धर्मस्वामी विवेकानंद

पवहारी बाबा – स्वामी विवेकानंद कृत पुस्तक

“पवहारी बाबा” नामक इस पुस्तक की रचना स्वामी विवेकानंद ने की थी। स्वामी जी उनसे बहुत प्रभावित थे और बाबाजी से उन्होंने बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त की थी। वे व्यावहारिक जीवन में आदर्श को धारण करने की प्रतिमूर्ति थे और उनका चरित्र जन-जन तक पहुँच सके–स्वामी जी ने इसी भाव से तीन अध्यायों में इस पुस्तक की रचना की थी। पढ़ें यह सुंदर और मननीय पुस्तिका हिंदी में।

प्रथम अध्याय – अवतरणिका

भगवान् बुद्ध ने धर्म के प्रायः सभी अन्य पक्षों को कुछ समय के लिये दूर रखकर केवल दुःखों से पीड़ित संसार की सहायता करने के महान् कार्य को ही प्रधानता दी थी। परन्तु फिर भी स्वार्थपूर्ण व्यक्तिभाव या ‘मैंपन’ से चिपके रहने के खोखले पन की सत्यता का अनुभव करने के निमित्त आत्मानुसन्धान में उन्हें भी अनेक वर्ष बिताने पड़े थे। भगवान् बुद्ध से अधिक निःस्वार्थ तथा अथक कर्मी हमारी उच्च से उच्च कल्पना के भी परे हैं। परन्तु फिर भी उनकी अपेक्षा और किसे समस्त विषयों का रहस्य जानने के लिए इतने विकट संघर्ष करने पड़े? यह चिरन्तन तथ्य है कि जो कार्य जितना महान होता है, उसके पीछे सत्य के साक्षात्कार की उतनी ही अधिक शक्ति विद्यमान रहती है। किसी पूर्वनिर्धारित महान् योजना को ब्योरेवार कार्य रूप में परिणत करने को आधार देने के लिए भले ही अधिक एकाग्र चिन्तन की आवश्यकता न पड़े, परन्तु प्रबल अन्तःप्रेरणाएँ केवल प्रबल एकाग्रता का ही परिवर्तित रूप होती है। सामान्य चेष्टाओं के लिए सम्भव है यह सिद्धान्त पर्याप्त हो, परन्तु जिस हिलोर से एक छोटीशी लहर की उत्पत्ति होती है, वह हिलोर उस आवेग से अवश्य ही नितान्त भिन्न है, जो एक प्रचण्ड तरङ्ग को उत्पन्न कर देता है। परन्तु फिर भी यह छोटी सी लहर उस प्रचण्ड तरङ्ग को उत्पन्न करने वाली शक्ति के एक अल्पांश का मूर्त रूप ही है।

इसके पूर्व कि हमारा मन क्रिया शीलता के निम्न स्तर पर प्रबल कर्मतरङ्ग उत्पन्न कर सके, आवश्यकता इस बात की है कि हम सच्चे तथा ठीक ठीक तथ्यों के निकट पहुँच जाएँ, फिर वे भले ही विकट तथा भयप्रद क्यों न हो; हम सत्य – शुद्ध सत्य – को प्राप्त करें, चाहे उसके आन्दोलन में हमारे हृदय का प्रत्येक तार छिन्न-भिन्न ही क्यों न हो जाए; हम निःस्वार्थ तथा निष्कपट प्रेरणा को प्राप्त करें – चाहे उसकी प्राप्ति में हमारे अङ्ग-प्रत्यङ्ग ही क्यों न कट जाएँ। सूक्ष्म वस्तु कालस्रोत में प्रवाहित होते होते अपने चारों ओर स्थूल वस्तुओं को समेटती रहती है और अव्यक्त व्यक्त हो जाता है; अदृश्य दृश्य का स्वरूप धारण कर लेता है; जो बात सम्भवसी प्रतीत होती थी, वह वास्तव रूप धारण कर लेती है; कारण कार्य में तथा विचार शारीरिक कार्यों में परिणत हो जाते हैं।

कारण सहस्रों प्रतिकूल परिस्थितियों के हेतु आज भले ही अवरुद्ध रहे, परन्तु कभी न कभी वह कार्यरूप में अवश्य ही परिणत होगा तथा इसी प्रकार एक सक्षम विचार भी, आज चाहे जितना क्षीण क्यों न हो, एक न एक दिन स्थूल क्रिया के रूप में अवश्य ही प्रकट होकर गौरवान्वित होगा। साथ ही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन्द्रियसुख प्रदान करने की क्षमता की दृष्टि से किसी वस्तु का मूल्य आँकना भी उचित नहीं।

जो प्राणी जितना अधिक निम्न स्तर में रहता है, उतना ही अधिक वह इन्द्रियों में सुख अनुभव करता है तथा उतने ही अधिक परिमाण में वह इन्द्रियों के राज्य में निवास करता है। सभ्यता – यथार्थ सभ्यता – का अर्थ वह शक्ति होना चाहिए, जो पशुभावापन्न मानव को इन्द्रियभोगों के जीवन के परे ले जा सके, उसे बाह्य सुख देकर नहीं, वरन् उच्चतर जीवन के दृश्य दिखलाकर, उसका अनुभव करा कर।

मनुष्य को इस बात का ज्ञान जन्मजात-प्रवृत्ति द्वारा प्राप्त रहता है, चाहे सभी अवस्थाओं में उसे इस बात का बोध स्पष्ट रूप से भले ही न रहता हो। विचारशील जीवन के सम्बन्ध में उसकी बहुत ही भिन्न धारणाएँ हो सकती है, पर फिर भी यह भाव उसके हृदय में स्थित रहता है; वह तो हर हालत में प्रकट होने की ही चेष्टा करता रहता है – इसीलिए तो मनुष्य किसी बाजीगर, ओझा, वैद्य, पुरोहित अथवा वैज्ञानिक के प्रति सम्मान दर्शाए बिना नहीं रह सकता। जिस परिमाण में मनुष्य इन्द्रियपरायणता को छोड़कर उच्च भावजगत् में अवस्थान करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, जिस परिमाण में वह विशुद्ध चिन्तन-रूपी प्राणवायु फेफड़ों के भीतर खींचने में समर्थ हो जाता है तथा जितने अधिक समय तक वह उस उच्च अवस्था में रह सकता है, केवल उसी परिमाण में उसका विकास आँका जा सकता है।

