहा है कि हमने बोधायन के भाष्य का अनुसरण करके तदनुसार ही वेदान्तसूत्रों की व्याख्या की है। भगवद्बोधायनकृतां विस्तीर्णां ब्रह्मसूत्रवृत्तिं पूर्वाचार्याः संचिक्षिपुः तन्मतानुसारेण सूत्राक्षराणि व्याख्यास्यन्ते। – ‘भगवान् बोधायन ने ब्रह्मसूत्र पर विस्तारपूर्वक भाष्य लिखा था, जिसे पूर्व आचार्यों ने संक्षिप्त कर दिया। उनके मतानुसार मैं सूत्र के शब्दों की व्याख्या कर रहा हूँ।’ अपने ‘श्रीभाष्य’ के आरम्भ में ही रामानुज ने ये बातें लिख दी हैं। उन्होंने बोधायनकृत ब्रह्मसूत्र भाष्य को लिया और उसे संक्षिप्त कर दिया और वही संक्षिप्त रूप आजकल हमें उपलब्ध है। बोधायन भाष्य देखने का अवसर मुझे कभी नहीं मिला। उसे अभी तक देख नहीं सका हूँ। परलोकगत स्वामी दयानन्द सरस्वती व्याससूत्रों के बोधायन भाष्य के सिवा अन्य सभी भाष्यों को अस्वीकार कर देना चाहते थे, और यद्यपि वे अवसर मिलने पर रामानुज के ऊपर कटाक्ष किये बिना न रहते थे, वे भी कभी बोधायन भाष्य को सर्वसाधारण के सामने नहीं रख सके। परन्तु रामानुज ने स्पष्टतः कहा है कि बोधायन के विचार, और कहीं-कहीं तो उसके अंश तक, लेकर हमने अपने वेदान्त-भाष्य की रचना की है। यह अनुमान किया जा सकता है कि शंकराचार्य ने भी प्राचीन भाष्यकारों के ग्रन्थों का अवलम्बन कर अपने भाष्य का प्रणयन किया होगा। उनके भाष्य में कई जगह प्राचीन भाष्यों के नाम आये हैं। और जब कि उनके गुरु और गुरु के गुरु स्वयं उन्हीं के जैसे एक ही अद्वैत मत के प्रवर्तक और वेदान्ती थे – और कभी-कभी किसी विषय में वे शंकर की अपेक्षा अद्वैत तत्त्व के प्रकाशन में अधिक अग्रसर एवं साहसी थे – तब यह साफ समझ में आ जाता है कि शंकर ने भी किसी नये भाव-तत्त्व का प्रचार नहीं किया। रामानुज ने जिस प्रकार बोधायन भाष्य के सहारे अपना भाष्य लिखा था, अपनी भाष्य-रचना में शंकर ने भी वैसा ही किया। परन्तु अभी तक यह निर्णय नहीं किया जा सका है कि शंकर ने किस भाष्य को आधार मानकर भाष्य लिखा।
जिन दर्शनों को तुमने पढ़ा है या जिनके नाम सुने हैं, वे सब के सब उपनिषद् के प्रमाण पर आधारित हैं। जब भी उन्होंने श्रुति की दुहाई दी है, तब उपनिषदों को ही लक्ष्य किया है। जब वे श्रुति को उद्धृत करते हैं, उनका मतलब उपनिषदों से रहता है। भारत में उपनिषदों के बाद अन्य कई दर्शनों का जन्म हुआ, परन्तु व्यास द्वारा लिखे गये वेदान्त दर्शन की तरह किसी दूसरे दर्शन की प्रतिष्ठा भारत में नहीं हो सकी। पर वेदान्त दर्शन भी प्राचीन सांख्य दर्शन का ही विकसित रूप है। और सारे भारत के, यहाँ तक कि सारे संसार के सभी दर्शन और सभी मत कपिल के विशेष रूप से ऋणी हैं। मनस्तात्त्विक और दार्शनिक विषयों का कपिल जैसा महान् व्याख्याता भारत के इतिहास में शायद ही दूसरा हुआ हो। संसार में सर्वत्र ही कपिल का प्रभाव दीख पड़ता है। जहाँ कोई मान्यताप्राप्त दार्शनिक मत विद्यमान है, वहीं उनका प्रभाव खोजा जा सकता है। वह हजार वर्ष पहले का चाहे भले ही हो, किन्तु वहाँ वे ही कपिल – वे ही तेजस्वी, गौरवयुक्त्त, अपूर्व प्रतिभाशाली कपिल दृष्टिगोचर होते हैं। उनके मनस्तत्त्व और दर्शन के अधिकांश को थोड़ासा फेर-फार करके भारत के भिन्न भिन्न सभी सम्प्रदायों ने ग्रहण किया है। हमारी जन्मभूमि बंगाल के नैयायिक भारत के दार्शनिक क्षेत्र में विशेष प्रभाव फैलाने में समर्थ नहीं हो सके। वे सामान्य, विशेष, जाति, द्रव्य, गुण आदि बोझिल पारिभाषिक क्षुद्र शब्दों में उलझ गये, जिन्हें कोई अच्छी तरह समझना चाहे तो सारी उम्र बीत जाय। वे दर्शनालोचन का भार वेदान्तियों पर छोड़कर स्वयं ‘न्याय’ लेकर बैठे। परन्तु आधुनिक काल में भारत के सभी दार्शनिक सम्प्रदायों ने बंग देश के नैयायिकों की तर्क-सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दावली ग्रहण की है। जगदीश, गदाधर और शिरोमणि के नाम मलाबार देश में कहीं-कहीं उसी प्रकार प्रसिद्ध हैं, जिस प्रकार नदिया में। किन्तु व्यास का दर्शन, वेदान्तसूत्र भारत में सब जगह दृढ़प्रतिष्ठ है, और दर्शन में वेदान्त-प्रतिपाद्य ब्रह्म को (युक्तिपूर्ण ढंग से) मनुष्य के लिए व्यक्त करने का उसका जो उद्देश रहा है, उसे साधित करके उसने स्थायित्व लाभ किया। इस वेदान्त दर्शन में युक्ति को पूर्णतया श्रुति के अधीन रखा गया है, शंकराचार्य ने भी एक जगह घोषित किया है कि व्यास ने युक्ति-विचार का यत्न नहीं किया। उनके सूत्रप्रणयन का एकमात्र उद्देश यह था कि वेदांत मन्त्र रूपी पुष्पों को एक ही सूत्र में गूँथकर एक माला तैयार करें। उनके सूत्र वहीं तक मान्य हैं, जहाँ तक वे उपनिषदों के अधीन हैं, इसके आगे नहीं।
इस समय भारत के सभी सम्प्रदाय व्याससूत्रों को प्रामाणिक ग्रन्थों में श्रेष्ठ स्वीकार करते हैं। और जब यहाँ कोई नवीन सम्प्रदाय प्रारम्भ होता है तो वह व्याससूत्रों पर अपने ज्ञानानुकूल नया भाष्य लिखकर अपनी जड़ जमाता है। कभी कभी इन भाष्यकारों के मत में बहुत फर्क आता दीख पड़ता है। कभीकभी तो मूल सूत्रों की अर्थविकृति देखकर जी ऊब आता है। अस्तु। व्याससूत्रों को इस समय भारत में सब से अच्छे प्रमाण ग्रन्थ का आसन मिल गया है और व्याससूत्रों पर एक नया भाष्य बिना लिखे भारत में कोई सम्प्रदाय संस्थापन की आशा नहीं कर सकता।
व्याससूत्रों के बाद ही विश्वप्रसिद्ध गीता का प्रामाण्य है। शंकराचार्य का गौरव गीता के प्रचार से ही बढ़ा। इस महापुरुष ने अपने महान् जीवन में जो बड़े-बड़े कर्म किये, गीता का प्रचार और उसकी एक सुन्दर भाष्य-रचना भी उन्हीं में है। और भारत के सनातनमार्गी सम्प्रदाय-संस्थापकों में से हर एक ने उनका अनुगमन किया और तदनुसार गीता पर एक भाष्य की रचना की।
उपनिषद् अनेक हैं। कोई-कोई यह कहते हैं कि उनकी संख्या एक सौ आठ है और कोई-कोई और भी अधिक कहते हैं। उनमें से कुछ स्पष्ट ही आधुनिक हैं, यथा अल्लोपनिषद्। उसमें अल्लाह की स्तुति है और मुहम्मद को रसूलल्ला कहा गया है। मैंने सुना है कि यह अकबर के राज्यकाल में हिन्दू और मुसलमानों में मेल कराने के लिए रचा गया था। कभी-कभी संहिता विभाग में अल्ला, इल्ला जैसे किसी शब्द को बरबस ग्रहण कर उसके आधार पर उपनिषद् रच लिया गया है। इस प्रकार इस अल्लोपनिषद् में मुहम्मद रसूलल्ला हुए। इसका तात्पर्य चाहे जो कुछ हो, किन्तु इस प्रकार के और भी अनेक साम्प्रदायिक उपनिषद् हैं। यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि वे बिलकुल आधुनिक हैं। और उपनिषदों की ऐसी रचना बहुत कठिन भी नहीं थी, क्योंकि वेदों के संहिता भाग की भाषा इतनी पुरानी है कि उसमें व्याकरण के नियम नहीं माने गये। कई साल हुए, वैदिक व्याकरण पढ़ने की मेरी इच्छा हुई और मैंने बड़े आग्रह से पाणिनि और महाभाष्य पढ़ना प्रारम्भ किया। परन्तु मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब मैंने देखा कि वैदिक व्याकरण के प्रधान भाग केवल साधारण नियमों के अपवाद ही हैं। व्याकरण में एक साधारण विधान माना गया, परन्तु इसके बाद ही यह बतलाया गया कि वेदों में यह नियम अपवादस्वरूप होगा। अतः हम देखते हैं कि बचाव के लिए यास्क