स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री प्रमदादास मित्र को लिखित (4 जुलाई, 1889)

(स्वामी विवेकानंद का श्री प्रमदादास मित्र को लिखा गया पत्र)
ईश्वरो जयति

बागबाजार, कलकत्ता,
४ जुलाई, १८८९

पूज्यपाद महाशय,

कल आपके पत्र से सारे समाचार पाकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। आपने मुझे लिखा है कि मैं गंगाधर से आपसे पत्र-व्यवहार करने के लिए निवेदन करूँ। परन्तु मुझे इसकी कोई सम्भावना नहीं दिखायी देती, क्योंकि यद्यपि उसकी चिट्ठियाँ हमारे पास आती रहती हैं, परन्तु वह किसी जगह दो या तीन दिन से अधिक नहीं ठहरता। इसलिए हमारी चिट्ठियाँ उसे नहीं मिल पातीं।

मेरे पूर्वाश्रम के एक सम्बन्धी ने सिमुलतला में (वैद्यनाथ के पास) एक बँगला खरीदा है। उस स्थान की जलवायु स्वास्थ्यकर होने के कारण मैं कुछ दिन वहाँ ठहरा था। परन्तु ग्रीष्म की भयंकर गर्मी के कारण मुझे दस्त की बीमारी हुई और मैं अभी वहीं से भागकर आया हूँ।

मैं कह नहीं सकता कि मेरी कितनी प्रबल इच्छा वाराणसी आकर आपके दर्शन और सत्संग का लाभ प्राप्त करने की है। परन्तु सब कुछ भगवदिच्छा पर निर्भर है! महाशय, पता नहीं कि हमारा और आपका पूर्व जन्म का कौन सा हार्दिक सम्बन्ध है, क्योंकि इस कलकत्ता शहर में बहुत से प्रतिष्ठित और धनी लोगों का प्रेम प्राप्त करके भी मैं कभी-कभी उनकी संगति से बहुत ऊबने लगता हूँ और आपसे केवल एक दिन की भेंट होते ही मेरे हृदय पर ऐसा कुछ जादू का सा असर पड़ा कि मैं आपको अपना स्वजन और आध्यात्मिक जीवन का बन्धु समझने लगा हूँ! इसका एक कारण यह है कि आप भगवान् के एक प्रिय भक्त हैं। दूसरा कारण शायद यह है कि :

तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्वम्। भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि॥1

अपने अनुभव और आध्यात्मिक साधना से प्रेरित जो उपदेश आपने मुझे दिये हैं, मैं उनके लिए आपका ऋणी हूँ। यह बिल्कुल सच है और मुझे भी समय-समय पर इसका अनुभव हुआ है कि भिन्न-भिन्न प्रकार के अभिनव विचारों को मस्तिष्क में धारण करने के कारण मनुष्य को कभी-कभी कष्ट उठाना पड़ता है।

परन्तु मुझको तो इस समय एक नया ही रोग है। परमात्मा की कृपा पर मेरा अखण्ड विश्वास है। वह कभी टूटनेवाला भी नहीं। धर्म-ग्रन्थों पर मेरी अटूट श्रद्धा है। परन्तु प्रभु की इच्छा से मेरे गत छः-सात वर्ष निरन्तर विभिन्न विघ्नबाधाओं से लड़ते हुए बीते। मुझे आदर्श शास्त्र प्राप्त हुआ है; मैंने एक आदर्श महापुरुष के दर्शन किये हैं, फिर भी किसी वस्तु का अन्त तक निर्वाह मुझसे नहीं हो पाता, यही मेरे लिए बड़े कष्ट की बात है।

और विशेषतः कलकत्ते के आसपास रहकर मुझे सफलता पाने की कोई आशा नहीं। कलकत्ते में मेरी माँ और दो भाई रहते हैं। मैं सबसे बड़ा हूँ। दूसरा भाई एफ. ए. परीक्षा की तैयारी कर रहा है और तीसरा अभी छोटा है।

वे लोग पहले काफी सम्पन्न थे, पर मेरे पिता की मृत्यु के बाद उनका जीवन कष्टमय हो गया है। कभी-कभी तो उन्हें भूखा रहना पड़ता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन्हें असहाय पाकर कुछ सम्बन्धियों ने उन्हें पैतृक घर से भी निकाल दिया है। कुछ भाग तो हाईकोर्ट में मुकदमा लड़कर प्राप्त कर लिया गया है, परन्तु वे मुकदमेबाजी के कारण धनहीन हो गये हैं।

कलकत्ते के पास रहकर मुझे अपनी आँखों से उनकी दुरावस्था देखनी पड़ती है। उस समय मेरे मन में रजोगुण जाग्रत हो उठता है और मेरा अहंभाव कभी-कभी उस भावना में परिणत हो जाता है, जिसके कारण कार्यक्षेत्र में कूद पड़ने की प्रेरणा होती है। ऐसे क्षणों में मैं अपने मन में एक भयंकर अन्तर्द्वन्द्व का अनुभव करता हूँ। यही कारण है कि मैंने लिखा था कि मेरे मन की स्थिति भीषण है। अब उनका मुकदमा समाप्त हो चुका है। आशीर्वाद कीजिए कि कुछ दिन कलकत्ते में ठहरकर उन सब मामलों को सुलझाने के बाद मैं इस स्थान से सदा के लिए विदा ले सकूँ।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठम् समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत् कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥2

मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरा हृदय महान् दैवी शक्ति से बलशाली हो और मैं सारे माया-बन्धनों को तोड़कर दूर कर सकूँ। ‘हमने क्रूस ले लिया है, तूने उसे हमारे कन्धों पर रखा है, हमें शक्ति दे कि हम उसे मृत्युपर्यन्त वहन कर सकें। एवमस्तु।’ ईसा-अनुसरण।

इस समय मैं कलकत्ते में ठहरा हूँ। मेरा पता यह है : मार्फत बलराम बसु, ५७, रामकान्त बोस स्ट्रीट, बागबाजार, कलकत्ता।

आपका,
नरेन्द्र


  1. ‘यह पूर्व जन्मों में हृदय की गहराइयों से होकर सुदृढ़ रूप से स्थापित स्नेह-सम्बन्धों की अस्फुट स्मृतियों का फल है।’ – कालिदासकृत शाकुन्तल, अंक ५
  2. ‘जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्र में नाना नदियों के जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही जिस स्थिर-बुद्धि में सम्पूर्ण विषय किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही परम शान्ति को प्राप्त होता है, न कि विषयों के पीछे दौड़नेवाला।’

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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