धर्मस्वामी विवेकानंद

भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव – स्वामी विवेकानंद

“भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव” नामक यह भाषण स्वामी विवेकानंद ने मद्रास में दिया था। इसे “भारत में विवेकानंद” पुस्तक से संकलित किया गया है। इसमें स्वामी जी वेदांत का अर्थ और उसका व्यावहारिक क्रियान्वयन समझा रहे हैं। पढ़ें भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव–

हमारी जाति और धर्म को व्यक्त करने के लिए एक शब्द ‘हिन्दू’ बहुत प्रचलित हो गया है। वेदान्त धर्म से मेरा क्या अभिप्राय है, इसको समझाने के लिए इस ‘हिन्दू’ शब्द की किंचित् व्याख्या करना आवश्यक है। प्राचीन फारस देशनिवासी सिन्धुनद के लिए ‘हिन्दू’ इस नाम का प्रयोग करते थे। संस्कृत भाषा में जहाँ ‘स’ आता है, प्राचीन फारसी भाषा में वही ‘ह’ रूप में परिणत हो जाता है, इसलिए सिन्धु का ‘हिन्दू’ हो गया। तुम सभी लोग जानते ही हो कि यूनानी लोग ‘ह’ का उच्चारण नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने ‘ह’ को छोड़ दिया और इस प्रकार हम ‘इन्डियन’ नाम से जाने गये। प्राचीन काल में इस शब्द का अर्थ जो भी हो, अब इस हिन्दू शब्द की, जो सिन्धुनद के दूसरे किनारे के निवासियों के लिए प्रयुक्त होता था, कोई सार्थकता नहीं है, क्योंकि सिन्धुनद के इस ओर रहनेवाले सभी एक धर्म के माननेवाले नहीं है। इस समय यहाँ हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, बौद्ध और जैन भी वास करते हैं। ‘हिन्दू’ शब्द के व्यापक अर्थ के अनुसार इन सब को हिन्दू कहना होगा, किन्तु धर्म के हिसाब से इन सब को हिन्दू नहीं कहा जा सकता। हमारा धर्म भिन्न भिन्न प्रकार के धार्मिक विश्वास, भाव तथा अनुष्ठान और क्रियाकर्मों का समष्टि-स्वरूप है। सब एक साथ मिला हुआ है, किन्तु यह कोई साधारण नियम से संगठित नहीं हुआ, इसका कोई एक साधारण नाम भी नहीं है और न इसका कोई संघ ही है। कदाचित् केवल एक यही विषय है जहाँ सारे सम्प्रदाय एकमत हैं कि हम सभी अपने शास्त्र वेदों पर विश्वास करते हैं। यह भी निश्चित है कि जो व्यक्ति वेदों की सर्वोच्च प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करता, उसे अपने को हिन्दू कहने का अधिकार नहीं है। तुम जानते हो कि ये वेद दो भागों में विभक्त है – कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। कर्मकाण्ड में नाना प्रकार के यागयज्ञ और अनुष्ठान-पद्धतियाँ हैं, जिनका अधिकांश आजकल प्रचलित नहीं है। ज्ञानकाण्ड में वेदों के आध्यात्मिक उपदेश लिपिबद्ध हैं – वे उपनिषद् अथवा ‘वेदान्त’ के नाम से परिचित हैं और द्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी अथवा अद्वैतवादी समस्त दार्शनिकों और आचार्यों ने उनको ही उच्चतम प्रमाण कहकर स्वीकार किया है। भारत के समस्त दर्शन और सम्प्रदायों को यह प्रमाणित करना होता है कि उसका दर्शन अथवा सम्प्रदाय उपनिषद्रूपी नींव के ऊपर प्रतिष्ठित है। यदि कोई ऐसा करने में समर्थ न हो सके तो वह दर्शन अथवा सम्प्रदाय धर्मविरुद्ध गिना जाता है; इसलिए वर्तमान समय में समग्र भारत के हिन्दुओं को यदि किसी साधारण नाम से परिचित करना हो तो उनको ‘वेदान्ती’ अथवा ‘वैदिक’ कहना उचित होगा। मैं वेदान्ती धर्म और वेदान्त इन दोनों शब्दों का व्यवहार सदा इसी अभिप्राय से करता हूँ।

ज्ञानकाण्ड में वेदों के आध्यात्मिक उपदेश लिपिबद्ध हैं – वे उपनिषद् अथवा ‘वेदान्त’ के नाम से परिचित हैं और द्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी अथवा अद्वैतवादी समस्त दार्शनिकों और आचार्यों ने उनको ही उच्चतम प्रमाण कहकर स्वीकार किया है।

स्वामी विवेकानंद, भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव (भारत में विवेकानंद)

मैं इसको और भी स्पष्ट करके समझाना चाहता हूँ, कारण यह है कि आजकल कुछ लोग वेदान्त दर्शन की ‘अद्वैत’ व्याख्या को ही ‘वेदान्त’ शब्द के समानार्थक रूप में प्रयोग करते हैं। हम सब जानते हैं कि उपनिषदों के आधार पर जिन समस्त विभिन्न दर्शनों की सृष्टि हुई है, अद्वैतवाद उनमें से एक है। अद्वैतवादियों की उपनिषदों के ऊपर जितनी श्रद्धा-भक्ति है, विशिष्टाद्वैतवादियों की भी उतनी ही है और अद्वैतवादी अपने दर्शन को वेदान्त की नींव पर प्रतिष्ठित कहकर जितना अपनाते हैं, विशिष्टाद्वैतवादी भी उतना ही। द्वैतवादी और भारतीय अन्यान्य समस्त सम्प्रदाय भी ऐसा ही करते हैं। ऐसा होने पर भी साधारण मनुष्यों के मन में ‘वेदान्ती’ और ‘अद्वैतवादी’ समानार्थक हो गये हैं और शायद इसका कुछ कारण भी है। यद्यपि वेद ही हमारे प्रधान शास्त्र हैं, हमारे पास वेदों के सिद्धान्तों की व्याख्या दृष्टान्त रूप से करने वाले परवर्ती स्मृति और पुराण भी निश्चित रूप से वेदों के समान प्रामाणिक नहीं है। यह शास्त्र का नियम है कि जहाँ श्रुति एवं पुराण और स्मृति में मतभेद हो, वहाँ श्रुति के मत का ग्रहण और स्मृति के मत का परित्याग करना चाहिए। इस समय हम देखते हैं कि अद्वैत दार्शनिक शंकराचार्य और उनके मतावलम्बी आचार्यों की व्याख्या में अधिक परिमाण में उपनिषद् प्रमाणस्वरूप उद्धृत हुए हैं। केवल जहाँ ऐसे विषय की व्याख्या का प्रयोजन हुआ, जिसको श्रुति में किसी रूप में पाने की आशा न हो, ऐसे थोड़ेसे स्थानों में ही स्मृतिवाक्य उद्धृत हुए हैं। अन्यान्य मतावलम्बी स्मृति के ऊपर ही अधिकाधिक निर्भर रहते हैं, श्रुति का आश्रय कम ही लेते हैं। और ज्यों ज्यों हम द्वैतवादियों की ओर ध्यान देते हैं, हमको विदित होता है कि उनके उद्धृत स्मृति-वाक्यों के अनुपात का परिमाण इतना अधिक है कि वेदान्तियों से इस अनुपात की आशा नहीं की जाती। ऐसा प्रतीत होता है कि इनके स्मृति-पुराणादि प्रमाणों के ऊपर इतना अधिक निर्भर रहने के कारण, अद्वैतवादी ही क्रमशः विशुद्ध वेदान्ती कहे जाने लगे।