की निरुक्त्ति का उपयोग कर कोई भी मनुष्य चाहे जो कुछ लिखकर बड़ी आसानी से उसे वेद कहकर प्रचार कर सकता है। साथ ही उसके अधिकांश भाग में बहुसंख्यक पर्याय शब्द रखे गये हैं। जहाँ इतने सुभीते हैं, वहाँ तुम जितना चाहो उपनिषद् लिख सकते हो। यदि संस्कृत का कुछ ज्ञान हो तो प्राचीन वैदिक शब्दों की तरह कुछ शब्द गढ़ लेने ही से ही काम हो जायगा, व्याकरण का तो कुछ भय रहा ही नहीं। फिर तो रसूलल्ला हो, चाहे जो सुल्ला हो, उसे अपने ग्रन्थ में तुम अनायास रख सकते हो। इस प्रकार अनेक उपनिषदों की रचना हो गयी है और सुनते हैं कि अब भी होती है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि भारत के कुछ भागों में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के लोग अब भी ऐसे उपनिषदों का प्रणयन करते हैं, परन्तु इन उपनिषदों में कुछ ऐसे हैं, जो स्पष्टतः अपनी प्रामाणिकता की गवाही देते हैं, और इन्हीं को शंकर, बाद में रामानुज और दूसरे बड़े-बड़े भाष्यकारों ने स्वीकार किया है तथा इनका भाष्य किया है।
उपनिषदों के और भी दो-एक तत्त्वों की ओर मैं तुम्हारा ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, क्योंकि ये उपनिषद् ज्ञानसमुद्र हैं और मुझ जैसा अयोग्य मनुष्य यदि उनके सम्पूर्ण तत्त्वों की व्याख्या करना चाहे तो वर्षों बीत जायँगे, एक व्याख्यान में कुछ न होगा। अतएव उपनिषदों के अध्ययन के प्रसंग में मेरे मन में जो दो-एक बातें आयी हैं, उनकी ओर तुम्हारा ध्यान दिलाना चाहता हूँ। पहले तो संसार में इनकी तरह अपूर्व काव्य और नहीं हैं। वेदों के संहिता भाग को पढ़ते समय उसमें भी जगह-जगह अपूर्व काव्य-सौन्दर्य का परिचय मिलता है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद संहिता के नासदीय सूक्त्तों को पढ़ो। उसमें प्रलय के गम्भीर अन्धकार के वर्णन में है – तम आसीत् तमसा गूढमग्रे इत्यादि – ‘जब अन्धकार से अन्धकार ढँका हुआ था।’ इसके पाठ ही से यह जान पड़ता है कि कवित्व का अपूर्व गाम्भीर्य इसमें भरा है। तुमने क्या इस ओर दृष्टि डाली है कि भारत के बाहर के देशों में तथा भारत में गम्भीर भावों के चित्र खींचने के अनेक प्रयत्न किये गये हैं? भारत के बाहरी देशों में यह प्रयत्न सदा जड़ प्रकृति के अनन्त भावों के वर्णन में ही हुआ है – केवल अनन्त बहिःप्रकृति, अनन्त जड़, अनन्त देश का वर्णन हुआ है। जब भी मिल्टन या दाँते या किसी दूसरे प्राचीन अथवा आधुनिक यूरोपीय बड़े कवि ने अनन्त के चित्र खींचने की कोशिश की है, तभी उन्होंने कवित्व-पंखों के सहारे अपने बाहर दूर आकाश में विचरते हुए, बाह्य अनन्त प्रकृति का कुछ-कुछ आभास देने की चेष्टा की है। यह चेष्टा यहाँ भी हुई है। बाह्य प्रकृति का अनन्त विस्तार जिस प्रकार वेद संहिता में चित्रित होकर पाठकों के सामने रखा गया है, वैसा अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। संहिता के इस ‘तम आसीत् तमसा गूढम्’ वाक्य को याद रखकर तीन भिन्न-भिन्न कवियों के अन्धकारवर्णन के साथ इसकी तुलना करके देखो। हमारे कालिदास ने कहा है – ‘सूचीभेद्य अन्धकार’, उधर मिल्टन कहते हैं . . . ‘उजाला नहीं है, दृश्यमान अन्धकार है।’ परन्तु ऋग्वेद संहिता में है – ‘अन्धकार से अन्धकार ढँका हुआ है, अन्धकार के भीतर अन्धकार छिपा हुआ है।’ हम उष्ण कटिबन्ध के रहनेवाले सहज ही में समझ सकते हैं कि जब सहसा नवीन वर्षागम होता है, तब सम्पूर्ण दिङ्मण्डल अन्धकाराच्छन्न हो जाता है और उमड़ती हुई काली घटाएँ दूसरे बादलों को घेर लेती हैं। इसी प्रकार कविता चलती है, परन्तु संहिता के इस अंश में भी बाहरी प्रकृति का वर्णन किया गया है। बाहरी प्रकृति का विश्लेषण करके मानव-जीवन की महान् समस्याएँ अन्यत्र जैसे हल की गयी हैं, वैसे ही यहाँ भी। जिस प्रकार प्राचीन यूनान अथवा आधुनिक यूरोप जीवन-समस्या का समाधान पाने के लिए तथा जगत्कारण-सम्बन्धी पारमार्थिक तत्त्वों की खोज के लिए बाह्य प्रकृति के अन्वेषण में संलग्न हुए, उसी प्रकार हमारे पूर्वजों ने भी किया, और पाश्चात्यों के समान वे भी असफल हुए। परन्तु पश्चिमी जातियों ने इस विषय में और कोई प्रयत्न नहीं किया, जहाँ वे थीं, वहीं पड़ी रहीं। बहिर्जगत् में जीवन और मृत्यु की महान् समस्याओं के समाधान में व्यर्थ प्रयास होने पर वे आगे नहीं बढ़ी। हमारे पूर्वजों ने भी इसे असम्भव समझा था, परन्तु उन्होंने इस समाधान की प्राप्ति में इन्द्रियों की पूरी अक्षमता संसार के सामने निर्भय होकर घोषित की। उपनिषद् से अच्छा उत्तर कहीं नहीं मिलेगा।
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।1
‘मन के साथ वाणी जिसे न पाकर जहाँ से लौट आती है।’
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः।2
‘वहाँ न आँखों की पहुँच हैं, न वाणी की।’
ऐसे अनेक वाक्य हैं, जिन्होंने इन्द्रियों को इस महासमस्या के समाधान के लिए सर्वथा अक्षम बताया है, किन्तु वे पूर्वज इतना ही कहकर रुक नहीं गये। बाह्य प्रकृति से लौटकर वे मनुष्य की अन्तःप्रकृति की ओर प्रवृत्त हुए। इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए वे स्वयं अपनी आत्मा के निकट गये, वे अन्तर्मुख हुए। वे समझ गये थे कि प्राणहीन जड़ से कभी सत्य की प्राप्ति न होगी। उन्होंने देखा कि बहिःप्रकृति से प्रश्न करने पर कोई उत्तर नहीं मिलता, न उससे कोई आशा की जा सकती है, अतएव बाहर सत्य की खोज की चेष्टा वृथा जानकर बहिःप्रकृति का त्याग करके वे उसी ज्योतिर्मय जीवात्मा की ओर मुड़े और वहाँ उन्हें उत्तर भी मिला : तमेवैकं जानथ आत्मानं अन्या वाचो विमुंचथ।3 – ‘एकमात्र उसी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करो और दूसरे वृथा वाक्य छोड़ो।’ उन्होंने आत्मा में ही सारी समस्याओं का समाधान पाया। वहीं उन्होंने विश्वेश्वर परमात्मा को जाना और जीवात्मा के साथ उसका सम्बन्ध, उसके प्रति हमारा कर्तव्य और उसके आधार पर हमारा पारस्पारिक सम्बन्ध – आदि ज्ञान प्राप्त किया। और इस आत्मतत्त्व के वर्णन के सदृश उदात्त संसार में और दूसरी कविता नहीं है। जड़ के वर्णन की भाषा में इस आत्मा को चित्रित करने की चेष्टा न रही, यहाँ तक कि आत्मा के वर्णन में उन्होंने गुणों का निर्देश करना बिलकुल छोड़ दिया। तब अनन्त की धारणा के लिए इन्द्रियों की सहायता की आवश्यकता नहीं रही। बाह्य इन्द्रियग्राह्य, अचेतन, मृत, जड़स्वभाव, अवकाशरूपी अनन्त का वर्णन लुप्त हो गया। वरन् इसके स्थान पर आत्मतत्त्व का ऐसा वर्णन मिलता है, जो अत्यन्त सूक्ष्म है, जैसा कि इस कथन में निर्दिष्ट है :
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥4
संसार में और कौनसी कविता इसकी अपेक्षा अधिक उदात्त होगी? ‘वहाँ न सूर्य का प्रकाश है, न चन्द्रतारकाओं का, यह बिजली उसे प्रकाशित नहीं कर सकती, तो मृत्युलोक की इस अग्नि की बात ही क्या? उसी के प्रकाश से सब कुछ प्रकाशित होता है।’