जैसी स्थिति है, उसमें यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि सुसंस्कृत व्यक्ति अपने जीवननिर्वाह के लिए नितान्त आवश्यक चीजों के अतिरिक्त, तथाकथित ऐश-आराम में अपना समय गँवाना बिल्कुल पसन्द नहीं करता और जैसे जैसे वह उन्नत होता जाता है, वैसे वैसे आवश्यक कर्म करने में भी उसका उत्साह कम होता दिखाई देता है।

इतना ही नहीं, मनुष्य की विलासविषयक धारणाएँ भी विचारों तथा आदर्शों के अनुसार परिवर्तित होती जाती हैं। और उसका प्रयत्न यही रहता है कि उसके विलास के साधनों में उसका विचारजगत् यथाशक्ति प्रतिबिम्बित हो – और यही है कला।

‘जिस प्रकार एक ही अग्नि विश्व में प्रवेश करके विभिन्न रूपों में अपने को प्रकट करती है, और फिर भी जितनी वह व्यक्त हुई है, उससे वह कहीं अधिक होती है’1 – हाँ, वह अनन्त गुनी अधिक है! अनन्त चैतन्य का केवल एक कण हमें सुख देने के लिए इस जड़ जगत् में अवतीर्ण हो सकता है। पर उसके शेष भाग को यहाँ लाकर उसके साथ स्थूल के समान हम मनमाना व्यवहार नहीं कर सकते। वह परम सूक्ष्म वस्तु हमारे दृष्टिक्षेत्र से सर्वदा ही बाहर निकल जाती है तथा उसे हमारे स्तर पर खींच लाने की हमारी जो चेष्टा होती है, उसे देखकर वह हँसती है। इस विषय में हम यही कहेंगे कि ‘मुहम्मद को ही पर्वत के निकट जाना होगा’ – उसमें ‘नहीं’ कहने की गुंजाइश नहीं। यदि मनुष्य चाहता है कि वह उस अतीन्द्रिय प्रदेश के सौन्दर्य का पान करे, उसके आलोक में अवगाहन करे तथा उसका जीवन विश्व जीवन के मूल कारण के साथ एकात्म होकर स्पन्दित हो, तो इसके लिए उसे अपने को उसी उच्च स्तर तक उठाना पड़ेगा।

ज्ञान ही विस्मय-राज्य का द्वार खोल देता है, ज्ञान ही पशु को देवता बनाता है और जो ज्ञान हमें उसे ईश्वर के निकट पहुँचा देता है, ‘जिसे जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है’2 – जो समस्त अन्यान्य ज्ञान (अपरा विद्या) का हृदय स्वरूप है, जिसके स्पन्दन से समस्त जड़ भौतिक विज्ञानों में प्राणों का सञ्चार हो जाता है, वह धर्म विज्ञान ही निःसन्देह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि केवल वही मनुष्य को सम्पूर्ण तथा श्रेष्ठ विचारमय जीवन व्यतीत करने में समर्थ बना सकता है। धन्य है वह देश, जिसने उसे ‘परा विद्या’ नाम से सम्बोधित किया है।

यद्यपि व्यवहार में शायद ही तात्त्विक सिद्धान्त की पूर्ण अभिव्यक्ति दिखाई देती हो, परन्तु फिर भी आदर्श कभी लुप्त नहीं होता। एक ओर हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने आदर्श को कभी लुप्त न होने दें, चाहे हम उसकी ओर निश्चित गति से अग्रसर हो अथवा अस्पष्ट धीमी गति से रेंगते हुए जाएँ; दूसरी ओर वस्तुस्थिति यह है कि हम अपने हाथों को अपनी आँखों के सामने करके उसका प्रकाश ढँकने का चाहे जितना यत्न करें, सत्य सर्वदा हमारे सम्मुख अस्पष्ट रूप से विद्यमान रहता ही है।

व्यावहारिक जीवन आदर्श में ही है। हम चाहे दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करे अथवा दैनिक जीवन के कठोर कर्तव्यों का पालन करें, हमारे सम्पूर्ण जीवन में आदर्श ही ओतप्रोत रूप से विद्यमान रहता है। इसी आदर्श की किरणें सीधी अथवा वक्र गति से प्रतिबिम्बित तथा परावर्तित हो मानो हमारे जीवन गृह में प्रत्येक रन्ध्र तथा वातायन से होकर प्रवेश करती रहती हैं और हमें जान अथवा अनजान में अपना प्रत्येक कार्य उसी के प्रकाश में करना पड़ता है, प्रत्येक वस्तु को उसी के द्वारा परिवर्तित, परिवर्धित अथवा विरूपित देखना पड़ता है। हम अभी जैसे है, वैसा हमें आदर्श ने ही बनाया है अथवा भविष्य में हम जैसे होने वाले हैं, वैसा हमें आदर्श ही बना देगा। आदर्श की शक्ति ही ने हमें आवृत कर रखा है तथा अपने सुखों में अथवा दुःखों में, अपने महान् कार्यों में अथवा क्षुद्र कार्यों में। अपने गुणों में अथवा अवगुणों में, हम उसी शक्ति का अनुभव करते हैं।

