गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र – Gajendra Moksha Path
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श्री शुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम॥१॥
यों निश्चय कर व्यवसित मतिसे, मन प्रथम हृदयसे जोड़ लिया।
फिर पूर्वजन्ममें अनुशिक्षित, इस परम मन्त्रका जाप किया ॥ १ ॥
बुद्धि के द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदय देश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्व जन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार-बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन-ही-मन पाठ करने लगा॥ १ ॥
गजेन्द्र उवाच
ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥२॥
मनसे है 3 नमन प्रभुको, जिससे यह जड़ चेतन बननता।
जो परम पुरुष, जो आदि ब्वीज, सर्वोपरि जिसकी इईश्वरता॥ २॥
है गजेन्द्र मोक्ष जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतनता कों पाकर) ये जड़ शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भाँति व्यवहार करने लगते हैं), ओम्’ शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीरों में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर को हम मन-ही-मन नमन करते हैं ॥ २॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥
जिसमें, जिससे, जिसके द्वारा जगकी सत्ता, जो स्वयं यही।
जो कारण-कार्य–परे सबके, जो निजभू, आज शरण्य वही ॥ ३ ॥
जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है, जिन्होंने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं-फिर भी जो इस दृश्य जगत् से एवं उसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण) एवं श्रेष्ठ हैं-उन अपने- आप-बिना किसी कारण के-उबने हुए भगवान् की मैं शरण लेता हूँ॥ ३ ॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्म मूलोsवत् मां परात्परः ॥४॥
अपनेमें ही. अपनी मायासे ही. रचे हुए संसार। को हो कभी प्रकट, अन्तर्हित, कभी देखता उभय प्रकार।
जो अविद्धदूक साक्षी बनकर, जो परसे भी सदा परे। है जो स्वयं प्रकाशक अपना, मेरी रक्षा आज करे॥ ४॥
अपनी संकल्प-शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलय काल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र प्रसिद्ध कार्य-कारण रूप जगत् को जो अकुण्ठित-दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं–उनसे लिप्त नहीं होते, वे चक्षु आदि प्रकाश कों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें॥ ४॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
‘लोक, लोकपालोंका, इन सबके कारणका भी संहार।
कर देता सम्पूर्ण रूपसे महाकालका कठिन कुठार॥
अन्धकार तब छा जाता है, एक गहन, गंभीर, अपार।
उसके पार चमकते जो विभु, वे लें मुझको आज सँभार ॥ ५॥
समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूतों में प्रवेश न गजेन्द्र मोक्ष कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्तत्वपर्यन्त सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकारण रूपा प्रकृति में लीन हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अन्धकार रूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान् सब ओर प्रकाशित रहते हैं, वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ ५ ॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
देवता तथा ऋषि त्ोग नहीं जिनके स्वसूपको जान सके।
फिर कौन दूसरा जीव भला, जो उनको कभी बखान सके ॥
जो करते नाना रूप धरे, लीला अनेक नटतुल्य रचा।
है दुर्गम जिनका चरित-सिंधु, वे महापुरुष लें मुझे बचा ॥ ६ ॥
