उत्तरा का जीवन परिचय
उत्तरा के जीवन चरित्र का महाभारत की कथा में सविस्तार वर्णन है। जब महाराज विराट ने यह सुना कि उनके पुत्र उत्तर ने समस्त कौरव-पक्ष के योद्धाओं को पराजित करके अपनी गायों को लौटा लिया है, तब वे आनन्दातिरेक में अपने पुत्र की प्रशंसा करने लगे। इसपर कंक (धर्मराज युधिष्ठिर) ने कहा कि जिसका सारथि बृहन्नला (महारथी अर्जुन) हो, उसकी विजय तो निश्चित ही है।
महाराज विराट को यह असह्य हो गया कि राज्यसभा में पासा बिछाने के लिये नियुक्त ब्राह्मण कङ्क उनके पुत्र के बदले नपुंसक बृहन्नला की प्रशंसा करे। उन्होंने पासा खींचकर मार दिया और कङ्क की नासिका से रक्त निकलने लगा। सैरन्ध्री बनी हुई महारानी द्रौपदी दौड़ी और सामने कटोरी रखकर कंक की नासिका से निकलते हुए रक्त को भूमि पर गिरने से बचाया। जब उन्हें तीसरे दिन पता लगा कि उन्होंने कंक के वेश में अपने यहाँ निवास कर रहे महाराज युधिष्ठिर का ही अपमान किया है, तब उन्हें अपने आप पर अत्यन्त खेद हुआ। उन्होंने अनजान में हुए अपराधों के परिमार्जन और पाण्डवों से स्थायी मैत्री स्थापना के उद्देश्य से अपनी पुत्री उत्तरा और अर्जुन के विवाह का प्रस्ताव किया।
इस पर अर्जुन ने कहा, “राजन्! मैंने कुमारी उत्तरा को बृहन्नला के रूप में वर्षभर नृत्य और संगीत की शिक्षा दी है। यदि मैं राजकुमारी को पत्नी रूप में स्वीकार करता हूँ तो लोग मुझ पर और आपकी पुत्री के चरित्र पर संदेह करेंगे और गुरु-शिष्य की परम्परा का अपमान होगा। राजकुमारी मेरे लिये पुत्री के समान है। इसलिये अपने पुत्र अभिमन्यु की पत्नी के रूप में मैं उन्हें स्वीकार करता हूँ।” भगवान् श्रीकृष्ण के भानजे को जामाता के रूप में स्वीकार करना आपके लिये भी गौरव की बात होगी। सभी ने अर्जुन की धर्म-निष्ठा की प्रशंसा की और उत्तरा का विवाह अभिमन्यु से सम्पन्न हो गया।
महाभारत के संग्राम में अर्जुन संसप्तकों से युद्ध करने के लिये दूर चले गये और गुरु द्रोणाचार्य ने उनकी अनुपस्थिति में चक्रव्यूह का निर्माण किया। भगवान् शंकर के वरदान से जयद्रथ ने सभी पाण्डवों को व्यूह में प्रवेश करने से रोक दिया। अकेले अभिमन्यु ही व्यूह में प्रवेश कर पाये। महावीर अभिमन्यु ने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन किया। उन्होंने कौरवपक्ष के प्रमुख महारथियों को बार-बार हराया। अन्त में पितामह भीष्म, अंगराज कर्ण और दुर्योधन आदि सभी महारथियों ने एक साथ मिलकर अन्याय पूर्वक अभिमन्यु का वध कर दिया। सती उत्तरा उस समय गर्भवती थीं। भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वासन देकर पति के साथ सती होने से रोक दिया।
भगवान वेदव्यास कृत महाभारत के अनुसार जब अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पाँच पुत्रों को मार डाला तथा शिविर में आग लगाकर भाग गया, तब अर्जुन ने उसको पकड़कर द्रौपदी के सम्मुख उपस्थित किया। वध्य होने के बाद भी द्रौपदी ने उसे मुक्त करा दिया, किंतु उस नराधम ने कृतज्ञ होने के बदले पाण्डवों का वंश ही निर्मूल करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उत्तरा की करुण पुकार सुनकर भगवान गोविन्द ने सूक्ष्म रूप से उनके गर्भ में प्रवेश करके पाण्डवों के एक मात्र वंशधर की ब्रह्मास्त्र से रक्षा की, किंतु जन्म के समय बालक मृत पैदा हुआ।
यह समाचार सुनकर श्रीकृष्णजी ने सूतिका गृह में प्रवेश किया। उत्तरा पगली की भाँति मृत बालक को गोद में उठाकर कहने लगी, “बेटा, त्रिभुवन के स्वामी तुम्हारे सामने खड़े हैं। तू धर्मात्मा तथा शीलवान् पिता का पुत्र है। यह अशिष्टता अच्छी नहीं। इन सर्वेश्वर को प्रणाम कर। सोचा था कि तुझे गोद में लेकर इन सर्वाधार के चरणों में मस्तक रखूँगी, किंतु सारी आशाएँ नष्ट हो गयीं।” भक्तवत्सल भगवान ने तत्काल जल छिड़ककर बालक को जीवन दान दिया। सहसा बालक का श्वास चलने लगा। चारों ओर आनन्द की लहर दौड़ गयी। पाण्डवो का यही वंशधर परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भगवद्भक्ति और विश्वास की अनुपम प्रतीक सती उत्तरा धन्य है।
देवी उत्तरा संबंधी प्रश्नों के उत्तर
सती उत्तरा के पुत्र का नाम परीक्षित था।
स्वयं साक्षात भगवान श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उत्तरा के गर्भ की रक्षा की थी।