प्रारंभिक त्याग – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“प्रारंभिक त्याग” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्ति योग से लिया गया है। इस अध्याय में स्वामी जी पराभक्ति की विवेचना आरंभ करते हैं और प्रारंभिक त्याग के महत्व को स्पष्ट करते हैं। साथ ही वे यह भी बतात हैं कि प्रारंभिक त्याग या वैराग्य की भक्तिमार्ग में क्या उपयोगिता है। इस किताब के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – भक्तियोग हिन्दी में।
अब तक हमने गौणी भक्ति के बारे में चर्चा की। अब हम पराभक्ति का विवेचन करेंगे। इस पराभक्ति के अभ्यास में लगने के लिए एक विशेष साधन की बात बतलानी हैं। सब प्रकार की साधनाओं का उद्देश्य है – आत्मशुद्धि। नाम-जप, कर्मकाण्ड, प्रतीक, प्रतिमा आदि केवल आत्मशुद्धि के लिए हैं। पर शुद्धि की इन सब साधनाओं में त्याग ही सब से श्रेष्ठ है। इसके बिना कोई भी पराभक्ति के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता। त्याग की बात सुनते ही बहुतसे लोग डर जाते हैं; पर इसके बिना किसी प्रकार की आध्यात्मिक उन्नति सम्भव नहीं। सभी प्रकार के योग में यह त्याग आवश्यक है। यह त्याग ही सारी आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है, उसका सार है – यही वास्तविक धर्म है। जब मानवात्मा संसार की समस्त वस्तुओं को दूर फेंक, गम्भीर तत्त्वों के अनुसन्धान में लग जाती है, जब वह समझ लेती है कि मैं देहरूप जड़ में बद्ध होकर स्वयं जड़ हुई जा रही हूँ और क्रमशः विनाश की ओर ही बढ़ रही हूँ, – और ऐसा समझकर जब वह जड़ पदार्थ से अपना मुँह मोड़ लेती है, तभी त्याग आरम्भ होता है, तभी वास्तविक आध्यात्मिकता की नींव पड़ती है। कर्मयोगी सारे कर्मफलों का त्याग करता है; वह जो कुछ कर्म करता है, उसके फल में वह आसक्त नहीं होता। वह ऐहिक अथवा पारलौकिक किसी प्रकार के फलोपभोग की परवाह नहीं करता। राजयोगी जानता है कि सारी प्रकृति का लक्ष्य आत्मा को भिन्न भिन्न प्रकार के सुख-दुःखात्मक अनुभव प्राप्त कराना है, जिसके फलस्वरूप आत्मा यह जान ले कि वह प्रकृति से नित्य पृथक् और स्वतन्त्र है। मानवात्मा को यह भलीभाँति जान लेना होगा कि वह नित्य आत्मस्वरूप है और भूतों के साथ उसका संयोग केवल सामयिक है, क्षणिक है। राजयोगी प्रकृति के अपने नानाविध सुख-दुःखों के अनुभवों से वैराग्य की शिक्षा पाता है। ज्ञानयोगी का वैराग्य सब से कठिन है, क्योंकि आरम्भ से ही उसे यह जान लेना पड़ता है कि यह ठोस दिखनेवाली प्रकृति निरी मिथ्या है। उसे यह समझ लेना पड़ता है कि प्रकृति में जो कुछ शक्ति का विकास दिखता है, वह सब आत्मा की ही शक्ति हैं, प्रकृति की नहीं। उसे आरम्भ से ही यह जान लेना पड़ता है कि सारा ज्ञान और अनुभव आत्मा में ही है, प्रकृति में नहीं; और इसलिए उसे केवल विचारजन्य धारणा के बल से एकदम प्रकृति के सारे बन्धनों को छिन्न-भिन्न कर डालना पड़ता है। प्रकृति और प्राकृतिक पदार्थों की ओर वह देखता तक नहीं, वे सब उड़ते दृश्यों के समान उसके सामने से गायब हो जाते हैं। वह स्वयं कैवल्यपद में अवस्थित होने का प्रयत्न करता है
सब प्रकार के वैराग्यों में भक्तियोगी का वैराग्य सब से स्वाभाविक है। उसमें न कोई कठोरता है, न कुछ छोड़ना पड़ता है, न हमें अपने आपसे कोई चीज छोड़नी पड़ती है, और न बलपूर्वक किसी चीज से हमें अपने आपको अलग ही करना पड़ता है। भक्त का त्याग तो अत्यन्त सहज और स्वाभाविक होता है। इस प्रकार का त्याग, बहुत-कुछ विकृत रूप में, हम प्रतिदिन अपने चारों ओर देखते हैं। उदाहरणार्थ एक मनुष्य एक स्त्री से प्रेम करता हैं। कुछ समय बाद वह दूसरी स्त्री से प्रेम करने लगता है और पहली स्त्री को छोड़ देता है। वह पहली स्त्री धीरे धीरे उसके मन से पूर्णतया चली जाती है और उस मनुष्य को उसकी याद तक नहीं आती – उस स्त्री का अभाव तक उसे अब महसूस नहीं होता। एक स्त्री एक मनुष्य से प्रेम