यदि व्यावहारिक जीवन पर आदर्श का इतना असर होता है, तो व्यावहारिक जीवन का भी हमारे आदर्श को गढ़ने में कुछ कम हाथ नहीं है। असल में आदर्श का सत्य तो व्यावहारिक जीवन में ही है। आदर्श का फल व्यावहारिक जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा ही प्राप्त होता है। आदर्श का अस्तित्व ही इस बात का प्रमाण है कि कहीं न कहीं अथवा किसी न किसी रूप में वह व्यावहारिक जीवन में कार्यरत है। आदर्श कितना ही विशाल क्यों न हो, परन्तु वास्तव में वह व्यावहारिक जीवन के छोटे छोटे अंशों का विस्तृत रूप ही है। आदर्श अधिकांशतः संयोजित, सामान्यीकृत व्यावहारिक इकाइयाँ है।

व्यावहारिक जीवन में ही आदर्श की शक्ति प्रकट होती है; व्यावहारिक जीवन में और उसके द्वारा ही वह हम पर क्रियाशील होता है। व्यावहारिक जीवन द्वारा ही वह हमारे लिए इन्द्रियगोचर बनता है तथा उसी के द्वारा वह आत्मसात् किये जाने योग्य रूप धारण करता है। व्यावहारिक जीवन को ही सीढ़ी बनाकर हम आदर्श की ओर उठते हैं। उसी पर हम अपनी आशाएँ बाँधते हैं, वही हमें कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

ऐसे करोड़ों लोगों की अपेक्षा, जो शब्दों द्वारा आदर्श को अत्यन्त सुन्दर रङ्गों में चित्रित कर सकते हैं, और सूक्ष्मातिसूक्ष्म सिद्धान्तों का निरूपण कर सकते हैं, वह व्यक्ति कहीं अधिक शक्तिमान् है, जिसने अपने जीवन में आदर्श को अभिव्यक्त कर लिया है।

दर्शन शास्त्र मानव समाज के लिए उस समय तक निरर्थक से ही है अथवा अधिक से अधिक बौद्धिक व्यायाम मात्र हैं, जब तक कि वे धर्म के साथ संयुक्त नहीं होते, तथा एक ऐसा व्यक्ति समुदाय उन्हें प्राप्त नहीं हो जाता, जो उन्हें न्यूनाधिक सफलता के साथ व्यावहारिक जीवन में परिणत कर दे। जिन मतवादों से एक भी भावात्मक आशा नहीं थी, उन्हें भी जब किसी ऐसे व्यक्ति समुदाय ने अपनाकर कुछ व्यावहारिक बना दिया, तो उनके भी विशाल संख्या में अनुयायी हमेशा के लिए हो गये। परन्तु ऐसे व्यक्तिसमुदाय के अभाव में अनेक सुनिश्चित भावात्मक मतवाद भी नष्ट हो गये।

हममें से अधिकांश लोग अपने कार्यों को अपने विचार जीवन के समकक्ष नहीं रख पाते। केवल थोड़े ही धन्यभाग ऐसा कर सकते हैं। हममें से अधिकांश व्यक्ति जब गम्भीर मनन करने लग जाते हैं, तो वे अपनी कार्यक्षमता खो बैठते है और जब अधिक कार्य में व्यस्त हो जाते हैं, तो गम्भीर मननशक्ति गँवा बैठते हैं। यही कारण है कि अधिकांश महान् विचारशील व्यक्तियों को अपने उच्च आदर्शों की व्यावहारिक परिणति का प्रश्न काल पर छोड़ देना पड़ता है। उनके विचारों को कार्यरूप में परिणत होने तथा प्रचारित होने के लिए और अधिक सक्रिय मस्तिष्कवालों की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इन पंक्तियों को लिखते समय मानो हमारे सामने उन कवचधारी पार्थसारथि की झलक दिखाई पड़ जाती है, जो दोनों विरोधी सैन्यों के बीच अपने रथ पर खड़े होकर अपने बायें हाथ से तेज अश्वों को रोक रहे हैं, और अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से विशाल सेना को निहार रहे हैं तथा मानो अपनी जन्मजात-प्रवृत्ति द्वारा दोनों दलों की रणसज्जा की प्रत्येक बात को तौल रहे है। साथ ही मानो उनके ओठों से भयाकुल अर्जुन को रोमाञ्चित करनेवाला कर्म का वह अत्यद्भुत रहस्य निकल रहा है –

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥
3

‘जो कर्म में अकर्म अर्थात् विश्राम या शान्ति, एवं अकर्म अर्थात् शान्ति में कर्म देखता है, वही मनुष्यों में बुद्धिमान् है, वही योगी है, और उसी ने सब कर्म कर लिये है।’

यही पूर्ण आदर्श है। परन्तु बहुत ही कम लोग इस आदर्श को प्राप्त कर पाते है। अतएव परिस्थितियाँ जैसी भी हो, हमें उन्हें ग्रहण करना ही चाहिए तथा विभिन्न व्यक्तियों में विकसित मानवी पूर्णता के भिन्न भिन्न पहलुओं को एकत्र करके सन्तोष करना चाहिए।

धर्म के क्षेत्र में चार प्रकार के साधक होते हैं – गम्भीर चिन्तनशील (ज्ञानयोगी), दूसरों की सहायता के लिए प्रबल कर्मशील (कर्मयोगी), साहस और निर्भीकता के साथ आत्मानुभूति प्राप्त कर लेने में अग्रसर (राजयोगी) तथा शान्त एवं विनम्र (भक्तियोगी)।

द्वितीय अध्याय – अमृत की खोज में

जिस व्यक्ति का शब्दचित्र हम यहाँ दे रहे हैं, वे अद्भुत विनयसम्पन्न तथा गम्भीर आत्मज्ञानी थे।

पवहारी बाबा (मृत्यु के बाद वे इसी नाम से विख्यात हुए) का जन्म बनारस जिले में गुजी4 नामक स्थान के निकट एक गाँव में किसी ब्राह्मण वंश में हुआ। बाल्यावस्था में ही वे अपने चाचा के पास रहने तथा विद्यार्जन करने के लिए गाजीपुर आ गये थे।

