जीवन परिचय

राजा राममोहन राय का जीवन परिचय

Biography Of Raja Ram Mohan Roy in Hindi

जब-जब पृथ्वी पर किसी प्रकार की आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें पूरी करने के लिए किसी शक्ति का प्रादुर्भाव अवश्य होता है। संसार की सभी बातों में इस अटूट नियम का प्रयोग होते देखा गया है। मानव समाज में आवश्यकतानुसार धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक क्रान्ति करने के ही लिए महापुरुषों का जन्म होता है।

राजा राममोहन राय का जन्म भी इस भारत भूमि में इसीलिए हुआ।

राजा राममोहन राय का जन्म

राजा राममोहन राय का जन्म सन् 1774 ई० में हुगली ज़िले के पास एक गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम राय रमाकान्त और माता का नाम तारिणी देवी था। ‘राय’ की उपाधि उनके खानदान में नवाबी राज्य से चली आती थी। उनकी माता बड़ी ही बुद्धिमती, सुशीला, और धर्मानुरागिणी स्त्री थी उसी के अनुसार बचपन से ही उन्हें भी अपने धर्म में बड़ी श्रद्धा थी, अपने गृह देवता के वे बड़े भक्त थे। बुद्धि तो ऐसी तीव्र थी कि जब पाठशाला में पढ़ने बैठाए गए तो लोगो को आश्चर्य होता था। फ़ारसी की शिक्षा पिता ने घर पर ही दी। नौ वर्ष की अवस्था में पटना भेज दिया। वहाँ रह कर उन्होने फ़ारसी, अरबी का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। रेखागणित का ख़ूब अध्ययन किया। फ़ारसी के प्रसिद्ध कवियों के काव्य-ग्रन्थों से उन्हें विशेष अनुराग था, जो यावज्जीवन रहा।

इस शिक्षा के पश्चात् बालक राममोहन संस्कृत पढ़ने के लिए काशी भेजे गए। 12-13 वर्ष की ही आयु में ही उन्होंने वहाँ संस्कृत में भी बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। वहाँ से आकर घर पर ही रहने लगे और धर्म सम्बन्धी बातों के विचार में समय बिताने लगे। शनैः-शनैः प्रचलित धर्म से उनका विश्वास निर्बल होने लगा। यह देखकर उनके पिता को मत-भेद होने के साथ ही दुःख भी हुआ। इसी समय राममोहन ने “हिन्दुओं की पौत्तलिक धर्म-प्रणाली” नामक पुस्तक लिखी, जिससे पिता इतने क्रुद्ध हो गए कि उन्हें घर से निकाल दिया।

अब तो निडर राजा राममोहन रॉय भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों में भ्रमण करने लगे। जहाँ जाते, वहीं की भाषा सीख कर वहाँ के धर्म ग्रंथों का अध्ययन और मनन करते। इस प्रकार घूमते-घामते वे 16 वर्ष की उम्र में हिमालय पार कर तिब्बत पहुँचे। वहाँ के लामाओं की अवतारवाद की पराकाष्ठा की अद्भुत प्रथा देखकर उन्हें बड़ा बुरा मालूम हुआ। बस, उन्होंने अकुतोभयता के साथ ज़ोरों से इसका प्रतिवाद किया। लामा उनसे इतने क्रुद्ध हो गए कि मृत्यु-दण्ड देने का प्रयत्न करने लगे। पर वहाँ की स्त्रियों ने उस समय उन का साथ दिया और बराबर साथ रह कर उनकी रक्षा की। उनका तो कहना है कि भारत में विदेशी राज्य, धर्म का प्रचार होने के कारण मैं तिब्बत चला गया, पर दूसरे लोग कहते हैं कि बौद्ध ग्रन्थों का अनुसन्धान करने के लिए वे वहाँ गए।