ऐसी कविता तुमको कहीं नहीं मिल सकती और कहीं न पाओगे। उस अपूर्व कठोपनिषद् को लो। इस काव्य का रचना-चमत्कार कैसा सर्वांगसुन्दर है! किस मनोहर रीति से यह आरम्भ किया गया है! उस छोटेसे बालक नचिकेता के हृदय में श्रद्धा का आविर्भाव, उसकी यमदर्शन की अभिलाषा और सब से बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि यम स्वयं उसे जीवन और मृत्यु का महान् पाठ पढ़ा रहे हैं। और वह बालक उनसे क्या जानना चाहता है? – मृत्यु-रहस्य।
उपनिषदों के सम्बन्ध की जिस दूसरी बात पर तुम्हें ध्यान देना चाहिए, वह है उनका अपौरुषेयत्व। यद्यपि उनमें हमें अनेक आचार्यों और वक्त्ताओं के नाम मिलते हैं, पर उनमें से एक भी उपनिषदों के प्रमाणस्वरूप नहीं गिने जाते। उपनिषदों का एक भी मन्त्र उनमें से किसी के जीवन के ऊपर निर्भर नहीं है। ये सब आचार्य और वक्त्ता मानो छायामूर्ति की भाँति रंगमंच के पीछे अवस्थित हैं। उन्हें मानो कोई स्पष्टतया नहीं देख पाता, उनकी सत्ता मानो साफ समझ में नहीं आती। यथार्थ शक्ति उपनिषदों के उन अपूर्व महिमामय, ज्योतिर्मय, तेजोमय मन्त्रों के भीतर निहित है, जो बिलकुल व्यक्तिनिरपेक्ष हैं। बीसियों याज्ञवल्कय आयें, रहें और चले जायँ इससे कोई हानि नहीं, मन्त्र तो बने ही रहेंगे। किन्तु फिर भी वे किसी व्यक्तिविशेष के विरोधी नहीं हैं। वे इतने विशाल और उदार हैं कि संसार में अब तक जितने महापुरुष या आचार्य पैदा हुए और भविष्य में जितने आयेंगे, उन सब को समाहित कर सकते हैं। उपनिषद् अवतारों या महापुरुषों की उपासना के विरोधी नहीं हैं, बल्कि उसका समर्थन करते हैं। किन्तु साथ ही वे सम्पूर्ण रूप से व्यक्तिनिरपेक्ष हैं, उसी प्रकार समग्र उपनिषद् व्यक्तिनिरपेक्षता-रूप अपूर्व तत्त्व के ऊपर प्रतिष्ठित है। ज्ञानी, चिन्तनशील, दार्शनिक तथा युक्तिवादी उसमें इतनी व्यक्तिनिरपेक्षता पाते हैं, जितना कोई आधुनिक विज्ञानवेत्ता चाह सकता है।
और ये ही हमारे शास्त्र हैं। तुम्हें याद रखना चाहिए कि ईसाइयों के लिए जैसे बाइबिल है, मुसलमानों के लिए कुरान, बौद्धों के लिए त्रिपिटक, पारसियों के लिए जेन्द-अवस्ता, वैसे ही हमारे लिए उपनिषद् हैं। ये ही हमारे शास्त्र हैं, दूसरे नहीं। पुराण, तन्त्र और अन्यान्य ग्रन्थ, यहाँ तक कि व्याससूत्र भी, गौण हैं; हमारे मुख्य प्रमाण हैं वेद। मनुस्मृति आदि स्मृतियों और पुराणों का जितना अंश उपनिषदों से मेल खाता है, उतना ही ग्रहणयोग्य है; यदि वे असहमति प्रकट करें तो उन्हें निर्दयतापूर्वक छोड़ देना चाहिए। हमें यह सदा स्मरण रखना होगा; परन्तु भारत के दुर्भाग्य से वर्तमान समय में हम यह बिलकुल भूल गये हैं। इस समय छोटे-छोटे ग्राम्य आचारों को मानो उपनिषदों के उपदेशों के स्थान पर प्रामाण्य प्राप्त हो गया है। बंगाल के सुदूर देहातों में अब जो आचार प्रचलित हैं, वे मानो वेद-वाक्य ही नहीं, उनसे भी कहीं बढ़कर हैं! और ‘सनातन-मतावलम्बी’ शब्द का प्रभाव भी कितना विचित्र है! एक देहाती की निगाह में वही सच्चा हिन्दू है, जो कर्मकाण्ड की हर एक छोटी-छोटी बात का पालन करता है और जो नहीं करता, उसे अहिन्दू कहकर दुत्कार दिया जाता है। दुर्भाग्य से हमारी मातृभूमि में ऐसे अनेक लोग हैं, जो किसी तन्त्रविशेष का अवलम्बन कर सर्वसाधारण जनता को उसी तन्त्र-मत का अनुसरण करने का उपदेश देते हैं। जो वैसा नहीं करते, वे उनके मत में सच्चे हिन्दू नहीं हैं। अतः हमारे लिए यह स्मरण रखना अत्यन्त आवश्यक है कि उपनिषद् ही मुख्य प्रमाण हैं। गृह्य और श्रौत सूत्र भी वेदों के प्रमाणाधीन हैं। यही उपनिषद् हमारे पूर्वपुरुष ऋषियों के वाक्य हैं और यदि तुम हिन्दू होना चाहो तो तुम्हें यह विश्वास करना ही होगा। तुम ईश्वर के बारे में जैसा चाहो विश्वास कर सकते हो, परन्तु वेदों का प्रामाण्य यदि नहीं मानते तो तुम घोर नास्तिक हो। ईसाई, बौद्ध या दूसरे शास्त्रों तथा हमारे शास्त्रों में यही अन्तर है। उन्हें शास्त्र न कहकर पुराण कहना चाहिए, क्योंकि उनमें जलप्लावन का इतिहास, राजाओं और राजवंशधरों का इतिहास, महापुरुषों के जीवन-चरित आदि विषय लीपीबद्ध हैं। ये सब पुराणों के लक्षण हैं, अतः इनका जितना अंश वेदों से मेल खाता हो उतना ही ग्रहणीय है, परन्तु जो अंश नहीं मेल खाता, उसके मानने की आवश्यकता नहीं। बाइबिल और दूसरी जातियों के शास्त्र भी जहाँ तक वेदों से सहमत हैं, वहीं तक अच्छे हैं, लेकिन जहाँ ऐसा नहीं है, वे हमारे लिए अस्वीकार्य हैं। कुरान के सम्बन्ध में भी यही बात है। इन ग्रन्थों में अनेक नीति-उपदेश हैं, अतः वेदों के साथ उनका जहाँ तक ऐक्य हो, वहीं तक, पुराणों के समान, उनका प्रामाण्य है, इससे अधिक नहीं। वेदों के सम्बन्ध में मेरा यह विश्वास है कि वेद कभी लिखे नहीं गये, वेदों की उत्पत्ति नहीं हुई। एक ईसाई मिशनरी ने मुझसे किसी समय कहा था, हमारी बाईबल ऐतिहासिक नींव पर स्थापित है और इसीलिए सत्य है, इस पर मैंने जबाब दिया था, “हमारे शास्त्र इसीलिए सत्य हैं कि उनकी कोई ऐतिहासिक भित्ति नहीं है; तुम्हारे शास्त्र जब कि ऐतिहासिक हैं, तब अवश्य ही वे कुछ दिन पहले किसी मनुष्य द्वारा रचे गये थे; तुम्हारे शास्त्र मनुष्यप्रणीत हैं, हमारे नहीं। हमारे शास्त्रों की अनैतिहासिकता ही उनकी सत्यता का प्रमाण है।” वेदों के साथ आजकल के दूसरे शास्त्रों का यही सम्बन्ध है।
अब हम उपनिषदों की शिक्षा की पर्यालोचना करेंगे। उनमें अनेक भावों के श्लोक हैं। कोई कोई सम्पूर्ण द्वैतभावात्मक हैं और अन्य अद्वैतभावात्मक हैं। किन्तु उनमें कई बातें हैं, जिन पर भारत के सभी सम्प्रदाय एकमत हैं। पहले तो सभी सम्प्रदाय संसारवाद या पुनर्जन्मवाद स्वीकार करते हैं। दूसरे, सब सम्प्रदायों का मनोविज्ञान भी एक ही प्रकार का है; पहले यह स्थूल शरीर, इसके पीछे सूक्ष्म शरीर या मन है और इसके भी परे जीवात्मा है। पश्चिमी और भारतीय मनोविज्ञान में यह विशेष भेद है कि पश्चिमी मनोविज्ञान में मन और आत्मा में कोई अन्तर नहीं माना गया है, परन्तु हमारे यहाँ ऐसा नहीं। भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार मन अथवा अन्तःकरण मानो जीवात्मा के हाथों का यन्त्र-मात्र है। इसी की सहायता से वह शरीर अथवा बाहरी संसार में काम करता है। इस विषय में सभी का मत एक हैं। और सभी सम्प्रदाय एक स्वर से यह स्वीकार करते हैं कि जीवात्मा अनादि और अनन्त है। जब तक उसे सम्पूर्ण मुक्ति नहीं मिलती, तब तक उसे बार-बार जन्म लेना होगा। इस विषय में सब सहमत हैं। एक और मुख्य विषय में सब की एक राय है, और यही भारतीय और पश्चिमी चिन्तन-प्रणाली में विशेष मौलिक तथा अत्यन्त जीवन्त एवं महत्त्वपूर्ण अन्तर है, यहाँवाले जीवात्मा में सब शक्तियों की अवस्थिति स्वीकार करते हैं। यहाँ शक्ति और प्रेरणा के बाह्य आवाहन के स्थान पर उनका आन्तरिक स्फुरण स्वीकार किया गया है। हमारे शास्त्रों के अनुसार सब शक्तियाँ, सब प्रकार की महत्ता और पवित्रता आत्मा में ही विद्यमान है। योगी तुमसे कहेंगे कि अणिमा, लघिमा आदि सिद्धियाँ जिन्हें वे प्राप्त करना चाहते हैं, वास्तव में प्राप्त करने की नहीं, वे पहले से ही आत्मा में मौजूद हैं, सिर्फ उन्हें व्यक्त करना होगा। पतंजलि के मत में तुम्हारे पैरोंतले चलनेवाले छोटे-से-छोटे कीड़ों तक में योगी की अष्ट सिद्धियाँ वर्तमान हैं; केवल अपने देहरूपी आधार की अनुपयुक्त्तता के कारण ही वे प्रकाशित नहीं हो पातीं। जब भी उन्हें उत्कृष्टतर शरीर प्राप्त होगा, वे शक्तियाँ अभिव्यक्त हो जायँगी परन्तु होती हैं वे पहले से ही विद्यमान। उन्होंने अपने सूत्रों में एक जगह कहा है : निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत्।