धर्मस्वामी विवेकानंद

अल्मोड़ा-अभिनन्दन का उत्तर – स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद जी के अल्मोड़ा पहुँचने पर वहाँ की जनता ने उन्हें निम्नलिखित मानपत्र भेंट किया :

महात्मन्,

जिस समय से हम अल्मोड़ा-निवासियों ने यह सुना कि पाश्चात्य देशों में आध्यात्मिक दिग्विजय के पश्चात् आप इंग्लैण्ड से अपनी मातृभूमि भारत फिर वापस आ रहे हैं, उस समय से हम सब आपके दर्शन करने को स्वभावतः बड़े लालायित थे; और सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की कृपा से आखिर आज वह शुभ घड़ी आ गयी। भक्त्तशिरोमणि कविसम्रट् तुलसीदासजी ने कहा भी है, ‘जापर जाकर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलहि न कछु सन्देहू॥’ और वही आज चरितार्थ भी हो गया। आज हम सब परम श्रद्धा तथा भक्ति से आपका स्वागत करने को यहाँ एकत्र हुए हैं और हमें हर्ष है कि इस नगर में अनेक कष्ट उठाकर एक बार1 फिर पधारकर आपने हम सब पर बड़ी कृपा की है। आपकी इस कृपा के लिए धन्यवाद देने को हमारे पास शब्द भी नहीं हैं। महाराज, आप धन्य हैं और आपके वे पूज्य गुरुदेव भी धन्य हैं, जिन्होंने आपको योगमार्ग की दीक्षा दी। यह भारतभूमि धन्य है, जहाँ इस भयावह कलियुग में भी आप जैसे आर्यवंशियों के नेता विद्यमान हैं। आपने अति अल्पावस्था में ही अपनी सरलता, निष्कपटता, महच्चरित्र, सर्वभूतानुकम्पा, कठोर साधना, आचरण और ज्ञानोपदेश की चेष्टा द्वारा समस्त संसार में अक्षय यश लाभ किया है और उस पर हमें गर्व है।

यदि सच पूछा जाए तो आपने वह कठिन कार्य कर दिखाया है, जिसका बीड़ा इस देश में श्रीशंकराचार्य के समय से फिर किसी ने नहीं उठाया। क्या हममें से किसी ने कभी यह स्वप्न में भी आशा की थी कि प्राचीन भारतीय आर्यों की एक सन्तान केवल अपनी तपस्या के बल पर इंग्लैण्ड तथा अमेरिका के विद्वान् लोगों को यह सिद्ध कर दिखाएगी कि प्राचीन हिन्दू धर्म अन्य सब धर्मों की अपेक्षा श्रेष्ठ है? शिकागो की विश्वधर्म-महासभा में संसार के विभिन्न धर्म-प्रतिनिधियों के सम्मुख, जो वहाँ एकत्र थे, आपने भारतीय सनातन धर्म की श्रेष्ठता इस योग्यता से सिद्ध कर दिखायी कि उन सब की आँखें खुल गयीं। उस महती सभा में धुरन्धर विद्वानों ने अपने अपने धर्म की श्रेष्ठता अपने अपने ढंग से खूब समझायी; परन्तु आप उन सब से आगे निकल गये। आपने यह पूर्ण रूप से दिखा दिया कि वैदिक धर्म का मुकाबला संसार का कोई भी धर्म नहीं कर सकता। और इतना ही नहीं, वरन् उपर्युक्त महाद्वीपों के भिन्न भिन्न स्थानों पर वैदिक ज्ञान का प्रचार करके आपने वहाँ के बहुतसे विद्वानों का ध्यान प्राचीन आर्यधर्म तथा दर्शन की ओर आकर्षित कर दिया। इंग्लैण्ड में भी आपने प्राचीन हिन्दू धर्म का झण्डा आरोपित कर दिया है, जिसका अब वहाँ से हटना असम्भव है।

