शांतशील का वध – विक्रम-बेताल की कहानी
“शांतशील का वध” बेताल पच्चीसी की पच्चीसवीं व अंतिम कहानी है। इसमें राजा विक्रम दुष्ट भिक्षु शांतिशील का वध करने में सफल होता है। बेताल पच्चीसी की शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ।
“चंद्रावती की अनोखी कहानी” सुनाकर बेताल ने शव छोड़ दिया। राजा विक्रमादित्य अपने कंधे पर उस शव को लादे हुए उस भिक्षु शान्तशील के पास पहुंचे। कृष्णपक्ष की रात से भयावह हो रहे उस श्मशान में वृक्ष की जड़ के समीप बैठा वह भिक्षु टकटकी लगाए राजा की ही प्रतीक्षा कर रहा था।
उसने श्मशान की उस भूमि को रक्त से लीप रखा था। हड्डियों के सफेद चूर्ण से चौक पूरा था और चारों दिशाओं से रक्त से भरे घड़े रख दिये थे। वहां मनुष्य की चरबी से भरा दीपक जल रहा था। पास ही जल रही अग्नि में आहुति दी गई थी।
राजा उस भिक्षु के समीप पहुंचा। शव लेकर आए राजा को जैसे ही उस भिक्षु ने देखा, वह प्रसन्न होकर उठ खड़ा हुआ और राजा की प्रशंसा करता हुआ बोला, “महाराज! आपने मुझ पर दुष्कर अनुग्रह किया है। वे लोग, जो आपको समस्त राजाओं में श्रेष्ठ कहते हैं, वह उचित ही है क्योंकि एक आप ही हैं जो अपनी चिंता छोड़कर परोपकार कर सकते हैं। विद्वान लोग इसी को बड़ों की महत्ता कहते हैं कि वे लोग जो भी अंगीकार कर लेते हैं, उससे कभी विचलित नहीं होते, चाहे उस प्रयास में उनके प्राण ही क्यों न चले जाएं।”
ऐसा कहते हुए उस श्रमण ने, जो यह समझ रहा था कि उसका कार्य पूर्ण हो गया, राजा के कंधे से उस शव को उतार लिया। तत्पश्चात् उसने शव को स्नान कराया, उसके शरीर पर लेप किया, माला पहनाई और फिर उसे पूरे हुए चौक में रख दिया। फिर उसने अपने शरीर पर भस्म लगाई, केस का यज्ञोपवीत धारण किया और शवाच्छादन (मुर्दे को ओढ़ाया जाने वाला कफन) पहना, फिर कुछ देर के लिए ध्यानस्थ हो गया।
उस भिक्षु ने मंत्रबल से उस श्रेष्ठ बेताल का आह्वान किया। मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट कराने के बाद वह क्रम से उसकी पूजा करने लगा। भिक्षु ने मनुष्य की खोपड़ी से उसे अर्घ्य दिया। मनुष्य के ही दांतों के फूल चढ़ाए और सुगंधित लेप लगाया। उसने मनुष्य की आंखों का धूप दिया और मांस की बलि दी। इस तरह पूजा समाप्त करके उसने पास ही खड़े राजा से कहा, “महाराज, यहां मंत्रों के अधिष्ठाता पधारे हैं। तुम भूमि पर लेटकर इन्हें साष्टांग प्रणाम करो, इससे वे वरदायी देव तुम्हें तुम्हारा मनचाहा वर देंगे।”
यह सुनते ही राजा को बेताल द्वारा कहे गए शब्दों की याद हो आई। तब उसने भिक्षु से कहा, “भगवन्, मैं ऐसा करना नहीं जानता। अतः पहले आप प्रणाम करके मुझे दिखला दें, तब मैं वैसा ही करूंगा।” इसके बाद वह भिक्षु प्रणाम का ढंग बतलाने के लिए ज्योंही भूमि पर झुका, राजा विक्रमादित्य ने अपनी तलवार से तुरंत ही उसका सिर काट डाला।
राजा ने उसका सीना फाड़कर उसका हृदय-कमल भी निकाल लिया और वह सिर और हृदय-कमल बेताल को अर्पित कर दिया।