वर्तमान काल में हिन्दू साधु प्रधानतः निम्नलिखित सम्प्रदायों में विभक्त है – संन्यासी, योगी, वैरागी तथा पन्थी। संन्यासी श्रीशंकराचार्य के मतावलम्बी अद्वैतवादी हैं। योगी यद्यपि अद्वैतवादी होते हैं, पर योग की भिन्न भिन्न प्रणालियों की साधना करने के कारण उनकी एक अलग श्रेणी मानी गयी है। वैरागी रामानुजाचार्य तथा अन्यान्य द्वैतवादी आचार्यों के अनुयायी होते हैं। पन्थियों में द्वैती तथा अद्वैती दोनों का समावेश होता है। इनके सम्प्रदायों की स्थापना मुसलमानों के शासन काल में हुई थी। पवहारी बाबा के चाचा रामानुज अथवा श्रीसम्प्रदाय के अनुयायी थे; वै नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे अर्थात् पवहारी बाबा ने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। गाजीपुर से उत्तर में दो मील की दूरी गङ्गा के किनारे उनकी छोटीसी जमीन थी और वहीं वे बस गये थे। उनके कई भतीजे थे। उनमें से वे एक (पवहारी बाबा) को अपने घर में ले गये और गोद ले लिया, जिससे वह उनकी सम्पत्ति तथा पद का उत्तराधिकारी हो।

पवहारी बाबा की इस समय की जीवनघटनाओं के सम्बन्ध में हमें कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है और न हमें इसी बात का कुछ पता है कि जिन विशेष गुणों के कारण वे भविष्य में इतने विख्यात हुए थे, उनका उस समय उनमें कोई चिह्न भी विद्यमान था। लोगों को इतना ही स्मरण है कि उन्होंने व्याकरण, न्याय तथा अपने सम्प्रदाय के धर्म ग्रन्थों का बड़े परिश्रम के साथ विशेष रूप से अध्ययन किया था। साथ ही वे फुर्तीले एवं विनोदप्रिय भी थे। कभी कभी उनकी विनोदप्रियता की मात्रा इतनी बढ़ जाती थी कि उनके सहपाठियों को उनकी शरारतों से परेशान होना पड़ता था।

इस प्रकार प्राचीन परम्परा के भारतीय विद्यार्थियों के दैनिक कर्तव्यों के बीच इस भावी सन्त का बाल्य जीवन व्यतीत होने लगा। उनके उस समय के सरल आनन्दमय तथा क्रीडाशील छात्रजीवन में अपने अध्ययन के प्रति असाधारण अनुराग तथा भाषाएँ सीखने की अपूर्व प्रवृत्ति के अतिरिक्त और कोई ऐसी विशेष बात नहीं दिखाई देती थी कि जिससे उनके भावी जीवन की उस उत्कट गम्भीरता का अनुमान किया जा सकता, जिसकी परिणति एक अत्यन्त अद्भुत तथा रोमाञ्चकारी आत्माहुति में होनेवाली थी।

इसी समय एक ऐसी घटना हुई, जिससे इस अध्ययनरत युवक को सम्भवतः पहली ही बार जीवन के गम्भीर रहस्य की अनुभूति हुई। अब तक जो दृष्टि किताबों में ही गड़ रही थी, उसे ऊपर उठाकर वह युवक अपने मनोजगत् का बारीकी के साथ निरीक्षण करने लगा। और धर्म का वह अंश जानने के लिए व्याकुल हो उठा, जो केवल किताबी ही न होकर वास्तव में सत्य हैं। इसी समय उसके चाचा की मृत्यु हो गयी – इस तरुण हृदय का समस्त प्रेम जिस पर केन्द्रित था, वही चल बसा। दुःख से मर्माहत एवं सन्तप्त युवक शून्य को पूर्ण करने के लिए अब एक ऐसी चिरन्तन वस्तु के अन्वेषण के लिए कटिबद्ध हो गया, जिससे कभी परिवर्तन होता ही नहीं।

भारत में सभी विषयों के लिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है। हम हिन्दुओं का ऐसा विश्वास है कि ग्रन्थ रूपरेखा मात्र है। प्रत्येक कला में, प्रत्येक विद्या में, विशेषकर धर्म में जीवन्त रहस्यों की प्राप्ति शिष्य को गुरु द्वारा ही होनी चाहिए।

अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत में जिज्ञासुओं ने बिना व्यतिक्रमों के अन्तर्जगत् के रहस्यों की खोज करने के लिए सदैव एकान्त का आश्रय लिया है और आज भी ऐसा एक भी वन, पर्वत अथवा पवित्र स्थान नहीं है, जिसके सम्बन्ध में यह किंवदन्ती न प्रचलित हो कि किसी न किसी महात्मा के निवास से वह स्थान पवित्र हुआ है।

यह कहावत प्रसिद्ध है :

रमता साधु, बहता पानी।
इनमें कभी न मैल लखानी॥

‘जिस प्रकार बहता पानी शुद्ध और निर्मल होता है, उसी प्रकार भ्रमण करनेवाला साधु भी पवित्र तथा निर्मल होता है।’

भारत में जो लोग ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके धार्मिक जीवन बिताते हैं, वे साधारणतया अपना अधिकांश जीवन देश के विभिन्न प्रदेशों में भ्रमण करने में तथा भिन्न भिन्न तीर्थों एवं पुण्य स्थानों के दर्शन करने में ही व्यतीत करते हैं। जिस चीज का सर्वदा व्यवहार होता रहता है, उसमें जंग कभी नहीं लगता; इसी प्रकार मानो भ्रमण करते रहने से उनमें मलिनता कभी प्रवेश नहीं कर पाती। इससे एक और लाभ होता है – उन महात्माओं द्वारा धर्म मानो प्रत्येक व्यक्ति के दरवाजे पर पहुँच जाता है। जिन्होंने संसार का त्याग किया है, उनके लिए यह आवश्यक कर्तव्य माना गया है कि वे भारत की चारों दिशाओं में स्थित चारों मुख्य धामों5 का दर्शन करें।

