गुरु और शिष्य के लक्षण – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“गुरु और शिष्य के लक्षण” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध किताब भक्तियोग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी बता रहे हैं कि गुरु और शिष्य के लक्षण किस प्रकार होने चाहिए, अर्थात् सच्चे गुरु और शिष्य को पहचानने का क्या तरीक़ा है। बिना अपने भीतर सही शिष्यत्व जागृत किए भक्ति-मार्ग पर चलना बहुत कठिन है। साथ ही सही गुरु को पहचान पाना भी आज-कल मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में गुरु और शिष्य के लक्षण समझना और भी अधिक आवश्यक हो गया है। इस पुस्तक के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – हिंदी में भक्तियोग।
तो फिर गुरु की पहचान क्या है? सूर्य को प्रकाश में लाने के लिए मशाल की आवश्यकता नहीं होती। उसे देखने के लिए हमें दिया नहीं जलाना पड़ता। जब सूर्योदय होता है तो हम अपने आप जान जाते हैं कि सूरज उग आया। इसी प्रकार जब हमारी सहायता के लिए गुरु का आगमन होता है, तो आत्मा अपने आप जान लेती है कि उस पर अब सत्य-सूर्य की किरणें पड़ने लगी हैं। सत्य स्वयं ही प्रमाण है – उसे प्रमाणित करने के लिए किसी दूसरे साक्षी की आवश्यकता नहीं, वह स्वप्रकाश है। वह हमारी प्रकृति के अन्तस्तल तक प्रवेश कर जाता है और उसके समक्ष सारी दुनिया उठ खड़ी होती है और कहती है, “यही सत्य है।” जिन आचार्यों के हृदय में सत्य और ज्ञान सूर्य के समान देदीप्यमान होते हैं, वे संसार में सर्वोच्च महापुरुष हैं और अधिकांश मानवजाति द्वारा उनकी उपासना ईश्वर के रूप में होती है। परन्तु उनकी अपेक्षा अल्पज्ञानवाले व्यक्तियों से भी हम आध्यात्मिक सहायता ले सकते हैं। पर हममें वह अन्तर्दृष्टि नहीं है, जिससे हम गुरु के सम्बन्ध में यथार्थ विचार कर सकें। अतएव गुरु और शिष्य दोनों के सम्बन्ध में कुछ परख और शर्ते आवश्यक हैं
शिष्य के लिए यह आवश्यक है कि उसमें पवित्रता, सच्ची ज्ञानपिपासा और अध्यवसाय हो। अपवित्र आत्मा कभी यथार्थ धार्मिक नहीं हो सकती। धार्मिक होने के लिए तन, मन और वचन की शुद्धता नितान्त आवश्यक है। रही ज्ञान-पिपासा की बात; तो इस सम्बन्ध में यह एक सनातन सत्य है कि जाकर जापर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहि न कछु सन्देहू – हम जो चाहते हैं, वही पाते हैं। जिस वस्तु की हम अन्तःकरण से चाह नहीं करते, वह हमें प्राप्त नहीं होती। धर्म के लिए सच्ची व्याकुलता होना बड़ी कठिन बात है। वह उतना सरल नहीं, जितना कि हम बहुधा अनुमान करते हैं। धर्म सम्बन्धी बात सुनना, धार्मिक पुस्तकें पढ़ना – केवल इतने से ही यह न सोच लेना चाहिए। कि हृदय में सच्ची पिपासा है। उसके लिए तो हमें अपनी पाशविक प्रकृति के साथ निरन्तर जूझे रहना होगा, सतत युद्ध करना होगा और उसे अपने वश में लाने के लिए अविराम प्रयत्न करना होगा। कब तक? जब तक हमारे हृदय में धर्म के लिए सच्ची व्याकुलता उत्पन्न न हो जाय, जब तक विजय-श्री हमारे हाथ न लग जाय। यह कोई एक या दो दिन की बात तो है नहीं – कुछ वर्ष या कुछ जन्म की भी बात नहीं; इसके लिए सम्भव है, हमें सैकड़ों जन्म तक इसी प्रकार संग्राम करना पड़े। हो सकता है, किसी को सिद्धि थोड़े समय में ही प्राप्त हो जाय; पर यदि उसके लिए अनन्त काल तक भी बाट जोहनी पड़े, तो भी हमें तैयार रहना चाहिए। जो शिष्य इस प्रकार अध्यवसाय के साथ साधना में प्रवृत्त होता है, उसे सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है।