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राय रमाकान्त ने पुत्र को घर से निकाल तो दिया, पर पीछे उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ। दिन-रात दुःखी रहने लगे। लोगों को इधर-उधर पुत्र की तलाश में भेजा। देश-विदेश में भ्रमण कर राममोहन चार वर्ष बाद पिता के भेजे हुए एक आदमी के साथ घर आए। पुत्र के घर आ जाने से सबको बड़ा आनन्द हुआ।

घर में रहते हुए धार्मिक विषयों में पिता के साथ प्रायः राजा राममोहन राय का वादविवाद हुआ करता था। वे अपना तमाम समय धार्मिक पुस्तकों के अवलोकन में ही बिताते थे और इस विषय में उन्होंने गहरी छान-बीन करके निश्चय कर लिया था कि हिन्दू धर्म के कुसंस्कार और कुप्रथाओं को नष्ट करना होगा। वे अपने अध्ययन में इतने दृढ़-प्रतिज्ञ थे कि एक बार संस्कृत वाल्मीकीय रामायण पढ़ने बैठ गए, सब से कह दिया, “जब तक मैं पाठ पूरा न कर लूँ, कोई विघ्न न करे।” प्रातःकाल से बैठे शाम हो गई, पर अन्न-जल ग्रहण तभी किया जब सातों काण्ड पाठ पूरा कर लिया।

उस समय सती प्रथा प्रचलित थी। बंगाल में इसका रिवाज़ ज़ोरों से था। पति के मरने पर जीवित स्त्री पति के साथ चिता में जला दी जाती थी। यह दृश्य कितने ही निष्ठुर हृदय देखते होंगे। धू-धू करते हुए चितानल में असहाय अबला झोंक दी जावे, उठकर भागने का प्रयत्न करे तो सम्बन्धी लोग बाँसों से कसकर उसे दबाए रहें। ढोल-बाजे नगाड़े आदि इसलिए बजाए जावें कि उसका आर्तनाद दूसरों के कानों में प्रवेश न कर सके। हमारे चरित नायक से यह भयङ्कर दृश्य न देखा गया। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि “मैं यावज्जीवन इस वीभत्स प्रथा को निर्मूल करने का प्रयत्न करूँगा।”

आवश्यक समझकर 22 वर्ष की आयु में उन्होंने अंग्रेज़ी पढ़ना प्रारम्भ किया और थोड़े ही समय में उसमें भी अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली।

इसके पश्चात् वे सरकारी मुहर्रिरी करने लगे। नौकरी करने से पूर्व उन्होंने कलेक्टर से लिखित प्रतिज्ञा करा ली कि जब मैं किसी कार्य से आपके सामने आऊँ, तो आप मुझे बैठने को आसन दें। अपने कार्यों से उन्होंने अफ़सरों को ऐसा सन्तुष्ट किया कि कुछ ही समय पश्चात् वे सरिश्तेदार बना दिए गए। उन्होंने तेरह वर्ष नौकरी की, पर मन न लगा। जिसका ध्यान धार्मिक कुप्रथाओं के नष्ट करने में लगा हुआ है वह ग़ुलामी कहाँ तक कर सकता है। अस्तु, नौकरी छोड़ दी। धार्मिक सुधार का कार्य प्रारम्भ कर दिया। बाह्य पाखण्डी अपना भण्डाफोड़ होते देख उन के कार्य में तरह-तरह के रोड़े अटकाने लगे और वृथा कष्ट देने लगे। परन्तु राजा राममोहन रॉय के असाधारण धैर्य ने किसी प्रकार हार न मानी। उन्होंने इस असद्भाव का बदला सद्भाव के द्वारा देने का निश्चय किया, और जी-जान से धर्म-संस्कार, समाज-संस्कार, राजनैतिक संस्कार और साहित्य की उन्नति में जुट गए। जहाँ बहुत से लोग उन के दुश्मन हो गए, वहाँ उन के असाधारण गुणों, स्पष्ट सत्यवादिता, निर्भीकता आदि से आकृष्ट होकर कितने ही विद्वान और सत्यान्वेषी सज्जन मित्र और शिष्य भी हो गए। उनकी सुशीलता, नम्रता और विद्वत्ता देखकर प्रेम करने को मनुष्य बाध्य हो जाते थे।

