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कामाख्या मंदिर – जानें क्यों होती है यहाँ देवी की योनी की पूजा

असम का माँ कामाख्या मंदिर अपनी विभिन्नता और चमत्कारों के लिए जग प्रसिद्ध है। इस मंदिर की मुख्य विशेषता यह है कि यहां देवी की प्रतिमा की नहीं बल्कि उनकी योनि की पूजा की जाती है। मंदिर की विभिन्नता और रहस्य से अवगत होने के लिए लोगों की उत्सुकता देखते ही बनती है। लोग देश और विश्व के कोने-कोने से माँ का आशीर्वाद पाने और चमत्कारों की अनुभूति करने आते हैं। तो आइये आज इस जग विख्यात मंदिर के रहस्यों और मंदिर से जुड़े अन्य तथ्यों को आप सभी के साथ साझा करते हैं। यह स्थान अघोरियों और तंत्र मन्त्र की साधना करने वाले जातकों का गढ़ माना जाता है

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कामाख्या मंदिर की भौगोलिक स्थिति 

कामाख्या देवी मंदिर भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम में स्थित है। यह मंदिर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 10 कि.मी. की दूरी पर है। इस मंदिर का निर्माण नीलांचल नामक पहाड़ी पर हुआ है। हवाई मार्ग द्वारा भी यहां पहुंचा जा सकता है। यहां का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा कामाख्या से केवल 19 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। मंदिर के निचले स्तर पर ब्रह्मपुत्र नदी प्रवाहित है। 

कामाख्या मंदिर की विशेषता 

यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक और प्राचीनतम शक्तिपीठ है। इसे महाशक्तिपीठ भी कहा जाता है। यहां पर देवी की मूर्ति नहीं है, बल्कि शक्ति की पूजा योनि रूप में होती है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में योनि का आकार का एक शिलाखंड है। इस शिलाखंड को कुंड कहा जाता है जो हमेशा फूलो से ढंका हुआ रहता है। ऐसी प्रचलन है कि इस शिलाखंड के ऊपर लाल रंग के गेरू के घोल की धारा गिरायी जाती है।

क्यूंकि यहाँ देवी माँ का योनि भाग स्थापित है इसलिए यहां माता रजस्वला भी होती हैं। देश-विदेश से भक्तगण माता के दर्शन करने आते हैं और उनका यहाँ के इतिहास और शक्ति पर आस्था और अधिक बढ़ जाती है। ऐसी मान्यता है कि जो भी इस मंदिर का तीन बार दर्शन कर लेता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है। 

इस मंदिर का तांत्रिक महत्व भी बहुत अधिक है। यह स्थान अघोरियों और तंत्र मन्त्र की साधना करने वाले जातकों का गढ़ माना जाता है। महाकुम्भ कहे जाने वाले अम्बुवाची मेले के दौरान सैकड़ों तांत्रिक अपने एकांतवास से निकलकर यहां पर विशेष पूजा अर्चना करके अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करते हैं। 

कामाख्या मंदिर विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। यहां बिना किसी जाति, धर्म, और वर्ण के भेदभाव के कौमारी पूजा एवं अनुष्ठान किया जाता है। 

कामाख्या देवी मंदिर धार्मिक, चमत्कारिक, तांत्रिक और शक्तियों के अलावा प्राकृतिक रूप से भी अत्यंत आकर्षक है। यहाँ यात्रियों का प्रकृति के अनुपम दृश्यों से साक्षात्कार होता है। 

कामाख्या देवी की उत्पत्ति की कहानी 

पुराणों में कामाख्या देवी की उत्पत्ति की एक कहानी प्रचलित है जो इस प्रकार है:

माना जाता है कि प्रजापति दक्ष अपनी पुत्री सती और शिव के विवाह से बिल्कुल भी प्रसन्न नहीं थे। इसलिए उन्होंने ईर्ष्या वश एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में दक्ष ने देवी सती और भगवान शंकर के अलावा बाकी सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया। परन्तु फिर भी देवी सती, भगवान शिव से यज्ञ में जाने का हठ करने लगीं। तब भोलेनाथ को हार मान कर अपनी पत्नी को यज्ञ में जाने की अनुमति देनी पड़ी। 

जैसे ही देवी सती यज्ञ में पहुंची, उन्होंने अपने पिता से आमंत्रण ना भेजने का कारण पूछा। बदले में प्रजापति दक्ष क्रोध करने लगे और शंकर भगवान के लिए अपशब्द बोलने लगे। देवी सती अपमान की विशाल अग्नि सह नहीं पाईं और उसी यज्ञ कुंड में कूद गई। भगवान शिव को जैसे ही इसका आभास हुआ, उनकी तीसरी नेत्र खुल गई। 

