FEATURED

चाणक्य के कड़वे वचन – Chanakya Ke Kadve Vachan

चाणक्य के कड़वे वचन जो यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं, चाणक्य नीति दर्पण से लिए गए हैं। सुनने में ये रूखे जरूर लगते हैं, लेकिन हैं बहुत सारगर्भित।

यदि आप जीवन में सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ना चाहते हैं, तो चाणक्य के कड़वे वचन (Chanakya Ke Kadve Vachan) आपको अवश्य मार्ग दिखाएंगे। लेकिन हाँ, ज़रूरत है तो बस एक चीज की–इन कटु उक्तियों को सकारात्मकता से लेने की और इन्हें अपने जीवन में ढालने की। पढ़ें आचार्य चाणक्य के कड़वे वचन–

चाणक्य नीति के प्रथम अध्याय से कड़वे वचन

यहाँ हम चाणक्य के कड़वे वचन–जो चाणक्य नीति के पहले अध्याय में आए हैं–उनकी चर्चा कर रहे हैं। पहला अध्याय हमेशा ही महत्वपूर्ण होता है। इसलिए इन कड़वे वचनों का महत्व और भी बढ़ जाता है।

दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥

भावार्थ – जिसकी स्त्री दुष्टा हो, मित्र नीच स्वभाव के हों, नौकर जवाब देने वाले हों और जिस घर में साँप रहता हो, ऐसे घर में रहने वाला व्यक्ति निश्चय ही मृत्यु के निकट रहता है अर्थात् ऐसे व्यक्ति की मृत्यु किसी भी समय हो सकती।

व्याख्या – आचार्य चाणक्य यहाँ कटु, लेकिन बहुत ही व्यावहारिक बात कह रहे हैं। यदि आपका जीवनसाथी, मित्र और नौकर आपके प्रति पूरी तरह ईमानदार नहीं हैं, तो आपके जीवन पर खतरा मंडरा रहा है। मोनियर विलियम्स के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोश के अनुसार “शठ” का अर्थ है झूठा (false), कपटी (deceitful), छलिया (fraudulent), घातक (malignant) और दुष्ट (wicked)।

अगर आप जाने-अनजाने ऐसे लोगों पर भरोसा करते हैं जो मिथ्याभाषी और कपटी आदि हैं व वे आपके निकटस्थ भी हैं, आपके करीबी हैं, तो निश्चित ही आप अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। इसलिए अपनी आँखें खोल कर रखिए और पहचानिए कि आपका जीवनसाथी, मित्र या मातहत उपर्युक्त दुर्गुणों से ग्रस्त तो नहीं है। यदि आप इनमें से किसी को भी ऐसा पाते हैं, तो तुरंत उनसे छुटकारा पाने में ही आपकी भलाई है। चाणक्य के इस कड़वे वचन को गाँठ बांध लीजिए।

अपनी आँखें खोलकर रखिए। पहचानिए कि कहीं आपका जीवनसाथी, मित्र या मातहत “शठ” तो नहीं है।

नखीनां च नदीनां च शृङ्गीणां शस्त्रपाणिनाम्।
विश्वासो नैव कर्त्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च॥

भावार्थ – नाखून वाले हिंसक पशुओं, नदियों, सींग वाले पशुओं, शस्त्रधारियों, स्त्रियों एवं राजकुलों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।

व्याख्या चाणक्य के कड़वे वचन कई बार चुभते जरूर हैं, लेकिन होते खरे हैं। कुछ बातें सभी समझते हैं – हिंसक पशु अगर शांत बैठा भी दिखे, तो उससे दूर रहना ही भला। चाहे आप कितने बड़े तैराक क्यों न हो, अनजान नदी में नहीं कूदना चाहिए। लेकिन कुछ बातें उतनी सहज नहीं हैं, मसलन शस्त्रधारियों से दूर रहना चाहिए। मन वैसे ही चंचल है। बड़े-से-बड़े योगी भी मन को वश करने की लगातार कोशिश करते रहते हैं। वे भी दावा नहीं कर सकते कि उनका मन पर पूरा बस है। ऐसे में अगर किसी के पास शस्त्र है और उसका मन चलायमान हो जाए, तो जान पर बन आना स्वाभाविक है। इसलिए शस्त्रधारियों से जितना दूर रहा जाए, उतना बेहतर है।

