मंदारवती किसकी पत्नी है? – विक्रम बेताल की कहानी
“मंदारवती किसकी पत्नी है” विक्रम बेताल की बहुत ही रोचक कहानी है। बेताल पच्चीसी की इस कथा में राजा विक्रमादित्य अपनी बुद्धिमत्ता से यह निर्णय करता है कि मंदारवती किसकी पत्नी होने योग्य थी। यदि आप बेताल पच्चीसी की अन्य कहानियां पढ़ना चाहते हैं, तो कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ।
पद्मावती की प्रेम कहानी सुनाने के बाद बेताल उड़कर पुनः वृक्ष के निकट पहुँच चुका था। उसे खोजते हुए महाराज विक्रमादित्य पुनः उसी शिंशपा-वृक्ष के नीचे पहुंचे। वहां चिता की मटमैली रोशनी में उनकी नजर भूमि पर पड़े उस शव पर पड़ी जो धीरे-धीरे कराह रहा था।
उन्होंने शव को उठाकर कंधे पर डाला और चुपचाप उसे उठाए तेज गति से लौट पड़े।
कुछ आगे चलने पर शव के अंदर से बेताल की आवाज आई, “राजन! तुम अत्यंत अनुचित क्लेश में पड़ गए। अतः तुम्हारे मनोरंजन के लिए मैं एक कहानी सुनाता हूं, सुनो।”
तीन ब्राह्मणों का विवाह प्रस्ताव
यमुना किनारे ब्रह्मस्थल नाम का एक स्थान है, जो ब्राह्मणों को दान में मिला हुआ था। वहां वेदों का ज्ञाता अग्निस्वामी नाम का एक ब्राह्मण था। उसके यहां मन्दरावती नाम की एक अत्यंत रूपवती कन्या उत्पन्न हुई। जब वह कन्या युवती हुई, तब तीन कान्यकुब्ज ब्राह्मण कुमार वहां आए जो समान भाव से समस्त गुणों से अलंकृत थे।
उन तीनों ने ही उसके पिता से अपने लिए कन्या की याचना की। कितु कन्या के पिता ने उनमें से किसी के भी साथ कन्या का विवाह करना स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उसे भय हुआ कि ऐसा करने पर वे तीनों आपस में ही लड़ मरेंगे। इस तरह वह कन्या कुआंरी ही रही।
वे तीनों ब्राह्मण कुमार भी चकोर का व्रत लेकर उसके मुखमंडल पर टकटकी लगाए रात-दिन वहीं रहने लगे।
मंदारवती की मृत्यु
एक बार मंदारवती को अचानक दाह-ज्वर हो गया और उसी अवस्था में उसकी मौत हो गई। उसके मर जाने पर तीनों ब्राह्मण कुमार शोक से बड़े विकल हुए और उसे सजा-संवारकर श्मशान ले गए, जहां उसका दाह-संस्कार किया।
उनमें से एक ने वहीं अपनी एक छोटी-सी मढैया बना ली और मंदारवती की चिता की भस्म अपने सिराहने रखकर एवं भीख में प्राप्त अन्न पर निर्वाह करता हुआ वहीं रहने लगा।
दूसरा उसकी अस्थियों की भस्म लेकर गंगा-तट पर चला गया और तीसरा योगी बनकर देश-देशांतरों के भ्रमण के लिए निकल पड़ा।
योगी बना वह ब्राह्मण घूमता-फिरता एक दिन वत्रोलक नाम के गांव में जा पहुंचा। वहां अतिथि के रूप में उसने एक ब्राह्मण के घर में प्रवेश किया। ब्राह्मण द्वारा सम्मानित होकर जब वह भोजन करने बैठा, तो उसी समय एक बालक ने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया।
बहुत बहलाने-समझाने पर भी जब बालक चुप न हुआ तो घर की मालकिन ने क्रुद्ध होकर उसे हाथों में उठा लिया और जलती हुई अग्नि में फेंक दिया। आग में गिरते ही, कोमल शरीर वाला वह बालक जलकर राख हो गया।
यह देखकर उस योगी को रोमांच हो आया। उसने परोसे हुए भोजन को आगे सरका दिया और उठकर खड़ा होते हुए क्रोधित भाव में बोला, “धिक्कार है आप लोगों पर। आप ब्राह्मण नहीं, कोई ब्रह्म-राक्षस हैं। अब मैं तुम्हारे घर का भोजन तो क्या, एक अन्न का दाना भी ग्रहण नहीं करूंगा।”
योगी के ऐसा कहने पर गृहस्वामी बोला, “हे योगिराज, आप कुपित न हों। मैं बच्चे को फिर से जीवित कर लूंगा। मैं एक ऐसा मंत्र जानता हूं जिसके पढ़ने से मृत व्यक्ति जीवित हो जाता है।”