शिव यथाशीघ्र यज्ञ स्थल पर पहुंच गए और देवी सती के पार्थिव शरीर को अपने हाथों में उठा कर वहाँ से चले गए। भगवान भोलेनाथ दुःख में विलाप करते हुए देवी सती के पार्थिव शरीर को लेकर तांडव करने लगे। यह देखकर भगवान विष्णु को भयंकर प्रलय का आभास हुआ। तब विष्णु ने सृष्टि को प्रलय से बचाने हेतु अपने सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर के टुकड़े कर दिए। इस प्रकार माता सती के शरीर के 52 टुकड़े धरती पर भिन्न-भिन्न स्थान पर गिरे, जो आज 52 शक्तिपीठों के नाम से जाने जाते हैं। कहते हैं कामाख्या में सती का योनि अंग गिरा था, इसलिए यह 52 शक्तिपीठों में से एक है और यहाँ देवी की योनि की पूजा की जाती है।  

मंदिर का इतिहास 

कहते हैं एक बार नरकासुर नामक राक्षस देवी कामाख्या की सुंदरता पर अत्यंत मोहित हो गया था। उसने देवी के सामने विवाह का प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया। इस पर माता ने उस राक्षस के सामने एक शर्त रखी। देवी ने राक्षस से कहा कि अगर तुम एक ही रात में नील पर्वत के चारों ओर चार सोपान पथों का निर्माण कर दो तो मैं तुमसे विवाह कर लूंगी। और अगर तुम ऐसा करने में असमर्थ हुए तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित ही होगी। माता के कहे अनुसार नरक ने प्रातः होने से पूर्व ही चार सोपान का निर्माण कार्य लगभग पूरा कर लिया था। तभी माता के एक मायावी कुक्कुट (मुर्गे) ने रात्रि समाप्ति के लिए बांग देना शुरू कर दिया। क्रोधित नरकासुर ने मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर दिया। इस स्थान को आज भी कुक्टाचकि के नाम से जाना जाता है। बाद में भगवान विष्णु ने विधि के विधान के अनुसार नरकासुर को उसके पापों की सजा देते हुए उसका वध कर दिया।

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मंदिर का निर्माण 

ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक असम के कामाख्या मंदिर का निर्माण सातवीं और आठवीं शताब्दी के बीच किया गया था। 16वी सदी में सम्राट विश्वसिंह ने इसका निर्माण करवाया था, जिसे 1564 में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा तोड़ दिया गया था। तत्पश्चात सत्रहवीं शताब्दी में बिहार के म्लेच्छ वंश के राजा और विश्वसिंह के पुत्र राजा नर नारायण ने पुनः इसका निर्माण करवाया था जो वर्तमान में भी मौज़ूद है। मंदिर के गर्भगृह में देवी सती अथवा भगवती की महामुद्रा का निर्माण किया गया है। 

कहते हैं कोई भी देवी मंदिर भैरव बाबा के बिना अधूरा होता है। इसी क्रम में देवी कामाख्या के मंदिर से कुछ दूर पर उमानंद भैरव मंदिर स्थित है। यही कामाख्या शक्तिपीठ का भैरव है। उमानंद भैरव बाबा मंदिर के दर्शन के बिना देवी कामाख्या का दर्शन अधूरा माना जाता है। कामाख्या मंदिर में आपको मां कामाख्या के 10 महाविद्या के स्वरूप एक साथ देखने को मिलेंगे, जो इस प्रकार हैं: काली, तारा, त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, और कमलात्मिका।

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कामाख्या मंदिर का रहस्य 

कामाख्या देवी को ‘बहते रक्त की देवी’ भी कहा जाता है। कहते हैं कि प्रतिवर्ष जून (आषाढ़ महीने के सातवे दिन) के महीने में माँ कामाख्या ऋतुमती होती हैं। यह वह समय है जब तीन दिन के लिए देवी अपने मासिक धर्म के वार्षिक चक्र से गुज़रती हैं। जैसे ही माँ अपने मासिक धर्म में प्रवेश करती हैं, एक अद्भुत दैवीय घटना देखने को मिलती है। मंदिर के गर्भगृह के कपाट अपने आप ही बंद हो जाते हैं। तीन दिन तक कपाट बंद ही रहते हैं और जन मानुष को माता के दर्शन की अनुमति भी नहीं होती है। चौथे दिन माँ की लिंग प्रतिमा को स्नान एवं अतिरिक्त अनुष्ठान आदि करवाए जाते हैं। इसके बाद ही माता के भक्तों को मंदिर में प्रवेश करके माँ के दर्शन की अनुमति होती है। यह विश्व का एकमात्र मंदिर है जहां पर मासिक धर्म आने पर पूजा की जाती है। यहां पर यह समय अत्यधिक पवित्र माना जाता है और स्त्रीत्व का उत्सव मनाया जाता है। 

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विशेष पूजा एवं आयोजन 

असम के कामाख्या मंदिर में रोज़ाना की पूजा में कामाख्या मंदिर की चालीसा एवं आरती भी की जाती है। इसके अतिरिक्त भी साल भर में कुछ विशेष पूजा एवं समारोह का आयोजन होता है। आइये जानते हैं इसके बारे में:

ऋतुमती होने पर उत्सव (अम्बुवाची मेला)