अब बात आती है स्त्रियों पर भरोसा न करने की। चाणक्य नीति में स्त्रियों को लेकर कई जगह ऐसी बातें कही गई हैं जो आज के दौर में जँचती नहीं हैं। लेकिन गहराई से देखेंगे तो आप पाएंगे कि इन बातों का वह मतलब नहीं, जो आम तौर पर समझा जाता है। प्राचीन नीति ग्रंथों में अक्सर ऐसा देखा जाता है।

प्रायः ये पुस्तकें पुरुषों को संबोधित करके लिखी गई हैं, इसलिए विपरीत लिंग के लोगों के लिए सहज ही “स्त्री” शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसका कारण यह है कि उस समय अधिकांशतः पुरुष ही नीति या राजनीति आदि में ज्यादा सक्रिय हुआ करते थे। साथ ही नीति का दायरा भी अब बढ़कर जीवन के हर क्षेत्र को छू रहा है। लेकिन आज समय बदल चुका है। स्त्रियाँ हर क्षेत्र में पुरुषों के कंधे-से-कंधा मिलाकर चल रही हैं। इसलिए जब इन पुस्तकों में “स्त्री” कहा जाता है तो उसे विपरीत लिंगी व्यक्ति समझना अधिक युक्ति-युक्त है। यदि यह ग्रंथ कोई स्त्री पढ़ रही है तो “स्त्री” की जगह पुरुष, “पत्नी” की जगह “पति” आदि समझा जाना चाहिए।

अब आते हैं इस बात पर कि स्त्रियों अर्थात् विपरीत लिंग के व्यक्तियों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। मनोविज्ञान के अनुसार विपरीत लिंग के व्यक्ति के प्रति एक सहज आकर्षण होता है। आम तौर पर बड़े-बड़े व्यक्ति भी इससे अछूते नहीं रहते। कई बार यह आकर्षण बहुत तीव्र हो जाता है, जिससे बुद्धि भ्रमित हो जाती है व विवेक नष्ट हो जाता है। ऐसे में सही-गलत की समझ खत्म हो जाती है। इसलिए विपरीत लिंगी व्यक्ति के प्रति अनायास ही विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। अपनी बुद्धि की कसौटी पर उसे भी अवश्य कसना चाहिए। यही आचार्य चाणक्य का मत है।

चाणक्य के कड़वे वचन राजकुल को भी अपने दायरे में लेते हैं। राजकुल अर्थात वे लोग जिनके पास बहुत शक्ति है, जिसे आज-कल ‘पावर’ कहा जाता है। यह बड़ी ही नशीली वस्तु है। ऐसे लोग अपनी शक्ति या सत्ता को बनाए रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। इसलिए इन ताकतवर लोगों पर भी बहुत सोच-समझ कर ही यकीन करना चाहिए। नहीं तो लेने-के-देने पड़ सकते हैं।

यदि चाणक्य नीति कोई महिला पढ़ रही है तो उसे “स्त्री” की जगह “पुरुष”, “पत्नी” की जगह “पति” आदि समझा जाना चाहिए।

चाणक्य के कड़वे वचन – द्वितीय अध्याय

अब बात करते हैं चाणक्य नीति के दूसरे अध्याय से उन उक्तियों की, जो कड़वी लेकिन सत्य हैं।

न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चाऽपि न विश्वसेत्।
कदाचित् कुपितं मित्रं सर्व गुह्यं प्रकाशयेत्॥

