स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी त्रिगुणातीतानन्द को लिखित (जनवरी, 1896)

(स्वामी विवेकानंद का स्वामी त्रिगुणातीतानन्द को लिखा गया पत्र)

जनवरी, १८९६

प्रिय सारदा,

…पत्रिका के बारे में तुम्हारा विचार वास्तव में अति उत्तम है, पूर्ण शक्ति के साथ जुट जाओ, कोष की चिन्ता मत करो। तुम्हारा पत्र मिलने पर मैं ५०० रुपये तत्काल भेज दूँगा, रूपयों के लिए चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं। फिलहाल इस पत्र को दिखाकर किसीसे कर्ज ले लो। इस पत्र के जवाब मिलने पर – पत्रोत्तर के साथ ही साथ ५०० रूपये मैं भेज दूँगा। ५०० रूपयों में बनता-बिगड़ता ही क्या है? ईसाई तथा इस्लाम धर्म का प्रचार करनेवाले बहुत से लोग .हैं, तुम अब अपने देश के धर्म के प्रचार में जुट जाओ। यदि हो सके, तो किसी अरबी भाषा जाननेवाले व्यक्ति के द्वारा प्राचीन अरबी पुस्तकों का अनुवाद करा सको, तो अच्छा है। फारसी भाषा में भारतीय इतिहास की बहुत सी बातें विद्यमान हैं। यदि क्रमशः उनके अनुवाद हो सकें, तो एक अत्युत्तम धारावाहिक विषय होगा। अनेक लेखकों की आवश्यकता है। साथ ही ग्राहकों की भी समस्या है। इसका एक मात्र उपाय यह है कि तुम विभिन्न स्थानों में पर्यटन करते रहते हो, जहाँ कहीं भी बंगला भाषा का प्रचलन हो, वहाँ पर लोगों के माथे पत्रिका मढ़ देना। दृढ़ता के साथ उनको ग्राहक बनाओ! वे तो सदा ही पीछे हट जाते है, जहाँ कुछ खर्च करने का प्रश्न आता है। किसी बात की कभी परवाह मत करो। पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए, आगे बढ़े चलो। शशि, शरत्, काली आदि सब कोई अध्ययन कर लिखने में जुट जायँ। घर पर बैठे बैठे क्या हो सकता है? तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकनेवाले पीछे रह जायँगे और तुम कूदकर सब के आगे पहुँच जाओगे। जो अपने उद्धार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर-गुल मचाओ कि उसकी आवाज दुनिया के कोने कोने में फैल जाय। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नहीं चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढ़ो। इसके बाद मैं भारत पहुँचकर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूँगा। डर किस बात का है? ‘नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है।’ ‘नहीं’, ‘नहीं’ कहने से तो ‘नहीं’ हो जाना पड़ेगा!…

गंगाधर ने बहुत बहादुरी दिखायी है। शाबाश! काली उसके साथ काम में जुट गया है। खूब शाबाश! कोई मद्रास चले जाओ, कोई बम्बई। छान डालो – सारी दुनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो-चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते – तमाम संसार हिल उठता। क्या करूँ, धीरे-धीरे अग्रसर होना पड़ रहा है। तूफान मचा दो, तूफान! किसीको चीन भेज दो, किसीको जापान। बेचारे गृहस्थ अपनी तनिक सी जिन्दगी से कर ही क्या सकते हैं?

‘ह-र, ह-र, श-म्भो!’ के नारे से गगन विदीर्ण करना तो संन्यासियों, शिवगणों से ही सम्भव है।

तुम्हारा ही,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!