धर्मस्वामी विवेकानंद

बेलुड़ मठ में जप

स्थान – बेलुड़ मठ

वर्ष – १९०२ ईसव

विषय – बेलुड़ मठ में जप-ध्यान का अनुष्ठान – विद्यारूपिणी कुण्डलिनी के जागरण से आत्मदर्शन – ध्यान के समय एकाग्र होने का उपाय – मन की सविकल्प व निर्विकल्प स्थिति – कुण्डलिनी को जगाने का उपाय – भाव -साधना के पथ में विपत्तियाँ – कीर्तन आदि के बाद कई लोगों में पाशविकप्रवृत्ति की वृद्धि क्यों होती है – ध्यान का प्रारम्भ किस प्रकार करना चाहिए – ध्यान आदि के साथ निष्काम कर्म करने का उपदेश।

शिष्य पिछली रात को स्वामीजी के कमरे में ही सोया था। रात्रि के चार बजे स्वामीजी शिष्य को जगाकर बोले, “जा, घण्टा लेकर सब साधु ब्रह्मचारियों को जगा दे।” आदेश के अनुसार शिष्य ने पहले ऊपरवाले साधुओं के पास घण्टा बजाया। फिर उन्हें उठते देख नीचे जाकर घण्टा बजाकर सब साधु-ब्रह्मचारियों का जगाया। साधुगण जल्दी ही शौच आदि से निवृत्त होकर, कोई कोई स्नान करके अथवा कोई कपड़ा बदलकर, मन्दिर में जप-ध्यान करने के लिए प्रविष्ट हुए।

स्वामीजी के निर्देश के अनुसार स्वामी ब्रह्मानन्द के कानों के पास बहुत जोर जोर से घण्टा बजाने से वे बोल उठे, “इस बांगाल ‘बुद्धू’ की शरारत के कारण मठ में रहना कठिन हो गया है।” शिष्य ने जब स्वामीजी से वह बात कही तो स्वामीजी खूब हँसते हुए बोले, “तूने ठीक किया।”

इसके बाद स्वामीजी भी मुँह-हाथ धोकर शिष्य के साथ मन्दिर में प्रविष्ट हुए।

स्वामीजी ब्रह्मानन्द आदि संन्यासी गण मन्दिर में ध्यानस्थ बैठे थे। स्वामीजी के लिए अलग आसन रखा हुआ था; वे उत्तर की ओर मुँह करके उस पर बैठते हुए सामने एक आसन दिखाकर शिष्य से बोले, “जा, वहाँ पर बैठकर ध्यान कर।” ध्यान के लिए बैठकर कोई मन्त्र जपने लगे, तो कोई अन्तर्मुख होकर शान्त भाव से बैठे रहे। मठ का वातावरण मानो स्तब्ध हो गया। अभी तक अरुणोदय नहीं हुआ था। आकाश में तारे चमक रहे थे।

स्वामीजी आसन पर बैठने के थोड़ी ही देर बाद एकदम स्थिर, शान्त, निःस्पन्द होकर सुमेरु की तरह निश्चल हो गये और उनका श्वास बहुत धीरे धीरे चलने लगा। शिष्य विस्मित होकर स्वामीजी की वह निश्चल निवातनिष्कम्प दीपशिखा की तरह स्थिति को एकटक देखने लगा। जब तक स्वामीजी न उठेंगे, तब तक किसी को आसन छोड़कर उठने की आज्ञा नहीं है। इसलिए थोड़ी देर बाद पैर में झुनझुनी आने पर तथा उठने की इच्छा होने पर भी वह स्थिर होकर बैठा रहा।