भिन्न-भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नहीं जान पाते, उसी प्रकार सत्त्वप्रधान देवता अथवा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नहीं जानते, फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है-वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें ॥६॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
जो साधुस्वभावी, सर्वसुद्ददू वे मुनिगण भी सब संग छोड़।
गजेन्द्रमोक्ष २५ बस केवलमात्र आत्माका सब्र भूतोंसे सम्बन्ध जोड़ ॥
जिनके मंगलमय पद-दर्शनकी इच्छासे वनमें पात्नन।
करते अलोक बव्रतका अखण्ड, वे ही हैं मेरे अवलम्बन।॥ ७ ॥
आसक्ति से सर्वथा छूटे हुए, सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले, सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु-स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से बन में रहकर अखण्ड ब्रहमचर्य आदि अलौकिक ब्रतों का पालन करते हैं, वे प्रभु ही मेरी गति हैं ॥७॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥८॥
जिसका होता है जन्म नहीं, केवल श्रमसे होता प्रतीत ।
जो कर्म और गुण-दोष तथा जो नामरूपसे है अतीत ॥
रचनी होती जब सृष्टि किंतु, जब करना होता उसका लय।
तब अंगीकृत कर लेता है इन धर्मोको वह यथासमय॥ ८ ॥
गजेन्द्र मोक्ष जिनका हमारी तरह कर्मवश न तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं,जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही, फिर भी जो समयानुसार जगत् की सृष्टि एवं प्रलय (संहार)-के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं॥ ८ ॥
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥
उस परमेश्वर, उस परमब्रहा, उस अमित-शक्ततिको नमस्कार ।
जो अद्भुतकर्मा, जो अरूप, फिर भी लेता बहुरूप धार॥ ९ ॥
उन अनन्तशक्ति सम्पन्न पर ब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है। उन प्राकृत आकार रहित एवं अनेकों आकार वाले अद्भुतकर्मा भगवान् को बार-बार नमस्कार है ॥ ९॥
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
परमात्मा जो सबका साक्षी, उस आत्मदीपको नमस्कार ।
जिसतक जानेमें पथमें ही, जाते वाणी-मन-चित्त हार॥ १० ॥
स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है। उन प्रभु को, जो मन, गजेन्द्र मोक्ष वाणी एवं चित्तवृत्तियोंसे भी सर्वथा परे हैं, बार-बार नमस्कार है॥ १० ॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥
बन सतोगुणी सुनिवृत्तिमार्गसे पाते जिसको विद्वर्जन।
जो सुखस्वरूप निर्वाणजनित, जो मोश्वधामपति, उसे नमन ॥ ११ ॥
विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुणविशिष्ट निवृत्ति धर्म के आचरणसे प्राप्त होने योग्य, मोक्ष-सुखके देनेवाले तथा मोक्ष-सुखकी अनुभूति रूप प्रभु को नमस्कार है॥ ११॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
जो शान्त, घोर, जडरूप प्रकट होते तीनों गुण धर्म धार।
उन सौम्य, ज्ञानघन, निर्विशेषको नमस्कार है, नमस्कार ॥ १२ ॥
सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त, रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण कों स्वीकार करके मूढ-से प्रतीत होनेवाले, भेदरहित; अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है॥ १२ ॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥
सबके स्वामी, सबके साक्षी, क्षेत्रज्ञ! तुझे है नमस्कार ।
हे आत्ममूल, हे मूलप्रकृति, हे पुरूष, नमस्ते बार-बार॥ १३ ॥
शरीर, इन्द्रियि आदि के समुदाय रूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षी रूप आपको नमस्कार है। सबके अन्तर्यामी, प्रकृति के भी परम कारण, किंतु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है॥ १३ ॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥१४॥
इन्द्रिय-विषयोंका जो द्रष्टा, इन्द्रियानुभवका जो कारन।
जो व्यक्त असत्की छायामें, हे सदाभास! है तुझे नमन ॥ १४॥
सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्या रूप से भासने वाले आपको नमस्कार है॥ १४ ॥
नमो नमस्तेsखिल कारणाय
निष्कारणायाद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
सबके कारण, निष्कारण भी, हे विकृतिरहित सबके कारण ।
तेरे चरणोंमें ब्वार-बार है नमस्कार मेरा अर्पण ॥
सब श्रुतियों, शास्त्रोंका सारे, जो केवल एक अगाध निलय।
उस मोक्षरूपको नमस्कार, जिसमें पाते सज्जन आश्रय ॥ १५ ॥
सबके कारण किंतु स्वयं कारणरहित तथा कारण होने पर भी परिणाम रहित होने के कारण अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है। सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्ष रूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान् को नमस्कार है॥ १५ ॥
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मानसाय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
जो ज्ञानरूपसे छिपा गुणोंके बीच, काष्ठमें यथा अनल।
अभिव्यक्ति चाहता मन जिसका, जिस समय गुणोंमें हो हलचल ॥
मैं नमस्कार करता उसको, जो स्वयं प्रकाशित है उनमें ।
आत्मालोचन करके न रहे, जो विधि-निषेधके बन्धनमें ॥ १६ ॥
जो त्रिगुण रूप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानमय अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मनमें सृष्टि रचने की बाह्यमवृत्ति जाग्रतू हो जाती है तथा आत्मतत्त्वकी गजेन्द्र मोक्ष भावना के द्वारा विधि-निषेध रूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओं में जो स्वयं प्रकाशित रहते हैं, उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १६ ॥
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
जो मेरे-जैसे शरणागत जीवोंका हरता है बन्धन।
उस मुक्त, अमित करुणावाले, आलस्यरहितके लिये नमन ॥
सब जीवोंके मनके भीतर, जो है प्रतीत प्रत्यक्चेतन ।
बन अन्तर्यामी, हे भगवन्! हे अपरिछिनन! है तुझे नमन ॥ १७ ॥
मुझ-जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव की अविद्या रूप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरूप से काट देने वाले अत्यधिक दयालु एवं दया करने में कभी आलस्य न करने वाले नित्य मुक्त प्रभुको नमस्कार है। अपने अंश से सम्पूर्ण जीवों के मनमें अन्तर्यामी रूप से प्रकट रहने वाले सर्वनियन्ता अनन्त परमात्मा आपको नमस्कार है ॥१७ ॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥
जिसका मिलना है सहज नहीं, उन लोगोंको, जो सदा रमें।
लोगोंमें, धनमें, मित्रोंमें, अपनेमें, पुत्रोंमें, घरमें॥
जो निर्गुण, जिसका हृदय-बीच जन अनासक्त करते चिन्तन।
हे ज्ञानरूप! हे परमेश्वर! हे भगवन्! मेरा तुझे नमन ॥ २८ ॥
शरीर, पुत्र, मित्र, घर, सम्पत्ति एवं कुटुम्बियोंगें आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने हृदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञान स्वरूप, सर्वसमर्थ भगवानू को नमस्कार है॥ १८ ॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेsदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥१९॥
जिनको विमोक्ष-धर्मार्थ कामकी इच्छावाले जन भजकर।
बवाज्छिति फलको पा लेते हैं; जो देते तथा अयाचित वर ॥
भी अपने भजनेवालोंको, कर देते उनकी देह अमर।
लें वे ही आज उबार मुझे, इस संकटसे करुणासागर॥ १९ ॥
जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन एवं मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं, अपितु जो उन्हें अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस गजेन्द्र मोक्ष विपत्ति से है विपत्ति से सदा के लिये उबार लें ॥ १९ ॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
जिनके अनन्य जन धर्म, अर्थ या काम-मोक्ष, पुरुषार्थ-सकल।
की चाह नहीं रखते मनमें, जिनकी बस, इतनी रुचि केवल ॥
अत्यन्त विलक्षण श्रीहरिके जो चरित परम मंगल, सुन्दर।
