स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी अखण्डानन्द को लिखित (15 जून, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी अखण्डानन्द को लिखा गया पत्र)
अल्मोड़ा,
१५ जून, १८९७
कल्याणवरेषु,
तुम्हारे समाचार मुझे विस्तारपूर्वक मिलते जा रहे हैं, और मेरा आनन्द अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है। इसी प्रकार के कार्य द्वारा जगत् पर विजय प्राप्त की जा सकती है। सम्प्रदाय और मत का अन्तर क्या अर्थ रखते हैं? शाबाश! मेरे लाखों आलिंगन और आशीर्वाद स्वीकार करो। कर्म, कर्म, कर्म – मुझे और किसी चीज की परवाह नहीं है। मृत्युपर्यन्त कर्म, कर्म, कर्म! जो दुर्बल हैं, उन्हें अपने आपको महान् कार्यकर्ता बनाना है, महान् नेता बनाना है – धन की चिन्ता न करो, वह आसमान से बरसेगा। जिनका दान तुम स्वीकार करते हो, उन्हें अपने नाम से देने दो, इसमें कुछ हानि नहीं। किसका नाम और किसका महत्त्व क्या है? नाम के लिए कौन परवाह करता है? उसे अलग रख दो! यदि भूखों को भोजन का ग्रास देने में नाम, सम्पत्ति और सब कुछ नष्ट हो जायँ तब भी – अहो भाग्यमहो भाग्यम् ‘तब भी बड़ा भाग्य है’ – अत्यन्त भाग्यशाली हो तुम! हृदय और केवल हृदय ही विजय प्राप्त कर सकता है, मस्तिष्क नहीं। पुस्तकें और विद्या, योग, ध्यान और ज्ञान – प्रेम की तुलना में ये सब धूलि के समान हैं। प्रेम से अलौकिक शक्ति मिलती है, प्रेम से भक्ति उत्पन्न होती है, प्रेम ही ज्ञान देता है, और प्रेम ही मुक्ति की ओर ले जाता है। वस्तुतः यही उपासना है – मानव शरीर में स्थित ईश्वर की उपासना! नेदं यदिदमुपासते – ‘वह (अर्थात् ईश्वर से भिन्न वस्तु) नहीं, जिसकी लोग उपासना करते हैं।’ यह तो अभी आरम्भ ही है और जब तक हम इसी प्रकार पूरे भारत में, नहीं, नहीं, सम्पूर्ण पृथ्वी पर न फैल जायँ, तब तक हमारे प्रभु का माहात्म्य ही क्या है!
लोगों को देखने दो कि हमारे प्रभु के चरणों के स्पर्श से मनुष्य को देवत्व प्राप्त होता है या नहीं! जीवन्मुक्ति इसी का नाम है, जब अहंकार और स्वार्थ का चिह्न भी नहीं रहता।
शाबाश! श्रीप्रभु की जय हो! क्रमशः भिन्न-भिन्न स्थानों में जाओ। यदि हो सके तो कलकत्ते जाओ, लड़कों की एक अन्य टोली की सहायता से धन एकत्र करो; उनमें से दो-एक को एक स्थान में लगाओ, और फिर किसी और स्थान से कार्य आरम्भ करो। इस प्रकार धीरे-धीरे फैलते जाओ और उनका निरीक्षण करते रहो। कुछ समय के बाद तुम देखोगे कि काम स्थायी हो जायगा और धर्म तथा शिक्षा का प्रसार इसके साथ स्वयं हो जायगा। मैंने कलकत्ते में उन लोगों को विशेष रूप से समझा दिया है। ऐसा ही काम करते रहो तो मैं तुम्हें सिर-आँखों पर चढ़ाने के लिए तैयार हूँ। शाबाश! तुम देखोगे कि धीरे-धीरे हर जिला केन्द्र बन जायगा – और वह भी स्थायी केन्द्र। मैं शीघ्र ही नीचे (र्ज्तीग्हे) जाने वाला हूँ। मैं योद्धा हूँ और रणक्षेत्र में ही मरूँगा। क्या मुझे यहाँ पर्दानशीन औरत की तरह बैठना शोभा देता है?
सप्रेम तुम्हारा,
विवेकानन्द