भावार्थ – कुमित्र पर तो कभी विश्वास करे ही नहीं, अच्छे दोस्त पर भी कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। क्योंकि सुमित्र भी कभी क्रोधित होकर गुप्त भेद दूसरों के सामने प्रकट कर देता है।

व्याख्या – इंसान अगर मारा जाता है, धोखा खाता है तो अजनबी से नहीं, बल्कि किसी अपने से – दोस्त से। खराब मित्र तो विश्वास के काबिल ही नहीं, इसीलिए वे खराब हैं। उन्हें अपने राज़ बताना स्वयं अपने को कठिनाई में डालने के समान है। लेकिन उपर्युक्त श्लोक में विशेष बात यह है कि आचार्य चाणक्य के अनुसार मित्र पर, अच्छे दोस्त पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए। क्योंकि वह क्षणिक क्रोध में भी है और उसके पास आपके भेद हैं, तो गुस्से के उन क्षणों में आपके भेद सुरक्षित नहीं हैं।

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥

भावार्थ – ऐसे माँ-बाप अपनी संतान के दुश्मन हैं जो उन्हें शिक्षित नहीं करते। अशिक्षित व्यक्ति बुद्धिमानों की सभा में उसी तरह सम्मान नहीं पाता जिस प्रकार हंसों के झुण्ड में बगुला।

व्याख्या – उपनिषदों के अनुसार माता-पिता देव-रूप हैं। लेकिन यदि वे अविवेकी हैं, तो देव दानव में परिणत हो सकता है। माँ-बाप हमेशा ही बच्चों के लिए अच्छे नहीं होते हैं। यदि कोई माँ-बाप अपने बच्चों को उपयुक्त शिक्षा-दीक्षा नहीं देते हैं, तो वे उनका जीवन चौपट कर देते हैं। अशिक्षित संतान न तो प्रगति कर पाती है और न ही उसका कहीं सम्मान होता है। बात कड़वी है? है तो सही, लेकिन है सच्ची।

ऐसे माँ-बाप अपनी संतान के दुश्मन हैं जो उन्हें शिक्षित नहीं करते।

आचार्य चाणक्य

लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत्॥

भावार्थ – प्यार-दुलार से बेटे और शिष्य में बहुत से दोष पैदा हो जाते हैं, जबकि ताड़ना (डाँट-फटकार) से उनका विकास होता है। अतः संतति और शिष्यों को डाँटते रहना चाहिए।

व्याख्या – संतान और शिष्य से प्यार करना जरूरी है, लेकिन ज्यादा लाड़-प्यार से बिगड़ना भी स्वाभाविक ही है। इसलिए आवश्यक है कि यदि संतान या शिष्य को गलत रास्ते पर जाते हुए देखें, तो सही रास्ते पर लाने के लिए डाँट-डपट भी उपयोगी है। किसी को फटकार अच्छी नहीं लगती, स्वाभाविक ही है। किंतु हर चीज का अपना महत्व है। किस चीज को कहाँ इस्तेमाल करना है, इसकी समझ भी बहुत जरूरी है। ऐसे में डाँट-फटकार का अपना महत्व है। इसे अनदेखा नहीं करना चाहिए।

तीखी, लेकिन काम की बातें

आइए, अब चलते हैं तीसरे अध्याय पर और जानते हैं वे कौन-सी तीखी लेकिन काम की बातें हैं, जो इस अध्याय में हमें पढ़ने को मिलती हैं।

अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेण रावणः।
अतिदानात् वलिबद्धो अति सर्वत्र वर्जयेत्॥

भावार्थ – अधिक सुन्दरता ही सीता के अपहरण का कारण हुआ, अधिक गर्व से ही रावण मारा गया, अधिक दान के कारण राजा बलि बन्धन को प्राप्त हुए। इसलिए “अति” का त्याग कर देना चाहिए।

