गुरु की आवश्यकता – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“गुरु की आवश्यकता” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्ति योग से लिया गया है। आध्यात्मिक जीवन में गुरु की आवश्यकता अत्यधिक है। बिना गुरु के सही मार्ग पर बने रहना और उसपर आगे बढ़ना बहुत कठिन है। वस्तुतः गुरु ही आध्यात्मिक जीवन का सबसे बड़ा साथी है। अतः गुरु की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता है। इस किताब के अन्य अध्याय पढ़ने तथा विषय-सूची देखने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – भक्तियोग हिंदी भाषा में।
प्रत्येक जीवात्मा का पूर्णत्व प्राप्त कर लेना बिल्कुल निश्चित है और अन्त में सभी इस पूर्णावस्था की प्राप्ति कर लेंगे। हम वर्तमान जीवन में जो कुछ है, वह हमारे पूर्व जीवन के कर्मों और विचारों का फल है, और हम जो कुछ भविष्य में होंगे, वह हमारे अभी के कर्मों और विचारों का फल होगा। पर, हम स्वयं ही अपना भाग्य निर्माण कर रहे हैं। इससे यह न समझ बैठना चाहिए कि हमें किसी बाहरी सहायता की आवश्यकता नहीं; बल्कि अधिकतर स्थलों में तो इस प्रकार की सहायता नितान्त आवश्यक होती है। जब ऐसी सहायता प्राप्त होती है, तो आत्मा की उच्चतर शक्तियाँ और आपाततः अव्यक्त प्रतीत होनेवाले भाव विकसित हो उठते हैं, आध्यात्मिक जीवन जागृत हो जाता है, उसकी उन्नति वेगवती हो जाती है और अन्त में साधक पवित्र और सिद्ध हो जाता है।
यह संजीवनी-शक्ति पुस्तकों से नहीं मिल सकती। इस शक्ति की प्राप्ति तो एक आत्मा एक दूसरी आत्मा से ही कर सकती है – अन्य किसी से नहीं। हम भले ही सारा जीवन पुस्तकों का अध्ययन करते रहें और बड़े बुद्धिजीवी हो जायँ पर अन्त में हम देखेंगे कि हमारी तनिक भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हुई है! यह बात सत्य नहीं कि बौद्धिक उन्नति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति भी होगी। पुस्तकों का अध्ययन करते समय हमें कभी कभी यह भ्रम हो जाता है कि इससे हमें आध्यात्मिक मार्ग में सहायता मिल रही है; पर यदि हम ऐसे अध्ययन से अपने में होनेवाले फल का विश्लेषण करें, तो देखेंगे कि उससे, अधिक से अधिक, हमारी बुद्धि को ही कुछ लाभ होता है, हमारी अन्तरात्मा को नहीं। पुस्तकों का अध्ययन हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए पर्याप्त नहीं है। यही कारण है कि यद्यपि हममें से लगभग सभी आध्यात्मिक विषयों पर बड़ी पाण्डित्यपूर्ण बातें कर सकते हैं, पर जब उन बातों को कार्य रूप में घटाने का – यथार्थ आध्यात्मिक जीवन बिताने का अवसर आता है, तो हम अपने को सर्वथा अयोग्य पाते हैं। जीवात्मा की शक्ति को जागृत करने के लिए किसी दूसरी आत्मा से ही शक्ति का संचार होना चाहिए।
जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है वह गुरु कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है, उसे शिष्य कहते हैं। किसी भी आत्मा में इस प्रकार शक्तिसंचार करने के लिए पहले तो, जिस आत्मा से यह संचार होता हो, उसमें स्वयं इस संचार की शक्ति विद्यमान रहे, और दूसरे, जिस आत्मा में यह शक्ति संचारित की जाय, वह इसे ग्रहण करने योग्य हो। बीज भी उम्दा और सजीव रहे एवं जमीन भी अच्छी जोती हुई हो। और जब ये दोनों बातें मिल जाती हैं, तो वहाँ प्रकृत धर्म का अपूर्व विकास होता है। ‘यथार्थ धर्म-गुरु में अपूर्व योग्यता होनी चाहिए, और उसके शिष्य को भी कुशल होना चाहिए’।