आज तक यूरोप तथा अमेरिका के आधुनिक सभ्य राष्ट्र हमारे धर्म के असली स्वरूप से नितान्त अनभिज्ञ थे, परन्तु आपने अपनी आध्यात्मिक शिक्षाओं द्वारा उनकी आँखें खोल दी और उन्हें आज यह मालूम हो गया है कि हमारा प्राचीन धर्म, जिसे वे अज्ञानवश ‘पाखण्डियों की रूड़िढयों का धर्म अथवा केवल मूर्कों के लिए पोथों का ढेर’ ही समझा करते थे, असल हीरों की खान है। सचमुच,

वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि च॥

‘सौ मूर्ख पुत्रों की अपेक्षा एक ही गुणी पुत्र अच्छा है; एक ही चन्द्रमा अन्धकार का विनाश करता है, तारागण नहीं।’ असल में आप जैसे साधु तथा धार्मिक पुत्र का जीवन ही संसार के लिए कल्याणकर है और भारतमाता को उसकी इस गिरी हुई दशा में आप जैसी पुण्यात्मा सन्तानों से ही सान्त्वना मिल रही है। वैसे तो आज तक कितने ही लोग समुद्र के इस पार से उस पार भटके हैं, परन्तु केवल आपने ही अपनी पूर्व सुकृति के बल से हमारे इस प्राचीन हिन्दू धर्म की महानता समुद्र के पार अन्य देशों में सिद्ध कर दिखलायी। मनसा, वाचा, कर्मणा आपने मानवजाति को आध्यात्मिकता का ज्ञान कराना ही अपने जीवन का ध्येय मान लिया है और धार्मिक ज्ञान का उपदेश देने के लिए आप सदैव ही प्रस्तुत हैं।

हमें यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि यहाँ हिमालय की गोद में एक मठ स्थापित करने का आपका विचार है और हमारी ईश्वर से प्रार्थना है कि आपका यह उद्देश्य सफल हो। शंकराचार्य ने भी अपनी आध्यात्मिक दिग्विजय के पश्चात् भारत के प्राचीन हिन्दू धर्म के रक्षणार्थ हिमालय में, बदरिकाश्रम में एक मठ स्थापित किया था। इसी प्रकार यदि आपकी भी इच्छा पूर्ण हो जाए तो उससे भारतवर्ष का बड़ा हित होगा। इस मठ के स्थापित हो जाने से हम कुमायूँ-निवासियों को बड़ा आध्यात्मिक लाभ होगा और फिर हम इस बात का पूरा यत्न करेंगे कि हमारा प्राचीन धर्म हमारे बीच में से धीरे धीरे लुप्त न हो जाए।

आदिकाल से भारतवर्ष का यह प्रदेश तपस्या की भूमि रहा है। भारतवर्ष के बड़े बड़े ऋषियों ने अपना समय इसी स्थान पर तपस्या तथा साधना में बिताया है, परन्तु वह तो अब पुरानी बात हो गयी और हमें पूर्ण विश्वास है कि यहाँ मठ की स्थापना करके कृपया आप हमें उसका फिर अनुभव करा देंगे। यही वह पुण्यभूमि है जो भारतवर्ष भर में पवित्र मानी जाती थी तथा यही सच्चे धर्म, कर्म, साधना तथा सत्य का क्षेत्र था। यद्यपि आज समय के प्रभाव से वे सब बातें नष्ट होती जा रही हैं, फिर भी हमें विश्वास है कि आपके शुभ प्रयत्नों द्वारा यह प्रदेश फिर अपने प्राचीन धर्मगौरव को प्राप्त हो जाएगा।

महाराज, हम शब्दों द्वारा प्रकट नहीं कर सकते कि आपके यहाँ पधारने से हमको कितना हर्ष हुआ है। ईश्वर आपको चिरंजीवी करे; आपको पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करे तथा आपका जीवन परोपकारी हो। आपकी आध्यात्मिक शक्तियों की उत्तरोत्तर उन्नति हो, जिससे आपके प्रयत्नों द्वारा भारतवर्ष की इस दुरवस्था का शीघ्र ही अन्त हो जाए।

लाला बदरी शा की ओर से पण्डित हरिनाम पाण्डे ने और एक मानपत्र पढ़ा। एक अन्य पण्डितजी ने भी इस अवसर पर एक संस्कृत मानपत्र पढ़ा। जितने दिन स्वामीजी अल्मोड़े में थे, उतने दिन वे शाजी के यहाँ अतिथि के रूप में रहे थे।