लगभग डेढ़ घण्टे के बाद स्वामीजी “शिव शिव” कहकर ध्यान समाप्त कर उठ गये। उस समय उनकी आँखें आरक्त्त हो उठी थीं, मुख गम्भीर, शान्त एवं स्थिर था। श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके स्वामीजी नीचे उतरे और मठ के आँगन में टहलते हुए घूमने लगे। थोड़ी देर बाद शिष्य से बोले, “देखा, साधुगण आजकल कैसे जप-ध्यान करते हैं? ध्यान गम्भीर होने पर कितने ही आश्चर्यजनक अनुभव होते हैं। मैंने वराहनगर के मठ में ध्यान करते करते एक दिन इडा-पिंगला नाड़ियाँ देखी थीं। जरा चेष्टा करने से ही देखा जा सकता है। उसके बाद सुषुम्ना का दर्शन पाने पर जो कुछ देखना चाहेगा, वही देखा जा सकता है। दृढ़ गुरुभक्ति होने पर साधन, भजन, ध्यान, जप सब स्वयं ही आ जाते हैं। चेष्टा की आवश्यकता नहीं होती। ‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।’

“भीतर नित्यशुद्धबुद्धमुक्त आत्मारूपी सिंह विद्यमान है; ध्यानधारणा करके उनका दर्शन पाते ही माया की दुनिया उड़ जाती है। सभी के भीतर वे समभाव से विद्यमान हैं; जो जितना साधनभजन करता है उसके भीतर उतनी ही जल्द कुण्डलिनी शक्ति जाग उठती है। वह शक्ति मस्तक में उठते ही दृष्टि खुल जाती है – आत्मदर्शन प्राप्त हो जाता है।

शिष्य – महाराज, शास्त्र में उन बातों को केवल पढ़ा ही है। प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं हुआ!

स्वामीजी – ‘कालेनात्मनि विन्दति’ – समय पर अवश्य ही होगा। अन्तर इतना ही है कि किसी का जल्द और किसी का जरा देर में होता है। लगे रहना चाहिए, चिपके रहना चाहिए। इसी का नाम यथार्थ पुरुषकार है। तेल की धार की तरह मन को एक ओर लगाये रखना चाहिए। जीव का मन अनेकानेक विषयों से विक्षिप्त हो रहा है, ध्यान के समय भी पहलेपहल मन विक्षिप्त होता है। मन में जो चाहे क्यों न उठे, क्या भाव उठ रहे हैं, उन्हें उस समय स्थिर हो देखना चाहिए। उसी प्रकार देखते देखते मन स्थिर हो जाता है और फिर मन में चिन्ता की तरंगें नहीं रहती। वह तरंग समूह ही है मन की ‘संकल्पवृत्ति’। इससे पूर्व जिन विषयों का तीव्र भाव से चिन्तन किया है, उनका एक मानसिक प्रवाह रहता है, इसीलिए वे विषय ध्यान के समय मन में उठते हैं। उनका उठना या ध्यान के समय स्मरण होना ही इसका प्रमाण है कि साधक का मन धीरे, धीरे स्थिरता की ओर जा रहा है। मन कभी कभी किसी भाव को लेकर एकवृत्तिस्थ हो जाता है – उसी का नाम है सविकल्प ध्यान। और मन जिस समय सभी वृत्तियों से शून्य हो जाता है उस समय निराधार एक अखण्ड बोध रूपी प्रत्यक् चैतन्य में लीन हो जाता है। इसी का नाम वृत्तिशून्य निर्विकल्प समाधि है। हमने श्रीरामकृष्णजी में ये दोनों समाधियाँ बार बार देखी हैं। उन्हें ऐसी स्थितियों को कोशिश करके लाना नहीं पड़ता था। बल्कि अपने आप ही एकाएक वैसा हो जाया करता था। वह एक आश्चर्यजनक घटना होती थी। उन्हें देखकर ही तो ये सब ठीक समझ सका। प्रतिदिन अकेले ध्यान करना; सब रहस्य स्वयं ही खुल जायगा विद्यारूपिणी महामाया भीतर सो रही हैं, इसलिये कुछ जान नहीं सक रहा है। यह कुण्डलिनी ही है वह शक्ति। ध्यान करने के पूर्व जब नाड़ी शुद्ध करेगा, तब मन ही मन मूलाधार स्थित कुण्डलिनी पर जोर जोर से आघात करना और कहना, ‘जागो माँ! जागो माँ!’ धीरे धीरे इन सब का अभ्यास करना होगा। भावप्रवणता को ध्यान के समय एकदम दबा देना, उसमें बड़ा भय है। जो लोग अधिक भावप्रवण हैं, उनकी कुण्डलिनी फड़फड़ाती हुई ऊपर तो उठ जाती है, परन्तु वह जितने शीघ्र ऊपर जाती है, उतने ही शीघ्र नीचे भी उतर आती है। जब उतरती है तो साधक को एक दम गर्त में ले जाकर छोड़ती है। भावसाधना के सहायक कीर्तन आदि में यही एक बड़ा दोष है। नाच-कूदकर सामयिक उत्तेजना से उस शक्ति की ऊर्ध्वगति अवश्य हो जाती है, परन्तु स्थायी नहीं होती। निम्नगामी होते समय जीव की प्रबल काम-प्रवृत्ति की वृद्धि होती है। मेरे अमरीका के भाषण सुनकर सामयिक उत्तेजना से स्त्री-पुरुषों में अनेकों का यही भाव हुआ करता था। कोई तो जड़ की तरह बन जाते थे। मैने पीछे पता लगाया था, उस स्थिति के बाद ही कई लोगों की काम-प्रवृत्ति की अधिकता होती थी। सतत ध्यानधारणा का अभ्यास न होने के कारण ही वैसा होता है।