यह कहकर वह गृहस्थ, एक पुस्तक ले आया जिसमें मंत्र लिखा था। उसने मंत्र पढ़कर उससे अभिमंत्रित धूल आग में डाल दी। आग में धूल के पड़ते ही वह बालक जीवित होकर ज्यों-का-त्यों आग से निकल आया।
जब उस ब्राह्मण योगी का चित्त शांत हो गया तो उसने भोजन ग्रहण किया। गृहस्थ ने उस पुस्तिका को बांधकर खूँटी पर टांग दिया और भोजन करके योगी के साथ वहीं सो गया। गृहपति के सो जाने के पश्चात् वह योगी चुपचाप उठा और अपनी प्रिया को जीवित करने की इच्छा से उसने डरते-डरते वह पुस्तक खूँटी से उतार ली और चुपचाप बाहर निकल आया।
मंत्र से मंदारवती का पुनः जीवित होना
रात-दिन चलता हुआ वह योगी उस जगह पहुंचा, जहां उसकी प्रिया का दाह हुआ था। वहां पहुंचते ही उसने उस दूसरे ब्राह्मण को देखा जो मंदारवती की अस्थियां लेकर गंगा में डालने गया था।
तब उस योगी ने उससे तथा उस पहले ब्राह्मण से, जिसने वहां कुटिया बना ली थी और चिता-भस्म से सेज रच रखी थी कहा कि “तुम यह कुटिया यहां से हटा लो, जिससे मैं एक मंत्र शक्ति के द्वारा इस भस्म हुई मंदारवती को जीवित करके उठा लूं।”
इस प्रकार उन्हें बहुत समझा-बुझाकर उसने वह कुटिया उजाड़ डाली। तब वह योगी पुस्तक खोलकर मंत्र पढ़ने लगा। उसने धूल को अभिमंत्रित करके चिता-भस्म में डाल दिया और मंदारवती उसमें से जीती-जागती निकल आई।
अग्नि में प्रवेश करके निकलते हुए उसके शरीर की कांति पहले से भी अधिक तेज हो गई थी। उसका शरीर अब ऐसा लगने लगा था जैसे वह सोने का बना हुआ हो। इस प्रकार उसको जीवित देखकर वे तीनों ही काम-पीड़ित हो गए और उसको पाने के लिए आपस में लड़ने-झगड़ने लगे।
जिस योगी ने मंत्र से उसे जीवित किया था वह बोला कि वह स्त्री उसकी है। उसने उसे मंत्र-तंत्र से प्राप्त किया है। दूसरे ने कहा कि तीर्थों के प्रभाव से मिली वह उसकी भार्या है। तीसरा बोला कि उसकी भस्म को रखकर अपनी तपस्या से उसने उसे जीवित किया है, अतः उस पर उसका ही अधिकार है।
तरुणों में विवाद – मंदारवती किसकी पत्नी है?
इतनी कहानी सुनाकर बेताल ने विक्रमादित्य से कहा, “राजन! उनके इस विवाद का निर्णय करके तुम ठीक-ठीक बताओ कि वह स्त्री किसकी होनी चाहिए? यदि तुम जानते हुए भी न बतला पाए तो तुम्हारा सिर फटकर अनेक टुकड़ों में बंट जाएगा।”
बेताल द्वारा कहे हुए शब्दों को सुनकर राजा विक्रमादित्य ने कहा, “हे बेताल! जिस योगी ने कष्ट उठाकर भी, मंत्र-तंत्र से उसे जीवित किया, वह तो उसका पिता हुआ। ऐसा काम करने के कारण उसे पति नहीं होना चाहिए और जो ब्राह्मण उसकी अस्थियां गंगा में डाल आया था, उसे स्वयं को उस स्त्री का पुत्र समझना चाहिए।
किंतु, जो उसकी भस्म की शैय्या पर आलिंगन करते हुए तपस्या करता रहा और श्मशान में ही बना रहा, उसे ही उसका पति कहना चाहिए, क्योंकि गाढ़ी प्रीति वाले उस ब्राह्मण ने ही पति के समान आचरण किया था।”
“तूने ठीक उत्तर दिया राजा, किंतु ऐसा करके तूने अपना मौन भंग कर दिया। इसलिए मैं चला वापस अपने स्थान पर”, यह कहकर बेताल उसके कंधे से उतरकर लोप हो गया।
राजा ने भिक्षु के पास ले जाने के लिए, उसे फिर से पाने के लिए कमर कसी क्योंकि धीर वृत्ति वाले लोग प्राण देकर भी अपने दिए हुए वचन की रक्षा करते हैं। तब राजा फिर से उसी स्थान की ओर लौट पड़ा जहां से वह शव को उतारकर लाया था।
राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – कौन दुष्ट: पुरुष या स्त्रियाँ?