आनन्द-सिन्धुमें मग्न रहें, गा-गाकर उनको निसि-वासर॥ २०॥
जिनके अनन्य भक्त-जो वस्तुत: एकमात्र उन भगवान् के ही शरण हैं–धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नहीं चाहते, अपितु उन्हीं के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र में गोते लगाते रहते हैं ॥ २० ॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
जो अविनाशी, जो सर्वव्याप्त, सबका स्वामी, सबके ऊपर।
अव्यक्त, किंतु अध्यात्ममार्गके पथिकोंको जो है गोचर ॥
इन्द्रियातीत, अति दूर-सदूश जो सूक्ष्म तथा जो है अपार।
कर-कर बखान मैं आज रहा, उस आदि पुरूषको ही पुकार ॥ २१ ॥
गजेन्द्र मोक्ष उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादिकि भी नियामक, अभक्तों के लिये अप्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होने वाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ेय, अन्तरहित किंतु सब के आदि कारण एवं सब ओर से परिपूर्ण उन भगवानू की मैं स्तुति करता हूँ॥ २१॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥
उत्पन्न वेद, ब्रह्मादि देव, ये लोक सकल, चर और अचर।
होते जिसकी बस, स्वल्प कलासे नाना नाम-रूप धरकर ॥ २२ ॥
ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा सम्पूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति के भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं॥ २२॥
यथार्चिषोsग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः ।
तथा यतोsयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥
ज्यों ज्वलित अग्निसे चिनगारी, ज्यों रविसे किरणें निकल-निकल।
फिर लौट उन्हींमें जाती हैं, गुणकृत प्रपंच उस भाँति सकल ॥
मन, बुद्धि, सभी इन्द्रियों तथा सब विविध योनियॉवाले तन।
का जिससे प्रकटन हो जिसमें, हो जाता है पुनरावर्त्तन ॥ २३ ॥
गजेन्द्र मोक्ष जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार-बार निकलती हैं और पुन: अपने कारण में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर-यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयं प्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुन: उन्हीं में लीन हो जाता है॥ २३ ॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
तह नहीं देव, वह असुर नहीं, वह नहीं मर्त्य, वह क्लीन नहीं।
वह कारण अथवा कार्य नहीं गुण, कर्म, पुरुष या जीव नहीं ॥
सबका कर देनेपर निषेध जो कुछ रह जाता शेष, वही ।
जो है अशेष हो प्रकट आज, हर ले मेरा सब क्लेश वही ॥ २४॥
वे भगवान् वास्तव में न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक् (मनुष्य से नीची-पशु, पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी हैं। न वे स्त्री हैं न पुरुष और न नपुंसक ही हैं। न वे ऐसे कोई जीव हैं, जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश न हो सके। न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही। सबका निषेध गजेन्द्र मोक्ष हो जानेपर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ हैं। ऐसे भगवान् मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों ॥ २४ ॥
जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥
कुछ चाह न जीवित रहनेकी, जो तमसावृत बाहर-भीतर– ऐसे इस हाथीके तनको, क्या भला, करूँगा मैं रखकर ? इच्छा इतनी–बन्धन जिसका सुदूढ़ न कालसे भी टूटे। आत्माकी जिससे ज्योति ढँकी, अज्ञान वही मेरा छूटे॥ २५ ॥
मैं इस ग्राह के चंगुल से छूटकर जीवित रहना नहीं चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर-सब ओर से अज्ञान के द्वारा ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है। मैं तो आत्मा के प्रकाश कों ढक देनेवाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने-आप नाश नहीं होता, अपितु भगवान् की दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है॥ २५॥
सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोsस्मि परं पदम् ॥२६॥
उस विश्वसृजक, अज, विश्वरूप, जगसे बाहर जग-सूत्रधार।
विश्वात्मा, ब्रह्म, परमपदको, इस मोक्षार्थीका नमस्कार ॥ २६ ॥
गजेन्द्रमोक्ष इस प्रकार मोक्षका अभिलाषी मैं विश्व के रचयिता, स्वयं विश्वके रूप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मा रूप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्तव्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री भगवानू को केवल प्रणाम ही करता हूँ-उनकी शरणमें हूँ॥ २६ ॥
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम् ॥२७॥
निज कर्म-जालको भक्तियोगसे जला, योग परिशुद्ध हृदय ।
में जिसे देखते योगीजन, योगेश्वर प्रति मैं नत सविनय ॥ २७॥
जिन्होंने भगवद्धक्ति रूप योग के द्वारा कर्मो को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योगके द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदय में जिन्हें प्रकट हुआ देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् कों मैं नमस्कार करता हूँ॥ २७॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥
हो सकता सहन नहीं जिसकी त्रियुणात्म-शक्तिका वेग प्रबल ।
जो होता तथा प्रतीत धरे इन्द्रिय-विषयोंका रूप सकल ॥
जो दुर्गम उन्हें मलिन विषयोंमें जो कि इन्द्रियोंके उलझे ।
शरणागत-पालक, अमित-शक्ति हे! बारंबार प्रणाम तुझे ॥ २८ ॥
जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरूप) शक्तियों का राग रूप वेग असद्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषय रूप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची-पची रहती हैं–ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असम्भव है, उन शरणागत रक्षक एवं अपार शक्तिशाली आपको बार-बार नमस्कार है॥ २८ ॥
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम् ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम् ॥२९॥
अनभिज्ञ जीव जिसकी माया, कृत अहंकार द्वारा उपहत।
निज आत्मासे मैं उस दुरन्त महिमामय प्रभुके शरणागत ॥ २९ ॥
जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्य रूप अहंकार से ढके हुए अपने स्वरूप को यह जीव जान नहीं पाता, उन अपार महिमा वाले भगवान् की मैं शरण आया हूँ॥ २९ ॥
श्री शुकदेव उवाच –
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥३०॥
यह निराकार-वपु भेदरहितकी स्तुति गजेन्द्र-वर्णित सुनकर ।
आकृति-विशेषवात्ने रूपोंके अश्विमानी ब्रहमादि अमर ॥
आये जब उसके पास नहीं; तब श्रीहरि जो आत्मा घट-घट।
के होनेसे सब देवरूप, हो गये वहाँ उस काल प्रकट ॥ ३० ॥
जिसने पूर्वोक्त प्रकारसे भगवान् के भेदरहित निराकार स्वरूप का वर्णन किया था, उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नहीं आये, जो भिन्न- भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरूप मानते हैं, तब साक्षात् श्री हरि-जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्व रूप हैं वहाँ प्रकट हो गये॥ ३०॥
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान –
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥
वे देख उसे इस भाँति दुखी, उसका यह आर्त्तस्तव सुनकर।
मन-सी. गतिवाले पश्षिराजकी चढ़े पीठ ऊपर सत्वर॥
आ पहुँचे, था गजराज जहाँ, निज करमें चक्र उठाये थे।
तब जगनिवासके साथ-साथ, सुर भी स्तुति करते आये थे॥ ३१॥
उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देखकर तथा उसके द्वारा पढ़ी हुई गजेन्द्र मोक्ष स्तुति को सुनकर सुदर्शन-चक्रधारी जगदाधार भगवान् इच्छानु रूप वेगवाले गरुड्जी की पीठपर सवार हो स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गये, जहाँ वह हाथी था॥ ३१॥
सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरिम् ख उपात्तचक्रम ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा –
नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥३२॥
अतिशय बलशाली ग्राह जिसे, था पकड़े हुए सरोवरमें ।
गजराज देखकर श्रीहरिको, आसीन गरुड़पर अम्बरमें ॥
खर चक़ हाथमें त्लिये हुए, वह दुखिया उठा कमत्न करनमें ।
“हे विश्व-वन्द्य प्रभु! नमस्कार’ यह बोल उठा पीड़ित स्वरमें ॥ ३२ ॥
सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकड़े जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुड़ की पीठपर चक्रको उठाये हुए भगवान् श्रीहरि को देखकर अपनी सूँड़को-जिसमें उसने [पूजा के लिये] कमल का एक फूल ले रखा था। ऊपर उठाया और बड़ी ही कठिनता से ‘ सर्वपूज्य भगवान् नारायण! आपको गजेन्द्र मोक्ष प्रणाम है’, यह वाक्य कहा॥ ३२॥
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुच दुस्त्रियाणाम् ॥३३॥
पीड़ामें उसको पड़ा देख, भगवान् अजन्मा पड़े उतर।
अविलम्ब गरुड़से फिर कृपया झट खींच सरोवरसे बाहर ॥
कर गजको मकर-सहित, उसका मुख चक्रधारसे चीर दिया।
देखते-देखते सुरगणके हरिने गजेन्द्रको छुड़ा लिया॥ ३३ ॥
उसे पीड़ित देखकर अजनमा श्रीहरि एकाएक गरुड़ को छोड़कर नीचे झीलपर उतर आये। वे दया से प्रेरित हो ग्राह इसहित उस गजराजको तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते-देखते चक्र से उस ग्राह का मुँह चीरकर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया ॥ ३३ ॥
योऽसौ ग्राहः स वै सद्यः परमाश्र्चर्य रुपधृक् ।
मुक्तो देवलशापेन हुहु-गंधर्व सत्तमः ॥
सोऽनुकंपित ईशेन परिक्रम्य प्रणम्य तम् ॥
लोकस्य पश्यतो लोकं स्वमगान्मुक्त-किल्बिषः ॥ ३४ ॥
गंधर्वसिद्धविबुधैरुपगीयमान-
कर्माभ्दुतं स्वभवनं गरुडासनोऽगात् ॥ ३६ ॥
॥ इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे गजेंन्द्रमोक्षणे तृतीयोऽध्यायः ॥
विदेशों में बसे कुछ हिंदू स्वजनों के आग्रह पर गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र को हम रोमन में भी प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें आशा है कि वे इससे अवश्य लाभान्वित होंगे। पढ़ें यह गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र रोमन में–
Gajendra Moksha Stotra Lyrics
śrī śuka uvāca
evaṃ vyavasito buddhyā samādhāya mano hṛdi।
jajāpa paramaṃ jāpyaṃ prāgjanmanyanuśikṣitama॥
gajendra uvāca
ūṃ namo bhagavate tasmai yata etaccidātmakama ।
puruṣāyādibījāya pareśāyābhidhīmahi ॥2॥
yasminnidaṃ yataścedaṃ yenedaṃ ya idaṃ svayaṃ ।
yosmātparasmācca parastaṃ prapadye svayambhuvama ॥3॥
yaḥ svātmanīdaṃ nijamāyayārpitaṃ
kvacidvibhātaṃ kva ca tattirohitama ।
aviddhadṛka sākṣyubhayaṃ tadīkṣate
sa ātma mūlosvat māṃ parātparaḥ ॥4॥
kālena paṃcatvamiteṣu kṛtsnaśo
lokeṣu pāleṣu ca sarva hetuṣu ।
tamastadā”’sīda gahanaṃ gabhīraṃ
yastasya pāresbhivirājate vibhuḥ ॥5॥
na yasya devā ṛṣayaḥ padaṃ vidu-
rjantuḥ punaḥ kosrhati gantumīrituma ।
yathā naṭasyākṛtibhirviceṣṭato
duratyayānukramaṇaḥ sa māvatu ॥6॥
didṛkṣavo yasya padaṃ sumaṃgalama
vimukta saṃgā munayaḥ susādhavaḥ ।
carantyalokavratamavraṇaṃ vane
bhūtātmabhūtā suhṛdaḥ sa me gatiḥ ॥7॥
na vidyate yasya na janma karma vā
na nāma rūpe guṇadoṣa eva vā ।
tathāpi lokāpyayasambhavāya yaḥ
svamāyayā tānyanukālamṛcchati ॥8॥
tasmai namaḥ pareśāya brahmaṇesnantaśaktaye ।
arūpāyorurūpāya nama āścarya karmaṇe ॥9॥
nama ātma pradīpāya sākṣiṇe paramātmane ।
namo girāṃ vidūrāya manasaścetasāmapi ॥10॥
sattvena pratilabhyāya naiṣkarmyeṇa vipaścitā ।
namaḥ kaivalyanāthāya nirvāṇasukhasaṃvide ॥11॥