1जब दोनों ही अद्भुत और असाधारण होते हैं, तभी अद्भुत आध्यात्मिक जागृति होती है, अन्यथा नहीं। ऐसे ही पुरुष वास्तव में सच्चे गुरु होते हैं, और ऐसे ही व्यक्ति आदर्श शिष्य या आदर्श साधक कहे जाते हैं। अन्य सब लोगों के लिए तो आध्यात्मिकता बस एक खिलवाड़ है। उनमें बस थोड़ासा एक कौतूहल भर उत्पन्न हो गया है, बस थोड़ीसी बौद्धिक स्पृहा भर जग गयी है। पर वे अभी भी धर्म क्षितिज की बाहरी सीमा पर ही खड़े हैं। इसमें सन्देह नहीं कि इसका भी कुछ महत्त्व अवश्य है, क्योंकि हो सकता है, कुछ समय बाद यही भाव सच्ची धर्म-पिपासा में परिवर्तित हो जाय। और यह भी प्रकृति का एक बड़ा अद्भुत नियम है कि ज्योंही भूमि तैयार हो जाती है, त्यों ही बीज को आना ही चाहिए, और वह आता भी है। ज्यों ही आत्मा की धर्म पिपासा प्रबल होती है, त्यों ही धर्म शक्ति संचारक पुरुष को उस आत्मा की सहायता के लिए आना ही चाहिए, और वे आते भी हैं। जब गृहीता की आत्मा में धर्म प्रकाश की आकर्षण-शक्ति पूर्ण और प्रबल हो जाती है, तो इस आकर्षण से आकृष्ट प्रकाशदायिनी शक्ति स्वयं ही आ जाती है।
परन्तु इस मार्ग में कुछ खतरे भी हैं। उदाहरणार्थ इस बात का डर है कि गृहीता आत्मा क्षणिक भावुकता को कहीं वास्तविक धर्म पिपासा न समझ बैठे। हम अपने जीवन में ही इसका परीक्षण कर सकते हैं। हमारे जीवनकाल में कई बार ऐसा होता है कि हमारे एक अत्यन्त प्रिय व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और उससे हमें बड़ा सदमा पहुँचता है। तब हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हम जिसे पकड़ने जाते हैं वही हमारे हाथों से निकला जा रहा है, मानो पैरों तले जमीन खिसकी जा रही है; हमारी आँखों में अँधेरा छा जाता है, हमें किसी दृढ़तर और उच्चतर आश्रय की आवश्यकता अनुभव होती है और हम सोचते हैं कि अब हमें अवश्य धार्मिक हो जाना चाहिए। कुछ दिनों बाद वह भाव-तरंग नष्ट हो जाती है और हम जहाँ थे, वहीं के वहीं रह जाते हैं। हममें से सभी बहुधा ऐसी भाव-तरंगों को वास्तविक धर्म पिपासा समझ बैठते हैं। और जब तक हम उन क्षणिक आवेशों के धोखे में रहेंगे, तब तक धर्म के लिए सच्ची और स्थायी व्याकुलता नहीं आयगी, तब तक हमें ऐसा पुरुष नहीं मिलेगा, जो हममें धर्म-संचार कर दे सके। अतएव जब कभी हममें यह भावना उदित हो कि ‘अरे! मैंने सत्य की प्राप्ति के लिए इतना प्रयत्न किया, फिर भी कुछ न हुआ; मेरे सारे प्रयत्न व्यर्थ ही हुए!’ – तो उस समय ऐसी शिकायत करने के बदले हमारा प्रथम कर्तव्य यह होगा कि हम अपने आप से ही पूछें, अपने हृदय को टटोलें और देखें कि हमारी वह स्पृहा यथार्थ है अथवा नहीं। ऐसा करने पर पता चलेगा कि अधिकतर स्थलों पर हम सत्य को ग्रहण करने के उपयुक्त नहीं थे, हममें धर्म के लिए सच्ची पिपासा नहीं थी।
फिर, शक्तिसंचारक गुरु के सम्बन्ध में तो और भी बड़े बड़े खतरों की सम्भावना है। बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो स्वयं होते तो बड़े अज्ञानी हैं, परन्तु फिर भी अहंकारवश अपने को सर्वज्ञ समझते हैं; इतना ही नहीं बल्कि दूसरों को भी अपने कन्धों पर ले जाने को तैयार रहते हैं। इस प्रकार अन्धा अन्धे का अगुआ बन दोनों ही गड्ढे में गिर पड़ते हैं। “अज्ञान से घिरे हुए, अत्यन्त निर्बुद्ध होने पर भी अपने को महापण्डित समझने वाले मूढ़ व्यक्ति, अन्धे के नेतृत्व में चलने वाले अन्धों के समान चारों ओर ठोकरें खाते हुए भटकते फिरते हैं।”2 संसार तो ऐसे लोगों से भरा पड़ा है। हर एक आदमी गुरु होना चाहता है। एक भिखारी भी चाहता है कि वह लाखों का दान कर डाले! जैसे हास्यास्पद ये भिखारी हैं, वैसे ही ये गुरु भी!
- ‘आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा’ इत्यादि।
कठोपनिषद्, १।२।७ - अविद्यायाम् अन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
जङघन्यमानाः परियन्ति मूढा, अन्धेनैव नीयमानाः यथान्धाः॥
मुण्डकोपनिषद्, १।२।८
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