स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखित (8 अगस्त, 1896)

(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)

स्विट्जरलैंड
८ अगस्त, १८९६

प्रिय आलासिंगा,

कई दिन पहले मैंने अपने पत्र में तुम्हें इस बात का आभास दिया था कि मैं ‘ब्रह्मवादिन्’ के लिए कुछ करने की स्थिति में हूँ। मैं तुम्हें एक या दो वर्षों तक १०० रुपया माहवार दूँगा – अर्थात् साल में ६० अथवा ७० पौंड – यानी जितने से सौ रुपये माहवार हो सके। तब तुम मुक्त होकर ‘ब्रह्मवादिन्’ का कार्य कर सकोगे तथा इसे और भी सफल बना सकोगे। श्रीयुत मणि अय्यर और कुछ मित्र कोष इकट्ठा करने में तुम्हारी सहायता कर सकते हैं – जिससे छपाई आदि की कीमत पूरी हो जायगी। चंदे से कितनी आमदनी होती है? क्या इस रकम से लेखकों को पारिश्रमिक देकर उनसे अच्छी सामग्री नहीं लिखवायी जा सकती? यह आवश्यक नहीं कि ‘ब्रह्मवादिन्’ में प्रकाशित होने वाली सभी रचनाएँ सभी की समझ में आयें – परन्तु यह जरूरी है कि देशभक्ति और सुकर्म की भावना – प्रेरणा से ही लोग इसे खरीदें। लोग से मेरा मतलब हिन्दुओं से है।

यों, बहुत सी बातें आवश्यक हैं। पहली बात है – पूरी ईमानदारी। मेरे मन में इस बात की रत्ती भर शंका नहीं कि तुम लोगों में से कोई भी इससे उदासीन रहोगे। बल्कि व्यावसायिक मामलों में हिन्दुओं में एक अजीब ढिलाई देखी जाती है – बेतरतीब हिसाब-किताब और बेसिलसिले का कारबार। दूसरी बात : उद्देश्य के प्रति पूर्ण निष्ठा – यह जानते हुए कि ‘ब्रह्मवादिन्’ की सफलता पर ही तुम्हारी मुक्ति निर्भर करती है।

इस पत्र (ब्रह्मवादिन्) को अपना इष्टदेवता बनाओं और तब देखना, सफलता किस तरह आती है। मैंने अभेदानन्द को भारत से बुला भेजा है। आशा है, अन्य संन्यासी की भाँति उसे देरी नहीं लगेगी। पत्र पाते ही तुम ‘ब्रह्मवादिन्’ के आय-व्यय का पूरा लेखा-जोखा भेजो, जिस देखकर मैं यह सोच सकूँ कि इसके लिए क्या किया जा सकता है? यह याद रखो कि पवित्रता, निःस्वार्थ भावना और गुरु की आज्ञाकारिता ही सभी सफलताओं के रहस्य हैं।

किसी धार्मिक पत्र की खपत – विदेश में असंभव है। इसे हिन्दुओं की ही सहायता मिलनी चाहिए – यदि उनमें भले-बुरे का ज्ञान हो।

बहरहाल, श्रीमती एनी बेसेन्ट ने अपने निवास स्थान पर मुझे – भक्ति पर बोलने के लिए – निमंत्रित किया था। मैंने वहाँ एक रात व्याख्यान दिया। कर्नल अल्कॉट भी वहाँ थे। मैंने सभी सम्प्रदाय के प्रति अपनी सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए ही भाषण देना स्वीकार किया। हमारे देशवासियों को यह याद रखना चाहिए कि अध्यात्म के बारे में हम ही जगद्गुरू हैं – विदेशी नहीं – किन्तु सांसारिकता अभी हमें उनसे सीखना है।

मैंने मैक्समूलर का लेख पढ़ा है। हालाँकि छः माह पूर्व जब कि उन्होंने इसे लिखा था – उनके पास मजूमदार के पर्चे के सिवा और कोई सामग्री नहीं थी। इस दृष्टि से यह लेख सुन्दर है। इधर उन्होंने मुझे एक लम्बी और प्यारी चिट्ठी लिखी है, जिसमें उन्होंने श्रीरामकृष्ण पर एक किताब लिखने की इच्छा प्रकट की है। मैंने उन्हें बहुत सारी सामग्री दी है, किन्तु भारत से और भी अधिक मँगाने की आवश्यकता है।

काम करते चलो। डटे रहो बहादुरी से। सभी कठिनाइयों को झेलने की चुनौती दो। देखते नहीं वत्स, यह संसार – दुःखपूर्ण है।

प्यार के साथ,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!