गुरु के सम्बन्ध में यह जान लेना आवश्यक है कि उन्हें शास्त्रों का मर्म ज्ञात हो। वैसे तो सारा संसार ही बाइबिल, वेद और कुरान पढ़ता है; पर वे तो केवल शब्दराशि हैं, धर्म की सूखी ठठरी मात्र हैं। जो गुरु शब्दाडम्बर के चक्कर में पड़ जाते हैं, जिनका मन शब्दों की शक्ति में बह जाता है, वे भीतर का मर्म खो बैठते हैं। जो शास्त्रों के वास्तविक मर्मज्ञ हैं, वे ही असल में सच्चे धार्मिक गुरु हैं। शास्त्रों का शब्दजाल एक सघन वन के सदृश है, जिसमें मनुष्य का मन भटक जाता है और रास्ता ढूँढ़े भी नहीं पाता। “शब्दजाल तो चित्त को भटकानेवाला एक महा वन है।”1 “विचित्र ढंग की शब्दरचना, सुन्दर भाषा में बोलने के विभिन्न प्रकार और शास्त्रमर्म की नाना प्रकार से व्याख्या करना – ये सब पण्डितों के भोग के लिए ही है; इनसे अन्तर्दृष्टि का विकास नहीं होता।”2 जो लोग इन उपायों से दूसरों को धर्म की शिक्षा देते हैं, वे केवल अपना पाण्डित्य प्रदर्शित करना चाहते हैं। उनकी यही इच्छा रहती है कि संसार उन्हें बहुत बड़ा विद्वान् मानकर उनका सम्मान करे। संसार के प्रधान आचार्यों में से कोई भी शास्त्रों की इस प्रकार नानाविध व्याख्या करने के झमेले में नहीं पड़ा। उन्होंने श्लोकों के अर्थ में खींचातानी नहीं की। वे शब्दार्थ और धात्वर्थ के फेर में नहीं पड़े। फिर भी उन्होंने संसार को बड़ी सुन्दर शिक्षा दी। इसके विपरीत, उन लोगों ने, जिनके पास सिखाने को कुछ भी नहीं, कभी एकआध शब्द को ही पकड़ लिया और उस पर तीन भागों की एक मोटी पुस्तक लिख डाली, जिसमें, उस शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई, किसने उस शब्द का सब से पहले उपयोग किया, वह क्या खाता था, वह कितनी देर सोता था, आदि-आदि – इसी प्रकार की सब अनर्थक बातें भरी हैं।
भगवान श्रीरामकृष्ण एक कहानी कहा करते थे :-“एक बार दो आदमी किसी बगीचे में घूमने गये। उनमें से एक जिसकी विषय-बुद्धि जरा तेज थी, बगीचे में घुसते ही हिसाब लगाने लगा – ‘यहाँ कितने पेड़ आम के हैं, किस पेड़ में कितने आम हैं, एक-एक डाली में कितनी पत्तियाँ हैं, बगीचे की कीमत कितनी हो सकती है – आदि-आदि।’ पर दूसरा आदमी बगीचे के मालिक से भेंट करके, एक पेड़ के नीचे बैठ गया और मजे से एक एक आम गिराकर खाने लगा। अब बताओ तो सही, इन दोनों में कौन ज्यादा बुद्धिमान है? आम खाओ तो पेट भी भरे, केवल पत्ते गिनने और यह सब हिसाब लगाने से क्या लाभ?” यह पत्तियाँ और डालें गिनना तथा दूसरों को यह सब बताने का भाव बिलकुल छोड़ दो। यह बात नहीं कि इस सब की कोई उपयोगिता नहीं; है – पर धर्म के क्षेत्र में नहीं। इन ‘पत्तियाँ गिननेवालों’ में तुम एक भी आध्यात्मिक महापुरुष नहीं पाओगे। मानवजीवन के सर्वोच्च ध्येय – मानव की महत्तम गरिमा – धर्म के लिए इतने ‘पत्तियाँ गिनने’ के श्रम की आवश्यकता नहीं। यदि तुम भक्त होना चाहते हो, तो तुम्हारे लिए यह जानना बिल्कुल आवश्यक नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण मथुरा में हुए थे या व्रज में, वे करते क्या थे, और जब उन्होंने गीता की शिक्षा दी तो उस दिन ठीकठीक तिथि क्या थी। गीता में कर्तव्य और प्रेम सम्बन्धी जो उदात्त उपदेश दिये गये हैं, उनको अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करो – उनकी आवश्यकता हृदय से अनुभव करो। बस यही तुम्हारे लिए आवश्यक है। उसके तथा उसके प्रणेता के सम्बन्ध में अन्य सब विचार तो केवल विद्वान के आमोद के लिए हैं। वे जो चाहते हैं, करें। हम तो उनके पाण्डित्यपूर्ण विवाद पर केवल ‘शान्तिः शान्ति’ कहेंगे और बस ‘आम खायँगे’।