जो हो, हमने प्रथम ही यह दिखा दिया है कि वेदान्त शब्द से भारत के समस्त धर्म समष्टिरूप से समझे जाते हैं, और यह वेदान्त वेदों का एक भाग होने के कारण सभी लोगों द्वारा स्वीकृत हमारा सब से प्राचीन ग्रन्थ है। आधुनिक विद्वानों के विचार जो भी हों, एक हिन्दू यह विश्वास करने को कभी तैयार नहीं है कि वेदों का कुछ अंश एक समय में और कुछ अन्य समय में लिखा गया है। उनका अब भी यह दृढ़ विश्वास है कि समग्र वेद एक ही समय में उत्पन्न हुए थे, अथवा, यदि मैं कह सकूँ, उनकी सृष्टि कभी नहीं हुई, वे चिरकाल से सृष्टिकर्ता के मन में वर्तमान थे। ‘वेदान्त’ शब्द से मेरा यही अभिप्राय है और भारत के द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद और अद्वैतवाद सभी उसके अन्तर्गत हैं। सम्भवतः हम बौद्ध धर्म, यहाँ तक कि जैन धर्म के भी अंशविशेषों को ग्रहण कर सकते हैं, यदि उक्त धर्मावलम्बी अनुग्रहपूर्वक हमारे मध्य में आने को सहमत हों। हमारा हृदय पर्याप्त प्रशस्त है, हम उनको ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हैं; वे ही आने को राजी नहीं हैं। हम उनको ग्रहण करने के लिए सदा प्रस्तुत हैं; कारण यह है कि विशिष्ट रूप से विश्लेषण करने पर तुम देखोगे कि बौद्ध धर्म का सार भाग इन्हीं उपनिषदों से लिया गया है; यहाँ तक कि, बौद्ध धर्म का तथाकथित अद्भुत और महान् आचार-शास्त्र किसी न किसी उपनिषद में ज्यों का त्यों विद्यमान है। इसी प्रकार जैन धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धान्त भी उपनिषदों में वर्तमान हैं; केवल असंगत और मनमानी बातों को छोड़कर इसके पश्चात् भारतीय धार्मिक विचारों का जो समस्त विकास हुआ है, उसका बीज हम उपनिषदों में देखते हैं। कभी कभी इस प्रकार का निर्मूल अभियोग लगाया जाता है कि उपनिषदों में भक्ति का आदर्श नहीं है। जिन्होंने उपनिषदों का अध्ययन अच्छी तरह किया है, वे जानते हैं कि यह अभियोग बिलकुल सत्य नहीं है। प्रत्येक उपनिषद में अनुसन्धान करने से यथेष्ट भक्ति का विषय पाया जाता है, किन्तु इनमें से अधिकांश भाव, जो परवर्ती काल में पुराण तथा अन्यान्य स्मृतियों में इतनी पूर्णता से विकसित पाये जाते हैं, उपनिषदों में बीजरूप में विद्यमान हैं। उपनिषदों में मानो उसका ढाँचा, उसकी रूपरेखा ही वर्तमान है। किसी किसी पुराण में यह ढाँचा पूर्ण किया गया है; किन्तु कोई भी ऐसा पूर्ण विकसित भारतीय आदर्श नहीं है, जिसका मूल स्रोत उपनिषदों में खोजा न जा सकता हो। बिना उपनिषद-विद्या के विशेष ज्ञान के अनेक व्यक्तियों ने भक्तिवाद को विदेशी स्रोत से विकसित सिद्ध करने की हास्यास्पद चेष्टा की है, किन्तु तुम सब जानते हो कि उनकी सम्पूर्ण चेष्टा विफल हुई है। तुम्हें जितनी भक्ति की आवश्यकता है, सब उपनिषदों में ही क्यों, संहिता पर्यन्त सब में विद्यमान है – उपासना, प्रेम, भक्ति और जो कुछ आवश्यक है सब विद्यमान है। केवल भक्ति का आदर्श अधिकाधिक उच्च होता रहा है। संहिता के भागों में भय और क्लेशयुक्त्त धर्म के चिन्ह पाये जाते हैं। संहिता के किसी किसी स्थल पर देखा जाता है कि उपासक वरुण अथवा अन्य किसी देवता के सम्मुख भय से काँप रहा है। और कई स्थलों पर यह भी देखा जाता है कि उपासक अपने को पापी समझकर अधिक क्लेश पाते हैं। किन्तु उपनिषदों में इस प्रकार के वर्णन के लिए कोई स्थान नहीं है। उपनिषदों में भय का धर्म नहीं है; उपनिषदों में प्रेम और ज्ञान का धर्म है।

ये उपनिषद् ही हमारे शास्त्र हैं। इनकी व्याख्या भिन्न भिन्न रूप से हुई है और मैं तुमसे पहले कह चुका हूँ कि जहाँ परवर्ती पौराणिक ग्रन्थों और वेदों में मतभेद होता है, वहाँ पुराणों के मत को अग्राह्य कर वेदों का मत ग्रहण करना पड़ेगा। किन्तु कार्यरूप में हममें से नब्बे प्रतिशत मनुष्य पौराणिक और शेष दस प्रतिशत वैदिक हैं, और इतने भी हैं या नहीं, इसमें भी सन्देह है। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि हमारे बीच नाना प्रकार के अत्यन्त विरोधी आचार भी विद्यमान हैं – हमारे समाज में ऐसे भी धार्मिक विचार प्रचलित हैं, जिनका हिन्दू शास्त्रों में कोई प्रमाण नहीं है। शास्त्रों का अध्ययन करके हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि हमारे देश में अनेक स्थानों पर ऐसे कई आचार प्रचलित हैं, जिनका प्रमाण वेद, स्मृति अथवा पुराण आदि में कहीं भी नहीं पाया जाता, वे केवल लोकाचार हैं। तथापि प्रत्येक अबोध ग्रामवासी सोचता है कि यदि उसका ग्राम्य आचार उठ जाए, तो वह हिन्दू नहीं रह सकता। उसकी धारणा यही है कि वेदान्त धर्म और इस प्रकार के समस्त क्षुद्र लोकाचार परस्पर घुल-मिलकर एकरूप हो गये हैं। शास्त्रों का अध्ययन करने पर भी वे नहीं समझ सकते कि वे जो करते हैं, उसमें शास्त्रों की सम्मति नहीं है। उनके लिए यह समझना बड़ा कठिन होता है कि ऐसे समस्त आचारों का परित्याग करने से उनकी कुछ क्षति नहीं होगी, वरन् इससे वे अधिक अच्छे मनुष्य बनेंगे। इसके अतिरिक्त एक और कठिनाई है – हमारे शास्त्र बहुत विस्तृत हैं। पतंजलिप्रणीत ‘महाभाष्य’ नामक भाषाविज्ञान ग्रन्थ में लिखा है कि सामवेद की सहस्र शाखाएँ थीं। वे सब कहाँ है? कोई नहीं जानता। प्रत्येक वेद का यही हाल है। इन समस्त ग्रन्थों के अधिकांश का लोप हो गया है, सामान्य अंश ही हमारे निकट वर्तमान हैं। एक एक ऋषिपरिवार ने एक एक शाखा का भार ग्रहण किया था। इन परिवारों में से अधिकांशों का स्वाभाविक नियम के अनुसार वंशलोप हो गया, अथवा वे विदेशी अत्याचार से मारे गये या अन्य कारणों से उनका नाश हो गया। और उन्हीं के साथ साथ जिस वेद की शाखाविशेष की रक्षा का भार उन्होंने ग्रहण किया था, उसका भी लोप हो गया। यह बात हमको विशेष रूप से स्मरण रखनी चाहिए, कारण यह है कि जो कोई नये विषय का प्रचार अथवा वेदों के विरोधी भी किसी विषय का समर्थन करना चाहते हैं, उनके लिए यह युक्ति प्रधान सहायक है। जब भारत में श्रुति और लोकाचार को लेकर तर्क होता हैं अथवा जब यह सिद्ध किया जाता है कि यह लोकाचार श्रुतिविरुद्ध है, तब दूसरा पक्ष यही उत्तर देता है, – नहीं, यह श्रुतिविरुद्ध नहीं है, यह श्रुति की उस शाखा में था, जिसका इस समय लोप हो गया है, अतः यह प्रथा भी वेद-सम्मत है। शास्त्रों की ऐसी समस्त टीका और टिप्पणियों में किसी ऐसे सूत्र को पाना वास्तव में बड़ा कठिन है, जो सब में समान रूप से मिलता हो। किन्तु हमको इस बात का सहज ही में विश्वास हो जाता है कि इन नाना प्रकार के विभागों तथा उपविभागों में कहीं न कहीं अवश्य ही कोई सम्मिलित भूमि अन्तर्निहित है। भवनों के ये छोटे छोटे खण्ड अवश्य किसी विशेष आदर्श योजना तथा सामंजस्य के आधार पर निर्मित किये गये होंगे। इस आपाततः निराशाजनक प्रतीत होनेवाले भ्रमजाल के, जिसको हम अपना धर्म कहते हैं, मूल में अवश्य कोई न कोई एक समन्वय निहित है। अन्यथा यह इतने समय तक कदापि खड़ा नहीं रह सकता था, यह अब तक रक्षित नहीं रह सकता था।