राजा राममोहन राय की पुस्तकें

राजा राममोहन राय ने विचारा कि पुस्तकों द्वारा सत्य का प्रचार भली-भाँति हो सकता है। बस “वेदान्त सूत्र” का भाष्य बांग्ला, हिन्दी, अंगरेज़ी में प्रकाशित किया और उसमें पुष्टि के साथ इस बात का प्रतिपादन किया कि समस्त हिन्दू शास्त्र एकमात्र परब्रह्म की उपासना बतलाते हैं, प्रचलित प्रथाओं से उनमें बड़ा अन्तर है। इसके बाद क्रमशः वेदान्त सार, उपनिषदों के भाष्य, ब्रह्मनिष्ठ गृहस्थेर लक्षण, गायत्री अर्थ, अनुष्ठान, ब्रह्मोपासना, प्रार्थना पत्र आदि अनेक पुस्तकें प्रकाशित कीं; जिनमें प्रचलित हिन्दू धर्म की अनिष्ट-कारिणी रूढ़ियों की लम्बी ख़बर ली और उन लोगों के सिद्धान्त का खण्डन किया जो निराकार ईश्वर की उपासना संन्यासियों के लिए और देवी-देवताओं की उपासना गृहस्थों के लिए बतलाते हैं। अकाट्य प्रमाणों और युक्तियों द्वारा अपनी पुस्तकों में केवल एक ब्रह्मोपासना सिद्ध की।

राजा राममोहन राय के धार्मिक विचार

उनके इस प्रकार के आन्दोलन से हिन्दू समाज में बड़ी हल चल मच गई। शास्त्रार्थ के लिए हिन्दू पण्डितों ने बड़ी-बड़ी पुस्तकें लिखीं। जिनका उत्तर राजा राममोहन ने बड़ी युक्ति, सहनशीलता और प्रमाणों के साथ छपवाया। प्रतिवादी निरुत्तर हो गए। बहुतों ने चिढ़कर कई ऐसी पुस्तकें प्रकाशित करवाईं, जिनमें तथ्य बातें तो कम, कटु वाक्य और निंदा ही विशेष रूप से थीं, पर हमारे चरित-नायक ने अपूर्व शांति भाव से क्रमशः सब को निरुत्तर और पराजित किया।

राजा राम मोहन राय ने दूसरे धर्मों का ख़ूब अध्ययन किया था। जब उन्होंने देखा कि ईसाई लोग छोटे-छोटे ट्रैक्टों, दूसरे धर्मों की निन्दा, और ग़रीबों को धन के लालच आदि अनुचित कार्रवाइयों से अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैं, तो ईसाई धर्म की पोल खोलनी शुरू की। बाइबिल का ख़ूब अध्ययन किया और उनके समाचार पत्रों में निकले हुए संवादों, ट्रैक्टो का मुंह-तोड़ उत्तर देना प्रारम्भ किया, कड़ी आलोचना की। हिन्दुओं की दुर्बलता के विषय में लिखा कि “एक तो हम संसार में पराधीन विख्यात हैं, दूसरा कारण जाति भेद और तीसरा कारण है हिन्दू-जाति की स्वाभाविक धीरता, कोमलता और अहिंसा-वृत्ति। हिंसा विमुखता ही हिन्दुओ के राजनैतिक दुर्भाग्य का प्रधान कारण है। जिससे हम दूसरों से शासित हैं।” उन्होंने सबको एक धर्म और एक ब्रह्म की उपासना में लाने के लिए एक “आत्मीय सभा” स्थापित की। इसमें वेद पाठ और ब्रह्म संगीत द्वारा ब्रह्मोपासना होती थी। इसके पश्चात् “ब्रह्म समाज” की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था–कोई भी व्यक्ति शुद्ध श्रद्धा भाव से इस समाज-मन्दिर में उपासना के लिए आ सकता है; जाति, सम्प्रदाय, धर्म, पद इत्यादि का कुछ विचार न होगा। चाहे जिस धर्म या सम्प्रदाय का मनुष्य क्यों न हो, परमेश्वर की उपासना के लिए यहाँ सब को समान अधिकार है। ब्रह्म समाज कुछ समय ख़ूब फूला-फला।

