साध अधूरी
“साध अधूरी” स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया ‘नवल’ द्वारा हिंदी खड़ी बोली में रचित कविता है। इस कविता की रचना 10 अप्रैल सन् 1968 में की गयी थी। इसमें कवि अधूरी ख़्वाहिश की व्यथा को दर्शा रहा है। पढ़ें और आनंद लें इस कविता का–
साध अब तक अधूरी रही रात की,
ओस के अश्रु बनकर सिसकती रही
वेदना को नहीं जब सहारा मिला,
यामिनी भर हृदय में कसकती रही।
साँझ आई तिमिर का वसन पहनकर,
कुछ घड़ी बाद तारे चमकने लगे।
लोग कहने लगे रात्रि के भाल पर,
लाख अनमोल हीरे दमकने लगे।
चाँद-सा मुँह लिए रात लाई सुधा,
तुम न आए तो निशि भर बिलखती रही।
पी कहाँ? पी कहाँ? रात भर चीखता,
एक प्यासा कहीं पर पपीहा रहा।
मेघ ने कब सुनी उसके उर की व्यथा,
पर लिए आश जीवन की जीता रहा।
इस तरह प्यास में ही गुजारी उमर,
पास आने में बदली झिझकती रही।
प्रिय मिलन की मधुर साध मन में लिए-
एक सरिता कहीं थी भगी जा रही।
कूल के प्रस्तरों से प्रणय की कथा-,
वह सुनाती विजन में बढ़ी जा रही।
पर किसी ने बताई न प्रिय की डगर,
खोजने में जन्म भर भटकती रही।
एक मिट्टी का दीपक जला रात भर,
स्नेह अपना दिया और उजाला किया।
किन्तु अगणित शलभ जल मरे दीप पर,
भोर ने हँस, दिए का दिवाला किया।
प्रेम में जल गये गये देख अगणित शलभ,
मृत्यु उनकी दिये को खटकती रही।
रात बीती गगन की गली में उषा,
स्वर्ण-सिन्दूर ला करके भरने लगी।
रात्रि के कंठ से मोतियों की लड़ी-
टूट करके धरा पर बिखरने लगी।
बीच में ही लुटे रात्रि के सब सपन,
साध छलती रही पीर पलती रही।
दिनांक 10-4-68
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।