अपने भाष्यकारों के भाष्यों को देखने से हमें एक दूसरी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। अद्वैतवादी भाष्यकार जब अद्वैतसम्बन्धी श्रुति की व्याख्या करता है, उस समय वह उसके वैसे ही भाव रहने देता है, किन्तु वही भाष्यकार जब द्वैतभावात्मक सूत्रों की व्याख्या करने में प्रवृत्त होता है, उस समय वह उसके शब्दों की खींचातानी करके अद्भुत अर्थ निकालता है। भाष्यकारों ने समय समय पर अपना अभीष्ट अर्थ व्यक्त करने के लिए ‘अजा’ (जन्मरहित) शब्द का अर्थ ‘बकरी’ भी किया है – कैसा अद्भुत परिवर्तन है! इसी प्रकार, यहाँ तक कि इससे भी बुरी तरह, द्वैतवादी, भाष्यकारों ने भी श्रुति की व्याख्या की है। जहाँ उनको द्वैत के अनुकूल श्रुति मिली है, उसको उन्होंने सुरक्षित रखा है, किन्तु जहाँ भी अद्वैतवाद के अनुसार पाठ आया है, वहीं उन्होंने उस श्रुति के अंश की मनमाने ढंग से विकृत व्याख्या की है। यह संस्कृत भाषा इतनी जटिल है, वैदिक संस्कृत इतनी प्राचीन है, संस्कृत भाषाशास्त्र इतना पूर्ण है कि एक शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में युग-युगान्तर तक तर्क चल सकता है। यदि कोई पण्डित चाहे तो वह किसी व्यक्ति की बकवाद को भी युक्त्तिबल से अथवा शास्त्र और व्याकरण के नियम उद्धृत करके शुद्ध संस्कृत सिद्ध कर सकता है। उपनिषदों को समझने के मार्ग में इस प्रकार की कई विघ्नबाधाएँ उपस्थित होती हैं। विधाता की इच्छा से मुझे एक ऐसे व्यक्ति के साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ था जो जैसे ही पक्के द्वैतवादी थे, वैसे ही अद्वैतवादी भी थे, जैसे ही परम भक्त थे, वैसे ही ज्ञानी भी थे। इसी व्यक्ति के साथ रहने के फलस्वरूप प्रथम बार मेरे मन में आया कि उपनिषदों और अन्यान्य शास्त्रों को केवल अन्धविश्वास से भाष्यकारों का अनुसरण न करके, स्वाधीन और उत्तम रूप से समझना चाहिए। और मैं अपने मत में तथा अपने अनुसन्धान में इसी सिद्धान्त पर पहुँचा हूँ कि ये समस्त शास्त्र परस्परविरोधी नहीं है; इसलिए हमको शास्त्रों की विकृत व्याख्या करने का कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए। समस्त श्रुतिवाक्य अत्यन्त मनोरम हैं, अत्यन्त अद्भुत है और वे परस्परविरोधी नहीं हैं, उनमें अपूर्व सामंजस्य विद्यमान है, एक तत्त्व मानो दूसरे का सोपानस्वरूप है। मैंने इन समस्त उपनिषदों में एक यही भाव देखा है कि प्रथम द्वैत भाव का वर्णन उपासना आदि से आरम्भ हुआ है, अन्त में अपूर्व अद्वैत भाव के उच्छ्वास में वह समाप्त हुआ है।

इसीलिए अब मैं इसी व्यक्ति के जीवन के प्रकाश में देखता हूँ कि द्वैतवादी और अद्वैतवादियों को परस्पर विवाद करने की कोई आवश्यकता नहीं है, दोनों का ही राष्ट्रीय जीवन में विशेष स्थान है। द्वैतवादी का रहना आवश्यक है; अद्वैतवादी के समान द्वैतवादी का भी राष्ट्रीय धार्मिक जीवन में विशेष स्थान है। एक के बिना दूसरा नहीं रह सकता; एक दूसरे का पूरक है; एक मानो गृह हैं, दूसरा छत। एक मानो मूल है और दूसरा फलस्वरूप। इसलिए उपनिषदों का मनमाना विकृत अर्थ करने की चेष्टा को मैं अत्यन्त हास्यास्पद समझता हूँ। कारण, मैं देखता हूँ कि उनकी भाषा ही अपूर्व हैं। श्रेष्ठतम दर्शन रूप में उनके गौरव के बिना भी, मानवजाति के मुक्तिपथ-प्रदर्शक धर्मविज्ञान रूप में उनके अद्भुत गौरव को छोड़ देने पर भी, उपनिषदों के साहित्य में उदात्त भावों का ऐसा अत्यन्त अपूर्व चित्रण है, जैसा संसार भर में और कहीं नहीं है। यहीं मानवीय मन के उस प्रबल विशेषत्व का, अन्तर्दृष्टिपरायण, अन्तःप्रेरणा पूर्ण उस हिन्दू मन का विशेष परिचय पाया जाता है। अन्यत्र अन्य जातियों के भीतर भी इस उदात्त भाव के चित्र को अंकित करने की चेष्टा देखी जाती है; किन्तु प्रायः सर्वत्र ही तुम देखोगे कि उनका आदर्श बाह्य प्रकृति के महान् भाव को ग्रहण करना है। उदाहरणस्वरूप मिल्टन, दान्ते, होमर अथवा अन्य किसी पाश्चात्य कवि को लिया जा सकता है। उनके काव्यों में स्थान स्थान पर उदात्त भावव्यंजक अपूर्व स्थल हैं, किन्तु उनमें सर्वत्र ही बाह्य प्रकृति की अनन्तता को इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करने की चेष्टा है – बाह्य प्रकृति के अनन्त विस्तार, देश की अनन्तता के आदर्श को प्राप्त करने का प्रयत्न है। हम वेदों के संहिताभाग में भी यही चेष्टा देखते हैं। कुछ अपूर्व ऋचाओं में जहाँ सृष्टि का वर्णन है, बाह्य प्रकृति के विस्तार का उदात्त भाव, देश का अनन्तत्व, अभिव्यक्ति की उच्चतम भूमियाँ उपलब्ध कर सका है। किन्तु उन्होंने शीघ्र ही जान लिया कि इन उपायों से अनन्तत्व को प्राप्त नहीं किया जा सकता। उन्होंने समझ लिया कि अपने मन के जिन सब भावों को वे भाषा में व्यक्त करने की चेष्टा कर रहे थे, उनको अनन्त देश, अनन्त विस्तार और अनन्त बाह्य प्रकृति प्रकाशित करने में असमर्थ है। तब उन्होंने जगत्-समस्या की व्याख्या के लिए अन्य मार्गों का अवलम्बन किया। उपनिषदों की भाषा ने नया रूप धारण किया। उपनिषदों की भाषा एक प्रकार से नेति-वाचक है, स्थान स्थान पर अस्फुट है, मानो वह तुम्हें अतीन्द्रिय राज्य में ले जाने की चेष्टा करती है; केवल तुम्हें एक ऐसी वस्तु दिखा देती है, जिसे तुम ग्रहण नहीं कर सकते, जिसका तुम इन्द्रियों से बोध नहीं कर पाते, फिर भी उस वस्तु के सम्बन्ध में तुमको साथ ही यह निश्चय भी है कि उसका अस्तित्व है। संसार में ऐसा स्थल कहाँ है जिसके साथ इस श्लोक की तुलना हो सके? –

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकम्।
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः॥1

‘वहाँ सूर्य की किरण नहीं पहुँचती, वहाँ चन्द्रमा और तारे भी नहीं चमकते, बिजली भी उस स्थान को प्रकाशित नहीं कर सकती, इस सामान्य अग्नि का तो कहना ही क्या?’

पुनश्च, समस्त संसार के समग्र दार्शनिक भाव की ऐसी अत्यन्त पूर्ण अभिव्यक्ति संसार में और कहाँ पाओगे? हिन्दू जाति के समग्र चिन्तन का सारांश, मानवजाति की मोक्षाकांक्षा की समस्त कल्पना जिस प्रकार अद्भुत भाषा में अंकित हुई है, जिस प्रकार अपूर्व रूपक में वर्णित हुई है, ऐसी तुम और कहाँ पाओगे? यथा :

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशनस्य महिमानमिति वीतशोकः॥2

एक ही वृक्ष के ऊपर सुन्दर पंखवाले दो पक्षी रहते हैं – दोनों बड़े मित्र हैं; उनमें एक उसी वृक्ष के फल खाता है, दूसरा फल न खाकर स्थिर भाव से चुपचाप बैठा है। नीचे की शाखा मैं बैठा पक्षी कभी मीठे, कभी कड़वे फल खाता है – और इसी कारण कभी सुखी अथवा कभी दुःखी होता है; किन्तु ऊपर की शाखा में बैठा हुआ पक्षी स्थिर और गम्भीर है; यह अच्छे-बुरे कोई फल नहीं खाता; वह सुख और दुःख की परवाह नहीं करता; वह अपनी ही महिमा में मग्न है। ये दोनों पक्षी जीवात्मा और परमात्मा हैं। मनुष्य इस जीवन के मीठे और कड़वे फल खाता है, वह धन की खोज में मस्त है, वह इन्द्रियसुख के पीछे दौड़ता है; सांसारिक क्षणिक तथा वृथा सुख के लिए उन्मत्त होकर पागल के समान दौड़ता है। उपनिषदों ने एक और स्थान पर सारथि और उसके असंयत दुष्ट घोड़ों के साथ मनुष्य के इस इन्द्रियसुखान्वेषण की तुलना की है। वृथा सुख के अनुसन्धान की चेष्टा में मनुष्य का जीवन ऐसा ही बीतता है। बच्चे कितने सुनहले स्वप्न देखते हैं; अन्ततः केवल यह जानने के लिए कि ये निरर्थक हैं। वृद्धावस्था में वे अपने अतीत कर्मों की पुनरावृत्ति करते हैं, और फिर भी नहीं जानते कि इस जंजाल से कैसे निकला जाए। संसार यही है। किन्तु सभी मनुष्यों के जीवन में समय समय पर ऐसे स्वर्णिम क्षण आते हैं – मनुष्य के अत्यन्त शोक में, यहाँ तक कि महा आनन्द के समय ऐसे उत्तम सुअवसर आ उपस्थित होते है, जब सूर्य के प्रकाश को छिपानेवाला मेघखण्ड मानो थोड़ी देर के लिए हट जाता है। उस समय इस क्षणकाल के लिए वह अपने इस सीमाबद्ध भाव के परे उस सर्वातीत सत्ता की एक झलक पा जाता है जो अत्यन्त दूर हैं, जो पंचेन्द्रियाबद्ध जीवन से परे बहुत दूर है, जो इस संसार के व्यर्थ भोग और इसके सुख-दुःख से परे बहुत ही दूर है, जो प्रकृति के उस पार दूर है, जो इहलोक अथवा परलोक में हम जिस सुखभोग की कल्पना करते हैं उससे भी बहुत दूर है। जो धन, यश और सन्तान की तृष्णा से भी परे बहुत दूर है। मनुष्य क्षणकाल के लिए दिव्य दृश्य देखकर स्थिर होता है – और देखता है कि दूसरा पक्षी शान्त और महिमामय है, वह खट्टे या मीठे कोई भी फल नहीं खाता, वह अपनी महिमा में स्वयं आत्मतृप्त है, जैसा गीता में कहा है :