राजा राममोहन रॉय और उनके साथियों के अनवरत परिश्रम और सच्ची लगन से ब्रह्म ज्ञान का प्रचार उत्तरोत्तर बढ़ने लगा, कितने ही लोग आकर ब्रह्म समाज में दीक्षित हुए।

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राजा राममोहन राय – सती प्रथा का अंत

सती प्रथा के प्रबल विरोध में राय ने पहले शास्त्रों और वैदिक ग्रन्थों का भली-भाँति अध्ययन तथा मनन किया; इधर-उधर ख़ूब शङ्काएँ निवृत्त कीं। इसके बाद उसे समूल नष्ट करने के लिए वे कटिबद्ध हो गए। पुस्तकें लिखकर, शाखाओं व्याख्यानों आदि के द्वारा प्रबल आंदोलन खड़ा कर दिया और सरकार से कड़े नियम बनवाकर सदैव के लिए इस अमानुषीय प्रथा का अन्त कर दिया। स्त्रियों से उन्हें हार्दिक सहानुभूति थी। उनकी दशा सुधारने के लिए उन्होंने अनेक प्रयत्न किए। लोग कहते हैं कि आध्यात्मिक और राजनैतिक विचारों में परस्पर विरोध है, पर राजा राममोहन राय के राजनैतिक विचार भी बहुत उच्च थे। बाल्यकाल ही से उन में प्रबलता आ गई थी। जहाँ कोई बात आ पड़ती, वे दुःखित किसानों की दर्दनाक कहानियों का दृश्य सामने खींचते हुए सरकार की कड़ी आलोचना करते थे। स्पष्ट और सत्य बात कहने में ज़रा भी न हिचकते थे। साथ ही उन्होंने इस बात का भी भरपूर प्रयत्न किया कि भारतवर्ष में अंग्रेज़ी शिक्षा और पाश्चात्त्य ज्ञान का प्रचार किया जावे, ताकि भारतीय शिक्षित और सम्पन्न हों। विलायत यात्रा में वे इङ्गलैण्ड, फ़्रान्स आदि देशों को गए, वहाँ अपनी अपूर्व प्रतिभा और पाण्डित्य से योरोप निवासियों पर अच्छी धाक जमा ली। सब जगह उनका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। अन्त में अपने शान्तिमय जीवन में धर्मोपदेश करते हुए वहाँ के ब्रिस्टल नगर में सन् 1833 ई० में 10-11 दिन बीमार रहकर वे स्वर्ग सिधारे।

राजा राममोहन राय का मस्तिष्क बहुत बड़ा और मेधा-शक्ति बड़ी प्रबल थी। शरीर कान्तिमान और सुन्दर था। शारीरिक बल साधारण लोगों से कहीं अधिक देखा जाता था। एक-एक दिन में वे 12-12 सेर दूध पी जाते थे और उसके ऊपर भोजन भी करते थे।

राजा राममोहन राय का जीवन परिचय – घटनाएँ

उनके जीवन की अनेक घटनाएँ उनकी विद्वत्ता, बुद्धिमानी, दया, उदारता, वाक्चातुरी, शारीरिक बल, निर्भीकता आदि गुणों का परिचय देती है।