5– ‘शुभाशुभ कर्म प्रकृति के परिणाम (परिवर्तन) के प्रत्यक्ष कारण नहीं हैं, वरन् वे प्रकृति के विकास की बाधाओं को दूर करनेवाले निमित्त कारण हैं।’ जैसे किसान को यदि अपने खेत में पानी लाना है तो वह सिर्फ खेत की मेंड़ काटकर पास के भरे तालाब से जल का योग कर देता है और पानी अपने स्वाभाविक प्रवाह से आकर खेत को भर देता है। यहाँ पातंजलि ने किसी बड़े तालाब से किसान द्वारा अपने खेत में जल लाने का प्रसिद्ध उदाहरण दिया है। तालाब लबालब भरा है और एक क्षण में उसका पानी किसान के पूरे खेत को भर सकता है, परन्तु तालाब तथा खेत के बीच में मिट्टी की एक मेंड़ है। ज्योंही रुकावट पैदा करनेवाली यह मेंड़ तोड़ दी जाती हैं, त्योंही तालाब का पानी अपनी ताकत और वेग से खेत में पहुँच जाता है। ठीक उसी प्रकार जीवात्मा में सारी शक्ति, पूर्णता और पवित्रता पहले से ही भरी है, केवल माया का परदा पड़ा हुआ है, जिससे वे प्रकट नहीं होने पातीं। एक बार आवरण को हटा देने से आत्मा अपनी स्वाभाविक पवित्रता प्राप्त करती है – उसकी सारी शक्ति व्यक्त हो जाती है। तुम्हें याद रखना चाहिए कि प्राच्य और पाश्चात्य चिन्तन-प्रणाली में यह बड़ा भेद है। पश्चिमवाले यह भयानक मत सिखाते हैं कि हम जन्म से ही महापापी हैं और जो लोग यह भयावह मत नहीं मानते, उन्हें वे जन्मजात दुष्ट कहते हैं। वे यह कभी नहीं सोचते कि अगर हम स्वभाव से ही बुरे हों तो हमारे भले होने की आशा नहीं, क्योंकि मनुष्य की प्रकृति कभी बदल नहीं सकती। ‘प्रकृति का परिवर्तन’ – यह वाक्य स्वविरोधी है। जिसका परिवर्तन होता है, उसे प्रकृति नहीं कहना चाहिए। यह विषय हमें स्मरण में रखना चाहिए। इस पर भारत के द्वैतवादी, अद्वैतवादी और सभी सम्प्रदाय एकमत हैं।
भारत के सब सम्प्रदाय एक अन्य विषय पर भी एकमत हैं, वह है ईश्वर का अस्तित्व। इसमें सन्देह नहीं कि ईश्वर के बारे में सभी सम्प्रदायों की धारणा भिन्न-भिन्न है। द्वैतवादी सगुण, केवल सगुण ईश्वर पर ही विश्वास करते हैं। मैं यह सगुण शब्द तुम्हें कुछ और भी अच्छी तरह समझाना चाहता हूँ। इस सगुण के अर्थ से देहधारी, सिंहासन पर बैठे हुए, संसार का शासन करनेवाले किसी पुरुष-विशेष से मतलब नहीं। सगुण अर्थ से गुणयुक्त्त समझना चाहिए। इस सगुण ईश्वर का वर्णन शास्त्रों में अनेक स्थलों में देखने को मिलता है; और सभी सम्प्रदाय इस संसार का शासक, स्रष्टा, पालक और संहर्ता सगुण ईश्वर मानते हैं। अद्वैतवादी इस सगुण ईश्वर के सम्बन्ध में और भी कुछ ज्यादा मानते हैं। वे इस सगुण ईश्वर की एक उच्चतर अवस्था में विश्वासी हैं, जिसे सगुण-निर्गुण नाम दिया जा सकता है। जिसके कोई गुण नहीं है, उसका किसी विशेषण द्वारा वर्णन करना असम्भव है। और अद्वैतवादी उसे ‘सत्-चित्-आनन्द’ के सिवा कोई और विशेषण नहीं देना चाहते। शंकर ने ईश्वर को सच्चिदानन्द विशेषण से पुकारा है, परन्तु उपनिषदों में ऋषियों ने इससे भी आगे बढ़कर कहा है, ‘नेति नेति’ अर्थात् ‘यह नहीं, यह नहीं’। इस विषय में सभी सम्प्रदाय एकमत हैं। अब मैं द्वैतवादियों के मत के पक्ष में कुछ कहूँगा। जैसा कि मैंने कहा है, रामानुज को मैं भारत का प्रसिद्ध द्वैतवादी तथा वर्तमान समय के द्वैतवादी सम्प्रदायों का सब से बड़ा प्रतिनिधि मानता हूँ। खेद की बात है कि हमारे बंगाल के लोग भारत के उन बड़े-बड़े धर्माचार्यों के विषय में जिनका जन्म दूसरे प्रान्तों में हुआ था, बहुत ही थोड़ा ज्ञान रखते हैं। मुसलमानों के राज्यकाल में एक चैतन्य को छोड़कर बड़े-बड़े और सभी धार्मिक नेता दक्षिण भारत में पैदा हुए थे, और इस समय दाक्षिणात्यों का ही मस्तिष्क वास्तव में भारत भर का शासन कर रहा है। यहाँ तक कि चैतन्य भी इन्हीं सम्प्रदायों में से एक के, मध्वाचार्य के सम्प्रदाय के, अनुयायी थे। अस्तु, रामानुज के मतानुसार नित्य पदार्थ तीन हैं – ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति। सभी जीवात्माएँ नित्य हैं, परमात्मा के साथ उनका भेद सदैव बना रहेगा, और उनकी स्वतन्त्र सत्ता का कभी लोप नहीं होगा। रामानुज कहते हैं, तुम्हारी आत्मा हमारी आत्मा से अनन्त काल के लिए पृथक् रहेगी और यह प्रकृति भी चिर काल तक पृथक् रूप से विद्यमान रहेगी क्योंकि उसका अस्तित्व वैसे ही सत्य है, जैसे कि जीवात्मा और ईश्वर का अस्तित्व। परमात्मा सर्वत्र अन्तर्निहित और आत्मा का सार तत्त्व है। ईश्वर अन्तर्यामी है; और इसी अर्थ को लेकर रामानुज कहीं कहीं परमात्मा को जीवात्मा से अभिन्न – जीवात्मा का सारभूत पदार्थ बताते हैं, और ये जीवात्माएँ प्रलय के समय, जब कि उनके मतानुसार सारी प्रकृति संकुचित अवस्था को प्राप्त होती है, संकुचित हो जाती हैं और कुछ काल तक उसी संकुचित तथा सूक्ष्म अवस्था में रहती हैं। और दूसरे कल्प के आरम्भ में वे अपने पिछले कर्मों के अनुसार फिर विकास पाती हैं और अपना कर्मफल भोगती हैं। रामानुज का मत है कि जिस कर्म से आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता और पूर्णता का संकोच हो, वही अशुभ है, और जिससे उसका विकास हो, वह शुभ कर्म। जो कुछ आत्मा के विकास में सहायता पहुँचाये, वह अच्छा है और जो कुछ उसे संकुचित करे, वह बुरा। और इसी तरह आत्मा की प्रगति हो रही है, कभी तो वह संकुचित हो रही है और कभी विकसित। अन्त में ईश्वर के अनुग्रह से उसे मुक्ति मिलती है। रामानुज कहते हैं, जो शुद्ध-स्वभाव हैं और अनुग्रह के लिए प्रयत्नशील हैं, वे ही उसे पाते हैं।
श्रुति में एक प्रसिद्ध वाक्य है, आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।6 – ‘जब आहार शुद्ध होता है, तब सत्त्व भी शुद्ध हो जाता है, और सत्त्व शुद्ध होने पर स्मृति अर्थात् ईश्वर-स्मरण (अद्वैतवादियों के लिए स्वकीय पूर्णता की स्मृति) ध्रुव, अचल और स्थायी हो जाता है।’ इस वाक्य को लेकर भाष्यकारों में घनघोर विवाद हुआ है। पहली बात तो यह है कि इस ‘सत्त्व’ शब्द का क्या अर्थ है? हम लोग जानते हैं, सांख्य के अनुसार – और इस विषय को हमारे सभी दर्शन-सम्प्रदायों ने स्वीकार किया है कि – इस देह का निर्माण तीन प्रकार के उपादानों से हुआ है – गुणों से नहीं। साधारण मनुष्यों की यह धारणा है कि सत्त्व, रज और तम तीनों गुण हैं, परन्तु वास्तव में वे गुण नहीं, वे संसार के उपादान-कारण-स्वरूप हैं। और आहार शुद्ध होने पर यह सत्त्व पदार्थ निर्मल हो जाता है। शुद्ध सत्त्व को प्राप्त करना ही वेदान्त का एकमात्र उपदेश है। मैंने तुमसे पहले भी कहा है कि जीवात्मा स्वभावतः पूर्ण और शुद्धस्वरूप है और वेदान्त के मत में वह रज और तम दो पदार्तों से ढँका हुआ है। सत्त्व पदार्थ अत्यन्त प्रकाशस्वभाव है और उसके भीतर से आत्मा की ज्योति जगमगाती हुई स्वच्छन्दतापूर्वक उसी प्रकार निकलती है, जिस प्रकार शीशे के भीतर से आलोक। अतएव यदि रज और तम पदार्थ दूर हो जायँ, केवल सत्त्व रह जाय, तो आत्मा की शक्ति और पवित्रता प्रकाशित हो जायगी, और वह अपने को पहले से अधिक व्यक्त कर सकेगी।