शिष्य – महाराज, ये सब गुप्त साधनरहस्य किसी शास्त्र में मैंने नहीं पढ़े। आज नयी बात सुनी।

स्वामीजी – सभी साधनरहस्य क्या शास्त्र में हैं! वे सब गुरुशिष्यपरम्परा से गुप्तभाव से चले आ रहे हैं। खूब सावधानी के साथ ध्यान करना, सामने सुगन्धित फूल रखना, धूप जलाना। जिससे मन पवित्र हो, पहले पहल वही करना। गुरु-इष्ट का नाम करते करते कहा कर, ‘जीव जगत् सभी का मंगल हो।’ उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ऊर्ध्व, अधः सभी दिशाओं में शुभ संकल्प की चिन्ताओं को बिखेरकर ध्यान में बैठा कर। ऐसा पहले पहल करना चाहिए। उसके बाद स्थिर होकर बैठकर (किसी भी ओर मुँह करके बैठने से कार्य हो सकता है) मन्त्र देते समय जैसा मैंने कहा है उसी प्रकार ध्यान किया कर। एक दिन भी क्रम न तोड़ना। कामकाज की झंझट रहे तो कम से कम पन्द्रह मिनट तो अवश्य ही कर लेना। एकनिष्ठा न रहने से कुछ नहीं होता।

अब स्वामीजी ऊपर जाते जाते कहने लगे, “अब तुम लोगों की थोड़े ही में आत्मदृष्टि खुल जायगी। जब तू यहाँ पर आ पड़ा है, तो मुक्ति-फुक्त्ति तो तेरी मुठ्ठी में है। इस समय ध्यान आदि करने के अतिरिक्त इस दुःखपूर्ण संसार के कष्टों को दूर करने के लिए भी कमर कसकर काम में लग जा। कठोर साधना करते करते मैंने इस शरीर का मानो नाश कर डाला है। इस हड्डी-माँस के पिंजड़े में अब कुछ नहीं रहा। अब तुम लोग काम में लग जाओ। मैं जरा विश्राम करूँ। और कुछ नहीं कर सकता है तो ये सब जितने शास्त्र आदि पढ़े हैं, उन्ही की बातें जीव को जाकर सुना। इससे बढ़कर और कोई दान नहीं है। ज्ञानदान सर्वश्रेष्ठ दान है।”

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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