बृहस्पति कवच – Brihaspati Kavacham
बृहस्पति कवच अमोघ शक्ति-संपन्न स्तोत्र है। इसका नियमित पाठ देवगुरु बृहस्पति को प्रसन्न करने वाला माना गया है। महाभारत की कथा के अनुसार देवताओं के गुरु बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र हैं तथा देवों के पुरोहित हैं। यही कारण है कि इन्हें मात्र “गुरु” भी कहा जाता है। इनका एक अन्य नाम बृह्मणस्पति है। प्राचीन वैदिक संहिताओं में इन्हें अनेक सूक्त समर्पित हैं। ज्योतिष शास्त्र में इन्हें धर्म-अध्यात्म और ज्ञान का कारक ग्रह माना जाता है। इस कारण नवग्रहों में इनका विशेष स्थान है। धनु एवं मीन राशियों के स्वामी बृहस्पति देव की दशा का काल १६ वर्ष माना गया है। बृहस्पति कवच स्तोत्र इन्हें शांत करता है तथा जन्म-कुंडली के अनुसार इनके द्वारा दिए जा रहे खराब फलों से रक्षा करता है। पढ़ें बृहस्पति कवच–
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बृहस्पति कवच पढ़ें
अस्य श्रीबृहस्पतिकवचस्तोत्रमंत्रस्य ईश्वरऋषिः।
अनुष्टुप् छंदः। गुरुर्देवता। गं बीजं श्रीशक्तिः।
क्लीं कीलकम्। गुरुपीडोपशमनार्थं जपे विनियोगः ॥
अभीष्टफलदं देवं सर्वज्ञम् सुर पूजितम्।
अक्षमालाधरं शांतं प्रणमामि बृहस्पतिम् ॥१॥
बृहस्पतिः शिरः पातु ललाटं पातु मे गुरुः।
कर्णौ सुरगुरुः पातु नेत्रे मे अभीष्ठदायकः॥२॥
जिह्वां पातु सुराचार्यो नासां मे वेदपारगः।
मुखं मे पातु सर्वज्ञो कंठं मे देवतागुरुः॥३॥
भुजावांगिरसः पातु करौ पातु शुभप्रदः।
स्तनौ मे पातु वागीशः कुक्षिं मे शुभलक्षणः॥४॥
नाभिं केवगुरुः पातु मध्यं पातु सुखप्रदः।
कटिं पातु जगवंद्य ऊरू मे पातु वाक्पतिः॥५॥
जानुजंघे सुराचार्यो पादौ विश्वात्मकस्तथा।
अन्यानि यानि चांगानि रक्षेन्मे सर्वतो गुरुः ॥६॥
इत्येतत्कवचं दिव्यं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः।
सर्वान्कामानवाप्नोति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥७॥
॥ इति श्रीब्रह्मयामलोक्तं बृहस्पतिकवचं संपूर्णम् ॥
॥ ब्रह्मयामल में बृहस्पति कवच संपूर्ण हुआ ॥
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विदेशों में बसे कुछ हिंदू स्वजनों के आग्रह पर बृहस्पति कवच ( Brihaspati Kavacham ) को हम रोमन में भी प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें आशा है कि वे इससे अवश्य लाभान्वित होंगे। पढ़ें बृहस्पति कवच रोमन में–
Read Brihaspati Kavacham
asya śrībṛhaspatikavacastotramaṃtrasya īśvaraṛṣiḥ।
anuṣṭup chaṃdaḥ। gururdevatā। gaṃ bījaṃ śrīśaktiḥ।
klīṃ kīlakam। gurupīḍopaśamanārthaṃ jape viniyogaḥ ॥
abhīṣṭaphaladaṃ devaṃ sarvajñam sura pūjitam।
akṣamālādharaṃ śāṃtaṃ praṇamāmi bṛhaspatim ॥1॥
bṛhaspatiḥ śiraḥ pātu lalāṭaṃ pātu me guruḥ।
karṇau suraguruḥ pātu netre me abhīṣṭhadāyakaḥ ॥2॥
jihvāṃ pātu surācāryo nāsāṃ me vedapāragaḥ।
mukhaṃ me pātu sarvajño kaṃṭhaṃ me devatāguruḥ ॥3॥
bhujāvāṃgirasaḥ pātu karau pātu śubhapradaḥ।
stanau me pātu vāgīśaḥ kukṣiṃ me śubhalakṣaṇaḥ ॥4॥
nābhiṃ kevaguruḥ pātu madhyaṃ pātu sukhapradaḥ।
kaṭiṃ pātu jagavaṃdya ūrū me pātu vākpatiḥ ॥5॥
jānujaṃghe surācāryo pādau viśvātmakastathā।
anyāni yāni cāṃgāni rakṣenme sarvato guruḥ ॥6॥
ityetatkavacaṃ divyaṃ trisaṃdhyaṃ yaḥ paṭhennaraḥ।
sarvānkāmānavāpnoti sarvatra vijayī bhavet ॥7॥
॥ iti śrībrahmayāmaloktaṃ bṛhaspatikavacaṃ saṃpūrṇam ॥
॥ brahmayāmala meṃ bṛhaspati kavaca saṃpūrṇa huā ॥