व्याख्या – यह मानवीय स्वभाव है कि जब कोई वस्तु या गुण हमें आकर्षित करता है, तो बहुत अधिक करता है। जरूरत से ज्यादा करता है। हम उसे पाने के लिए बाकी सब कुछ भूलने को तैयार हो जाते हैं। उसके लिए हम सब छोड़ने को उद्यत हो जाते हैं। लेकिन इस श्लोक में “अति” से दूर रहने का संदेश कौटिल्य हमें दे रहे हैं। चाहे “अति” में कितनी ही मधुरता क्यों न हो, कितना ही नशा क्यों न हो, कितना ही खिंचाव क्यों न हो – उससे बचकर रहने में ही भलाई है।

चाहे “अति” में कितनी ही मधुरता क्यों न हो, कितना ही नशा क्यों न हो, कितना ही खिंचाव क्यों न हो – उससे बचकर रहने में ही भलाई है।

उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे।
असाधुजनसम्पर्के यः पलायति सः जीवति॥

भावार्थ – आग लगने, बाढ़ आने, सूखा पड़ने, उल्कापात, अकाल, आतताइयों द्वारा हमला और ख़राब संगति–इन हालात में जो व्यक्ति प्रभावित जगह से भाग निकलता है, वही जीवित रहता है।

व्याख्या – यूँ तो डटे रहने में महानता है। टिके रहने में वीरता है। जो पीछे हट जाए उसे तरह-तरह की बातें सुनाई जाती हैं। लेकिन परिस्थिति के अनुसार तौलने में हर्ज नहीं कि तथाकथित वीरता दिखाने की जरूरत है या जीवन बचाने की। उपर्युक्त हालात में जीवन रक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए और अहम् को दरकिनार कर जिन्दगी बचाने के लिए भाग निकलना चाहिए। यही नीति शास्त्र का कथन है।

चुभेंगी ये बातें

चाणक्य चौथे अध्याय में कुछ ऐसी बातें कहते हैं, जो बहुत चुभती हैं। लेकिन कोई गौर करे तो पाएगा कि इनमें व्यावहारिक ज्ञान छुपा हुआ है।

मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि तस्माज्जातमृतो वसः।
मृतः स चाऽल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत्॥

भावार्थ – लंबी उम्र का मूर्ख पुत्र की अपेक्षा पैदा होते ही मर जाने वाला पुत्र बेहतर है। क्योंकि पैदा होते ही मर जाने वाला पुत्र तो थोड़े समय के लिए दुःखदायी होता है, लेकिन मूर्ख जब तक जीवित रहता है तब तक दुःख देता रहता है।

व्याख्या – मूर्खता से खराब इस संसार में कोई चीज नहीं है, मौत भी नहीं। संतान से हर कोई प्यार करता है, लेकिन आत्मसम्मान उससे भी ज्यादा प्रिय होता है। मूर्ख संतान अपने कृत्यों से आत्मसम्मान को भी लहू-लुहान कर सकती है। इस दृष्टि से आचार्य चाणक्य बहुत ही चुभीली बात कहते हैं। लेकिन बात है गंभीर।

त्यजेद्धर्मं दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्।
त्यजेत्क्रोधमुखीं भार्यां निःस्नेहान् बान्धवांस्त्यजेत्॥

भावार्थ – दयारहित धर्म को छोड़ देना चाहिए। विद्या से हीन गुरु का त्याग कर देना चाहिए। हमेशा क्रोध करने वाली पत्नी का त्याग कर देना चाहिए। स्नेह से हीन बन्धु-बान्धवों को भी त्याग देना चाहिए।