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥3

‘जो आत्मा में रत है, जो आत्मतृप्त है और जो आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके करने के लिए और कौन कार्य शेष रह गया है?’

वह वृथा कार्य करके क्यों समय गँवाए? एक बार अचानक ब्रह्मदर्शन प्राप्त करने के पश्चात् मनुष्य पुनः भूल जाता है, पुनः जीवन के खट्टे और मीठे फल खाता है – और उस समय उसको कुछ भी स्मरण नहीं रहता। कदाचित् कुछ दिनों के पश्चात् वह पुनः ब्रह्म के दर्शन प्राप्त करता है और जितनी चोट खाता है, उतना ही नीचे का पक्षी ऊपर बैठे हुए पक्षी के निकट आता जाता है। यदि वह सौभाग्य से संसार के तीव्र आघात पाता रहे, तो वह अपने साथी, अपने प्राण, अपने सखा उसी दूसरे पक्षी के निकट क्रमशः आता है। और वह जितना ही निकट आता है, उतना ही देखता है कि उस ऊपर बैठे हुए पक्षी की देह की ज्योति आकार उसके पंखों के चारों ओर खेल रही है। और वह जितना ही निकट आता जाता है, उतना ही रूपान्तरण घटित होता है। धीरे धीरे वह जब अत्यन्त निकट पहुँच जाता है, तब देखता है कि मानो वह क्रमशः मिटता जा रहा है – अन्त में उसका पूर्ण रूप से लोप हो जाता है। उस समय वह समझता है कि उसका पृथक् अस्तित्व भी न था, वह उसी हिलते हुए पत्तों के भीतर शान्त और गम्भीर भाव से बैठे हुए दूसरे पक्षी का प्रतिबिम्ब मात्र था। उस समय वह जानता है कि वह स्वयं ही वही ऊपर बैठा हुआ पक्षी है, वह सदा से शान्त भाव में बैठा हुआ था – यह उसी की महिमा है। वह निर्भय हो जाता है, उस समय वह सम्पूर्ण रूप से तृप्त होकर धीर और शान्त भाव में निमग्न रहता है। इसी रूपक में उपनिषद् द्वैत भाव से आरम्भ कर पूर्ण अद्वैत भाव में हमें ले जाते हैं।

उपनिषदों की भाषा और भाव की गति सरल है, उनकी प्रत्येक बात तलवार की धार के समान, हथौड़े की चोट के समान साक्षात् भाव से हृदय में आघात करती है।

स्वामी विवेकानंद, भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव (भारत में विवेकानंद)

उपनिषदों के अपूर्व कवित्व, उदात्त चित्रण तथा उच्चतम भावसमूह दिखलाने के लिए अनन्त उदाहरण उद्धृत किये जा सकते हैं, किन्तु इस व्याख्यान में इसके लिए समय नहीं है। तो भी मैं एक बात और कहूँगा – उपनिषदों की भाषा और भाव की गति सरल है, उनकी प्रत्येक बात तलवार की धार के समान, हथौड़े की चोट के समान साक्षात् भाव से हृदय में आघात करती है। उनके अर्थ समझने में कुछ भी भूल होने की सम्भावना नहीं – उस संगीत के प्रत्येक सुर में शक्ति है, और वह हृदय पर पूरा असर करता है। उनमें अस्पष्टता नहीं, असम्बद्ध कथन नहीं, किसी प्रकार की जटिलता नहीं, जिससे दिमाग घूम जाए। उनमें अवनति के चिह्न नहीं हैं, अन्योक्त्तियों द्वारा वर्णन की भी ज्यादा चेष्टा नहीं की गयी है। उपनिषदों में इस प्रकार के वर्णन भी नहीं मिलेंगे कि विशेषण के पश्चात् विशेषण देकर क्रमागत भाव को जटिल करने से प्रकृत विषय का पता न लगे, दिमाग चक्कर खाने लगे, और उस साहित्यिक गोरखधंधे के बाहर निकलने का उपाय ही न सूझे। यदि यह मानवप्रणीत है, तो यह एक ऐसी जाति का साहित्य है, जिसमें अभी अपनी जातीय तेजस्विता का ह्रास नहीं हुआ।

उपनिषदों का प्रत्येक पृष्ठ मुझे शक्ति का सन्देश देता है। यह विषय विशेष रूप से स्मरण रखने योग्य है, समस्त जीवन में मैंने यही महाशिक्षा प्राप्त की है – उपनिषद कहते हैं, हे मानव, तेजस्वी बनो, वीर्यवान् बनो, दुर्बलता को त्यागो। मनुष्य प्रश्न करता है, क्या मनुष्य में दुर्बलता नहीं है? उपनिषद कहते हैं, अवश्य है, किन्तु अधिक दुर्बलता द्वारा क्या यह दुर्बलता दूर होगी? क्या तुम मैल से मैल धोने का प्रयत्न करोगे? क्या पाप के द्वारा पाप अथवा निर्बलता द्वारा निर्बलता दूर होती है? उपनिषद कहते हैं, हे मनुष्य, तेजस्वी बनो, वीर्यवान् बनो, उठकर खड़े हो जाओ। जगत् के साहित्य में केवल इन्हीं उपनिषदों में ‘अभीः’ (भयशून्य) यह शब्द बार बार व्यवहृत हुआ है – और संसार के किसी भी शास्त्र में ईश्वर अथवा मानव के प्रति ‘अभीः’ – ‘भयशून्य’ यह विशेषण प्रयुक्त नहीं हुआ है। ‘अभीः’ – निर्भय बनो! मेरे मन में अत्यन्त अतीत काल के उस पाश्चात्य सम्राट सिकन्दर का चित्र उदित होता है और मैं देख रहा हूँ – वह महाप्रतापी सम्राट सिन्धुनद के तट पर खड़ा होकर अरण्यवासी, शिलाखण्ड पर बैठे हुए वृद्ध, नग्न, हमारे ही एक संन्यासी के साथ बात कर रहा है। सम्राट संन्यासी के अपूर्व ज्ञान से विस्मित होता है और उसको अर्थ और मान का प्रलोभन दिखाकर यूनान देश में आने के लिए निमंत्रित करता है। पर वह व्यक्ति उसके स्वर्ण पर मुस्कराता है, उसके प्रलोभनों पर मुस्कराता है और निमंत्रण अस्वीकार कर देता है और तब सम्राट ने अपने अधिकार-बल से कहा, “यदि आप नहीं आएँगे तो मैं आपको मार डालूँगा।” यह सुनकर संन्यासी ने खिलखिलाकर कहा, “तुमने इस समय जैसा मिथ्या भाषण किया, जीवन में ऐसा कभी नहीं किया। मुझको कौन मार सकता है? जड़ जगत् के सम्राट, तुम मुझको मारोगे? कदापि नहीं! मैं चैतन्यस्वरूप, अज और अक्षय हूँ! मेरा कभी जन्म नहीं हुआ और न कभी मेरी मृत्यु हो सकती है! मैं अनन्त, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ हूँ। क्या तुम मुझको मारोगे? निरे बच्चे हो तुम!” यही सच्चा तेज है, यही सच्चा वीर्य है! हे बन्धुगण, हे स्वदेशवासियों, मैं जितना ही उपनिषदों को पढ़ता हूँ, उतना ही मैं तुम्हारे लिए आँसू बहाता हूँ; क्योंकि उपनिषदों में वर्णित इस तेजस्विता को ही हमको विशेष रूप से जीवन में चरितार्थ करना आवश्यक हो गया है। शक्ति, शक्ति – यही हमको चाहिए, हमको शक्ति की बड़ी आवश्यकता है। कौन प्रदान करेगा हमको शक्ति? हमको दुर्बल करने के लिए सहस्रों विषय हैं, कहानियाँ भी बहुत हैं। हमारे प्रत्येक पुराण में इतनी कहानियाँ है कि जिससे संसार में जितने पुस्तकालय हैं, उनका तीन चौथाई भाग पूर्ण हो सकता है। जो हमारी जाति को शक्तिहीन कर सकती हैं, ऐसी दुर्बलताओं का प्रवेश हममें विगत एक हजार वर्ष से ही हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है, विगत एक हजार वर्ष से हमारे जातीय जीवन का यही एकमात्र लक्ष्य था कि किस प्रकार हम अपने को दुर्बल से दुर्बलतर बना सकेंगे। अन्त में हम वास्तव में हर एक के पैर के पास रेंगनेवाले ऐसे केचुओं के समान हो गये हैं कि इस समय जो चाहे वही हमको कुचल सकता है। हे बन्धुगण, तुम्हारी और मेरी नसों में एक ही रक्त का प्रवाह हो रहा है, तुम्हारा जीवन-मरण मेरा भी जीवन-मरण है। मैं तुमसे पूर्वोक्त कारणों से कहता हूँ कि हमको शक्ति, केवल शक्ति ही चाहिए। और उपनिषद शक्ति की विशाल खान हैं। उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी बना सकते हैं। उनके द्वारा समस्त संसार पुनरुज्जीवित, सशक्त और वीर्यसम्पन्न हो सकता है। समस्त जातियों को सकल मतों को, भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के दुर्बल, दुःखी, पददलित लोगों को स्वयं अपने पैरों खड़े होकर मुक्त होने के लिए वे उच्च स्वर में उद्घोष कर रहे हैं। मुक्ति अथवा स्वाधीनता, दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता यही उपनिषदों के मूल मन्त्र हैं।