श्मशान के भूत-प्रेतों ने प्रसन्न होकर राजा को साधुवाद कहा। संतुष्ट होकर बेताल ने भी उस मनुष्य शरीर के अंदर से कहा, “राजन, यह भिक्षु विद्याधरों के जिस इन्द्रपद की कामना करता था, वह अब भूमि साम्राज्य का भोग कर लेने के बाद तुम्हें प्राप्त होगा। मेरे द्वारा तुम्हें बहुत कष्ट उठाना पड़ा है, अतः तुम अभीष्ट वर मांगो।”
बेताल के ऐसा कहने पर राजा उससे बोला, “वैसे तो आपकी प्रसन्नता से ही मुझे समस्त अभिमत प्राप्त हो गए हैं, तथापि हे योगेश्वर! आपका वचन अमोघ है इसलिए मैं इतना ही मांगता हूं कि अनेक कथाओं के मनोरम आरंभ से चौबीस और यह अंतिम पच्चीसवीं कथा, ये सभी समूचे विश्व में प्रसिद्ध हों और सदैव ही आदरणीय रहें।”
राजा की इस याचना के बाद बेताल ने कहा, “हे राजन! ऐसा ही होगा। किंतु इससे अधिक मैं जो कुछ चाहता हूं, तुम उसे सुनो। पहले की जो चौबीस कथाएं हैं, वे और अंतिम पच्चीसवीं कथा, यह सारी कथावली संसार में ‘बेताल पच्चीसी’ के नाम से प्रसिद्ध होगी। लोग इनका आदर करेंगे और कल्याणदायिनी भी होंगी। जो कोई आदरपूर्वक इसका एक भी श्लोक पढ़ेगा अथवा जो इसे सुनेगा, ऐसे दोनों प्रकार के लोग शीघ्र ही पापमुक्त हो जाएंगे। जहां-जहां भी ये कथाएं पढ़ी-सुनी जाएंगी, वहां यक्ष, बेताल, डाकिनी, राक्षस आदि का प्रभाव नहीं पड़ेगा।”
इतना कहकर वह बेताल उस मनुष्य-शरीर से निकलकर योगमाया के द्वारा अपने अभीप्सित लोक को चला गया।
तत्पश्चात् भगवान शिव, जो राजा से प्रसन्न हो गए थे, देवताओं सहित वहां साक्षात् प्रकट हुए। उन्होंने राजा विक्रमादित्य को प्रणाम करते हुए आदेश दिया, “वत्स, तुम धन्य हो कि तुमने इस धूर्त तपस्वी को मार डाला। जो हठपूर्वक विद्याधरों का महाचक्रवर्ती पद प्राप्त करना चाहता था। मलेच्छ रूप में अवतीर्ण असुरों को शांत करने के लिए मैंने ही तुम्हें सिरजा है। अतः द्वीपों और पातालों सहित इस धरती के समस्त भोगों का उपभोग करके जब तुम इनसे ऊब जाओगे, तब अपनी ही इच्छा से उन सब सुखों का त्याग करके तुम मेरे निकट आ जाओगे। अब मेरे द्वारा प्रदत्त यह ‘अपराजित’ नाम का खड्ग स्वीकार करो। इसकी कृपा से तुम्हें वह सब सुख प्राप्त होंगे, जो मैंने तुम्हें बताए हैं।”
यह कहकर भगवान शंकर ने वह खड्ग राजा को दे दिया और वचन-रूपी पुष्पों से पूजित होकर वे अन्तर्ध्यान हो गए। अब तक रात बीत चुकी थी, सवेरा हो रहा था। राजा ने देखा कि सारे कार्य समाप्त हो चुके हैं; अतः वह अपने नगर लौट गया।
क्रमशः प्रजाजनों को जब उस रात की घटनाएं मालूम हुईं, तब उन्होंने राजा का सम्मान किया और महोत्सव मनाया। वह सारा दिन स्नान-दान, शिवार्चना, नाच-गान और गाजे-बाजे में बीता। कुछ ही समय में भगवान शिव के उस खड्ग के प्रभाव से राजा विक्रमादित्य ने द्वीपों एवं रसातलों सहित इस धरती पर निष्कंटक राज्य किया। तत्पश्चात् भगवान शिव की आज्ञा से विद्याधरों का महान स्वामित्व प्राप्त किया। राजा विक्रमादित्य ने बहुत दिनों तक विद्याधरों के राजा के रूप में सुख-भोग प्राप्त किया और अंत में वह भगवत-स्वरूप को प्राप्त हुआ।