स्वामीजी ने मानपत्रों का निम्नलिखित उत्तर दिया :

स्वामी विवेकानन्द का भाषण

यह स्थान हमारे पूर्वजों के स्वप्न का देश है, जिसमें भारतजननी श्रीपार्वतीजी ने जन्म लिया था। यह वही पवित्र स्थान है, जहाँ भारतवर्ष का प्रत्येक यथार्थ सत्यपिपासु व्यक्ति अपने जीवनकाल के अन्तिम दिन व्यतीत करना चाहता है। इसी दिव्य स्थान के पहाड़ों की चोटियों पर, इसकी गुफाओं के भीतर तथा इसके कल-कल बहनेवाले झरनों के तट पर महर्षियों ने अनेकानेक गूढ़ भावों तथा विचारों को सोच निकाला है, उनका मनन किया है। और आज हम देखते हैं कि उन विचारों का केवल एक अंश ही इतना महान् है कि उस पर विदेशी तक मुग्ध हैं तथा संसार के धुरन्धर विद्वानों एवं मनीषियों ने उसे अतुलनीय कहा है। यह वही स्थान है, जहाँ मैं बचपन से ही अपना जीवन व्यतीत करने की सोच रहा हूँ और जैसा तुम सब जानते हो, मैंने कितनी ही बार इस बात की चेष्टा की है कि मैं यहाँ रह सकूँ। परन्तु उपयुक्त समय के न आने से तथा मेरे सम्मुख बहुत सा कार्य होने के कारण मैं इस पवित्र स्थान से वंचित रहा। लेकिन मेरी यही इच्छा है कि मैं अपने जीवन के शेष दिन इसी गिरिराज में कहीं पर व्यतीत कर दूँ, जहाँ अनेक ऋषि रह चुके हैं, जहाँ दर्शन का जन्म हुआ था। परन्तु मित्रो, सम्भव है मैं यह सब उस ढंग से अब न कर सकूँ जिस ढंग से मैंने पहले विचार कर रखा था – मेरी कितनी इच्छा है कि मैं पूर्ण शान्ति में तथा बिना किसी के जाने हुए यहाँ रहूँ – लेकिन हाँ, इतनी आशा जरूर है तथा मैं प्रार्थना करता हूँ और विश्वास भी करता हूँ कि संसार के अन्य सब स्थानों को छोड़ मेरे जीवन के अन्तिम दिन यहीं व्यतीत होंगे।

इस पवित्र प्रदेश के निवासी बन्धुओ, तुम लोगों ने मेरे पाश्चात्य देशों में किये हुए छोटेसे काम के लिए कृपापूर्वक जो प्रशंसासूचक शब्द कहे हैं उसके लिए मैं तुम्हें अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ। परन्तु इस समय मेरा मन प्राच्य या पाश्चात्य किसी देश के कार्य के सम्बन्ध में कुछ भी कहना नहीं चाहता। यहाँ आते समय जैसे जैसे गिरिराज की एक चोटी के बाद दूसरी चोटी मेरी दृष्टि के सामने आती गयी, मेरी कार्य करने की समस्त इच्छाएँ तथा भाव, जो मेरे मस्तिष्क में वर्षों से भरे हुए थे, धीरे धीरे शान्त से होने लगे और इस विषय पर बातचीत करने के बजाय कि क्या कार्य हुआ है तथा भविष्य में क्या कार्य होगा, मेरा मन एकदम उसी शाश्वत भाव की ओर खिंच गया जिसकी शिक्षा हमें गिरिराज हिमालय सदैव से देता रहा है, जो इस स्थान के वातावरण में भी प्रतिध्वनित हो रहा है, तथा जिसका निनाद मैं आज भी यहाँ की कलकलवाहिनी सरिताओं में सुनता हूँ, और वह भाव है – त्याग।

