स्वामी विवेकानंद

आत्मा अति निकट है, फिर भी उसकी अनुभूति आसानी से क्यों नहीं होती

स्थान – बेलुड़ मठ

वर्ष – १९०१ ईसवी

विषय – आत्मा अति निकट है, फिर भी उसकी अनुभूति आसानी सेक्यों नहीं होती – अज्ञान स्थिति दूर होकर ज्ञान का प्रकाश होने पर जीव के मन में नाना प्रकार के सन्देह, प्रश्न आदि फिर नहीं उठते – स्वामीजी कीध्यानतन्मयता।

स्वामीजी अभी भी कुछ अस्वस्थ हैं; कविराज की दवा से काफी लाभ हुआ है। एक मास से अधिक समय तक केवल दूध पीकर रहने के कारण स्वामीजी के शरीर से आजकल मानो चन्द्रमा की सी कान्ति प्रस्फुटित हो रही है और उनके बड़े बड़े नेत्रों की ज्योति और भी अधिक बढ़ गयी है।

आज दो दिनों से शिष्य मठ में ही है और अपनी शक्ति भर स्वामीजी की सेवा कर रहा है। आज अमावस्या है। निश्चित हुआ है कि शिष्य और स्वामी निर्भयानन्दजी रात को बारी बारी से स्वामीजी की सेवा का भार लेंगे। सन्ध्या हो रही है। स्वामीजी की चरणसेवा करते करते शिष्य ने पूछा, “महाराज, जो आत्मा सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, अणु-परमाणु में विद्यमान रहकर तथा जीव के प्राणों का प्राण बनकर उसके इतने निकट है, उसका अनुभव फिर क्यों नहीं होता?”

स्वामीजी – क्या तू जानता है कि तेरी आँखें हैं? जब कोई आँख की बात करता है, उस समय ‘मेरी आँखे हैं’ इस प्रकार की कोई धारणा होती है, परन्तु आँख में मिट्टी पड़ने पर जब आँख किरकिराती है, तब यह ठीक ठीक समझा जाता है कि हाँ आँख है। इसी प्रकार निकट से निकट होने पर भी यह विराट आत्मा सरलता से समझ में नहीं आती। शास्त्र या गुरु के मुख से सुनकर कुछ कुछ धारणा अवश्य होती है। परन्तु जब संसार के तीव्र शोक-दुःख के कठोर आघात से हृदय व्यथित होता है, जब स्वजनों के वियोग द्वारा जीव अपने को अवलम्बनशून्य अनुभव करता है, जब भविष्य जीवन के अलंघ्य दुर्भेद्य अंधकार में उसका प्राण घबड़ा उठता है, उसी समय जीव इस आत्मा के दर्शन के लिए उन्मुख होता है। दुःख आत्म ज्ञान का सहायक इसीलिए है; परन्तु धारणा रहनी चाहिए। दुःख पाते पाते कुत्तेबिल्लियों की तरह जो लोग मरते हैं, वे भी मनुष्य हैं? सच्चे मनुष्य वही हैं जो इस सुख-दुख के द्वन्द्व-प्रतिघातों से तंग आकर भी विवेक के बल पर उन सभी को क्षणिक मान आत्मप्रेम में मग्न रहते हैं। मनुष्य तथा दूसरे जीव-जानवरों में यही भेद है। जो चीज जितनी निकट होती है, उसकी उतनी ही कम अनुभूति होती है। आत्मा निकट से निकट है, इसीलिए असंयत चंचलचित्त जीव उसे समझ नहीं पाते। परन्तु जिनका मन वशीभूत है ऐसे शान्त और जितेन्द्रिय विचारशील जीव बहिर्जगत् की उपेक्षा करके अन्तर्जगत् में प्रवेश करते करते समय पर इस आत्मा की महिमा की उपलब्धि कर गौरवान्वित हो जाते हैं। उसी समय वह आत्मज्ञान प्राप्त करता है और ‘मैं ही वह आत्मा हूँ’ ‘तत्त्वमसि श्वेतकेतो’ आदि वेद के महावाक्यों का प्रत्यक्ष अनुभव कर लेता है। समझा?

शिष्य – जी हाँ। परन्तु महाराज, इन दुःख, क्लेश और वेदनाओं के मार्ग से आत्मज्ञान को प्राप्त करने की व्यवस्था क्यों है? इससे तो सृष्टि न होती तभी अच्छा था। हम सभी तो एक समय ब्रह्म में लीन थे। ब्रह्म की इस प्रकार सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा ही क्यों होती है? और इस द्वन्द्व-घात-प्रतिघात में साक्षात् ब्रह्मरूपी जीव का इस जन्म मृत्यु पूर्ण पथ से आना-जाना ही क्यों होता है?

स्वामीजी – मतवाले बन जाने पर लोग कितनी बातें देखते हैं, परन्तु नशा दूर होते ही उन्हें मस्तिष्क का भ्रम समझ में आ जाता है। तू अनादि परन्तु सान्त सृष्टि के ये जो माया-प्रसूत खेल देख रहा है वह तेरी मतवाली अवस्था के कारण है। इस मतवालेपण के दूर होते ही तेरे ये सब प्रश्न नहीं रहेंगे।

शिष्य – महाराज, तो क्या सृष्टि, स्थिति आदि कुछ भी नहीं है?