सम्भव है, उपर्युक्त कारणों ने ही हमारे इन युवक ब्रह्मचारी (पवहारी बाबा) को भारत भ्रमण के लिए उद्यत किया हो, परन्तु यह हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि उनके भ्रमण का मुख्य कारण उनकी ज्ञानतृष्णा ही थी। हमें उनके भ्रमण के सम्बन्ध में बहुत थोड़ी जानकारी है; तथापि जिन द्राविड़ भाषाओं में उनके सम्प्रदाय के अनेक ग्रन्थ लिखे हुए है, उन भाषाओं का उनका ज्ञान देखकर, तथा श्रीचैतन्य-सम्प्रदाय के वैष्णवों की प्राचीन बंगला भाषा से भी उनका पूर्ण परिचय देखकर हम अनुमान कर सकते हैं कि दक्षिण तथा बंगाल में वे काफी समय तक रुके होंगे।

परन्तु पवहारी बाबा के यौवनकाल के मित्रगण उनके एक विशिष्ट स्थान के प्रवास पर विशेष जोर देते हैं। वे कहते हैं कि काठियावाड़ में गिरनार पर्वत की चोटी पर ही वे सर्वप्रथम व्यावहारिक योग के रहस्यों में दीक्षित हुए थे।

यही वह पर्वत है, जिसे बौद्ध अत्यन्त पवित्र मानते थे। इस पर्वत के नीचे वह विशाल शिला है, जिस पर ‘राजाओं में परम धर्मशील’ अशोक का पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा सर्वप्रथम आविष्कृत धर्मानुशासन उत्कीर्ण है। उसके भी नीचे, सैकड़ों सदियों की विस्मृति के अन्धकार में लीन, अरण्यों से ढँके हुए विशाल स्तूपसमूह थे, जिनके सम्बन्ध में लम्बे अरसे तक यह धारणा थी कि वे गिरनार पर्वतश्रेणी के ही टीले हैं। अब भी वह सम्प्रदाय – जिसका बौद्ध धर्म आज एक संशोधित संस्करण समझा जाता है – इस पर्वत को कम पवित्र नहीं मानता और आश्चर्य की बात यह है कि उसके विश्वविजयी उत्तराधिकारी के आधुनिक हिन्दू धर्म में विलीन होने के पूर्व तक उसने स्थापत्यक्षेत्र में विजयलाभ करने का साहस नहीं किया।

तृतीय अध्याय – पूर्णाहुति

महायोगी अवधूत गुरु दत्तात्रेय के प्रवास से पुनीत होने के कारण गिरनार पर्वत हिन्दुओं में प्रसिद्ध है और कहा जाता है कि इस पर्वत की चोटी पर किसी किसी भाग्यशाली व्यक्ति को अब भी महान् सिद्ध योगियों के दर्शन हो जाते हैं।

हमारे युवक ब्रह्मचारी ने अपने जीवन के दूसरे मोड़ में एक साधक संन्यासी का शिष्यत्व ग्रहण किया। ये संन्यासी कहीं वाराणसी के निकट गङ्गा के तट पर रहते थे। उनका निवासस्थान गङ्गा की उच्च तटभूमि में खुदी हुई एक गुफा था। हमारे चरित्रनायक सन्त पवहारी बाबा भी अपने भविष्य जीवन में गाजीपुर के निकट गङ्गा के किनारे जमीन के नीचे बनायी हुई एक गहरी गुफा में वास करते थे। हम अनुमान कर सकते हैं कि उन्होंने यह बात अपने योगी गुरु से ही सीखी होगी। योगियों ने सदैव ऐसी ही गुफाओं अथवा स्थानों में रहने का उपदेश दिया है, जहाँ का तापमान सम हो और कोलाहल मस्तिष्क को विचलित न कर सके।

हमें यह भी ज्ञात हुआ है कि वे लगभग इसी समय वाराणसी के एक संन्यासी के पास अद्वैत दर्शन का अध्ययन कर रहे थे।

अनेक वर्षों तक भ्रमण, अध्ययन तथा साधना करने के उपरान्त युवक ब्रह्मचारी उस स्थान पर लौट आये, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। यदि उनके चाचाजी उस समय तक जीवित रहते, तो वे सम्भवतः उनके मुखमण्डल पर वही ज्योति देखते, जो प्राचीनकाल के एक महान् ऋषि ने अपने शिष्य के मुख पर देखी थी और कहा था, ‘हे सौम्य, देख रहा हूँ – आज तुम्हारे मुख पर ब्रह्मज्योति झलक रही है।’6 परन्तु घर लौटने पर जिन्होंने उनका स्वागत किया, वे थे केवल उनके बाल्य जीवन के मित्रगण। उनमें से अधिकांश संकीर्ण विचारों तथा नित्य संघर्ष के संसार में हमेशा के लिए प्रविष्ट हो चुके थे।

परन्तु फिर भी उन लोगों को अपनी पाठशाला के इस पुराने मित्र तथा खिलाड़ी के, जिसको समझने के वे आदी थे, चरित्र एवं आचरण में एक परिवर्तन – एक रहस्यमय परिवर्तन – दिखाई दिया, जो उनके लिए विस्मयजनक था। लेकिन अपने मित्र के सदृश बनने की इच्छा अथवा उसके समान सत्य की खोज करने की आकांक्षा उनमें जागृत न हो सकी। यह एक ऐसे व्यक्ति का रहस्य था, जो इस कष्टमय तथा भोगलोलुप संसार से पार जा चुका था, और बस इतनी ही भावना उनके लिए पर्याप्त थी। सहज ही उनके प्रति श्रद्धासम्पन्न हो, उन लोगों ने फिर और अधिक जिज्ञासा प्रकट नहीं की।