उपनिषदों का प्रत्येक पृष्ठ मुझे शक्ति का सन्देश देता है। यह विषय विशेष रूप से स्मरण रखने योग्य है, समस्त जीवन में मैंने यही महाशिक्षा प्राप्त की है – उपनिषद कहते हैं, हे मानव, तेजस्वी बनो, वीर्यवान् बनो, दुर्बलता को त्यागो।

स्वामी विवेकानंद, भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव (भारत में विवेकानंद)

संसार भर में ये ही एकमात्र शास्त्र हैं, जिनमें उद्धार (Salvation) का वर्णन नहीं, किन्तु मुक्ति का वर्णन है। प्रकृति के बन्धन से मुक्त हो जाओ, दुर्बलता से मुक्त हो जाओ। और उपनिषद तुमको यह भी बतलाते हैं कि यह मुक्ति तुममें पहले से ही विद्यमान है। उपनिषदों के उपदेश की यह और भी एक विशेषता है। तुम द्वैतवादी हो – कुछ चिन्ता नहीं, किन्तु तुमको यह स्वीकार करना ही होगा कि आत्मा स्वभाव ही से पूर्णस्वरूप है, केवल कुछ कार्यों के द्वारा वह संकुचित हो गयी है। आधुनिक विकासवादी (evolutionist) जिसको क्रमविकास (evolution) और क्रमसंकोच (atavism) कहते हैं, रामानुज का संकोच और विकास का सिद्धान्त भी ठीक ऐसा ही है। आत्मा स्वाभाविक पूर्णता से भ्रष्ट होकर मानो संकोच को प्राप्त होती है, उसकी शक्ति अव्यक्त भाव धारण करती है; सत्कर्म और अच्छे विचारों द्वारा वह पुनः विकास को प्राप्त होती है और उसी समय उसकी स्वाभाविक पूर्णता प्रकट हो जाती है। अद्वैतवादी के साथ द्वैतवादी का इतना ही मतभेद है कि अद्वैतवादी आत्मा के विकास को नहीं, किन्तु प्रकृति के विकास को स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ, एक परदा है और इस परदे में एक छोटा सूराख। मैं इस परदे के भीतर से इस भारी जनसमुदाय को देख रहा हूँ। मैं प्रथम केवल थोड़ेसे मनुष्यों को देख सकूँगा। मान लो, छेद बढ़ने लगा, छिद्र जितना ही बड़ा होगा, उतना ही मैं इन एकत्र व्यक्तियों में से अधिकांश को देख सकूँगा। अन्त में छिद्र बढ़ते बढ़ते परदा और छिद्र एक हो जाएँगे; तब इस स्थिति में तुम्हारे और मेरे बीच कुछ भी नहीं रह जाएगा। यहाँ तुममें और मुझमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। जो कुछ परिवर्तन हुआ, वह परदे में ही हुआ। तुम आरम्भ से अन्त तक एक से थे, केवल परदे में ही परिवर्तन हुआ था। विकास के सम्बन्ध में अद्वैतवादियों का यही मत है – प्रकृति का विकास और आत्मा की आभ्यन्तर अभिव्यक्ति। आत्मा किसी प्रकार भी संकोच को प्राप्त नहीं हो सकती। यह अपरिवर्तनशील और अनन्त है। वह मानो मायारूपी परदे से ढँकी हुई है – जितना ही यह मायारूपी परदा क्षीण होता जाता है, उतनी ही आत्मा की स्वयंसिद्ध स्वाभाविक महिमा अभिव्यक्त होती है और क्रमशः वह अधिकाधिक प्रकाशमान होती है। संसार इसी एक महान तत्त्व को भारत से सीखने की अपेक्षा कर रहा है। वे चाहे जो कहें, वे कितना ही अहंकार करने की चेष्टा करें, पर वे क्रमशः दिन-प्रतिदिन जान लेंगे कि बिना इस तत्त्व का स्वीकार किये कोई समाज टिक नहीं सकता। क्या तुम नहीं देख रहे हो कि समस्त पदार्तों में कैसा भीषण परिवर्तन हो रहा है? क्या तुम नहीं जानते कि पहले यह प्रथा थी कि जब तक कोई वस्तु अच्छी कहकर प्रमाणित न हो जाए तब तक उसे निश्चित रूप से बुरी माना जाए? शिक्षाप्रणाली में, अपराधियों की दण्डव्यवस्था में, पागलों की चिकित्सा में यहाँ तक कि साधारण रोग को चिकित्सा पर्यन्त सब में इसी प्राचीन नियम को लागू किया जाता था। आधुनिक नियम क्या है? आधुनिक नियम के अनुसार शरीर स्वभाव ही से स्वस्थ है, वह अपनी प्रकृति से ही रोगों को दूर करता है। औषधि अधिक से अधिक शरीर में सार पदार्तों के संचय में सहायता कर सकती है। अपराधियों के सम्बन्ध में यह आधुनिक नियम क्या कहता है? आधुनिक नियम यह स्वीकार करता है कि कोई अपराधी, वह कितना ही हीन क्यों न हो, उसमें भी ईश्वरत्व है, जिसका कभी परिवर्तन नहीं होता है और इसलिए अपराधियों के प्रति हमको तदनुरूप व्यवहार करना चाहिए। अब पहले के ये सब भाव बदल रहे हैं और अब सुधारालय तथा प्रायश्चित्त-गृहों की स्थापना की जा रही है। ऐसा ही सर्वत्र है। जानकर कहो अथवा बिना जाने, यह भारतीय भाव कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ईश्वरत्व वर्तमान है, नाना भावों से व्यक्त हो रहा है। और तुम्हारे शास्त्रों में ही इसकी व्याख्या है; उनको यह स्वीकार करना पड़ेगा। मनुष्य के प्रति मनुष्य के व्यवहार में महान् परिवर्तन हो जाएगा और मनुष्य की दुर्बलताओं को बतलानेवाले ये प्राचीन विचार नहीं रहेंगे। इसी शताब्दी में इन भावों का लोप हो जाएगा। इस समय लोग हमारे विरोध में खड़े होकर हमारी आलोचना कर सकते हैं। ‘संसार में पाप नहीं है’ इस घोर पैशाचिक सिद्धान्त का मैं प्रचार कर रहा हूँ ऐसा कहकर संसार के प्रत्येक भाग में मेरी निन्दा की गयी है। बहुत अच्छा, किन्तु इस समय जिन्होंने मुझको बुरा-भला कहा है, उनके ही वंशज मुझको अधर्म का प्रचारक नहीं, किन्तु धर्म का प्रचारक कहकर आशीर्वाद देंगे। मैं धर्म का प्रचारक हूँ, अधर्म का नहीं। मैंने अज्ञानान्धकार का प्रचार नहीं किया, किन्तु ज्ञानप्रकाश के विस्तार की चेष्टा की है, इसे मैं अपना गौरव समझता हूँ।