स्वामीजी – हैं क्यों नहीं? जब तक तू इस देहबुद्धि को पकड़कर ‘मैं-मैं’ कर रहा है, तब तक ये सभी कुछ हैं; और जब तू विदेह आत्मरत और आत्मक्रीड़ बन जायगा तब तेरे लिए ये सब कुछ भी नहीं रहेंगे। सृष्टि, जन्म, मृत्यु आदि हैं या नहीं – इस प्रश्न का भी उस समय फिर अवसर नहीं रहेगा। उस समय तुझे बोलना होगा –

क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत्।
अधुनैव मया दृष्टं नास्ति किं महदद्भुतम्॥

शिष्य – जगत् का ज्ञान यदि बिलकुल न रहे तो ‘कुत्र लीनभिदं जगत्’ यह बात फिर कैसे कही जा सकती है?

स्वामीजी – भाषा में उस भाव को व्यक्त्त करके समझाना पड़ रहा है, इसीलिए वैसा कहा गया है। जहाँ पर भाव और भाषा के प्रवेश का अधिकार नहीं है उस स्थिति को भाव और भाषा में व्यक्त्त करने की चेष्टा ग्रन्थकार ने की है। इसीलिए यह जगत् बिलकुल मिथ्या है इस बात को व्यावहारिक रूप में ही कहा है; पारमार्थिक सत्ता जगत् की नहीं है। वह केवल ‘अवाङ्मनसगोचरम्’ ब्रह्म की ही है। बोल, तेरा और क्या कहना है। आज तेरा तर्क शान्त कर दूँगा।

मन्दिर में आरती की घण्टी बजी। मठ के सभी लोग मन्दिर में चले। शिष्य को उसी कमरे में बैठे रहते देख स्वामीजी बोले, “मन्दिर में नहीं गया?”

शिष्य – मुझे यहीं रहना अच्छा लग रहा है।

स्वामीजी – तो रह।

कुछ समय के बाद शिष्य कमरे के बाहर देखकर बोला, “आज अमावस्या है। चारों ओर अन्धकार छा गया है। आज कालीपूजा का दिन है।”

स्वामीजी शिष्य की उस बात पर कुछ न कहकर, खिड़की से पूर्वाकाश की ओर एकटक हो कुछ समय तक देखते रहे और बोले, “देख रहा है, अन्धकार की कैसी अद्भुत गम्भीर शोभा है!” और यह कहकर उस गम्भीर तिमिरराशि के बीच देखते देखते स्तम्भित होकर खड़े रहे। अब सब कुछ शान्त है, केवल दूर मन्दिर में भक्तगणों द्वारा पठित श्रीरामकृष्ण-स्तव शिष्य को सुनायी दे रहा है। शिष्य ने स्वामीजी में यह गम्भीरता पहले कभी नहीं देखी थी, और साथ ही गम्भीर अन्धकार से आवृत्त बहिःप्रकृति का निस्तब्ध स्थिर भाव देखकर शिष्य का मन एक अपूर्व भय से आकुल हो उठा। इस प्रकार कुछ समय व्यतीत होने पर स्वामीजी धीरे धीरे गाने लगे, “निबिड़ आँधारे माँ, तोर चमके अरूपराशि” इत्यादि।

गीत समाप्त होने पर स्वामीजी कमरे के भीतर जाकर बैठ गये और बीच बीच में “माँ माँ” “काली काली” कहने लगे। उस समय कमरे में और कोई न था, केवल शिष्य स्वामीजी की आज्ञा का पालन करने के लिए प्रस्तुत था।

स्वामीजी का उस समय का मुख देखकर शिष्य को ऐसा लगा मानो वे किसी एक दूर देश में निवास कर रहे हैं। चंचल शिष्य उनका उस प्रकार का भाव देखकर व्यथित होकर बोला, “महाराज, अब बातचीत कीजिये।”

स्वामीजी मानो उसके मन के भाव को समझकर ही मृदु हास्य करते हुए उससे बोले, ‘जिसकी लीला इतनी मधुर है, उस आत्मा की सुन्दरता और गम्भीरता कैसी होगी, सोच तो!” उनका वह गम्भीर भाव अभी भी उसी प्रकार देखकर शिष्य बोला, “महाराज, उन सब बातों की अब और आवश्यकता नहीं है। मैंने भी न जाने क्यों आपसे अमावस्या और कालीपूजा की बात को – उस समय से आप में न जाने कैसा परिवर्तन हो गया है।” स्वामीजी शिष्य की मानसिक स्थिती को समझकर गाना गाने लगे – ‘कखन कि रंगे थाको माँ श्यामा सुधातरंगिणी” इत्यादि।

गाना समाप्त होने पर स्वामीजी ने कहा, “यह काली ही लीलारूपी ब्रह्म है। श्रीरामकृष्णजी का ‘साँप का चलना और साँप का स्थिर भाव’ – नहीं सुना?”

शिष्य – जी हाँ।

स्वामीजी – अब की बार स्वस्थ होने पर हृदय का रक्त्त देकर माँ की पूजा करूँगा। रघुनन्दन ने कहा है, ‘नवम्यां पूजयेत् देवी कृत्वा रुधिरकर्दमम्’ – अब मैं वही करूँगा। माँ की पूजा छाती का रक्त्त देकर करनी पड़ती है, तभी वह प्रसन्न होती है और तभी माँ के पुत्र वीर होंगे – महावीर होंगे। निरानन्द में, दुःख में, प्रलय में, महाप्रलय में माँ के लड़के निडर बने रहेंगे।

यह बातचीत चल रही थी कि इसी समय नीचे प्रसाद पाने की घण्टी बजी। घण्टी सुनकर स्वामीजी बोले, “जा, नीचे प्रसाद पाकर जल्दी आना।” शिष्य नीचे उतर गया।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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