अतः यह सत्त्वप्राप्ति अत्यन्त आवश्यक है और श्रुति कहती है, ‘आहार शुद्ध होने पर सत्त्व शुद्ध होता है।’ रामानुज ने ‘आहार’ शब्द को भोज्य पदार्थ के अर्थ में ग्रहण किया है और उन्होंने इसे अपने दर्शन के अंगों में से एक मुख्य अंग माना है। इतना ही नहीं, इसका प्रभाव सम्पूर्ण भारत पर और भिन्नभिन्न सम्प्रदायों पर पड़ा है। अतएव हमारे लिए इसका अर्थ समझ लेना अत्यावश्यक है, क्योंकि रामानुज के मत से यह आहारशुद्धि हमारे जीवन का एक मुख्य अवलम्ब है। आहार किन कारणों से दूषित होता है? रामानुज का कथन है कि तीन प्रकार के दोषों से खाद्य पदार्थ दूषित हो जाता है। प्रथम है जाति दोष अर्थात् भोज्य पदार्तों की जाति में प्रकृतिगत दोष जैसे कि लहसुन, प्याज और इसी प्रकार के अन्यान्य पदार्तों की गन्ध। दूसरा है आश्रय दोष अर्थात् जिस पदार्थ को कोई दूसरा छू लेता है अर्थात् जो पदार्थ किसी दूसरे के हाथ से मिलता है, वह छूनेवाले के दोषों से दूषित हो जाता है, दुष्ट मनुष्य के हाथ का भोजन तुम्हें भी दुष्ट कर देगा। मैंने स्वयं भारत के बड़े-बड़े अनेक महात्माओं को उनके जीवन-काल में दृढ़तापूर्वक इस नियम का पालन करते हुए देखा है। और हाँ, भोजन देनेवाले के – यहाँ तक कि यदि किसी ने कभी भोजन छुआ हो, तो उसके भी गुण दोषों के समझ लेने की उनमें यथेष्ट शक्ति थी, और यह मैंने अपने जीवन में एक बार नहीं, सैकड़ों बार प्रत्यक्ष अनुभव किया है। तीसरा है निमित्त दोष, भोज्य पदार्तों में बाल, कीड़े या धूल पड़ जाने से निमित्त दोष होता है। हमें इस समय इस शेषोक्त्त दोष से बचने की विशेष चेष्टा करनी चाहिए। भारत पर इसका अत्यधिक प्रभाव है। यदि वह भोजन किया जाय, जो इन तीनों प्रकार के दोषों से मुक्त है, तो अवश्य ही सत्त्वशुद्धि होगी। अगर ऐसा ही है तो धर्म तो बायें हाथ का खेल हो गया। अगर पाक-साफ भोजन ही से धर्म होता हो तो फिर हर एक मनुष्य धर्मात्मा बन सकता है। जहाँ तक मेरा ख्याल है, इस संसार में ऐसा कमजोर या असमर्थ कोई भी न होगा, जो अपने को इन बुराइयों से न बचा सके। अस्तु। शंकराचार्य कहते हैं, ‘आहार’ शब्द का अर्थ है, इन्द्रियों द्वारा मन में विचारों का समावेश, आहरण होना या आना। जब मन निर्मल होता है, तब सत्त्व भी निर्मल हो जाता है, किन्तु इसके पहले नहीं। तुम्हें जो रुचे, वही भोजन कर सकते हो। अगर केवल खाद्य पदार्थ ही सत्त्व को मलमुक्त्त करता है तो खिलाओ बन्दर को जिन्दगी भर दूध-भात, देखें तो वह एक बड़ा योगी होता है या नहीं! अगर ऐसा ही होता तो गायें और हिरन परम योगी हो गये होते। यह उक्त्ति प्रसिद्ध है :
नित नहाने से हरि मिले तो जल जन्तु होई।
फल मूल खाके हरि मिले तो बाँदुड़ बाँदराई।
तिरन भखन से हरि मिले तो बहुत मृगी अजा।
परन्तु इस समस्या का समाधान क्या है? आवश्यक दोनों ही हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आहार के सम्बन्ध में शंकराचार्य का सिद्धान्त मुख्य है; परन्तु यह भी सत्य है कि शुद्ध भोजन से शुद्ध विचार होने में सहायता मिलती है। दोनों का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनों आवश्यक हैं; परन्तु त्रुटि यही है कि आजकल हम भारतवासी शंकराचार्य का उपदेश भूल गये हैं। हम लोगों ने आहार का अर्थ शुद्ध भोजन मान लिया है। यही कारण है कि जब लोग मुझे यह कहते हुए सुनते हैं कि धर्म अब रसोई में घुस गया है, तब वे मुझ पर बिगड़ उठते हैं, परन्तु यदि मेरे साथ तुम मद्रास चलते, तो मेरे वाक्यों को स्वीकार कर लेते। बंगाली उनसे अच्छे हैं। मद्रास में किसी उच्च वर्ण के मनुष्य के भोजन पर यदि किसी नीच जाति की दृष्टि पड़ गयी तो वह भोजन फेंक दिया जाता है। परन्तु इतने पर भी, मैंने नहीं देखा कि वहाँ के लोग उन्नत हो गये। यदि केवल इस प्रकार या उस प्रकार का भोजन करने ही से और उसे इसकी उसकी दृष्टि बचाने ही से लोग सिद्ध हो जाते, तो तुम देखते कि सभी मद्रासी सिद्ध-महात्मा हो गये होते, परन्तु वे वैसे नहीं हैं।
इस प्रकार, यद्यपि दोनों मत एकत्र करके एक सम्पूर्ण सिद्धान्त बनाना है, किन्तु घोड़े के आगे गाड़ी न जोतो। आजकल भोजन और वर्णाश्रम धर्म के सम्बन्ध में बड़ा शोरगुल उठ रहा है और बंगाली तो इन्हें लेकर और भी गला फाड़ रहे हैं। तुममें से हर एक से मेरा प्रश्न है कि तुम वर्णाश्रम के सम्बन्ध में क्या जानते हो? इस समय इस देश में चातुर्वर्ण्य विभाग कहाँ है? मेरे प्रश्नों का उत्तर भी दो। मैं तो वर्णचतुष्ट्य नहीं देखता। जिस प्रकार हमारे बंगालियों की कहावत है कि ‘बिना सिर के सिरदर्द होता है’, उसी प्रकार यहाँ तुम वर्णाश्रम विभाग की चर्चा करना चाहते हो। यहाँ अब चार जातियों का वास नहीं है। मैं केवल ब्राह्मण और शूद्र देखता हूँ। यदि क्षत्रिय और वैश्य हैं, तो वे कहाँ हैं? और ऐ ब्राह्मणों, क्यों तुम उन्हें हिन्दू धर्म के नियमानुसार यज्ञोपवीत धारण करने की आज्ञा नहीं देते? – क्यों तुम उन्हें वेद नहीं पढ़ाते, जो हर एक हिन्दू को पढ़ना चाहिए? और यदि वैश्य और क्षत्रिय न रहें किन्तु केवल ब्राह्मण और शूद्र ही रहें तो शास्त्रानुसार ब्राह्मणों को उस देश में कदापि न रहना चाहिए, जहाँ केवल शूद्र हों; अतएव अपना बोरिया-बँधना लेकर यहाँ से कूच कर जाओ। क्या तुम जानते हो, जो लोग म्लेच्छ का भोजन खाते हैं और म्लेंच्छों के राज्य में बसते हैं, जैसे कि तुम गत हजार वर्षों से बस रहे हो, उनके लिए शास्त्रों में क्या आज्ञा है? क्या उसका प्रायश्चित्त तुम्हें मालूम है? प्रायश्चित्त है तुषानल – अपने ही हाथों अपनी देह जला देना। तुम आचार्य के आसन पर बैठना चाहते हो, परन्तु कपटाचरण नहीं छोड़ते। यदि तुम्हें अपने शास्त्रों पर विश्वास है तो अपने को उसी प्रकार जला दो, जिस प्रकार उन एक ख्यातनाम ब्राह्मण ने, जो महावीर सिकन्दर के साथ यूनान गये थे, म्लेच्छ का भोजन खा लेने के कारण तुषानल में अपना शरीर जला दिया था। यदि तुम ऐसा कर सके तो देखोगे, सारी जाति तुम्हारा चरण चूमेगी। स्वयं तो तुम अपने शास्त्रों पर विश्वास नहीं करते और दूसरों को उन पर विश्वास कराना चाहते हो! अगर तुम समझते हो कि इस जमाने में वैसा नहीं कर सकते, तो अपनी दुर्बलता स्वीकार करके दूसरों की भी दुर्बलता क्षमा करो, दूसरी जातियों को उन्नत करो, उनकी सहायता करो, उन्हें वेद पढ़ने दो, संसार के अन्य किन्हीं भी आर्यों के समकक्ष उन्हें भी आर्य बनने दो, और ऐ बंगाल के ब्राह्मणों, तुम भी वैसे ही सदाशय आर्य बनो।
