स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित (29 जनवरी, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखा गया पत्र)
शिकागो
२९ जनवरी, १८९४
प्रिय दीवान जी साहब,
आपका पिछला पत्र मुझे कुछ दिन पहले मिला। आप मेरी दुःखिनी माँ एवं भाइयों से मिलने गये थे, यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई। किन्तु आपने मेरे हृदय के एकमात्र कोमल स्थान को स्पर्श किया है। दीवान जी, आपको यह जानना चाहिए कि मैं कोई पाषाण हृदय पशु नहीं हूँ। यदि सारे संसार में मैं किसी से प्रेम करता हूँ, तो वह है मेरी माँ, फिर भी मेरा विश्वास था और अब भी है कि यदि मैं संसार-त्याग न करता, तो जिस महान् आदर्श का, मेरे गुरुदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस उपदेश करने आये थे, उसका प्रकाश न होता; और वे नवयुवक कहाँ होते, जो आजकल के भौतिकवाद और भोग-विलास की उत्ताल तरंगों को परकोटे की तरह रोक रहे हैं? उन्होंने भारत का बहुत कल्याण किया है, विशेषतः बंगाल का, और अभी तो काम आरम्भ ही हुआ है। प्रभु की कृपा से ये लोग ऐसा काम करेंगे, जिसके लिए सारा संसार युग-युग तक इन्हें आशीर्वाद देगा। इसीलिए मेरे सामने एक ओर तो हैं भारत एवं सारे संसार के धर्मों के विषय में मेरी परिकल्पना और उन लाखों नरनारियों के प्रति मेरा प्रेम, जो युगों से डूबते जा रहे हैं, और कोई उनकी सहायता करने वाला नहीं है – यही नहीं, उनकी ओर तो कोई ध्यान भी नहीं देता – और दूसरी ओर है अपने निकटस्थ और प्रियजनों को दुःखी करना। मैंने पहला पक्ष चुना, ‘शेष सब प्रभु करेंगे।’ यदि तुझे किसी बात का विश्वास है, तो वह यह कि प्रभु मेरे साथ हैं। जब तक मैं निष्कपट हूँ, तब तक मेरा विरोध कोई नहीं कर सकता, क्योंकि प्रभु ही मेरे सहायक हैं। भारत में अनेकानेक व्यक्ति मुझे समझ न सके, और वे बेचारे समझते भी कैसे, क्योंकि भोजनादि नित्यक्रिया को छोड़कर उनका ध्यान कभी बाहर आया ही नहीं। आप जैसे कोई कोई उदार हृदय वाले मनुष्य मेरा मान करते हैं, यह मैं जानता हूँ। प्रभु आपका भला करें। परन्तु मान हो या न हो, मैंने तो इन नवयुवकों को संगठित करने के लिए ही जन्म लिया है। यही नहीं, प्रत्येक नगर में सैकड़ों और मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं, और मैं चाहता हूँ कि इन्हें अप्रतिहत गतिशील तरंगों की भाँति भारत में सब ओर भेजूँ, ताकि वे दीनहीनों एवं पददलितों के द्वार पर सुख, नैतिकता, धर्म एवं शिक्षा पहुँचावें। और इसे मैं करूँगा, या मर जाऊँगा।
हमारे देश के लोगों में न विचार है, न गुणग्राहकता। इसके विपरीत एक सहस्र वर्ष के दासत्व के स्वाभाविक परिणामस्वरूप उनमें भीषण ईर्ष्या है और उनकी प्रकृति सन्देहशील है, जिसके कारण वे प्रत्येक नये विचार का विरोध करते हैं। फिर भी प्रभु महान् है।
आरती तथा अन्य विषय, जिनका आपने उल्लेख किया है – भारत के सभी मठों में सब जगह प्रचलित हैं, और वेदों में गुरु की पूजा पहला कर्तव्य कहा गया है। इसमें गुण और दोष, दोनों ही पक्ष हैं, परन्तु आपको याद रखना चाहिए कि हमारा यह एक अनुपम संघ है, और हममें से किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपने विश्वास का दूसरों पर बलपूर्वक आरोप करे। हममें से बहुत से लोग किसी प्रकार की मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं रखते, परन्तु उन्हें दूसरों की मूर्ति पूजा का खण्डन करने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि ऐसा करने से हमारे धर्ममत का पहला ही सिद्धान्त टूटता है। फिर ईश्वर भी मनुष्य के रूप में, और मनुष्य के द्वारा ही जाना जा सकता है। प्रकाश का स्फुरण सब स्थानों में होता है – अँधेरे से अँधेरे कोने में भी – परन्तु वह दीपक के रूप में ही मनुष्य के सामने प्रत्यक्ष दिखायी देता है। इसी तरह यद्यपि ईश्वर सर्वत्र है, परन्तु हम एक विराट् मनुष्य