इस मंदिर स्थल पर हर वर्ष माँ के ऋतुमती होने पर तीन दिनों के लिए मेला आयोजित किया जाता है एवं उत्सव मनाया जाता है। इस मेले को अम्बुवाची मेला कहते हैं। इस दौरान निकट में स्थित ब्रह्मपुत्र नदी का जल तीन दिनों के लिए लाल हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह प्रक्रिया माँ कामाख्या के मासिक धर्म की वजह से होता है। कहते हैं कि इन दिनों में नदी में स्नान नहीं करना चाहिए। 

पौराणिक मान्यता है कि सतयुग में यह उत्सव 16 वर्ष में एक बार, द्वापर युग में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार और अब कलयुग में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। 

दुर्गा पूजा

प्रतिवर्ष सितम्बर-अक्टूबर महीने में नवरात्रि के दौरान विशेष पूजा का आयोजन होता है। 

पोहन बिया

प्रतिवर्ष पूसा मास के दौरान इस पूजा का आयोजन होता है। इस पूजा में भगवान कामेश्वर और देवी कामेश्वरी के बीच प्रतीकात्मक शादी करवाई जाती है। 

मडानडियूल पूजा

यह पूजा चैत्र महीने में की जाती है। इसमें भगवान कामदेव और देवी कामेश्वरी की विशेष पूजा की जाती है। 

वसंती पूजा

वसंती पूजा भी कामाख्या मंदिर में विशेष रूप से आयोजित की जाती है। यह पूजा चैत्र के महीने में की जाती है। 

दुर्गाडियूल पूजा

यह विशेष पूजा कामाख्या मंदिर में फाल्गुन के महीने में आयोजित की जाती है। 

भक्तों को मिलता है विशेष प्रसाद

अन्य मंदिरों की तरह, इस मंदिर में भक्तों को प्रसाद के रूप में खाद्य पदार्थ नहीं बल्कि कुछ विशिष्ट प्रसाद मिलता है। यहाँ पर भक्तों को प्रसाद के रूप में लाल रंग का गीला कपड़ा दिया जाता है। कहते हैं कि यह कपड़ा देवी के मासिक धर्म का प्रतीक होता है। माता के रजस्वला होने के पूर्व सफ़ेद रंग का विशाल वस्त्र गर्भगृह की महामुद्रा के आसपास बिछा दिया जाता है। तत्पश्चात तीन दिन बाद जब मंदिर के पट खोले जाते हैं तो माँ के रज से यह वस्त्र लाल रंग का हो जाता है। स्थानीय लोग इस कपड़े को अम्बुवाची वस्त्र कहते हैं। इसी वस्त्र को भक्तों में प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। मान्यता है कि जो भी जातक इस वस्त्र को धारण कर उपासना करता है, उसके सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। 

कामाख्या मंदिर कब जाना चाहिए

वैसे तो कभी भी एवं किसी भी समय में असम के कामाख्या मंदिर में जाना शुभ होता है। परन्तु अगर नवरात्र के समय यहाँ पर जाया जाए तो आप देवी का विशेष आशीर्वाद प्राप्त करने के पात्र बन सकते हैं। यही नहीं, कामाख्या मंदिर देश का एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां महिलाएं अपने मासिक धर्म के दौरान भी जा सकती हैं।

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कामाख्या मंदिर दर्शन का समय

देवी कामाख्या के दर्शन करने हेतु भक्तों के लिए निश्चित समय का निर्धारण किया गया है, जो इस प्रकार है:

प्रातःदोपहर
8:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे तक 2:30 बजे से शाम 5:30 बजे तक 

अगर आप सामान्य रूप से दर्शन करना चाहते हैं तो आप कतार में लगकर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर सकते हैं। इसमें लगभग 3 से 4 घंटे का समय लग सकता है। 

परन्तु अगर आपके पास समय का अभाव है तो आप 501 रुपए का भुगतान करके वीआईपी टिकट खरीद सकते हैं। इससे अतिशीघ्र गर्भगृह में प्रवेश मिल जाता है और 10 मिनट के अंदर ही देवी के दर्शन हो जाते हैं। 

यहां हमने साझा की असम के माँ कामाख्या मंदिर से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारियां। माता के हर एक भक्त को माँ के दर्शन ज़रूर करना चाहिए। करुणामयी माँ आप सब पर अपनी कृपा बनाये रखें।

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निष्ठा राय

निष्ठा राय ने राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, भोपाल से कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग की है। कॉन्टेंट मैनेजर के पद पर कार्यरत निष्ठा लेखन में दिलचस्पी रखती हैं। वे हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं में समान रूप से निपुण हैं। टीम हिंदीपथ से जुड़कर वे उसमें सामग्री के चयन से लेकर उसकी गुणवत्ता आदि तमाम प्रक्रियाओं से जुड़ी हुई हैं। निष्ठा कार्य के सभी पहलुओं में लगातार सहयोग करती हैं और नया सीखने को तत्पर रहती हैं।

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