समग्र संसार का अखण्डत्व, जिसको ग्रहण करने के लिए संसार प्रतीक्षा कर रहा है, हमारे उपनिषदों का दूसरा महान भाव है। प्राचीन काल की हदबन्दी और पार्थक्य इस समय तेजी से कम होते जा रहे हैं। बिजली और भाप की शक्ति, यातायात तथा संचार की सुविधाएँ बढ़ाकर संसार के विभिन्न देशों का परस्पर परिचय करा रही है। इसके फलस्वरूप, हम हिन्दू इस समय अपने देश के अतिरिक्त अन्य सब देशों को केवल भूत-प्रेत, राक्षस, पिशाचों से पूर्ण नहीं देख रहे हैं और ईसाई-धर्म-प्रधान देशों के लोग भी नहीं कहते कि भारत में केवल नरमांसभोजी और असभ्य लोग रहते हैं। अपने देश से बाहर जाकर हम देखते हैं कि वहाँ भी बन्धुभाव से पूर्ण मानव हमारी सहायता के लिए अपना हाथ बढ़ा रहा है और मुख से हमें प्रोत्साहित कर रहा है। जिस देश में हमने जन्म लिया है उसकी अपेक्षा कभी कभी अन्य देशों में अधिक अच्छे लोग मिल जाते हैं। जब वे यहाँ आते हैं, वे भी यहाँ वैसा ही भ्रातृभाव, प्रोत्साहन और सहानुभूति पाते हैं। हमारे उपनिषदों ने ठीक ही कहा है, अज्ञान ही सर्व प्रकार के दुःखों का कारण है सामाजिक अथवा आध्यात्मिक, अपने जीवन को चाहे जिस अवस्था में देखो, यह बिलकुल सही उतरता है। अज्ञान से ही हम परस्पर घृणा करते हैं, अज्ञान से ही हम एक दूसरे को जानते नहीं और इसलिए प्यार नहीं करते। जब हम एक दूसरे को जान लेंगे, तो प्रेम का उदय होगा। प्रेम का उदय निश्चित है; क्योंकि क्या हम सब एक नहीं है? इसलिए हम देखते हैं कि चेष्टा न करने पर भी, हम सब का एकत्वभाव स्वभाव ही से आ जाता है। यहाँ तक कि राजनीति और समाजनीति के क्षेत्रों में भी जो समस्याएँ बीस वर्ष पहले केवल राष्ट्रीय थीं, इस समय उनकी मीमांसा केवल राष्ट्रीयता के आधार पर ही नहीं की जा सकती। उक्त समस्याएँ क्रमशः कठिन हो रही हैं और विशाल आकार धारण कर रहीं है। केवल अन्तर्राष्ट्रीय आधार पर उदार दृष्टि से विचार करने पर ही उनको हल किया जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय संघ, अन्तर्राष्ट्रीय विधान, ये ही आजकल के मूलमन्त्रस्वरूप हैं। सब लोगों के भीतर एकत्वभाव किस प्रकार विस्तृत हो रहा है, यही उसका प्रमाण है। विज्ञान में भी जड़ तत्त्व के सम्बन्ध में ऐसे सार्वभौम भाव ही इस समय आविष्कृत हो रहे हैं। इस समय तुम समग्र जड़ वस्तु को, समस्त संसार को एक अखण्ड वस्तुरूप में, बृहत् जड़-समुद्र सा वर्णन करते हो, जिसमें तुम, मैं, चन्द्र, सूर्य और शेष सब कुछ, सभी विभिन्न क्षुद्र भँवर मात्र हैं, और कुछ नहीं। मानसिक दृष्टि से देखने पर वह एक अनन्त विचार-समुद्र प्रतीत होता है; तुम और मैं उस विचार-समुद्र के अत्यन्त छोटे छोटे भँवरों के सदृश हैं। आत्मपरक दृष्टि से देखने पर समग्र जगत् एक अचल, अपरिवर्तनशील सत्ता अर्थात् आत्मा प्रतीत होता है। नैतिकता का स्वर भी आ रहा है और यह भी हमारे ग्रन्थों में विद्यमान है। नैतिकता की व्याख्या और आचार-शास्त्र के मूल स्रोत के लिए भी संसार व्याकुल है, यह भी हमारे शास्त्रों से ही मिलेगा।

हम भारत में क्या चाहते हैं? यदि विदेशियों को इन पदार्तों की आवश्यकता है, तो हमको इनकी आवश्यकता बीस गुनी अधिक है। क्योंकि हमारे उपनिषद कितने ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, अन्यान्य जातियों के साथ तुलना में हम अपने पूर्वपुरुष ऋषिगणों पर कितना ही गर्व क्यों न करें, मैं तुम लोगों से स्पष्ट भाषा में कहे देता हूँ कि हम दुर्बल हैं, अत्यन्त दुर्बल हैं। प्रथम तो है हमारी शारीरिक दुर्बलता। यह शारीरिक दुर्बलता कम से कम हमारे एक तिहाई दुःखों का कारण है। हम आलसी हैं, हम कार्य नहीं कर सकते; हम पारस्परिक एकता स्थापित नहीं कर सकते, हम एक दूसरे से प्रेम नहीं करते, हम बड़े स्वार्थी हैं, हम तीन मनुष्य एकत्र होते ही एक दूसरे से घृणा करते हैं, ईर्ष्या करते हैं। हमारी इस समय ऐसी अवस्था है कि हम पूर्ण रूप से असंगठित हैं, घोर स्वार्थी हो गये हैं, सैकड़ों शताब्दियों से इसीलिए झगड़ते हैं कि तिलक इस तरह धारण करना चाहिए या उस तरह। अमुक व्यक्ति की नजर पड़ने से हमारा भोजन दूषित होगा या नहीं। ऐसी गुरुतर समस्याओं के ऊपर हम बड़े बड़े ग्रन्थ लिखते हैं। पिछली कई शताब्दियों से हमारा यही कारनामा रहा है। जिस जाति के मस्तिष्क की समस्त शक्ति ऐसी अपूर्व सुन्दर समस्याओं और गवेषणाओं में लगी है, उससे किसी उच्च कोटी की सफलता की क्या आशा की जाए! और क्या हमको अपने पर शर्म भी नहीं आती? हाँ, कभी कभी हम शर्मिन्दा होते भी हैं। यद्यपि हम उनकी निस्सारता को समझते हैं, पर उनका त्याग नहीं कर पाते। हम अनेक बातें सोचते हैं, किन्तु उनके अनुसार कार्य नहीं कर सकते। इस प्रकार तोते के समान बातें करना हमारा अभ्यास हो गया है – आचरण में हम बहुत पिछड़े हुए हैं। इसका कारण क्या है? शारीरिक दौर्बल्य। दुर्बल मस्तिष्क कुछ नहीं कर सकता, हमको अपने मस्तिष्क को बलवान बनाना होगा। प्रथम तो हमारे युवकों को बलवान बनाना होगा। धर्म पीछे आएगा। हे मेरे युवक बन्धुओ, तुम बलवान बनो – यही तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है। गीतापाठ करने की अपेक्षा तुम्हें फुटबाल खेलने से स्वर्गसुख अधिक सुलभ होगा। मैंने अत्यन्त साहसपूर्वक ये बातें कही हैं, और इनको कहना अत्यावश्यक है, कारण मैं तुमको प्यार करता हूँ। मैं जानता हूँ कि कंकड़ कहाँ चुभता है। मैंने कुछ अनुभव प्राप्त किया है। बलवान शरीर से अथवा सुदृढ़ स्नायुओं से तुम गीता को अधिक समझ सकोगे। शरीर में ताजा रक्त होने से तुम कृष्ण की महती प्रतिभा और महान तेजस्विता को अच्छी तरह समझ सकोगे। जिस समय तुम्हारा शरीर तुम्हारे पैरों के बल दृढ़ भाव से खड़ा होगा, जब तुम अपने को मनुष्य समझोगे, तब तुम उपनिषद और आत्मा की महिमा भलीभाँति समझोगे। इस तरह वेदान्त को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार काम में लगाना होगा।

हे मेरे युवक बन्धुओ, तुम बलवान बनो – यही तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है। गीतापाठ करने की अपेक्षा तुम्हें फुटबाल खेलने से स्वर्गसुख अधिक सुलभ होगा।

स्वामी विवेकानंद, भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव (भारत में विवेकानंद)