इसी समय इस सन्त की विशिष्टताएँ अधिकाधिक विकसित और प्रकट होने लगी। काशी के निकट रहनेवाले अपने संन्यासी गुरु के सदृश उन्होंने भी जमीन में एक गुफा खुदवा ली और उसमें प्रवेश करके वे वहाँ अनेक घण्टे बिताने लगे। इसके पश्चात् अपने आहार के सम्बन्ध में भी वे कठोर नियम का पालन करने लगे। दिन भर वे अपने छोटेसे आश्रम में काम करते रहते। वे अपने प्रेमास्पद श्रीरामचन्द्रजी की पूजा करते; फिर उत्तम प्रकार के व्यञ्जन तैयार करते। (कहते है कि इस पाकविद्या में वे असाधारण रूप से निपुण थे।) इन व्यञ्जनों का भगवान् को भोग लगाकर वे फिर उन्हें अपने मित्रों तथा दरिद्रनारायणों में प्रसाद रूप में बाँट देते और रात होने तक उनकी सेवा में लगे रहते। जब सब सो जाते, तब वे चुपके से गङ्गाजी में कूदकर तैरते हुए दूसरे किनारे पर चले जाते और वहाँ सारी रात साधन-भजन में बिताकर प्रातःकाल के पूर्व ही वापस लौट आते और अपने मित्रों को जगाकर फिर अपने उसी नित्यकर्म में लग जाते, जिसे हम भारत में ‘दूसरों की सेवा या पूजा’ कहते हैं।

ऐसा करते करते उनका स्वयं का आहार दिनोंदिन कम होने लगा। हमने सुना है कि अन्त में पवहारी बाबा दिन भर में केवल एक मुट्ठी नीम के कड़वे पत्ते अथवा कुछ लाल मिर्च ही खाकर रह जाया करते थे। इसके बाद उन्होंने रात को गङ्गाजी के उस पार जंगल में जाना छोड़ दिया और वे अपना अधिकाधिक समय उस गुफा में ही बिताने लगे। हमने सुना है कि उस गुफा में वे कई कई दिनों तथा महीनों तक ध्यानमग्न रहा करते और फिर निकलते। यह कोई भी नहीं जानता था कि वे इतने लम्बे समय तक वहाँ क्या खाकर रहते हैं; इसीलिए लोग उन्हें ‘पव-आहारी’ (पवहारी) बाबा अर्थात् वायु-भक्षण करनेवाले बाबा कहने लगे।

फिर उन्होंने अपने जीवनभर यह स्थान नहीं छोड़ा। एक समय वे अपनी गुफा में इतने अधिक समय तक रहे कि लोगों ने यह निश्चय कर लिया कि वे अब मर गये! किन्तु बहुत समय के बाद वे फिर बाहर निकले और उन्होंने सैकड़ों साधुओं को भण्डारा दिया।

जब वे ध्यानमग्न नहीं रहते थे, तब अपनी गुफा के द्वार पर स्थित एक कमरे में बैठकर, दर्शन के निमित्त आये हुए लोगों से बातचीत करते थे। अब उनकी कीर्ति फैलने लगी। गाजीपुर-निवासी अफीम-विभाग के अधिकारी रायबहादुर गगनचन्द्र के द्वारा – जो अपने उदात्त आचरण तथा धर्म परायणता के कारण लोकप्रिय थे – हमें इन सन्त से परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

भारत के अन्य अनेक सन्तों के सदृश पवहारी बाबा के जीवन में भी कोई विशेष बाह्य क्रियाशीलता नहीं दीख पड़ती थी। ‘शब्द द्वारा नहीं, बल्कि जीवन द्वारा ही शिक्षा देनी चाहिए, और जो व्यक्ति सत्य धारण करने के योग्य हैं, उन्हीं के जीवन में वह प्रतिफलित होता है।’ – उनका जीवन इसी भारतीय आदर्श का एक और उदाहरण था। इस श्रेणी के सन्त, जो कुछ वे जानते हैं, उसका प्रचार करने में पूर्णतया उदासीन रहते हैं; क्योंकि उनकी यह दृढ़ धारणा होती है कि शब्द द्वारा नहीं, वरन् केवल भीतर की साधना द्वारा ही सत्य की प्राप्ति हो सकती है। उनके निकट धर्म सामाजिक कर्तव्यों की प्रेरकशक्ति नहीं है, वरन् इसी जीवन में सत्य का प्रखर अनुसन्धान एवं सत्य की उपलब्धि है। वे काल के किसी एक क्षण में अन्यान्य क्षणों की अपेक्षा अधिक क्षमता स्वीकार नहीं करते। अतएव अनन्त काल के प्रत्येक क्षण के एक समान होने के कारण वे इस बात पर जोर देते है कि मृत्यु की बाट न जोहकर इसी लोक में तथा प्रस्तुत क्षण में ही आध्यात्मिक सत्यों का साक्षात्कार कर लेना चाहिए।

लेखक ने एक समय इन सन्त से पूछा था कि संसार की सहायता करने के लिए वे अपनी गुफा से बाहर क्यों नहीं आते। पहले तो उन्होंने अपनी स्वाभाविक विनयशीलता तथा विनोदप्रियता के अनुरूप निम्नलिखित स्पष्ट उत्तर दिया –