एक दिन एक पण्डित ने आकर उनसे कहा, “मैं आप के साथ तन्त्र शास्त्र विषय में अमुक ग्रन्थ पर विचार करना चाहता हूँ।” राजा राममोहन रॉय ने वह ग्रन्थ देखा तक न था “बहुत अच्छा” कहते हुए कहा, “कृपा कर कल आइए।” पण्डित जी के जाते ही उन्होंने वह ग्रन्थ तुरन्त मंगवाया और दत्तचित्त होकर उसे एकबार ही पढ़ कर हृदयङ्गम कर लिया। दूसरे दिन जब पण्डित जी आए तो ज़ोरों से शास्त्रार्थ हुआ। अन्त में राममोहन के पांडित्य तथा तर्क-शक्ति से परास्त होकर पंडित जी अपने घर चले गए।

एक बार राजा राममोहन राय के पास दक्षिण से वहाँ की भाषा में ही एक पत्र आया, जिसे उन्हें दूसरे आदमी से पढ़वाना पड़ा। साथ ही यह इच्छा हुई कि इस भाषा को तो सीखना चाहिए। बस तीन ही महीने में उस भाषा को सीखकर उसके पत्र का उत्तर उसी भाषा में दिया।

हम लोग छोटे बालकों को गोद में लेने और उनके साथ खेलने में हिचकते हैं तथा भद्दा समझते हैं। पर राजा राममोहन राय में यह बात न थी। वे छोटे बालकों से अतिशय प्रेम करते थे और प्रायः उनके साथ खेला करते थे। प्रेम के कारण बालक अक्सर उनके घर जाया करते थे। वे उनके साथ बहुत हिलमिल कर खेला करते और उनके प्रति अपनी प्रसन्नता प्रगट करते थे। लड़के उनके घर नित्य आया करें, इसके लिए उन्होंने अपने घर में एक झूला डाल रक्खा था। लड़के इस झूले में झूलते थे; राजा राममोहन राय उन्हें झुलाते थे। कुछ देर पश्चात् “अब मेरी बारी है” कहकर आप उसमें बैठ जाते थे और लड़के उन्हें झुलाया करते थे। एक दिन राय इसी प्रकार झूल रहे थे कि एक प्रसिद्ध पण्डित मिलने आ गए और यह दृश्य देखकर बोले, “वाह, महाशय जी, आप यह क्या कर रहे हैं?” राय ने तुरन्त उत्तर दिया, “मैं विलायत जाना चाहता हूँ। सुना है समुद्र में तूफ़ान आने पर जहाज़ बहुत हिलने लगता है, जिससे यात्रियों को घुमनी का रोग हो जाता है, यात्री बेचैन हो जाते हैं। इस प्रकार झूलने का अभ्यास कर लेने से उस घुमनी की संभावना जाती रहेगी।”

राजा राममोहन राय को ग़रीबों का बड़ा ख़्याल था। निर्धनों का कष्ट वे देख नहीं सकते थे। राय के गाँव में ही बाज़ार लगता था। लोग अनाज इत्यादि बेचने को लाते थे। राय साहब के ज्येष्ठ पुत्र ने दूकानदारों से चुंगी लेना प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि सभी बाज़ारों में चुंगी ली जाती थी फिर भी निर्धन दूकानदारों को चुंगी देना कष्टकर प्रतीत होने लगा। उन लोगों ने पुत्र से प्रार्थना की कि चुंगी न ली जावे, पर उन्होंने कुछ ध्यान न दिया। एक दिन लाचार होकर वे सब राजा राम मोहन के पास पहुँचे, बोले, “राजा साहब, हम निर्धन आदमी हैं। किसी तरह अपनी गुज़र-बसर करते हैं, चाहते हैं हमसे चुंगी न ली जाया करे।” राजा साहब ने अपने दोनों हाथ सिर पर पटककर कहा, “हे भगवान! ये बेचारे दुःखी आदमी साधारण चीज़ें बेचकर किसी तरह अपनी गुज़र चलाते हैं। इनके ऊपर भी यह अत्याचार! रक्षा करो, रक्षा करो।” उनके पुत्र यह हाल देखकर बहुत लज्जित हुए और उसी दिन से चुंगी उठा दी।