करती है; कुछ दिनों बाद वह दूसरे मनुष्य से प्रेम करने लगती है और पहला आदमी उसके मन से सहज ही उतर जाता है। किसी व्यक्ति को अपने शहर से प्यार होता है। फिर वह अपने देश को प्यार करने लगता है और तब उसका अपने उस छोटेसे शहर के प्रति उत्कट प्रेम धीरे धीरे, स्वाभाविक रूप से चला जाता है। फिर जब वही मनुष्य सारे संसार को प्यार करने लगता है, तब उसका स्वदेशानुराग, अपने देश के प्रति प्रबल और उन्मत्त प्रेम धीरे धीरे चला जाता है। इससे उसे कोई कष्ट नहीं होता। यह भाव दूर करने के लिए उसे किसी प्रकार की जोर-जबरदस्ती नहीं करनी पड़ती। एक अशिक्षित मनुष्य इन्द्रिय-सुखों में उन्मत्त रहता है। जैसे जैसे वह शिक्षित होता जाता है, वैसे-वैसे ज्ञान चर्चा में उसे अधिक सुख मिलने लगता है, और उसके विषय-भोग भी धीरे धीरे कम होते जाते हैं। एक कुत्ता अथवा भेड़िया जितनी रुचि से अपना भोजन करता है, उतना आनन्द किसी मनुष्य को अपने भोजन में नहीं आता। परन्तु जो आनन्द मनुष्य को बुद्धि और बौद्धिक कार्यों से प्राप्त होता है उसका अनुभव एक कुत्ता कभी नहीं कर सकता। पहले-पहल इन्द्रियों से सुख होता है; परन्तु ज्यों ज्यों प्राणी उच्चतर अवस्थाओं को प्राप्त होता जाता है, त्यों त्यों इन्द्रियजन्य सुखों में उसकी आसक्ति कम होती जाती है। मानवसमाज में भी देखा जाता है कि मनुष्य की प्रवृत्ति जितनी पशुवत् होती है, वह उतनी ही तीव्रता से इन्द्रियों में सुख का अनुभव करता है। पर वह जितना ही शिक्षित और उच्च अवस्था को प्राप्त होता जाता है, उतना ही उसे बुद्धि सम्बन्धी तथा इसी प्रकार की अन्य सूक्ष्मतर बातों में आनन्द मिलने लगता है। इसी तरह, जब मनुष्य बुद्धि और मनोवृत्ति के भी अतीत हो जाता है और आध्यात्मिकता तथा ईश्वरानुभूति के क्षेत्र में विचरता है, तो उसे वहाँ ऐसा अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है कि उसकी तुलना में सारा इन्द्रियजन्य सुख, यहाँ तक कि बुद्धि से मिलनेवाला सुख भी बिलकुल तुच्छ प्रतीत होता है। जब चन्द्रमा चारों ओर अपनी शुभ्रोज्ज्वल किरणें बिखेरता है, तो तारे धुँधले पड़ जाते हैं, परन्तु सूर्य के प्रकट होने से चन्द्रमा स्वयं ही निष्प्रभ हो जाता है। भक्ति के लिए जिस वैराग्य की आवश्यकता होती है, उसके प्राप्त करने के लिये किसी का नाश करने की आवश्यकता नहीं होती। वह वैराग्य तो स्वभावतः ही आ जाता है। जैसे बढ़ते हुए तेज प्रकाश के सामने मन्द प्रकाश धीरे धीरे स्वयं ही धुँधला होता जाता है और अन्त में बिलकुल विलीन हो जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियजन्य तथा बुद्धिजन्य सुख ईश्वर-प्रेम के समक्ष आप ही आप धीरे धीरे धुँधले होकर अन्त में निष्प्रभ हो जाते हैं। यही ईश्वर-प्रेम क्रमशः बढ़ते हुए एक ऐसा रूप धारण कर लेता है, जिसे पराभक्ति कहते हैं। तब तो इस प्रेमिक पुरुष के लिए अनुष्ठान की और आवश्यकता नहीं रह जाती, शास्त्रों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता; प्रतिमा, मन्दिर, गिरजे, विभिन्न धर्म सम्प्रदाय, देश, राष्ट्र – ये सब छोटे छोटे सीमित भाव और बन्धन अपने आप ही चले जाते हैं। तब संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं बच रहती, जो उसको बाँध सके, जो उसकी स्वाधीनता को नष्ट कर सके। जिस प्रकार किसी चुम्बक की चट्टान के पास एक जहाज के आ जाने से उस जहाज की सारी कीलें तथा लोहे की छड़े खिंचकर निकल आती है और जहाज के तख्ते आदि खुलकर पानी पर तैरने लगते हैं, उसी प्रकार प्रभु की कृपा से आत्मा के सारे बन्धन दूर हो जाते हैं और वह मुक्त हो जाती है। अतएव भक्तिलाभ के उपायस्वरूप इस वैराग्य-साधन में न तो किसी प्रकार की कठोरता है, न शुष्कता और न किसी प्रकार की जबरदस्ती ही। भक्त को अपने किसी भी भाव का दमन करना नहीं पड़ता, प्रत्युत वह तो सब भावों को प्रबल करके भगवान की ओर लगा देता है।
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