राजा दशरथ की कहानी
अयोध्या-नरेश राजा दशरथ स्वायम्भुव मनु के अवतार थे। पूर्व काल में कठोर तपस्या से इन्होंने भगवान श्री राम को पुत्र-रूप में प्राप्त करने का वरदान पाया था। ये परम तेजस्वी, वेदों के ज्ञाता, विशाल सेना के स्वामी, प्रजा का पुत्रवत पालन करने वाले तथा सत्यप्रतिज्ञ थे। इनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से धर्म-कर्म में लगी रहने वाली तथा धन-धान्य से सम्पन्न थी। देवता भी महाराज दशरथ की सहायता चाहते थे। देवासुर संग्राम में इन्होंने दैत्यों को पराजित किया था। इन्होंने अपने जीवन काल में अनेक यज्ञ भी किये।
राजा दशरथ की बहुत-सी रानियाँ थीं, उनमें कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी प्रधान थीं। महाराज की वृद्धावस्था आ गयी, किन्तु इनको कोई पुत्र नहीं हुआ। इन्होंने अपनी इस समस्या से गुरुदेव वशिष्ठ को अवगत कराया। गुरु की आज्ञा से ऋष्यशृंग बुलाये गये और उनके आचार्यत्व में पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन हुआ।
यज्ञ-पुरुष ने स्वयं प्रकट होकर पायसान्न से भरा पात्र राजा दशरथ को देते हुए कहा, “राजन्! यह खीर अत्यन्त श्रेष्ठ, आरोग्यवर्धक तथा पुत्रों को उत्पन्न करने वाली है। इसे तुम अपनी रानियों को खिला दो।” महाराज ने वह खीर कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा में बाँटकर दे दी। समय आने पर कौसल्या के गर्भ से सनातन पुरुष भगवान् श्रीराम का अवतार हुआ। कैकेयी ने भरत और सुमित्रा ने लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न को जन्म दिया।
चारों भाई माता-पिता के लाड़ प्यार में बड़े हुए। यद्यपि महाराज को चारों ही पुत्र प्रिय थे, किन्तु श्रीराम पर इनका विशेष स्नेह था। ये श्रीराम को क्षणभर के लिये भी अपनी आँखों से ओझल नहीं करना चाहते थे। जब विश्वामित्र जी यज्ञरक्षार्थ श्रीराम लक्ष्मण को मांगने आये तो वसिष्ठ जी के समझाने पर बड़ी कठिनाई से ये उन्हें भेजने के लिये तैयार हुए।
अपनी वृद्धावस्था को देखकर राजा दशरथ ने श्री राम को युवराज बनाना चाहा। मंथरा की सलाह से कैकेयी ने अपने पुराने दो वरदान महाराज से माँगे – एक में भरत को राज्य और दूसरे में श्री राम के लिये चौदह वर्षों का वनवास। कैकेयी की बात सुनकर महाराज दशरथ स्तब्ध रह गये। थोड़ी देर के लिये तो इनकी चेतना ही लुप्त हो गयी। होश आने पर इन्होंने कैकेयी को समझाया। बड़ी ही नम्रता से दीन शब्दों में इन्होंने कैकेयी से कहा, “भरत को तो मैं अभी बुलाकर राज्य दे देता हूँ, किन्तु तुम श्रीराम को वन भेजने का आग्रह मत करो।”
विधि के विधान एवं भावी की प्रबलता के कारण महाराज के विनय का कैकेयी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भगवान् श्रीराम पिता के सत्य की रक्षा और आज्ञा पालन के लिये अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ वन चले गये। महाराज दशरथ के शोक का ठिकाना न रहा। जब तक श्रीराम रहे तभी तक, इन्होंने अपने प्राणों को रखा और उनका वियोग होते ही श्रीराम प्रेमानल में अपने प्राणों की आहुति दे डाली–
जिअत राम बिधु बदनु निहारा।
राम बिरह करि मरनु सँवारा॥ (मानस २।९५६।२)
राजा दशरथ के जीवन के साथ उनकी मृत्यु भी सुधर गयी। श्रीराम के वियोग में अपने प्राणों को देकर इन्होंने प्रेम का एक अनोखा आदर्श स्थापित किया। महाराज के समान भाग्यशाली और कौन होगा, जिन्होंने अपने अन्त समय में राम-राम पुकारते हुए अपने प्राणों का विसर्जन किया।
राजा दशरथ की कहानी सभी के लिए प्रेरणा का एक उत्तम स्रोत है। उन्होंने अपने जीवन में उतार-चढाव, सुख-दुःख, सब देखा और हर परिस्थिति में जन सामान्य के लिए एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है। ये उनके पूर्व जन्म के कर्मों का ही प्रभाव था, जिससे उन्हें भगवान श्री राम पुत्र के रूप प्राप्त हुए। मेरा मानना है कि इस कलयुग में हर एक व्यक्ति को राजा दशरथ की कहानी (Raja Dashrath Ki Kahani)अवश्य पढ़नी चाहिए और उससे सीख लेना चाहिए। आज के समय में जब मानव अपने संस्कारों और परम्पराओं को भूलता जा रहा है, तब राजा दशरथ की कहानी जीवन को सही दिशा दिलाने में मददगार साबित हो सकती है।
प्रश्नोत्तरी
राजा दशरथ की बहुत-सी रानियाँ थीं, उनमें कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी प्रधान थीं।
दशरथजी सूर्यवंशी राजा अज के पुत्र थे।
अयोध्या-नरेश महाराज दशरथ स्वायम्भुव मनु के अवतार थे।