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राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार बहुत सामंजस्यपूर्ण थे और समाज सुधार की पूर्वपीठिका स्वरूप थे। वे विपत्ति पड़ने पर भी कभी अधीर न होते थे। एक बार उनके कुछ मित्रों ने सोचा कि ये बड़े ब्रह्मज्ञानी बनते हैं, देखें दुःख में बेचैन होते हैं या नहीं। राय का पुत्र दूसरे नगर में रहता था। उस समय डाकख़ाने न थे। हरकारा पत्र ले जाता था। इन लोगो ने एक हरकारे को सिखा-पढ़ा कर एक जाली पत्र देकर राजा राममोहन को दे आने को कहा जिसमें पुत्र की मृत्यु का समाचार था। ये लोग पहले से ही उनके पास जा बैठे। हरकारे ने आकर पत्र दिया। पत्र पढ़ते ही राममोहन का मुख मंडल उदास हो गया। 3-4 मिनट तक वे चुपचाप बैठे रहे, फिर बिना किसी से कुछ कहे सुने अपने कार्य में लग गए, मानो कोई समाचार ही नहीं मिला। यह दृश्य देखकर वे लोग अवाक् रह गए, बहुत लज्जित हुए और अन्त में उनके पैरो पड़ कर सच्चा हाल सुनाते हुए क्षमा प्रार्थना की।

एक ग़रीब महाशय नित्य प्रति राजा राममोहन राय के पास धर्मोपदेश सुनने के लिए आया करते थे। वे बहुत निर्धन थे। कपड़े बहुत मैले हो गए थे और फट-से गए थे। नए कपड़े बनवाने में असमर्थ थे। धर्मोपदेश सुनने की इच्छा रहते हुए भी राय की उच्चता और अपना दरिद्र वेश देखकर उन्होने वहाँ जाना बन्द कर दिया। जब वे कुछ दिन न गए तो राजा राममोहन राय को मालूम हुआ कि अमुक महाशय ने आना क्यों बन्द कर दिया। उन्होने उसी समय उन्हें बुलाया और बड़े आदर से अपने पास बैठा कर कहा, “आप यह अच्छी तरह समझ लें कि मैं कभी कपड़े या रूप-रङ्ग देखकर आदमी को नहीं पहचाना करता हूँ। निस्संकोच आप रोज़ आया करें।”

राजा राममोहन राय ने नियम बना रक्खा था कि प्रार्थना के समय समाज में सब लोग चपकन और पगड़ी पहनकर आया करें। इसी प्रकार सब लोग आया भी करते थे। एक दिन प्रसिद्ध स्वर्गीय द्वारिका नाथ जज दफ़्तर से लौटे तो देर हो जाने के कारण दफ़्तर के ही कपड़े पहने समाज में चले गए और प्रार्थना में सम्मिलित हुए। यह देखकर राजा राममोहन राय को बड़ा दुःख हुआ। वे संकोचशील व्यक्ति थे, इसलिए ख़ुद उनसे कुछ न कहकर एक और मित्र से कहा, “आप भाई द्वारिका नाथ को समझा दें कि समाज का नियम क्या है।”

एक दिन राजा राममोहन राय बाज़ार में घूमने जा रहे थे। थोड़ी दूर जाने पर उन्होंने दूर से देखा कि कोई तरकारी वाला ज़मीन से बोझ उठा कर बार-बार अपने सिर पर रखने का प्रयत्न कर रहा है। परन्तु बोझा भारी होने के कारण वह उसे नहीं उठा पाता। राममोहन जी तुरन्त उसके पास पहुंचे और उसका बोझ उठा कर उसके सिर पर रख दिया।

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