व्याख्या – कुछ लोगों से और कार्यों से सहज प्रीति होती है, जैसे कि गुरु, पति व पत्नी आदि। फिर भी यह समझना जरूरी है कि प्रीति और आसक्ति दो भिन्न चीजें हैं। स्नेह जब अंधा हो जाए, तो आसक्ति में परिवर्तित हो जाता है। अतः स्नेह अपनी जगह है, लेकिन सजग बुद्धि का अपना महत्व है। यही बुद्धि हमें बताती है कि कब किससे अलग होने का समय आ गया है। बिना करुणा का धर्म त्यागने योग्य है। वह गुरु भला क्या सिखा सकता है जो स्वयं ही विद्याहीन हो? कुछ नहीं। क्रोधी जीवनसाथी जीवन को नष्ट कर देता है। कहते हैं कि अगर आपने अच्छा जीवनसाथी पा लिया, तो आप पचास फ़ीसदी वैसे ही भाग्यशाली हैं। वैसे ही यदि वह गुस्सैल है, तो जिंदगी बर्बाद समझिए। फिर अटके रहने से क्या फायदा? यही हैं स्नेह और आसक्ति को लेकर चाणक्य के कड़वे वचन।

स्नेह जब अंधा हो जाए, तो आसक्ति में परिवर्तित हो जाता है।

रूखी, किंतु उपयोगी बातें

अब देखते हैं चाणक्य नीति के पाँचवे अध्याय में क्या हैं सुनने में रूखी, किंतु जीवन में उपयोगी बातें–

जन्ममृत्यु हि यात्येको भुनक्त्येकः शुभाऽशुभम्।
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम्॥

भावार्थ – मनुष्य अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही स्वयं मृत्यु को प्राप्त होता है। मनुष्य शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य के फल को भी अकेला ही भोगता है। अकेला ही तरह-तरह के कष्टों को भोगता है और अकेला ही मुक्ति प्राप्त करता है।

व्याख्या – आचार्य चाणक्य के अनुसार इहलोक और परलोक में कोई भी आपकी सहायता नहीं कर सकता है। आपको यदि आगे बढ़ना है, तो आपका एक ही मददगार है–स्वयं आप। हमें लगता जरूर है कि कोई और हमारी मदद कर सकता है, विशेषतः कठिन समय में। लेकिन वास्तविकता यह है कि न आज तक किसी ने आपकी सहायता की है और न ही कोई आगे करेगा। इसलिए अपनी लड़ाई लड़ने के लिए खुद ही तैयार रहना चाहिए। दूसरे लोग कभी-कभी थोड़ा काम आ जरूर सकते हैं, लेकिन ज्यादा सहायक साबित नहीं हो सकते। तो संसार में सफलता के लिए और जन्म-मरण के चक्र से परे जाने के लिए स्वयं ही चेष्टा करना, उद्योग करना, आत्मविश्वास रखना अनिवार्य है।

आपको यदि आगे बढ़ना है, तो आपका एक ही मददगार है–स्वयं आप।

अब नज़र डालते हैं कि छठे अध्याय में चाणक्य के कड़वे वचन क्या हैं–

वरं न राज्यं न कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदाराः॥

भावार्थ – दुष्ट राजा के राज्य में रहने से श्रेष्ठ है कि राज्यविहीन होकर रहा जाए। ख़राब मित्रों से बेहतर है मित्रता के बिना ही रहा जाए। अयोग्य शिष्यों की अपेक्षा शिष्यों का न होना अच्छा है। ख़राब पत्नी होने से बिना पत्नी के रहना ही उत्तम है।

व्याख्या – हम हमेशा दोषारोपण कर खुद को बचाने की कोशिश करते हैं। फिर भी याद रखना चाहिए कि सबके पास एक अंतिम विकल्प हमेशा रहता है–स्वयं को अलग कर लेने का विकल्प। इस विकल्प का चुनाव संघर्ष मांगता है, ख़तरा मोल लेने की क्षमता मांगता है और साहस मांगता है। छोड़ने के लिए यथास्थितिवाद को त्यागना पड़ेगा। इसलिए यदि अन्य कोई रास्ता न बसे, तो उस वस्तु या व्यक्ति को त्यागना ही श्रेष्ठ है।

आइए, अब दृष्टिपात करते हैं अध्याय 7 के कुछ ऐसे श्लोकों पर–

हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताड्यते।
शृंगीलकुटहस्तेन खड्गहस्तेन दुर्जनः॥