“एक दुष्ट मनुष्य कुछ दुष्कर्म करते समय पकड़ा गया और दण्ड के रूप में उसकी नाक काट ली गयी। अपना नकटा चेहरा दुनिया को दिखलाने में लज्जा का अनुभव करने के कारण वह अपने से खीझकर एक जंगल में भाग गया। वहाँ वह एक शेर की खाल बिछाकर बैठा रहता और जब देखता कि कोई आ रहा है, तो तुरन्त गम्भीर ध्यान का ढोंग करने लगता। ऐसा करने से वह लोगों को दूर तो न रख सका, उलटे झुण्ड लोग इस अद्भुत महात्मा को देखने तथा उसकी पूजा करने के लिए आने लगे। उसने देखा कि यह अरण्यवास तो फिर उसके लिए जीवननिर्वाह का सरल साधन बन गया है। इस प्रकार कई वर्ष बीत गये। अन्त में उस स्थान के लोग इस मौनव्रतधारी ध्यानपरायण साधु के मुख से कुछ उपदेश सुनने के लिए लालायित हुए और एक नवयुवक उस ‘साधु’ के सम्प्रदाय में सम्मिलित होने के निमित दीक्षा लेने के लिए विशेष रूप से उत्सुक हो उठा। अन्त में ऐसी स्थिति पैदा हुई कि अधिक विलम्ब करने से साधु की प्रतिष्ठा भंग होने की आशंका हो गयी। तब तो एक दिन वह अपना मौन छोड़कर उस उत्साही युवक से बोला, ‘बेटा, कल अपने साथ एक तेज धारवाला उस्तरा लेके आना।’ इस आशा से कि उसके जीवन की महान् आकांक्षा शीघ्र ही पूर्ण हो जाएगी, उस युवक को बड़ा आनन्द हुआ और दूसरे दिन सबेरा होते ही वह एक तेज छुरा लेकर साधु के पास जा पहुँचा। तब यह नकटा साधु उस युवक को जंगल में एक दूर निर्जन कोने में ले गया और एक ही आघात में उसकी नाक काट ली। फिर वह गम्भीर आवाज में बोला, ‘बेटा, इस सम्प्रदाय में मेरी दीक्षा इसी प्रकार हुई थी और वही आज मैंने तुझे दी है। अवसर पाते ही तू भी तत्परता के साथ दूसरों को यही दीक्षा देते रहना!’ लज्जा के कारण युवक अपनी इस अद्भुत दीक्षा का रहस्य किसी के पास प्रकट नहीं कर सका और वह अपने गुरु के आदेश का पालन पूर्ण रूप से करने लगा। इस प्रकार होते होते देश में नकटे साधुओं का एक पूरा सम्प्रदाय बन गया! तुम्हारी क्या ऐसी इच्छा है कि मैं भी इसी प्रकार के एक और सम्प्रदाय की स्थापना करूँ?”

इसके उपरान्त बहुत दिन बाद इसी विषय पर फिर प्रश्न पूछने पर उन्होंने गम्भीर भाव से उत्तर दिया, “तुम्हारी क्या ऐसी धारणा है कि केवल स्थूल शरीर द्वारा ही दूसरों की सहायता हो सकती है? क्या शरीर के क्रियाशील हुए बिना केवल मन ही दूसरों के मन की सहायता नहीं कर सकता?”

इसी प्रकार एक दूसरे अवसर पर जब पवहारी बाबा से पूछा गया कि ऐसे श्रेष्ठ योगी होते हुए भी वे होमादि क्रिया तथा श्रीरघुनाथजी की पूजा आदि कर्म – जो साधना की केवल प्रारम्भिक अवस्था के लिए समझे जाते हैं – क्यों करते हैं, तो उन्होंने उत्तर दिया, “तुम यही क्यों समझ लेते हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपने निज के कल्याण के लिए ही कर्म किया करता है? क्या एक मनुष्य दूसरों के लिए कर्म नहीं कर सकता?”

और फिर उनके बारे में चोरवाली वह कथा भी हरएक ने सुनी है। एक बार एक चोर पवहारी बाबा के आश्रम में चोरी करने घुसा, परन्तु इन सन्त को देखते ही वह भयभीत हो, चुराये हुए सामान की गठरी वहीं फेंककर भागा। ये सन्त वह गठरी लिए उस चोर के पीछे मीलों दौड़कर उसके पास जा पहुँचे। उन्होंने वह गठरी उस चोर के पैरों पर रखकर हाथ जोड़कर प्रणाम किया और इस बात के लिए सजल नेत्रों से क्षमायाचना की कि उसके इस चोरी के कार्य में वे बाधक हुए। फिर वे बड़ी कातरता के साथ उससे कहने लगे, “तुम यह सब सामान ले लो, क्योंकि यह तुम्हारा ही है, मेरा नहीं।”

हमने विश्वस्त व्यक्तियों से यह कथा भी सुनी है कि एक बार एक विषैले नाग ने उन्हें काट लिया। उसके बाद उनके मित्रों ने कई घण्टों तक यही सोचा कि वे मर गये, पर अन्त में वे होश में आ गये। जब उनके मित्रों ने उनसे इसके सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने यही कहा, “यह नाग तो हमारे प्रियतम का दूत था।”

और हम इस बात में सहज रूप से विश्वास भी कर सकते हैं, क्योंकि हम जानते हैं, पवहारी बाबा का स्वभाव कैसे प्रगाढ़ प्रेम, विनय एवं नम्रता से भूषित था। सब प्रकार के शारीरिक दुःख उनके लिए अपने प्रियतम के पास से आये दूत के समान ही थे और यद्यपि इन दुःखों से भी कभी कभी उन्हें अत्यन्त पीड़ा भी होती थी, पर यदि कोई दूसरा व्यक्ति इन दुःखों को किसी दूसरे नाम से सम्बोधित करता, तो उन्हें बहुत असह्य हो जाता।

उनका यह मौन प्रेम तथा हृदय की सरलता आसपास के सभी लोगों के हृदय पर अपनी छाप डाल चुकी थी और जिन्होंने आसपास के गाँवों में भ्रमण किया है, वे इस अद्भुत महात्मा के अवर्णनीय नीरव प्रभाव की साक्षी दे सकते हैं।

अन्तिम दिनों में पवहारी बाबा ने लोगों से मिलना बन्द कर दिया था। जब वे अपनी गुफा के बाहर आते, तब लोगों से बातचीत करते, पर बीच का दरवाजा बन्द रखकर। उनके गुफा से बाहर निकलने का पता उनके ऊपरवाले कमरे में से होम के धुएँ के निकलने से अथवा पूजा की सामग्री ठीक करने की आवाज से चलता था।