गुरु के लिए दूसरी आवश्यक बात है – निष्पापता। बहुधा प्रश्न पूछा जाता है, “हम गुरु के चरित्र और व्यक्तित्व की ओर ध्यान ही क्यों दे? हमें तो यही देखना चाहिए कि वे क्या कहते हैं, और बस उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।” पर यह बात ठीक नहीं। यदि कोई मनुष्य मुझे गति-विज्ञान, रसायन शास्त्र अथवा अन्यथा कोई भौतिक विज्ञान सिखाना चाहे, तो उसका चरित्र कैसा भी हो सकता है, क्योंकि इन विषयों के लिए केवल तेज बुद्धि की ही आवश्यकता है; परन्तु अध्यात्मविज्ञान के आचार्य यदि अशुद्धचित्त रहें, तो उनमें लेशमात्र भी धर्म का प्रकाश नहीं रह सकता। एक अशुद्धचित्त व्यक्ति हमें क्या धर्म सिखायेगा? अपने तईं आध्यात्मिक सत्य की उपलब्धि करने और दूसरों में उसका संचार करने का एकमात्र उपाय है – हृदय और मन की पवित्रता। जब तक चित्तशुद्धि नहीं होती, तब तक भगवद्दर्शन अथवा उस अतीन्द्रिय सत्ता का आभास तक नहीं मिलता। अतएव गुरु के सम्बन्ध में हमें पहले यह जान लेना होगा कि उनका चरित्र कैसा है; और तब फिर देखना होगा कि वे कहते क्या हैं। उन्हें पूर्ण रूप से शुद्धचित्त होना चाहिए, तभी उनके शब्दों का मूल्य होगा, क्योंकि केवल तभी वे सच्चे संचारक हो सकते हैं। यदि स्वयं उनमें आध्यात्मिक शक्ति न हो, तो वे संचार ही क्या करेंगे? उनके मन में आध्यात्मिकता का इतना प्रबल स्पन्दन होना चाहिए, जिससे वह सहज रूप से शिष्य के मन में संचरित हो जाय। वास्तव में गुरु का काम यह है कि वे शिष्य में आध्यात्मिक शक्ति का संचार कर दें, न कि शिष्य की बुद्धिवृत्ति अथवा अन्य किसी शक्ति को उत्तेजित मात्र करें। यह स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है कि गुरु से शिष्य में सचमुच एक शक्ति आ रही है। अतः गुरु का शुद्धचित्त होना आवश्यक है।
गुरु के लिए तीसरी आवश्यक बात है – उद्देश्य। गुरु को धन, नाम या यश सम्बन्धी स्वार्थ-सिद्धि के हेतु धर्म शिक्षा नहीं देनी चाहिए। उनके कार्य तो सारी मानवजाति के प्रति विशुद्ध प्रेम से ही प्रेरित हों। आध्यात्मिक शक्ति का संचार केवल शुद्ध प्रेम के माध्यम से ही हो सकता है। किसी प्रकार का स्वार्थपूर्ण भाव, जैसे कि लाभ अथवा यश की इच्छा तुरन्त ही इस प्रेमरूपी माध्यम को नष्ट कर देगा। भगवान प्रेमस्वरूप हैं, और जिन्होंने इस तत्त्व की उपलब्धि कर ली है, वे ही मनुष्य को शुद्ध होने और ईश्वर को जानने की शिक्षा दे सकते हैं।
जब देखो कि तुम्हारे गुरु में ये सब लक्षण विद्यमान हैं तो फिर तुम्हें कोई आशंका नहीं। अन्यथा उनसे शिक्षा ग्रहण करना ठीक नहीं; क्योंकि तब साधु-भाव संचरित होने के बदले असाधुभाव के संचरित हो जाने का बड़ा भय रहता है। अतः इस प्रकार के खतरे से हमें सब प्रकार से बचना चाहिए। केवल वही “जो शास्त्रज्ञ, निष्पाप, कामगन्धहीन और श्रेष्ठ ब्रह्मवित् है,”3सच्चा गुरु है।
