भक्ति के अवस्थाभेद – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“भक्ति के अवस्थाभेद” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्ति योग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी बता रहे हैं कि भक्ति के अवस्थाभेद क्या हैं अर्थात भक्ति का प्रकाश किन-किन रूपों में होता है। इस किताब के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – भक्तियोग हिन्दी में।
भक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती है।1 पहला है – ‘श्रद्धा’। लोग मन्दिरों और पवित्र स्थानों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? इसलिए कि वहाँ भगवान की पूजा होती है, ऐसे स्थानों में उनकी सत्ता अधिक अनुभूत होती है। प्रत्येक देश में लोग धर्म के आचार्यों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? इसलिए कि ऐसा करना नितान्त स्वाभाविक है, क्योंकि ये सब आचार्य उन्हीं भगवान की महिमा का उपदेश देते हैं। इस श्रद्धा का मूल है प्रेम। हम जिससे प्रेम नहीं करते, उसके प्रति कभी भी श्रद्धालु नहीं हो सकते। इसके बाद है – ‘प्रीति’ अर्थात् ईश्वर-चिन्तन में आनन्द। मनुष्य इन्द्रिय-विषयों में कितना तीव्र आनन्द अनुभव करता है। इन्द्रियों को अच्छी लगने वाली चीजों के लिए वह कहाँ कहाँ भटकता फिरता है और बड़ी से बड़ी जोखिम उठाने को तैयार रहता है। भक्त को चाहिए कि वह भगवान के प्रति इसी प्रकार का तीव्र प्रेम रखे। इसके उपरान्त आता है ‘विरह’ – प्रेमास्पद के अभाव में उत्पन्न होनेवाला तीव्र दुःख। यह दुःख संसार के समस्त दुःखों में सब से मधुर है – अत्यन्त मधुर है। जब मनुष्य भगवान को न पा सकने के कारण, संसार में एकमात्र जानने योग्य वस्तु को न जान सकने के कारण भीतर में तीव्र वेदना अनुभव करने लगता है और फलस्वरूप अत्यन्त व्याकुल हो बिलकुल पागल-सा हो जाता है, तो उस दशा को विरह कहते हैं। मन की ऐसी दशा में प्रेमास्पद को छोड़ उसे और कुछ अच्छा नहीं लगता (इतरविचिकित्सा)। बहुधा यह विरह सांसारिक प्रणय में देखा जाता है। जब स्त्री और पुरुष में यथार्थ और प्रगाढ़ प्रेम होता है, तो उन्हें ऐसे किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति अच्छी नहीं लगती, जो उनके मन का नहीं होता। ठीक इसी प्रकार जब पराभक्ति हृदय पर अपना प्रभाव जमा लेती है, तो अन्य अप्रिय विषयों की उपस्थिति हमें खटकने लगती है, यहाँ तक कि प्रेमास्पद भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी विषय पर बातचीत तक करना हमारे लिए अरुचिकर हो जाता है, “उन पर – केवल उन पर ध्यान करो और अन्य सब बातें त्याग दो।”2 जो लोग केवल उन्ही की चर्चा करते हैं, वे भक्त को मित्र के समान प्रतीत होते हैं, और जो अन्य लोग अन्य विषयों की चर्चा करते हैं, वे उसको शत्रु के समान लगते हैं। प्रेम की इससे भी उच्च अवस्था तो वह हैं, जब उन प्रेमास्पद भगवान के लिए ही जीवन धारण किया जाता है, जब उन प्रेमस्वरूप के निमित्त ही प्राण धारण करना सुन्दर और सार्थक समझा जाता है। ऐसे प्रेमी के लिए उन परम प्रेमास्पद भगवान बिना एक क्षण भी रहना असम्भव हो उठता है। उन प्रियतम का चिन्तन हृदय में सदैव बने रहने के कारण ही उसे जीवन इतना मधुर प्रतीत होता है। शास्त्रों में इसी अवस्था को ‘तदर्थप्राणसंस्थान’ कहा है। ‘तदीयता’ तब आती है, जब साधक भक्ति-मत के अनुसार पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाता है, जब वह श्रीभगवान के चरणारविन्दों का स्पर्श कर धन्य और कृतार्थ हो जाता है। तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है – सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती है। तब उसके जीवन की सारी साध पूरी हो जाती है। फिर भी, इस प्रकार के बहुतसे भक्त बस उनकी उपासना के निमित्त ही जीवन धारण किये रहते हैं। इस दुःखमय जीवन में यही एकमात्र सुख है, और वे इसे छोड़ना नहीं चाहते। “हे राजन्! हरि के ऐसे मनोहर गुण हैं कि जो लोग उनको प्राप्त कर संसार की सारी वस्तुओं से तृप्त हो गये हैं, जिनके हृदय की सब ग्रन्थियाँ खुल गयी हैं वे भी भगवान की निष्काम-भक्ति करते हैं”3 – “जिन भगवान की उपासना सारे देवता, मुमुक्षु और ब्रह्मवादीगण करते हैं।”4 ऐसा है प्रेम का प्रभाव! जब मनुष्य अपने आपको बिलकुल भूल जाता है और जब उसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि कोई चीज अपनी है, तभी उसे यह ‘तदीयता’ की अवस्था प्राप्त होती है। तब सब कुछ उसके लिए पवित्र हो जाता है, क्योंकि वह सब उसके प्रेमास्पद का ही तो है। सांसारिक प्रेम में भी, प्रेमी अपनी प्रेमिका की प्रत्येक वस्तु को बड़ी प्रिय और पवित्र मानता है। अपनी प्रणयिनी के कपड़े के एक छोटेसे टुकड़े को भी वह प्यार करता है। इसी प्रकार जो मनुष्य भगवान से प्रेम करता है, उसके लिए सारा संसार प्रिय हो जाता है, क्योंकि यह संसार आखिर उन्ही का तो है।
- सम्मान-बहुमान-प्रीति-विरह-इतरविचिकित्सा-महिमख्याति-तदर्थप्राण-संस्थान-तदीयता-सर्वतद्भाव-अप्रातिकूल्यादीनि च स्मरणेभ्यो बाहुल्यात्।- शाण्डिल्यसूत्र, २।१।४४
- तम् एव एकं जानथ आत्मानम् अन्या वाचो विमुंचथ अमृतस्य एष सेतुः।
मुण्डकोपनिषद्, २।२।५ - आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहेतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः॥
श्रीमद्भागवत, १।७।१० - यं सर्वे देवा नमस्यन्ति मुमुक्षवो ब्रह्मवादिनश्च।
नृसिंह. उपनिषद् ५।२।१५
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