namaḥ śāntāya ghorāya mūḍhāya guṇa dharmiṇe ।
nirviśeṣāya sāmyāya namo jñānaghanāya ca ॥12॥
kṣetrajñāya namastubhyaṃ sarvādhyakṣāya sākṣiṇe ।
puruṣāyātmamūlāya mūlaprakṛtaye namaḥ ॥13॥
sarvendriyaguṇadraṣṭre sarvapratyayahetave ।
asatācchāyayoktāya sadābhāsāya te namaḥ ॥14॥
namo namasteskhila kāraṇāya
niṣkāraṇāyādbhuta kāraṇāya ।
sarvāgamānmāyamahārṇavāya
namopavargāya parāyaṇāya ॥15॥
guṇāraṇicchanna cidūṣmapāya
tatkṣobhavisphūrjita mānasāya ।
naiṣkarmyabhāvena vivarjitāgama-
svayaṃprakāśāya namaskaromi ॥16॥
mādṛkprapannapaśupāśavimokṣaṇāya
muktāya bhūrikaruṇāya namoslayāya ।
svāṃśena sarvatanubhṛnmanasi pratīta-
pratyagdṛśe bhagavate bṛhate namaste ॥17॥
ātmātmajāptagṛhavittajaneṣu saktai-
rduṣprāpaṇāya guṇasaṃgavivarjitāya ।
muktātmabhiḥ svahṛdaye paribhāvitāya
jñānātmane bhagavate nama īśvarāya ॥18॥
yaṃ dharmakāmārthavimuktikāmā
bhajanta iṣṭāṃ gatimāpnuvanti ।
kiṃ tvāśiṣo rātyapi dehamavyayaṃ
karotu mesdabhradayo vimokṣaṇam ॥19॥
ekāntino yasya na kaṃcanārtha
vāṃchanti ye vai bhagavatprapannāḥ ।
atyadbhutaṃ taccaritaṃ sumaṃgalaṃ
gāyanta ānanda samudramagnāḥ ॥20॥
tamakṣaraṃ brahma paraṃ pareśa-
mavyaktamādhyātmikayogagamyama ।
atīndriyaṃ sūkṣmamivātidūra-
manantamādyaṃ paripūrṇamīḍe ॥21॥
yasya brahmādayo devā vedā lokāścarācarāḥ ।
nāmarūpavibhedena phalgvyā ca kalayā kṛtāḥ ॥22॥
yathārciṣosgneḥ saviturgabhastayo
niryānti saṃyāntyasakṛt svarociṣaḥ ।
tathā yatosyaṃ guṇasaṃpravāho
buddhirmanaḥ khāni śarīrasargāḥ ॥23॥
sa vai na devāsuramartyatiryaṃga
na strī na ṣaṇḍo na pumāna na jantuḥ ।
nāyaṃ guṇaḥ karma na sanna cāsana
niṣedhaśeṣo jayatādaśeṣaḥ ॥24॥
jijīviṣe nāhamihāmuyā ki-
mantarbahiścāvṛtayebhayonyā ।
icchāmi kālena na yasya viplava-
stasyātmalokāvaraṇasya mokṣama ॥25॥
soshaṃ viśvasṛjaṃ viśvamaviśvaṃ viśvavedasama ।
viśvātmānamajaṃ brahma praṇatossmi paraṃ padam ॥26॥
yogarandhita karmāṇo hṛdi yogavibhāvite ।
yogino yaṃ prapaśyanti yogeśaṃ taṃ natossmyaham ॥27॥
namo namastubhyamasahyavega-
śaktitrayāyākhiladhīguṇāya ।
prapannapālāya durantaśaktaye
kadindriyāṇāmanavāpyavartmane ॥28॥
nāyaṃ veda svamātmānaṃ yacchktyāhaṃdhiyā hatam ।
taṃ duratyayamāhātmyaṃ bhagavantamitossmyaham ॥29॥
śrī śukadeva uvāca –
evaṃ gajendramupavarṇitanirviśeṣaṃ
brahmādayo vividhaliṃgabhidābhimānāḥ ।
naite yadopasasṛpurnikhilātmakatvāta
tatrākhilāmaramayo harirāvirāsīt ॥30॥
taṃ tadvadārttamupalabhya jagannivāsaḥ
stotraṃ niśamya divijaiḥ saha saṃstuvadbhi : ।
chandomayena garuḍena samuhyamāna –
ścakrāyudhosbhyagamadāśu yato gajendraḥ ॥31॥
sosntassarasyurubalena gṛhīta ārtto
dṛṣṭvā garutmati harim kha upāttacakrama ।
utkṣipya sāmbujakaraṃ giramāha kṛcchā –
nārāyaṇākhilaguro bhagavannamaste ॥32॥
taṃ vīkṣya pīḍitamajaḥ sahasāvatīrya
sagrāhamāśu sarasaḥ kṛpayojjahāra ।
grāhād vipāṭitamukhādariṇā gajendraṃ
sampaśyatāṃ hariramūmuca dustriyāṇām ॥33॥
yo’sau grāhaḥ sa vai sadyaḥ paramāśrcarya rupadhṛk ।
mukto devalaśāpena huhu-gaṃdharva sattamaḥ ॥
so’nukaṃpita īśena parikramya praṇamya tam ॥
lokasya paśyato lokaṃ svamagānmukta-kilbiṣaḥ ॥ 34 ॥
gaṃdharvasiddhavibudhairupagīyamāna-
karmābhdutaṃ svabhavanaṃ garuḍāsano’gāt ॥ 36 ॥
॥ iti śrīmad bhāgavate mahāpurāṇe pāramahaṃsyāṃ saṃhitāyāṃ aṣṭamaskandhe gajeṃndramokṣaṇe tṛtīyo’dhyāyaḥ ॥
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