जो कुछ कहा गया, उससे यह सहज ही मालूम हो जायगा कि धर्म में अनुराग लाने के लिए, धर्म की बातें समझने के लिए और उन्हें अपने जीवन में उतारने के लिए उपयोगी शिक्षा हम यहाँ-वहाँ, किसी भी ऐरेगैरे के पास नहीं प्राप्त कर सकते। “पर्वत उपदेश देते हैं, कलकल बहनेवाले झरने विद्या बिखेरते जाते हैं और सर्वत्र शुभ ही शुभ है”4 – ये सब बातें कवित्व की दृष्टि से भले ही बड़ी सुन्दर हों; पर जब तक स्वयं मनुष्य में सत्य का बीज अपरिस्फुट भाव में भी नहीं है, तब तक दुनिया की कोई भी चीज उसे सत्य का एक कण तक नहीं दे सकती। पर्वत और झरने किसे उपदेश देते है? – उसी मानवात्मा को, जिसके पवित्र हृदय-मन्दिर का कमल खिल चुका है। और उसे इस प्रकार सुन्दर रूप से विकसित करनेवाला ज्ञान-प्रकाश सद्गुरु से ही आता है। जब हृदय-कमल इस प्रकार खिल जाता है, तब वह पर्वत, झरने, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र अथवा इस ब्रह्ममय विश्व में जो कुछ है, सभी से शिक्षा ग्रहण कर सकता है। परन्तु जिसका हृदयकमल अभी तक खिला नहीं, वह तो इन सब में पर्वत आदि के सिवा और कुछ न देख पायगा। एक अन्धा यदि अजायबघर में जाय, तो उससे क्या होगा? पहले उसे आँखें दो, तब कहीं वह समझ सकेगा कि वहाँ की भिन्न भिन्न वस्तुओं से क्या शिक्षा मिल सकती है।
गुरु ही धर्म-पिपासु की आँखें खोलनेवाले होते हैं। अतः गुरु के साथ हमारा सम्बन्ध ठीक वैसा ही है जैसा पूर्वज के साथ उसके वंशज का। गुरु के प्रति विश्वास, नम्रता, विनय और श्रद्धा के बिना हम में धर्म भाव पनप ही नहीं सकता। और यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि जिन देशों में गुरु और शिष्य में इस प्रकार का सम्बन्ध विद्यमान है, केवल वही असाधारण आध्यात्मिक पुरुष उत्पन्न हुए है; और जिन देशों में इस प्रकार के गुरुशिष्यसम्बन्ध की उपेक्षा हुई है, वहाँ धर्मगुरु एक वक्ता मात्र रह गया है- गुरु को मतलब रहता है अपनी ‘दक्षिणा’ से और शिष्य को मतलब रहता है गुरु के शब्दों से, जिन्हें वह अपने मस्तिष्क में ठूँस लेना चाहता है। यह हो गया कि बस दोनों अपना अपना रास्ता नापते हैं। वहाँ आध्यात्मिकता बिलकुल नहीं के बराबर ही रहती है – न कोई शक्ति-संचार करने वाला होता है और न कोई उसका ग्रहण करने वाला। ऐसे लोगों के लिए धर्म एक व्यवसाय हो जाता है। वे सोचते हैं कि वे उसे खरीद सकते हैं। ईश्वर करते, धर्म इतना सुलभ हो जाता! पर दुर्भाग्य, ऐसा हो नहीं सकता।
धर्म ही सर्वोच्च ज्ञान है – वही सर्वोच्च विद्या है। वह पैसों से नहीं मिल सकता और न पुस्तकों से ही। तुम भले ही संसार का कोना कोना छान डालो, हिमालय, आल्प्स और काकेशस के शिखर पर चढ़ जाओ, अथाह समुद्र का तल भी नाप डालो, तिब्बत और गोबी-मरुभूमि की धूल छान डालो, पर जब तक तुम्हारा हृदय धर्म को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हो जाता और जब तक गुरु का आगमन नहीं होता, तब तक तुम धर्म को कहीं न पाओगे। और ये विधाता-निर्दिष्ट गुरु प्राप्त हो जायँ, तो उनके निकट बालकवत् विश्वास और सरलता के साथ अपना हृदय खोल दो, और साक्षात् ईश्वर-ज्ञान से उनकी सेवा करो। जो लोग इस प्रकार प्रेम और श्रद्धा-सम्पन्न होकर सत्य की खोज करते हैं, उनके निकट सत्यस्वरूप भगवान सत्य, शिव और सौन्दर्य के अलौकिक तत्त्वों को प्रकट कर देते हैं।
- शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
विवेकचूड़ामणि, ६२ - वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद् भुक्तये न तु मुक्तये॥
विवेकचूड़ामणि, ६० - श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतो यो ब्रह्मवित्तमः।
विवेकचूड़ामणि, ३४ - And this our life exempt from public haunt, finds tongues in trees, books in the running brooks, Sernons in stones and good in everything.
Shakespeare’s ‘As you like it,’ Act II, Sc. I
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