के रूप में ही उसकी कल्पना कर सकते हैं। ईश्वर-सम्बन्धी जितनी भावनाएँ हैं – जैसे कि दयालु पालक, सहायक, रक्षक – ये सब मानवीय भावनाएँ हैं और साथ ही किसी मानवविशेष में ही इनका विकास होना है, चाहे उसे गुरु मानिए, चाहे ईश्वरीय दूत या अवतार। मनुष्य अपनी प्रकृति से बाहर नहीं जा सकता, जैसे आप अपने शरीर में से उछलकर बाहर नहीं आ सकते। यदि कुछ लोग अपने गुरु की उपासना करें, तो इसमें क्या हानि है, विशेषतः जब कि वह गुरु ऐतिहासिक पैग़म्बरों तक सभी की सम्मिलित पवित्रता से सौगुना अधिक पवित्र हो? यदि ईसा मसीह, कृष्ण और बुद्ध की पूजा करने में कोई हानि नहीं है, तो इस मनुष्य को पूजने में क्या हानि हो सकती है, जिसके विचार या कर्म को अपवित्रता कभी छू तक नहीं गयी, जिसकी अन्तर्दृष्टिप्रसूत बुद्धि से अन्य पैग़म्बरों, जिनमें से सभी एकदेशदर्शी रहे हैं, की बुद्धि में आकाश-पाताल का अन्तर है? दर्शन, विज्ञान या अन्य किसी भी विद्या की सहायता न लेकर इसी महापुरुष ने जगत् के इतिहास में सर्वप्रथम सत्य का सभी धर्मों में निहित होने की ही नहीं, सभी धर्मों के सत्य होने की इस भावना का जगत् में प्रचार किया एवं यही सत्य वर्तमान समय में संसार में सर्वत्र प्रतिष्ठा लाभ कर रहा है।
परन्तु यह भी अनिवार्य नहीं है; और संघ के भाइयों में से आपसे किसीने यह नहीं कहा कि सभी उसके गुरु की पूजा करें। नहीं, नहीं, नहीं। परन्तु उसके साथ ही हममें से किसी को भी अधिकार नहीं कि वह किसी दूसरे को पूजा करने से रोके। क्यों? क्योंकि ऐसा करने से इस अद्वितीय संगठन का – जो संसार में पहले कभी देखने में नहीं आया – पतन हो जायेगा। दस मत और दस विचार के दस मनुष्य परस्पर खूब घुल-मिलकर रह रहे हैं। थोड़ा धीरज धरिए, दीवान जी, प्रभु दयालु और महान् हैं, अभी आप बहुत कुछ देखेंगे।
हम केवल सब धर्मों के प्रति सहिष्णुता ही नहीं रखते, वरन् उन्हें स्वीकार भी करते हैं, एवं प्रभु की सहायता से सारे संसार में इसका प्रचार करने का प्रयत्न भी मैं कर रहा हूँ।
प्रत्येक मनुष्य एवं प्रत्येक राष्ट्र को महान् बनाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं –
१. सदाचार की शक्ति में विश्वास।
२. ईर्ष्या और सन्देह का परित्याग।
३. जो सत् बनने या सत् कर्म करने के लिए यत्नवान हों, उनकी सहायता करना।
क्या कारण है कि हिन्दू राष्ट्र अपनी अद्भुत बुद्धि एवं अन्यान्य गुणों के रहते हुए भी टुकड़े टुकड़े हो गया? मेरा उत्तर होगा – ईर्ष्या। कभी कोई भी जाति इस मन्दभाग्य हिन्दूजाति की तरह इतनी नीचता के साथ एक दूसरे से ईर्ष्या करने वाली, एक दूसरे के सुयश से ऐसी डाह करने वाली न हुई, और यदि आप कभी पश्चिमी देशों में आयें, तो पश्चिमी राष्ट्रों में इसके अभाव का अनुभव सबसे पहले करेंगे।
भारत में तीन मनुष्य एक साथ मिलकर पाँच मिनट के लिए भी कोई काम नहीं कर सकते। हर एक मनुष्य अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है और अन्त में संगठन की दुरवस्था हो जाती है। भगवान्! भगवान्! कब हम ईर्ष्या करना छोड़ेंगे? ऐसे देश में, विशेषतः बंगाल में, ऐसे व्यक्तियों के एक संगठन का निर्माण करना जो परस्पर मतभेद रखते हुए भी अटल प्रेमसूत्र से बँधे हुए हों, क्या एक आश्चर्यजनक बात नहीं? यह संघ बढ़ता रहेगा।
अनन्त शक्ति व अभ्युदय के साथ-साथ उदारता की यह भावना अवश्य ही सारे देश में फैल जायेगी तथा गुलामों की हमारी इस जाति का उत्तराधिकार सूत्र से प्राप्त इस उत्कट अज्ञता, द्वेष, जातिभेद, प्राचीन अन्धविश्वास व ईर्ष्या के बावजूद यह हमारे देश के रोम-रोम में समा जायेगी तथा उसे विद्युत संचार द्वारा उद्बोधित करेगी।
सर्वव्यापी निस्तरंग इस महासागर के जल में आप ही जैसे दो-चार सच्चरित्र पुरुष हैं जो कठिन शिलाखण्ड की भाँति अविचलित खड़े हैं। प्रभु आपका सदा-सर्वदा कल्याण करें। इति।
सदैव आपका शुभचिन्तक
विवेकानन्द