उनकी एक विशेषता यह थी कि वे जिस समय जो काम हाथ में लेते थे, वह चाहे कितना ही तुच्छ क्यों न हो, उसमें पूर्णतया तल्लीन हो जाते थे। वे जिस प्रकार पूर्ण अन्तःकरण से श्रीरामजी की पूजा करते थे, उसी प्रकार एकाग्रता तथा लगन के साथ एक ताँबे का लोटा भी माँजते थे। उन्होंने हमें कर्मरहस्य के सम्बन्ध में यह शिक्षा दी थी कि ‘जौन साधन तौन सिद्धि’, अर्थात् ‘ध्येयप्राप्ति के साधनों से वैसा ही प्रेम रखना चाहिए मानो वे स्वयं ही ध्येय हों’, और पवहारी बाबा स्वयं इस महान् सत्य के उत्कृष्ट उदाहरण थे।

उनका विनम्र भाव उस प्रकार का नहीं था, जिसका अर्थ होता है कष्ट, पीड़ा और अपनी अवमानना। एक समय उन्होंने हमारे सम्मुख निम्नलिखित भाव की बड़ी सुन्दर व्याख्या की थी – “हे राजन्, ईश्वर तो उन अकिंचनों का धन है, जिन्होंने सब वस्तुओं का त्याग कर दिया है – यहाँ तक कि अपनी आत्मा के सम्बन्ध में भी इस भावना का कि ‘यह मेरी है’, पूर्ण त्याग कर दिया है।” और इसी अनुभूति के द्वारा उसमें विनयभाव सहज रूप से प्रकट हुआ था।

वे प्रत्यक्ष रूप से कभी उपदेश नहीं देते थे, क्योंकि ऐसा करना तो मानो आचार्यपद ग्रहण करने तथा स्वयं को मानो दूसरों की अपेक्षा उच्चतर आसन पर आरूढ़ कर लेने के सदृश हो जाता। परन्तु एक बार जब उनके हृदय का स्रोत खुल जाता था, तब उसमें से अनन्त ज्ञान की धारा निकल पड़ती थी। पर फिर भी उनके उत्तर सीधे न होकर संकेतात्मक ही हुआ करते थे।

देखने में पवहारी बाबा अच्छे लम्बे-चौड़े तथा दोहरे शरीर के थे। उनके एक ही आँख थी और अपनी वास्तविक उम्र से वे बहुत कम प्रतीत होते थे। उनकी आवाज इतनी मधुर थी कि हमने वैसी आवाज अभी तक नहीं सुनी। अपने जीवन के शेष दस वर्ष या उससे भी कुछ अधिक समय से, वे लोगों को फिर दिखाई नहीं पड़े। उनके दरवाजे के पास कुछ आलू तथा थोड़ासा मक्खन रख दिया जाता था और रात को किसी समय जब वे समाधि में न होकर अपने ऊपरवाले कमरे में होते तो इन चीजों को ले लेते थे। पर जब वे गुफा के भीतर चले जाते तब उन्हें इन चीजों की भी आवश्यकता नहीं रह जाती थी।

इस प्रकार मौन योगसाधना में समाहित पवहारी बाबा का वह नीरव जीवन, जिसे पवित्रता, विनय और प्रेम का जीवन्त दृष्टान्त कह सकते है, धीरे धीरे व्यतीत होने लगा।

हमें पहले ही कह चुके है कि बाहर से धुआँ दीख पड़ने से ही मालूम हो जाता था कि वे समाधि से उठे हैं। एक दिन उस धुएँ में चलते हुए मांस की दुर्गन्ध आने लगी। आसपास के लोग उसके सम्बन्ध में कुछ अनुमान न कर सके कि क्या हो रहा है। अन्त में जब वह दुर्गन्ध असह्य हो उठी और धुआँ भी अत्यधिक मात्रा में ऊपर उठता हुआ दिखाई देने लगा, तब लोगों ने दरवाजा तोड़ डाला और देखा कि उस महायोगी ने स्वयं को पूर्णाहुति के रूप में उस होमाग्नि को समर्पित कर दिया है। थोड़े ही समय में उनका वह शरीर भस्म की राशि में परिणत हो गया।

यहाँ पर हमें कालिदास की ये पंक्तियाँ याद आती हैं :

‘अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकम्।
निन्दन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम्॥
7

अर्थात् मन्दबुद्धि व्यक्ति महात्माओं के कार्यों की निन्दा करते हैं, क्योंकि ये कार्य असाधारण होते हैं तथा उनके कारण भी सर्वसाधारण व्यक्तियों की विचारशक्ति से परे होते हैं।

परन्तु उनके साथ हमारा यह परिचय होने के कारण उनके युक्त कार्य के सम्बन्ध में हम एक अनुमान पाठकों के सम्मुख रखने का साहस करते हैं – हम कह सकते हैं कि पवहारी बाबा ने यह जान लिया था कि उनके जीवन का अन्तिम क्षण समीप आ गया है और उनकी मृत्यु के पश्चात् भी किसी को कोई कष्ट न हो, इसीलिए उन्होंने पूर्ण स्वस्थ शरीर तथा मन से आर्योचित रीती से यह शेष आहुति भी समर्पित कर दी थी।

प्रस्तुत लेखक इस परलोकगत सन्त के प्रति चिरकृतज्ञ तथा परम ऋणी है। लेखक ने जिन श्रेष्ठतम आचार्यों से प्रेम किया है तथा जिनकी सेवा की है, उनमें से पवहारी बाबा एक हैं। उनकी पवित्र स्मृति में वह ये पंक्तियाँ, चाहे जितनी भी अयोग्य हों, समर्पित करता है।


  1. कठोपनिषद्, २।२।९
  2. कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति।
    मुण्डकोपनिषद्, १।१।३
  3. गीता, ४।१८
  4. एक ऐसा भी मत है कि पवहारी बाबा का जन्म जौनपुर जिले में प्रेमापुर नामक ग्राम में सन १८४० ई. में हुआ था। – प्रकाशक
  5. उत्तर में बदरी-केदार, पूर्व में जगन्नाथपुरी, दक्षिण में सेतुबन्ध रामेश्वर, पश्चिम में द्वारका।
  6. ‘ब्रह्मविदिव वै सोम्य भासि’ – छान्दोग्योपनिषद्, ४।९।२
  7. कुमारसम्भवम्

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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