यह घृण्य वामाचार छोड़ो, जो देश का नाश कर रहा है। तुमने भारत के अन्यान्य भाग नहीं देखे। जब मैं देखता हूँ कि हमारे समाज में कितना वामाचार फैला हुआ है, तब अपनी संस्कृति के समस्त अहंकार के साथ यह (समाज) मेरी नजरों में अत्यन्त गिरा हुआ स्थान मालूम होता है। इन वामाचार सम्प्रदायों ने मधुमकियों की तरह हमारे बंगाल के समाज को छा लिया है। वे ही जो दिन में गरजकर आचार के सम्बन्ध में प्रचार करते हैं, रात को घोर पैशाचिक कृत्य करने से बाज नहीं आते और अति भयानक ग्रन्थसमूह उनके कर्म के समर्थक हैं। घोर दुष्कर्म करने का आदेश उन्हें ये शास्त्र देते हैं। तुम बंगालियों को यह विदित है। बंगालियों के शास्त्र वामाचार-तन्त्र हैं। ये ग्रन्थ ढेरों प्रकाशित होते हैं, जिन्हें लेकर तुम अपनी सन्तानों के मन को विषाक्त्त करते हो, किन्तु उन्हें श्रुतियों की शिक्षा नहीं देते। ऐ कलकत्तावासियों, क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती कि अनुवादसहित वामाचार-तन्त्रों का यह बीभत्स संग्रह तुम्हारे बालकों और बालिकाओं के हाथ रखा जाय, उनका चित्त विषविह्वल हो और वे जन्म से यही धारणा लेकर पलें कि हिन्दुओं के शास्त्र ये वामाचार ग्रन्थ हैं। यदि तुम लज्जित हो तो अपने बच्चों से उन्हें अलग करो, और उन्हें यथार्थ शास्त्र वेद, गीता, उपनिषद् पढ़ने दो।
भारत के द्वैतवादी सम्प्रदायों के अनुसार सभी जीवात्माएँ सदैव जीवात्मा ही रहेंगी। ईश्वर जगत् का निमित्त-कारण है और उसने पहले ही से अवस्थित उपादान-कारण से संसार की सृष्टि की। उधर अद्वैतवादियों के मत से ईश्वर संसार का निमित्त और उपादान दोनों कारण है। वह केवल संसार का स्रष्टा ही नहीं, किन्तु उसने अपने ही से संसार का सृजन किया। यही अद्वैतवादियों का सिद्धान्त है। कुछ अधकचरे द्वैतवादी सम्प्रदाय हैं, जिनका यह विश्वास है कि ईश्वर ने अपने ही भीतर से संसार की सृष्टि की और साथ ही वह विश्व से शाश्वत पृथक् भी हैं, तथा हर एक वस्तु चिर काल के लिए उस जगन्नियन्ता के शाश्वत अधीन है। ऐसे भी सम्प्रदाय हैं, जो यह मानते हैं कि ईश्वर ने अपने को उपादान बनाकर इस जगत् का उत्पादन किया, और जीव अन्त में सान्त भाव छोड़कर अनन्त होते हुए निर्वाण प्राप्त करेंगे, परन्तु ये सम्प्रदाय लुप्त हो चुके हैं। अद्वैतवादियों का एक वह सम्प्रदाय जिसे कि तुम वर्तमान भारत में देखते हो, शंकर का अनुगामी है। शंकर का मत यह है कि माया के माध्यम से देखने के कारण ही ईश्वर संसार का निमित्त और उपादान दोनों कारण है, किन्तु वास्तव में नहीं। ईश्वर यह जगत् नहीं बना, बल्कि यह जगत् है ही नहीं, केवल ईश्वर ही है – ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। अद्वैत वेदान्त का यह मायावाद समझना अत्यन्त कठिन है। हमारे दार्शनिक विषय का यह बहुत ही कठिन अंश है, इसकी पर्यालोचना करने के लिए अब समय नहीं है। तुममें जो पश्चिमी दर्शनों से परिचित हैं, वे जानते हैं, इसका कुछ-कुछ अंश कान्ट के दर्शन से मेल खाता है; परन्तु जिन्होंने कान्ट पर लिखे हुए प्रोफेसर मैक्समूलर के निबन्ध पढ़े हैं, उन्हें मैं सावधान करता हूँ कि उनके निबन्धों में एक बड़ी भारी भूल है। प्रोफेसर महोदय के मत में, जो देश, काल और निमित्त हमारे ज्ञान के प्रतिबन्धक हैं, उन्हें पहले कान्ट ने आविष्कृत किया, परन्तु वास्तव में उनके प्रथम आविष्कर्ता शंकर हैं। शंकर ने देश, काल और निमित्त को माया के साथ अभिन्न रखकर उनका वर्णन किया है। सौभाग्य से शंकर के भाष्यों में वैसे दो-एक स्थल मुझे मिल गये। उन्हें मैंने अपने मित्र प्रोफेसर महोदय के पास भेज दिया। अतः कान्ट के पहले भी यह तत्त्व भारत में अज्ञात नहीं था। अस्तु, अद्वैत वेदान्तियों का यह मायावाद विचित्र सिद्धान्त है। उनके मत में सत्ता केवल ब्रह्म ही की है, यह जो भेद दृष्टिगोचर हो रहा है, वह केवल माया के कारण है। यह एकत्व, यह एकमेवाद्वितीयम् ब्रह्म ही हमारा चरम लक्ष्य है और यहीं पर भारतीय और पाश्चात्य विचारों का चिर द्वन्द्व भी स्पष्ट है। हजारों वर्षों से भारत ने मायावाद की घोषणा करते हुए संसार को चुनौती दी है और संसार की विभिन्न जातियों ने यह चुनौती स्वीकार भी की, जिसका फल यह हुआ कि वे पराभूत हो गयी हैं और तुम जीवित हो। भारत की घोषणा यह है कि संसार भ्रम हैं, इन्द्रजाल है, माया है, अर्थात् चाहे तुम मिट्टी से एक-एक दाना बीनकर भोजन करो या चाहे तुम्हारे लिए सोने की थाली में भोजन परोसा जाय, चाहे तुम महलों में रहो, चाहे कोई महाशक्तिशाली महाराजाधिराज हो अथवा चाहे द्वार-द्वार का भिक्षुक, किन्तु परिणाम सभी का एक है और वह है मृत्यु, गति सभी की एक है, सभी माया है। यही भारत की प्राचीन सूक्त्ति है। बारम्बार भिन्न-भिन्न जातियाँ सिर उठाती और इसका खण्डन करने की चेष्टा करती हैं; वे बढ़ती हैं, भोगसाधन को वे अपना ध्येय बनाती हैं, उनके हाथ में शक्ति आती है, वे पूर्णतया शक्ति का प्रयोग करती हैं; भोग की चरम सीमा को पहुँचती हैं और दूसरे ही क्षण वे विलुप्त हो जाती हैं। हम चिर काल से खड़े हैं, क्योंकि हम देखते हैं कि हर एक वस्तु माया है। महामाया के बच्चे सदा बने रहते हैं, परन्तु भोग-रूपी अविद्या के लाड़ले देखते ही देखते कूच कर जाते हैं।
यहाँ एक दूसरे विषय में भी प्राच्य और पाश्चात्य विचारप्रणाली में भेद है। जिस तरह तुम जर्मन दर्शन में हेगेल और शोपेनहावर के मत देखते हो, बिलकुल उसी तरह के विचार प्राचीन भारत में भी मिलते हैं। परन्तु हमारे सौभाग्य से हेगेलीय मतवाद का उन्मूलन उसकी अंकुर-दशा में ही हो गया था; हमारी जन्मभूमि में उसे बढ़ने और उसकी विषाक्त्त शाखा-प्रशाखाओं को फैलने नहीं दिया गया। हेगेल का एक मत यह है कि एकमात्र परम सत्ता अन्धकारमय और विश्रृंखल है, और साकार व्यष्टि उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ है अर्थात् अ-जगत् से (जगत् नहीं है, इस भाव से) जगत् (जगत् है यह भाव) श्रेष्ठ है, मुक्ति से संसार श्रेष्ठ है। हेगेल का यही मूल भाव है, अतएव उनके मत में, तुम संसार में जितना ही अवगाहन करोगे, जितनी ही तुम्हारी आत्मा जीवन के कर्मजालों से आवृत होगी, उतना ही तुम उन्नत होगे। पश्चिमवाले कहते हैं – क्या तुम देखते नहीं, हम कैसी बड़ी-बड़ी इमारतें बनाते हैं, सड़कें साफ रखते हैं, हर तरह के सुख भोगते हैं? इसके पीछे – प्रत्येक इन्द्रियभोग के पीछे – दुःख, वेदना, पैशाचिकता और घृणा-विद्वेष चाहे भले ही छिपे हों, किन्तु उससे कोई हानि नहीं!
दूसरी ओर हमारे देश के दार्शनिक पहले ही से यह घोषणा कर रहे हैं कि हर एक अभिव्यक्ति, जिसे तुम विकास कहते हो, उस अव्यक्त की अपने को व्यक्त करने की निरर्थक चेष्टा मात्र है। हे संसार के सर्वशक्तिशाली कारणस्वरूप, तुम छोटी-छोटी गड़हियों में अपना स्वरूप देखने का वृथा प्रयत्न करते हो! कुछ दिनों के लिए यह प्रयत्न करके तुम समझोगे कि यह व्यर्थ था, और जहाँ से तुम आये हो, वहीं लौट चलने की ठानोगे। यही वैराग्य है, और यहीं से धर्म का प्रारम्भ होता है। बिना त्याग या वैराग्य के धर्म या नैतिकता का उदय कैसे हो सकता है? त्याग ही से धर्म का आरम्भ होता है और त्याग ही में उसकी परिसमाप्ति। वेद कहते हैं, ‘त्याग करो, त्याग करो – इसके सिवा और दूसरा पथ नहीं है’। न प्रजया धनेन न चेज्यया त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः। ‘मुक्ति न सन्तानों से होती है, न धन से, न यज्ञ से, वह अमृतत्व केवल त्याग से मिलता है!’