लोग मेरे अद्वैतवाद के प्रचार से बहुधा खीज जाते हैं। अद्वैतवाद, द्वैतवाद अथवा अन्य किसी वाद का प्रचार करना मेरा उद्देश्य नहीं है। हमें इस समय आवश्यकता है केवल आत्मा की – उसके अपूर्व तत्त्व, उसकी अनन्त शक्ति, अनन्त वीर्य, अनन्त शुद्धता और अनन्त पूर्णता के तत्त्व को जानने की। यदि मेरे कोई सन्तान होती तो मैं उसे जन्म के समय से ही सुनाता ‘त्वमसि निरंजनः’। तुमने अवश्य ही पुराण में रानी मदालसा की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी। उसके सन्तान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रखकर झुलाते हुए उसके निकट गाती थी, ‘तुम मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप; तुम हो सर्वशक्तिशाली, तेरा है अमित प्रताप।’ इस कहानी में महान सत्य छिपा हुआ है। अपने को महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे। सभी लोग पूछते हैं, आपने समग्र संसार में भ्रमण करके क्या अनुभव प्राप्त किया? अंग्रेज लोग पापियों की बातें करते हैं; पर वास्तव में यदि सभी अंग्रेज अपने को पापी समझते, तो वे अफ्रीका के मध्य भाग के रहनेवाली हब्शी जैसे हो जाते। ईश्वर की कृपा से इस बात पर वे विश्वास नहीं करते। इसके विपरीत अंग्रेज तो यह विश्वास करता है कि संसार के अधीश्वर होकर उसने जन्म धारण किया है। वह अपनी श्रेष्ठता पर पूरा विश्वास रखता है। उसकी धारणा है कि वह सब कुछ कर सकता है, इच्छा होने पर सूर्यलोक और चन्द्रलोक की भी सैर कर सकता है। इसी इच्छा के बल से वह बड़ा हुआ है। यदि वह अपने पुरोहितों के इन वाक्यों पर कि मनुष्य क्षुद्र है, हतभाग्य और पापी है, अनन्तकाल तक वह नरकाग्नि में दग्ध होगा, विश्वास करता, तो वह आज वही अंग्रेज न होता जैसा वह आज है। यही बात मैं प्रत्येक जाति के भीतर देखता हूँ। उनके पुरोहित लोग चाहे जो कुछ कहे, और वे कितने ही कुसंस्कारपूर्ण क्यों न हों, किन्तु उनके अभ्यन्तर का ब्रह्मभाव लुप्त नहीं होता, उसका विकास अवश्य होता है। हम श्रद्धा खो बैठे हैं। क्या तुम मेरे इस कथन पर विश्वास करोगे कि हम अंग्रेजों की अपेक्षा कम आत्मश्रद्धा रखते हैं – सहस्रगुण कम आत्मश्रद्धा रखते हैं? मैं साफ साफ कह रहा हूँ। बिना कहे दूसरा उपाय भी मैं नहीं देखता। तुम देखते नहीं? – अंग्रेज जब हमारे धर्मतत्त्व को कुछ कुछ समझने लगते हैं तब वे मानो उसी को लेकर उन्मत्त हो जाते हैं। यद्यपि वे शासक हैं, तथापि अपने देशवासियों की हँसी और उपहास की उपेक्षा करके भारत में हमारे ही धर्म का प्रचार करने के लिए वे आते हैं। तुम लोगों में से कितने ऐसे हैं जो ऐसा काम कर सकते हैं? तुम क्यों ऐसा नहीं कर सकते? क्या तुम जानते नहीं, इसलिए नहीं कर सकते? नहीं, उनकी अपेक्षा तुम अधिक ही जानते हो। और इसी से तुम लोग काम नहीं कर सकते। जितना जानने से कल्याण होगा उससे तुम ज्यादा जानते हो, यही आफत है। तुम्हारा रक्त पानी जैसा हो गया है, मस्तिष्क मुर्दार और शरीर दुर्बल! इस शरीर को बदलना होगा। शारीरिक दुर्बलता ही सब अनिष्टों की जड़ है, और कुछ नहीं। गत कई सदियों से तुम नाना प्रकार के सुधार, आदर्श आदि की बातें कर रहे हो और जब काम करने का समय आता है तब तुम्हारा पता ही नहीं मिलता। अतः तुम्हारे आचरणों से सारा संसार क्रमशः हताश हो रहा है और समाज-सुधार का नाम तक समस्त संसार के उपहास की वस्तु हो गयी है! इसका कारण क्या है? क्या तुम जानते नहीं हो? तुम अच्छी तरह जानते हो। ज्ञान की कमी तो तुममें है ही नहीं! सब अनर्थों का मूल कारण यही है कि तुम दुर्बल हो, अत्यन्त दुर्बल हो; तुम्हारा शरीर दुर्बल है, मन दुर्बल है, और अपने आप पर श्रद्धा भी बिलकुल नहीं है। सैकड़ों सदियों से ऊँची जातियों, राजाओं और विदेशियों ने तुम्हारे ऊपर अत्याचार करके, तुमको चकनाचूर कर डाला है। भाइयो! तुम्हारे ही स्वजनों ने तुम्हारा सब बल हर लिया है। तुम इस समय मेरुदण्डहीन और पददलित कीड़ों के समान हो। इस समय तुमको शक्ति कौन देगा? मैं तुमसे कहता हूँ, इसी समय हमको बल और वीर्य की आवश्यकता है। इस शक्ति को प्राप्त करने का पहला उपाय है – उपनिषदों पर विश्वास करना और यह विश्वास करना कि ‘मैं आत्मा हूँ।’ ‘मुझे न तो तलवार काट सकती है, न बरछी छेद सकती है, न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है, मैं सर्वशक्तिमान हूँ, सर्वज्ञ हूँ।’4 इन आशाप्रद और परित्राणप्रद वाक्यों का सर्वदा उच्चारण करो। मत कहो – हम दुर्बल हैं। हम सब कुछ कर सकते हैं। हम क्या नहीं कर सकते? हमसे सब कुछ हो सकता है। हम सब के भीतर एक ही महिमामय आत्मा है। हमें इस पर विश्वास करना ही होगा। नचिकेता के समान श्रद्धाशील बनो। नचिकेता के पिता ने जब यज्ञ किया था, उसी समय नचिकेता के भीतर इसी श्रद्धा का प्रवेश हुआ। मेरी इच्छा है – तुम लोगों के भीतर इसी श्रद्धा का आविर्भाव हो, तुममें से हर एक आदमी खड़ा होकर इशारे से संसार को हिला देनेवाला प्रतिभासम्पन्न महापुरुष हो, हर प्रकार से अनन्त ईश्वरतुल्य हो। मैं तुम लोगों को ऐसा ही देखना चाहता हूँ। उपनिषदों से तुमको ऐसी ही शक्ति प्राप्त होगी और वहीं से तुमको ऐसा विश्वास प्राप्त होगा।

सब अनर्थों का मूल कारण यही है कि तुम दुर्बल हो, अत्यन्त दुर्बल हो; तुम्हारा शरीर दुर्बल है, मन दुर्बल है, और अपने आप पर श्रद्धा भी बिलकुल नहीं है।

स्वामी विवेकानंद, भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव (भारत में विवेकानंद)

