कविता

बारहमासा

“बारहमासा” स्व श्री नवल सिंह भदौरिया “नवल” द्वारा ब्रज भाषा में रचित चैत्रादि बारह महीनों को समर्पित कविता है।

चैत मास आवत ही चित्त में न चैनु परै,
काम ने कमान बाँधी विरहीन मारिबे।
फूले वन टेसू लगें आगि के अँगारिन से,
दहकि दहकि उठें अंगनि पजारिबे।
कूकि कूकि कोयल कबैं को जानें काढ़े बैर,
प्राननि में पवन चली है मद ढारिबे।
अब तो बचेंगे प्रान तब ही वियोगिनी के,
दरद की फरद जो आवें कन्त फारिबे।

चिठियाँ पठाई औ सँदेसनि हू भेजि हारी,
तौऊ नाय आये मैंने कहा खोट कीन्ही है।
माघ सियरात गये छतियाँ द्वै बातनि कौं,
तरसि तरसि रहीं सुधि हू न लीन्हीं है।
फागुन में मिलिवे की आस हू निरास भई,
चैत चाँदनी ‘नवल’ जारि करी छीनी है।
साखि साथ बारे हू महीना बे साखि भये,
नाँव बैसाख परि साखि राखि दीन्ही है।


लाग्यौ जेठ मास सब मासनि में जेठौ मास,
भोर के भयें ते भानु आगि उगिलतु है।
दिन के चढ़े ते नेक झाँक के झकोरनि सौं
घर हू के बीच अंग आगि सौ दहतु है।
ग्रीषम दुपहरी की गरमी सौं सूखि जात,
ताल औ तलैयनि में पानी ना रहतु है।
छाँह हू ‘नवल’ अति प्रबल अवा सी जरै,
जेठ को महीना पूरौ भारु सौ भुँजतु है।

लागत अषाड़ घिरि आये कजरारे घन,
प्यासी धरती के देखि सूखे अधरान कौं।
नाचत हैं मोर, बन-बागनि में कूकि-कूकि,
जीवन दिवैया देखि देखि बदरान कों।
धरा के उरोजनि सौं खेल खैलिवे ‘नवल’
अमृत की धार दैकें राखत हैं प्रान कौं।
कारे-कारे जामुन, फरैंदे पकि झूमि रहे,
आयौ है अषाड़ लैके आम गदरान कौं।

सावन सुहावन धरा के अंग धोय-धोय,
करत सुपावन पवन वन-बाग कौं।
कोकिला सी कूक हूक कामिनी के मन जैसी,
दादुरनि छेड़ि गायौ जाने कौन राग कौं।
सर सरितान के नवल अंग भेंटि रहे,
मेटि रहे द्वैत भावना के तुच्छ दाग को।
कण्ठ-कण्ठ कजरी मल्हार कौ निवास भयौ,
ऐसौ कौन मास पावै सावन के भाग कौं।

झुकी अँधियारी कारी, बिजुरी की चकाचौंध,
दिन और राति में न भेद कछू दरसैं।
कटिते कटति नाहि साँपिनि-सी यामिनी हू,
लागत दिवस एक जैसे कोटि बरसैं ।
लागी झड़ी ‘नवल’ कहूँ न कोऊ आवै जाय,
पीतम की पाती हू कौं बैठी नारि तरसैं।
भादौं झुकि झूमि-झूमि धरती कौ चूमि-चूमि,
बदरा वियोगिनी की आँखिनि से बरसैं।

स्वच्छ नील व्योम, सर-सरितान स्वच्छ नीर,
गैल, घाट स्वच्छ घर-आँगन लखात हैं।
स्वच्छ चन्द्रमा की चाँदनी हू स्वच्छ तारागन,
पेड़ और पौधनि के धुले स्वच्छ पात हैं।
नीरद नवल स्वच्छ धौरै-धौरे दौरि रहे,
आये वे जहाँ ते लौटि के तहाँ कौं जात हैं।
फूलि रहे काँस औ सरोज हू सरोवरनि,
लागत कुआर मानों गात पुलकात हैं।

करबा की टौंटनी सौं जाड़े, कौ जमन होत,
क्वार तें अधिक कछू रातें सिअराति है।
आवत दिबारी कौ सुपर्व धाम-धामनि में,
दीपनि की पाँतें नभतारा-सी लखाति हैं।
देवठान आवत ही देवता नवल जागें,
मीठे रस ईख की पँगोई भरि जाति हैं।
गौरी के मनाइबे कौ नीकों वर पाइबै कौ,
कातिक के मास नारि कातिक नहाति हैं।

लागत अघैन अघियाने लगे धुँधियान,
जाड़े कौ प्रकोप सीत पौन सनकति है।
कारे-कारे बदरा कबहुँ भरि जोर उठें,
म्हावट के संग बीजुरी हू ठनकति है।
सालग कौ जोर सोर होत भारी बाजिनि कौ,
घर औ बरातिनि की छाती छनकति है।
जैसी-जैसी राति सियराति जाति भाँति-भाँति,
गोरी गौने वारी हू की चूरी खनकति हैं।

पूस मास में नवल फूस न रहत कहूँ,
द्वार-द्वार होरी जैसी जरत दिखात हैं।
बालक औ बूढ़िन की जाड़े सों न बसिआइ,
काँखनि में हाथ दयैं ज्वान सिसियात हैं।
कौहरे की कारी अँधियारी-सी झुकी ही रहै।
दिन में ही दिनमान नैंक ना लखात है।
ओढ़त रजाई पाई गरमी न भाई कहूँ,
सारें अंग ठिठुरि छुआरौ भए जात हैं।

माघ मास आयौ सीत और हू सतायौ जग,
पीरे-पीरे पातनि के ढेर दरसत हैं।
पिक सुक मौन धारि-धारि बैठे घामनि में,
बेली अलबेली के नैन बरसत हैं।
योगिनी-सी प्रकृति परीक्षा करै बार-बार,
कंत हूँ बसंत के न अंग सरसत है।
छीन तन दीन जैसें पानी बिन मीन रहै,
कामिनी वियोगिनी के नैन तरसत हैं।

बाजत मँजीरा, ढोल, ढप, मास फागुन में
राग फाग गावत गुलाल भरे झोरी है।
संग में अनंग भरी छोरी हैं अहीरनि की,
मुरि-मुरि नाचि रहीं वैस की किसोरी हैं।
दृगनि नचावें हुरिहारिने, लुभावै कछू,
कछू दौरि गालनि लगाय जाति रोरी हैं।
कछू सैननि सौं बतराबैं, हँसि जाबैं कछू,
मारें पिचकारी भरि रंग कहैं होरी है।

स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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