यही भारत के सब शास्त्रों का आदेश है। यह सच है कि कितने ही राजामहाराजाओं ने सिंहासन पर बैठे हुए भी संसार के बड़े-बड़े त्यागियों के सदृश जीवननिर्वाह किया है, परन्तु जनक जैसे श्रेष्ठ त्यागी को भी कुछ काल के लिए संसार से सम्बन्ध छोड़ना पड़ा था। उनसे बड़ा त्यागी क्या और कोई था? परन्तु इस समय सभी जनक कहलाना चाहते हैं? हाँ, वे जनक हैं – नंगे, भूखे, अभागे बालकों के जनक। जनक शब्द उनके लिए केवल इसी अर्थ में आ सकता है। पूर्वकालीन जनक के समान उनमें ब्रह्मनिष्ठा नहीं है। ये हमारे आजकल के जनक हैं। इस जनकत्व की मात्रा जरा कम करके सीधे रास्ते पर आओ। यदि तुम त्याग कर सकते हो तो तुम्हें धर्म मिल सकता है। यदि तुम त्याग नहीं कर सकते तो तुम पूर्व से लेकर पश्चिम तक, सारे संसार में जितनी पुस्तकें हैं उन्हें पढ़कर, समस्त पुस्तकालयों को निगलकर धुरन्धर पण्डित हो सकते हो, परन्तु यदि तुम केवल उसी कर्मकाण्ड में लगे रहे तो यह कुछ नहीं है, इसमें आध्यात्मिकता कहीं नहीं है। केवल त्याग के द्वारा ही इस अमृतत्त्व की प्राप्ति होती है। त्याग ही महाशक्ति है। जिसके भीतर इस महाशक्ति का आविर्भाव होता है, वह और की तो बात ही क्या, विश्व की ओर नजर उठाकर नहीं देखता। तभी सारा ब्रह्माण्ड उसके निकट गाय के खुर से बनाये हुए गढ़े के समान नजर आता है – ब्रह्माण्डं गोष्पदायते।
त्याग ही भारत की पताका है। इसी पताका को समग्र जगत् में फहराकर, मरती हुई सभी जातियों को भारत यही एक शाश्वत विचार बारम्बार प्रेषित कर, उन्हें सब प्रकार के अत्याचारों एवं असाधुताओं के विरुद्ध सावधान कर रहा है। वह मानो ललकारकर उनसे कह रहा है, ‘सावधान, त्याग के पथ का, शान्ति के पथ का अवलम्बन करो, नहीं तो मर जाओगे!’ ऐ हिन्दुओं, इस त्याग की पताका को न छोड़ना – इसको और ऊँचा उठाओ। चाहे तुम दुर्बल भले ही हो, और त्याग चाहे भले ही न कर सको, परन्तु आदर्श को छोटा मत करो। हम दुर्बल हैं – हम संसार का त्याग नहीं कर सकते, परन्तु ढोंग रचने के इरादे में मत रहो, शास्त्रों का गला घोंटकर धोखे की युक्तियाँ देते हुए अज्ञानी लोगों की आँखों में धूल मत झोंको। ऐसा मत करो, बल्कि मान लो कि हम दुर्बल हैं। कारण, यह त्याग का आदर्श अत्यन्त महान् है। क्या हानि है, यदि लड़ाई में लाखों गिर जायँ, पर दस सिपाही या केवल दो-एक ही वीर विजयी होकर लौटें! युद्ध में जिन लाखों को वीरगति मिलती है, वे सचमुच धन्य हैं – क्योंकि उनके शोणितरूपी मूल्य से विजय-लाभ होता है। एक को छोड़कर सारे वैदिक सम्प्रदायों ने इस त्याग ही को अपना एकमात्र आदर्श बनाया है। केवल बम्बई प्रान्त के वल्लाभाचार्य सम्प्रदाय ने वैसा नहीं किया, और तुममे से अनेक को विदित है कि जहाँ त्याग नहीं, वहाँ अन्त में क्या दशा होती है। इस त्याग के आदर्श की रक्षा के लिए यदि हमें कट्टरता और निरी कट्टरता स्वीकार करनी पड़े, भस्ममण्डित ऊर्ध्वबाहु जटाजूटधारियों को स्थान देना पड़े, तो वह भी अच्छा है। कारण, यद्यपि वे अस्वाभाविक हो सकते हैं तथापि पुरुषत्व का लोप करनेवाली जो विलासिता भारत में घुसकर हमारा खून पी रही है, सारी जाति को कपटाचरण की शिक्षा दे रही है, उस विलासिता के स्थान में त्याग का आदर्श रखकर समग्र जाति को सावधान करने के लिए वे हमारे लिए वांछनीय हैं। अतएव हमें थोड़ी त्याग-तपस्या चाहिए। प्राचीन काल में भारत में त्याग ही की विजय थी, अब भी भारत में इसे विजय प्राप्त करनी है। यह त्याग भारत के आदर्शों में अब भी सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च है। यह बुद्ध की भूमि, रामानुज की भूमि, श्रीरामकृष्ण की भूमि, त्याग की भूमि, वह भूमि, जहाँ प्राचीन काल से कर्मकाण्ड के विरुद्ध प्रतिवाद किया गया और जहाँ आज भी ऐसे सैकड़ों महापुरुष हैं जिन्होंने सब विषयों का त्याग कर दिया और जीवन्मुक्त्त बन बैठे हैं, क्या वह भूमि अपने आदर्श को छोड़ देगी? कदापि नहीं। यहाँ ऐसे मनुष्य रह सकते हैं, जिनका मस्तिष्क पश्चिमी विलासिता के आदर्श से विकृत हो गया है, यहाँ ऐसे हजारों नहीं, लाखों मनुष्य रह सकते हैं जो विलास-मद में चूर हो रहे हैं, जो पश्चिम के शाप में – इन्द्रिय-परतन्त्रता में – संसार के शाप में डूबे हुए हैं, किन्तु इतने पर भी हमारी मातृभूमि में हजारों ऐसे भी होंगे, धर्म जिनके लिए शाश्वत सत्य है और जो जरूरत पड़ने पर फलाफल का विचार किये बिना ही सब कुछ त्याग देने के लिए सदा तैयार हो जायँगे।
हमारे इन सब सम्प्रदायों में एक और सामान्य आदर्श है। उसको भी मैं तुम्हारे सम्मुख रखना चाहता हूँ। यह भी एक व्यापक विषय है। यह अद्वितीय विचार केवल भारत ही में विशेष रूप से पाया जाता है कि धर्म का साक्षात्कार करना चाहिए। नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन – ‘इस आत्मा को न कोई वाग्बल से प्राप्त कर सकता हैं न बुद्धि-कौशल से और न अधिक शास्त्राध्ययन से।’ इतना ही नहीं, संसार में केवल हमारे ही शास्त्र ऐसे हैं, जो घोषणा करते हैं कि आत्मा को कोई न तो शास्त्रों का पाठ करके प्राप्त कर सकता है, न वार्ता से और न व्याख्यान ही की बदौलत, किन्तु इसका साक्षात्कार होना चाहिए। यह गुरु से शिष्य को मिलता है। जब शिष्य में अन्तर्दृष्टि होती है, तब उसे हर एक वस्तु का स्पष्ट बोध हो जाता है, और इस तरह वह प्रत्यक्ष अनुभव करने में समर्थ होता है।
एक बात और है। बंगाल में एक अद्भुत रीति का प्रचलन है। वह है कुलगुरु की प्रथा। वह यह कि ‘मेरा बाप तुम्हारा गुरु था, अब मैं तुम्हारा गुरु बनूँगा। मेरा बाप तुम्हारे बाप का गुरु था, इसलिए मैं तुम्हारा गुरु हूँ!’ गुरु किसको कहना चाहिए इस सम्बन्ध में श्रुतिसम्मत अर्थ यह है – गुरु वे हैं, जो वेदों का रहस्य समझते हैं, कोई किताबी कीड़ा नहीं, वैयाकरण नहीं, बड़े पण्डित नहीं, किन्तु वे, जिन्हें वेदों के यथार्थ तात्पर्य का ज्ञान है। पण्डितों की अवस्था तो इस प्रकार है : यथा खरश्चन्दनभारवाही भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य। – ‘जिस प्रकार चन्दन का भार ढोनेवाला गधा केवल चन्दन के भार को ही जानता है, परन्तु उसके मूल्यवान गुणों को नहीं।’ ऐसे मनुष्यों की हमें आवश्यकता नहीं। यदि उन्होंने स्वयं धर्मोपलब्धि नहीं की, तो वे हमें कौन बड़ी शिक्षा दे सकते हैं? जब मैं इस कलकत्ता शहर में एक बालक था, तब धर्म की शिक्षा के लिए जहाँ-तहाँ जाया करता था, और एक लम्बा व्याख्यान सुनकर वक्त्ता महोदय से पूछता था, क्या आपने परमात्मा को देखा है; ईश्वर-दर्शन के नाम ही से उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहता। और एकमात्र श्रीरामकृष्ण ही थे, जिन्होंने मुझसे कहा, “हाँ, हमने ईश्वर को देखा है।” उन्होंने केवल इतना ही नहीं, किन्तु यह भी कहा, “हम तुम्हें भी ईश्वर-दर्शन के मार्ग पर ला सकते हैं।” शास्त्रों के पाठ को तोड़-मरोड़कर यथेष्ट अर्थ कर लेने ही से कोई गुरु नहीं हो जाता।
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वत् भुक्त्तये न तु मुक्त्तये॥7
हर तरह से शास्त्रों की व्याख्या कर लेने का कौशल केवल पण्डितों के मनोरंजन के लिए है, मुक्ति के लिए नहीं।’
जो ‘श्रोत्रिय’ हैं – वेदों का रहस्य समझते हैं, जो ‘अवृजिन’ हैं – निष्पाप हैं, जो ‘अकामहत’ हैं – जिन्हें काम छू भी नहीं गया है, जो तुम्हें शिक्षा देकर तुमसे अर्थप्राप्ति की आशा नहीं रखते, वे ही सन्त हैं, वे ही साधु हैं। जिस प्रकार वसन्त आकर हर एक पेड़-पौधे को पत्तियों और कलियों से हरा-भरा कर देता है, परन्तु पौधे से प्रतिदान नहीं माँगता, क्योंकि भलाई करना उसका स्वाभाविक धर्म है, उसी प्रकार वे आते हैं।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनाः अहेतुनान्यानपि तारयन्तः।8
‘वे इस भीषण भवसागर के उस पार स्वयं भी चले गये हैं और बिना किसी लाभ की आशा किये दूसरों को भी पार करते हैं!’ ऐसे ही मनुष्य गुरु हैं, और ध्यान रखो, दूसरा कोई गुरु नहीं कहा जा सकता। क्योंकि –
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमानाः पारियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः॥9
‘अविद्या के अन्धकार में डूबे हुए भी अपने को अहंकारवश सुधी और महापण्डित समझनेवाले ये मूर्ख दूसरों की सहायता करना चाहते हैं, परन्तु ये कुटिल मार्ग में ही भ्रमण किया करते हैं। अन्धे का हाथ पकड़कर चलनेवाले अन्धे की तरह ये गुरु और शिष्य दोनों ही गड्ढे में गिरते हैं।’