प्राचीन काल में केवल अरण्यवासी संन्यासी ही उपनिषदों की चर्चा करते थे। वे रहस्य के विषय बन गये थे। उपनिषद संन्यासियों तक ही सीमित थे। शंकराचार्य ने कुछ सदय हो कहा है, ‘गृही मनुष्य भी उपनिषदों का अध्ययन कर सकते हैं; इससे उनका कल्याण ही होगा, कोई अनिष्ट न होगा।’ परन्तु अभी तक यह संस्कार कि उपनिषदों में वन, जंगल अथवा एकान्तवास का ही वर्णन है, मनुष्यों के मन से नहीं हटा। मैंने तुम लोगों से उस दिन कहा था कि जो स्वयं वेदों के प्रकाशक हैं, उन्हीं श्रीकृष्ण के द्वारा वेदों की एकमात्र प्रामाणिक टीका, गीता, एक ही बार चिरकाल के लिए बनी है, यह सब के लिए और जीवन की सभी अवस्थाओं के लिए उपयोगी है। तुम कोई भी काम करो, तुम्हारे लिए वेदान्त की आवश्यकता है। ‘वेदान्त के इन सब महान तत्त्वों का प्रचार आवश्यक है, ये केवल अरण्य में अथवा गिरिगुहाओं में आबद्ध नहीं रहेंगे; वकीलों और न्यायाधीशों में, प्रार्थना-मन्दिरों में, दरिद्रों की कुटियों में, मछुओं के घरों में, छात्रों के अध्ययन-स्थानों में – सर्वत्र ही इन तत्त्वों की चर्चा होगी और ये काम में लाये जाएँगे। हर एक व्यक्ति, हर एक सन्तान चाहे जो काम करे, चाहे जिस अवस्था में हो – उनकी पुकार सब के लिए है। भय का अब कोई कारण नहीं है। उपनिषदों के सिद्धान्तों को मछुए आदि साधारण जन किस प्रकार काम में लाएँगे? इसका उपाय शास्त्रों में बताया गया है। मार्ग अनन्त है, धर्म अनन्त है; कोई इसकी सीमा के बाहर नहीं जा सकता। तुम निष्कपट भाव से जो कुछ करते हो, तुम्हारे लिए वही अच्छा है। अत्यन्त छोटा कर्म भी यदि अच्छे भाव से किया जाए, तो उससे अद्भुत फल की प्राप्ति होती है। अतएव जो जहाँ तक अच्छे भाव से काम कर सके, करे। मछुआ यदि अपने को आत्मा समझकर चिन्तन करे, तो वह एक उत्तम मछुआ होगा। विद्यार्थी यदि अपने को आत्मा सोचे, तो वह एक श्रेष्ठ विद्यार्थी होगा। वकील यदि अपने को आत्मा समझे, तो वह एक अच्छा वकील होगा। औरों के विषय में भी यही समझो। इसका फल यह होगा कि जातिविभाग अनन्त काल तक रह जाएगा; क्योंकि विभिन्न श्रेणियों में विभक्त होना ही समाज का स्वभाव है। पर रहेगा क्या नहीं? विशेष अधिकारों का अस्तित्व न रह जाएगा। जातिविभाग प्राकृतिक नियम है। सामाजिक जीवन में एक विशेष काम मैं कर सकता हूँ, तो दूसरा काम तुम कर सकते हो। तुम एक देश का शासन कर सकते हो, तो मैं एक पुराने जूते की मरम्मत कर सकता हूँ। किन्तु इस कारण तुम मुझसे बड़े नहीं हो सकते। क्या तुम मेरे जूते की मरम्मत कर सकते हो? मैं क्या देश का शासन कर सकता हूँ? यह कार्यविभाग स्वाभाविक है। मैं जूते की सिलाई करने में चतुर हूँ, तुम वेदपाठ में निपुण हो। पर यह कोई कारण नहीं कि तुम इस विशेषता के लिए मेरे सिर पर पाँव रखो। तुम यदि हत्या भी करो तो तुम्हारी प्रशंसा हो और मुझे एक सेब चुराने पर ही फाँसी पर लटकना हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसको समाप्त करना ही होगा। जातिविभाग अच्छा है। जीवनसमस्या के समाधान के लिए यही एकमात्र स्वाभाविक उपाय है। मनुष्य अलग अलग वर्गों में विभक्त होंगे, यह अनिवार्य है। तुम जहाँ भी जाओ, जातिविभाग से छुटकारा न मिलेगा; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इस प्रकार का विशेषाधिकार भी रहेगा। इनको जड़ से उखाड़ फेकना होगा। यदि मछुए को तुम वेदान्त सिखलाओगे तो वह कहेगा, हम और तुम दोनों बराबर हैं। तुम दार्शनिक हो, मैं मछुआ; पर इससे क्या? तुम्हारे भीतर जो ईश्वर है, वही मुझमें भी है। हम यही चाहते हैं कि किसी को कोई विशेष अधिकार प्राप्त न हो, और प्रत्येक मनुष्य की उन्नति के लिए समान सुभीते हो। सब लोगों को उनके भीतर स्थित ब्रह्मतत्त्व-सम्बन्धी शिक्षा दो। प्रत्येक व्यक्ति अपनी मुक्ति के लिए स्वयं चेष्टा करेगा।

उन्नति के लिए सब से पहले स्वाधीनता की आवश्यकता है। यदि तुम लोगों में से कोई यह कहने का साहस करे कि मैं अमुक स्त्री अथवा अमुक लड़के की मुक्ति के लिए काम करूँगा, तो यह गलत है, हजार बार गलत होगा। मुझसे बार बार यह पूछा जाता है कि विधवाओं की समस्या के बारे में और स्त्रियों के प्रश्न के विषय में आप क्या सोचते हैं? मैं इस प्रश्न का अन्तिम उत्तर यह देता हूँ – क्या मैं विधवा हूँ, जो तुम ऐसा निरर्थक प्रश्न मुझसे पूछते हो? क्या मैं स्त्री हूँ, जो तुम बार बार मुझसे यही प्रश्न करते हो? स्त्री-जाति के प्रश्न को हल करने के लिए आगे बढ़नेवाले तुम हो कौन? क्या तुम हर एक विधवा और हर एक स्त्री के भाग्यविधाता भगवान हो? दूर रहो! अपनी समस्याओं का समाधान वे स्वयं कर लेगीं। अरे अत्याचारियों, क्या तुम समझते हो कि तुम सब के लिए सब कुछ कर सकते हो? हट जाओ, दूर रहो! ईश्वर सब की चिन्ता करेंगे। अपने को सर्वज्ञ समझनेवाले तुम हो कौन? नास्तिकों, तुम यह सोचने का दुस्साहस कैसे करते हो कि तुम्हारा ईश्वर पर अधिकार है? क्या तुम जानते नहीं कि प्रत्येक आत्मा ईश्वर ही का स्वरूप है? तुम अपना ही कर्म करो, तुम्हारे लिए तुम्हारे सिर पर बहुतसे कर्मों का भार है। नास्तिको! तुम्हारी जाति तुमको आसमान पर चढ़ा दे, तुम्हारा समाज तुम्हारी प्रशंसा के पुल बाँध दे, मूर्ख लोग तुम्हारी तारीफ करें, किन्तु ईश्वर सो नहीं रहे हैं; इस लोक में या परलोक में इसका दण्ड तुम्हें अवश्य मिलेगा।

अतएव हर एक स्त्री को, हर एक पुरुष को और सभी को ईश्वर के ही समान देखो। तुम किसी की सहायता नहीं कर सकते, तुम्हें केवल सेवा करने का अधिकार है। प्रभु की सन्तान की, यदि भाग्यवान हो तो स्वयं प्रभु की ही सेवा करो। यदि ईश्वर के अनुग्रह से उसकी किसी सन्तान की सेवा कर सकोगे, तो तुम धन्य हो जाओगे। अपने ही को बहुत बड़ा मत समझो। तुम धन्य हो, क्योंकि सेवा करने का तुमको अधिकार मिला और दूसरों को नहीं मिला। केवल ईश्वर-पूजा के भाव से सेवा करो। दरिद्र व्यक्तियों में हमको भगवान को देखना चाहिए, अपनी ही मुक्ति के लिए उनके निकट जाकर हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। अनेक दुःखी और कंगाल प्राणी हमारी मुक्ति के माध्यम है ताकि हम रोगी, पागल, कोढ़ी, पापी आदि स्वरूपों में विचरते हुए प्रभु की सेवा करके अपना उद्धार करें। मेरे शब्द बड़े गम्भीर हैं और मैं उन्हें फिर दुहराता हूँ कि हम लोगों के जीवन का सर्वश्रेष्ठ सौभाग्य यही है कि हम इन भिन्न भिन्न रूपों में विराजमान भगवान की सेवा कर सकते हैं। प्रभूत्व से किसी का कल्याण कर सकने की धारणा त्याग दो। जिस प्रकार पौधे के बढ़ने के लिए जल, मिट्टी, वायु आदि पदार्तों का संग्रह कर देने पर फिर वह पौधा अपनी प्रकृति के नियमानुसार आवश्यक पदार्थों का ग्रहण आप ही कर लेता है और अपने स्वभाव के अनुसार बढ़ता जाता है, उसी प्रकार दूसरों की उन्नति के साधन एकत्र करके उनका हित करो।

दरिद्र व्यक्तियों में हमको भगवान को देखना चाहिए, अपनी ही मुक्ति के लिए उनके निकट जाकर हमें उनकी पूजा करनी चाहिए।

स्वामी विवेकानंद, भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव (भारत में विवेकानंद)

संसार में ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करो; प्रकाश, सिर्फ प्रकाश लाओ। प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करे। जब तक सब लोग भगवान के निकट न पहुँच जाएँ, तब तक तुम्हारा कार्य शेष नहीं हुआ है। गरीबों में ज्ञान का विस्तार करो, धनियों पर और भी अधिक प्रकाश डालो क्योंकि दरिद्रों की अपेक्षा धनियों को अधिक प्रकाश की आवश्यकता है। अनपढ़ लोगों को भी प्रकाश दिखाओ। शिक्षित मनुष्यों के लिए और अधिक प्रकाश चाहिए, क्योंकि आजकल शिक्षा का मिथ्याभिमान खूब प्रबल हो रहा है। इसी तरह सब के निकट प्रकाश का विस्तार करो। और शेष सब भगवान पर छोड़ दो, क्योंकि स्वयं भगवान् के शब्दों में –

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वमकर्मणि॥5

‘कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं; तुम इस भाव से कर्म मत करो, जिससे तुम्हें फल-भोग करना पड़े। तुम्हारी प्रवृत्ति कर्मत्याग करने की ओर न हो।’

सैकड़ों युग पूर्व हमारे पूर्वपुरुषों को जिस प्रभु ने ऐसे उदात्त सिद्धान्त सिखलाये हैं वे हमें उन आदर्शों को काम में लाने की शक्ति दें और हमारी सहायता करें।


  1. कठोपनिषद् २।२।१५
  2. मुण्डकोपनिषद् ३।१।१-२
  3. गीता, ३।१७
  4. नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
    न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥ (गीता २।२३)
  5. गीता २।४७

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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