‘सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।’ – ‘इस संसार में प्रत्येक वस्तु में भय भरा है, यह भय केवल वैराग्य से ही दूर हो सकता है, इसी से मनुष्य निर्भय हो सकता है।’ सचमुच, यह वैराग्य का ही स्थान है। मित्रो, अब आज समय भी कम है तथा परिस्थिति भी ऐसी नहीं है कि मैं तुम्हारे समक्ष लम्बा भाषण कर सकूँ। अतएव मैं यही कहकर अपना भाषण समाप्त करता हूँ कि गिरिराज हिमालय वैराग्य एवं त्याग के सूचक हैं तथा वह सर्वोच्च शिक्षा, जो हम मानवता को सदैव देते रहेंगे, त्याग ही है। जिस प्रकार हमारे पूर्वज अपने जीवन के अन्तकाल में इस हिमालय पर खिंचे चले आते थे, उसी प्रकार भविष्य में पृथ्वी भर की शक्तिशाली आत्माएँ इस गिरिराज की ओर आकर्षित होकर चली आएँगी। यह उस समय होगा जब कि भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के आपस के झगड़े आगे याद नहीं किये जाएँगे, जब धार्मिक रूड़िढयों के सम्बन्ध का वैमनस्य नष्ट हो जाएगा, जब हमारे और तुम्हारे धर्मसम्बन्धी झगड़े बिल्कुल दूर हो जाएँगे तथा जब मनुष्य मात्र यह समझ लेगा कि केवल एक ही चिरन्तन धर्म है और वह है स्वयं में परमेश्वर की अनुभूति, और शेष जो कुछ है वह सब व्यर्थ है। यह जानकर अनेक व्यग्र आत्माएँ यहाँ आएँगी कि यह संसार एक महा धोखे की टट्टी है, यहाँ सब कुछ मिथ्या है और यदि कुछ सत्य है तो वह है ईश्वर की उपासना – केवल ईश्वर की उपासना।

मित्रों, यह तुम्हारी कृपा है कि तुमने मेरे एक विचार का जिक्र किया है और मेरा वह विचार इस स्थान पर एक आश्रम स्थापित करने का है। मैंने शायद तुम लोगों को यह बात काफी स्पष्ट रूप से समझा दी है कि यहाँ पर आश्रम की स्थापना क्यों की जाए तथा संसार में अन्य सब स्थानों को छोड़कर मैंने इसी स्थान को क्यों चुना है, जहाँ से इस विश्वधर्म की शिक्षा का प्रसार हो सके। कारण स्पष्ट ही है कि इन पर्वतश्रेणियों के साथ हमारी हिन्दू जाति की सर्वोत्तम स्मृतियाँ सम्बद्ध है। यदि यह हिमालय धार्मिक भारत के इतिहास से पृथक कर दिया जाए तो शेष बहुत कम रह जाएगा। अतएव यहीं पर एक केन्द्र होना चाहिए – जो कर्मप्रधान न हो, वरन् शान्ति का हो, ध्यानधारणा का हो, और मुझे पूर्ण आशा है कि एक न एक दिन ऐसा अवश्य होगा। मैं यह भी आशा करता हूँ कि तुम लोगों से फिर और कभी मिलूँगा जब तुमसे वार्तालाप का इससे अच्छा अवसर होगा। अभी मैं इतना ही कहता हूँ कि तुमने मेरे प्रति जो प्रेमभाव दिखलाया है, उसके लिए मैं बड़ा कृतज्ञ हूँ और मैं यह मानता हूँ कि तुमने यह प्रेम तथा कृपा मुझ व्यक्ति के प्रति नहीं दिखायी हैं, वरन् एक ऐसे के प्रति दिखायी है जो हमारे प्राचीन हिन्दू धर्म का प्रतिनिधि है। हमारे इस धर्म की भावना हमारे हृदयों में सदैव बनी रहे। ईश्वर करे, हम सब सदैव ऐसे ही शुद्ध बने रहें, जैसे हम इस समय हैं तथा हमारे हृदयों में आध्यात्मिकता के लिए उत्साह भी सदैव इतना ही तीव्र रहे।


  1. पाश्चात्य देशों में जाने से कई वर्ष पहले हिमालय-भ्रमणकाल में स्वामी विवेकानंद यहाँ पधारे थे।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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