यही वेदों की उक्त्ति है। इस उक्त्ति को अपनी वर्तमान प्रथा से मिलाओ। तुम वेदान्ती हो, तुम सच्चे हिन्दू हो, तुम परम्परानिष्ठ धर्म के माननेवाले हो। मैं तुम्हें और भी सच्चा परम्परानिष्ठ धर्मी बनाना चाहता हूँ। तुम सनातन मार्ग का जितना ही अवलम्बन करोगे, उतने ही बुद्धिमान बनोगे, और जितना ही तुम आजकल की कट्टरता के फेर में पड़ोगे, उतने ही तुम मूर्ख बनोगे। तुम अपने उसी अति प्राचीन सनातन पथ से चलो, क्योंकि उस समय के शास्त्रों के हर एक शब्द में सबल, स्थिर और निष्कपट हृदय की छाप लगी हुई है; उसका हर एक स्वर अमोघ है। इसके बाद राष्ट्र का पतन शुरु हुआ – शिल्प में, विज्ञान में, धर्म में, हर एक विषय में राष्ट्रीय अवनति का आरम्भ हो गया। उसके कारणों पर विचारविमर्श करने का अब अवकाश नहीं है, परन्तु अवनति के काल में जो पुस्तकें लिखी गयी हैं, उन सब में इसी व्याधि और राष्ट्रीय पतन के प्रमाण मिलते हैं – राष्ट्रीय ओज के बदले उनसे केवल रोने की आवाज सुनायी पड़ती है। जाओ, जाओ – उस प्राचीन समय के भाव लाओ जब राष्ट्रीय शरीर में वीर्य और जीवन था। तुम फिर वीर्यवान बनो, उसी प्राचीन झरने का पानी पिओ – भारत को पुनर्जीवित करने का एकमात्र उपाय अब यही है।
अद्वैतवादियों के मत में हम लोगों का व्यक्तित्व, जो इस समय विद्यमान है, भ्रम मात्र है। समग्र संसार के लिए इस बात को ग्रहण कर पाना बहुत ही कठिन रहा है। जैसे ही तुम किसी से कहो कि वह ‘व्यक्ति’ नहीं है, वह इतना डर जाता है कि उसका अपना व्यक्तित्व, चाहे वह कैसा ही क्यों न हो, मिट जायगा। परन्तु अद्वैतवादी कहते हैं कि व्यक्तित्व जैसी वस्तु कभी रहती ही नहीं। तुम जीवन में प्रतिपल परिवर्तित हो रहे हो। कभी तुम बालक थे, तब तुम एक तरह विचार करते थे, इस समय तुम युवक हो, अब दूसरी ही तरह के विचार करते हो और जब तुम वृद्ध हो जाओगे तब दूसरी ही तरह सोचोगे। हर एक व्यक्ति परिवर्तित हो रहा है। यदि यह सच है तो तुम्हारा निजी व्यक्तित्व कहाँ रह गया? यह ‘मैं-पन’ या निजी व्यक्तित्व, न शरीर के सम्बन्ध में रह जाता है, न मन के सम्बन्ध में और न विचारों के सम्बन्ध में। इनके परे वह आत्मा ही है। और अद्वैतवादी कहते हैं, यह आत्मा स्वयं ब्रह्म है, दो अनन्त कदापि नहीं रह सकते। केवल एक ही व्यक्ति है जो अनन्तस्वरूप है। सच तो यह है कि हम विचारशील प्राणी हैं, अतः हम तर्क का सहारा लेना चाहते हैं। अच्छा, तो तर्क या युक्ति है क्या चीज? वह है न्यूनाधिक वर्गीकरण, पदार्तों को क्रमशः ऊँची-से-ऊँची श्रेणी में अन्तर्भुक्त्त कर अन्त में किसी ऐसी जगह पर पहुँचाना जिसके ऊपर फिर उनकी गति न हो। किसी ससीम वस्तु को चिर विश्राम तभी मिल सकता है, जब वह असीम की श्रेणी तक पहुँचायी जायगी। किसी ससीम वस्तु को लेकर तुम उसका विश्लेषण करते रहो, परन्तु जब तक उसे चरम श्रेणी में या अनन्त तक नहीं पहुँचाते, तब तक तुम्हें शान्ति नहीं मिल सकती, और अद्वैतवादी कहते हैं, अस्तित्व केवल इसी अनन्त का है और सब माया है, किसी की कोई तात्त्विक सत्ता नहीं। कोई भी जड़ वस्तु क्यों न हो, उसमें जो यथार्थ सत्ता है, वह यही ब्रह्म है। हम यही ब्रह्म हैं, और नामरूप आदि जितने हैं सब माया है। नाम और रूप हटा दो तो तुम और हम सब एक हो जायेंगे। तुम्हें इस ‘अहम्’ (मैं) शब्द को अच्छी तरह समझना चाहिए। प्रायः लोग कहते हैं, ‘यदि मैं ब्रह्म हूँ तो जो मेरे जी में आया, उसे मैं क्यों नहीं कर सकता?’ यहाँ इस शब्द का व्यवहार दूसरे ही अर्थ में किया जा रहा है। जब तुम अपने को बद्ध समझ रहे हो, तब तुम आत्मस्वरूप ब्रह्म, जिसे कोई अभाव नहीं, जो अन्तर्ज्योति है, नहीं रह गये। वह अन्तराराम है, आत्मतृप्त है, वह कुछ भी नहीं चाहता, उसमें कोई कामना नहीं है, वह सम्पूर्ण निर्भय और सम्पूर्ण स्वाधीन है। वही ब्रह्म है। उसी ब्रह्मस्वरूप में हम सभी एक हैं।
अतः द्वैतवादियों और अद्वैतवादियों में यह बड़ा अन्तर प्रतीत होता है। तुम देखोगे, शंकराचार्य जैसे बड़े बड़े भाष्यकारों ने भी अपने मत की पुष्टि के लिए जगह जगह पर शास्त्रों का ऐसा अर्थ किया है जो मेरी समझ में समीचीन नहीं। रामानुज ने भी कहीं कहीं शास्त्रों का ऐसे ढंग से अर्थ किया है कि वह साफ समझ में नहीं आता। हमारे पण्डितों तक की यह धारणा है कि इतने सम्प्रदायों में से एक ही सम्प्रदाय सत्य है, बाकी सब झूठे हैं, यद्यपि उन्होंने श्रुतियों में देखा है – एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति – “सत्ता एक ही है, परन्तु मुनियों ने भिन्न-भिन्न नामों से उसका वर्णन किया है। और इस अत्यन्त अद्भुत भाव को हमें अब भी दुनिया को देना है। हमारे जातीय जीवन का मूल मन्त्र यही है, और एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति – इस मूल मन्त्र को चरितार्थ करने में ही हमारे राष्ट्र की समग्र जीवनसमस्या का समाधान है। भारत में कुछ थोड़े से ज्ञानियों के अतिरिक्त, मेरा मतलब है, बहुत कम आध्यात्मिक व्यक्तियों को छोड़कर हम सब सर्वदा ही इस तत्त्व को भूल जाते हैं। हम इस महान् तत्त्व को सदा भूल जाते हैं और तुम देखोगे, अधिकांश पण्डित, लगभग ९८ प्रतिशत, इस मत के पोषक हैं कि या तो अद्वैतवाद सत्य है, अथवा विशिष्टाद्वैतवाद अथवा द्वैतवाद; और यदि तुम पाँच मिनट के लिए वाराणसी धाम के किसी घाट पर जाकर बैठो, तो तुम्हें मेरी बात का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जायगा। तुम देखोगे कि इन भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों का मत लेकर लोग निरन्तर लड़-झगड़ रहे हैं।
हमारे समाज और पण्डितों की ऐसी ही दशा है। इस परिस्थिति में एक ऐसे महापुरुष का आविर्भाव हुआ जिनका जीवन उस सामंजस्य की व्याख्या था, जो भारत के सभी सम्प्रदायों का आधारस्वरूप था और जिसको उन्होंने कार्यरूप में परिणत कर दिखाया। इस महापुरुष से मेरा मतलब श्रीरामकृष्णदेव से है। उनके जीवन से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ये दोनों मत आवश्यक हैं। ये गणितज्योतिष के भूकेन्द्रिक और सूर्यकेन्द्रिक मतों की तरह हैं। जब बालक को ज्योतिष की शिक्षा दी जाती है, तब उसे भूकेन्द्रिक मत ही पहले सिखलाया जाता है और वह ज्योतिषविज्ञान के प्रश्नों को भूकेन्द्रिक सिद्धान्त पर घटित करता है। परन्तु जब वह ज्योतिष के सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों का अध्ययन करता है, तब सूर्यकेन्द्रिक मत की शिक्षा उसके लिए आवश्यक हो जाती है एवं वह पहले से और अच्छा समझता है। पंचेन्द्रियों में पँसा हुआ जीव स्वभावतः द्वैतवादी होता है। जब तक हम पंचेन्द्रियों में पड़े हैं, तब तक हम सगुण ईश्वर ही देख सकते हैं – सगुण ईश्वर के सिवा और दूसरा भाव हम नहीं देख सकते। हम संसार को ठीक इसी रूप में देखेंगे। रामानुज कहते हैं, “जब तक तुम अपने को देह, मन या जीव सोचोगे तब तक तुम्हारे ज्ञान की हर एक क्रिया में जीव, जगत् और इन दोनों के कारणस्वरूप वस्तुविशेष का ज्ञान रहेगा।” परन्तु मनुष्य के जीवन में ऐसा भी समय आता है, जब शरीर-ज्ञान बिलकुल चला जाता है, जब मन भी क्रमशः सूक्ष्मानुसूक्ष्म होता हुआ प्रायः अन्तर्हित हो जाता है, जब देहबुद्धि में डाल देनेवाली भावना, भीति और दुर्बलता सभी मिट जाती हैं। तभी – केवल तभी उस प्राचीन महान् उपदेश की सत्यता समझ में आती है। वह उपदेश क्या है?
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥10
‘जिनका मन साम्यभाव में अवस्थित है, उन्होंने यहीं जन्म-मृत्यु रूप संसारचक्र को जीत लिया है। चूँकि ब्रह्म निर्दोष और सर्वत्र सम है, अतएव वे ब्रह्म ही में अवस्थित हैं।’
समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥11
‘सर्वत्र ईश्वर को सम भाव से सर्वत्र अवस्थित देखते हुए वे आत्मा द्वारा आत्मा की हिंसा नहीं करते, अतः परमगति को प्राप्त होते हैं।’
1. तैत्तिरीयोपनिषद् २/९
2. केनोपनिषद् १/३
3. मुण्डकोपनिषद् २/२/५
4. मुण्डकोपनिषद् २/२/१०
5. पातंजल योगसूत्र॥४।३॥
6. छान्दोग्योपनिषद ७/२६/२
7. विवेकचूडामणि, ५८
8. विवेकचूडामणि, ३७
9. कठोपनिषद् १/२/५
10. गीता ५/१९
11. गीता १३/१८