भावार्थ – हाथी अंकुश से, घोड़ा चाबुक से, बैल आदि सींग वाले जानवर डण्डे से बस में रहते हैं, लेकिन बुरे लोगों को बस में करने के लिए तो कई बार तलवार ही हाथ में लेनी पड़ती है।

व्याख्या – शस्त्र और शास्त्र दोनों ही आवश्यक हैं। भारत के पराभूत होने का एक कारण यह भी है कि हमने शास्त्र को तो बहुत अधिक महत्व दिया, लेकिन शस्त्र बिल्कुल ही छोड़ दिए। कहते भी तो हैं कि “शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रचर्चा प्रवर्तते” अर्थात् शस्त्र से रक्षित राष्ट्र में शास्त्र-चर्चा होती है। बाहुबल के अभाव में मनोबल पराभूत हो ही जाता है। बहुत से लोग शान्ति और अध्यात्म को न समझते हैं, न ही समझ सकते हैं। ऐसे में या तो स्वयं दुर्जनों के हाथों दलन को स्वीकार करें या मारे जाएँ अथवा तेजस्विता का वरण करें और खड्ग से धर्म की रक्षा करें। हाँ, यह सदैव ध्यान में रहे कि खड्ग का उपयोग धर्म व राष्ट्र की रक्षा के लिए हो, न कि निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए। अतः प्रत्येक व्यक्ति को मनोबल और विद्याबल के साथ बाहुबल को बढ़ाने पर भी विचार करना चाहिए।

“शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रचर्चा प्रवर्तते” अर्थात् शस्त्र से रक्षित राष्ट्र में शास्त्र-चर्चा होती है।

अब देखते हैं कि चाणक्य नीति का अष्टम अध्याय क्या कहता है–

चाण्डालानां सहस्रैश्च सूरिभिस्तत्वदर्शिभिः।
एको हि यवनः प्रोक्तो न नीचो यवनात्परः॥

भावार्थ – कहा गया है कि हज़ारों चाण्डालों के बराबर एक यवन यानी मलेच्छ – धर्म-विरोधी व्यक्ति होता है। इससे अधिक कोई अन्य नीच नहीं होता।

व्याख्या – यहाँ धर्म का अर्थ मज़हब नहीं लेना चाहिए, जो आज-कल प्रचलित है। धर्म वह है जिसे धारण किया जाता है और जो आपको धारण करता है। वह आपका प्राकृत् कर्म है। वह जीवन को दिशा देने वाले नियमों का संग्रह है। धर्म वह है जो ऋत् हो अर्थात् ठीक या उचित हो। कहा भी गया है–

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥

अर्थात् जो धर्म के नाश की चेष्टा करता है, धर्म उसका नाश कर देता है। जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। इसलिए धर्म को नष्ट करने की चेष्टा कभी नहीं करनी चाहिए, जिससे हत हुआ धर्म हमें नष्ट न करे। धर्मरक्षा हम सभी का कर्त्तव्य है। धर्म के विरोध में चाहे कोई भी व्यक्ति क्यों न हो–अपना या पराया–उसे धर्म को हानि पहुँचाने नहीं देना चाहिए। नहीं तो धर्म की हानि स्वयं के अस्तित्व को समाप्त करने के लिए पर्याप्त है। इस बात का सदैव स्मरण रखना चाहिए।

आइए, दृष्टिपात करते हैं नवम अध्याय पर–

निर्विषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा।
विषमस्तु न वाप्यस्तु घटाटोपो भयंकरः॥

भावार्थ – विषहीन साँप को भी अपना फन फैलाना चाहिए। दिखावा भी अत्यन्त आवश्यक होता है।

व्याख्या – आप उतने ही शक्तिशाली होते हैं, जितना कि दूसरे आपको समझते हैं। इससे मतलब नहीं है कि आपके पास कितनी शक्ति है। मतलब है तो इस बात से कि अन्य और विशेषतः आपके विरोधी आपको कितना शक्तिसंपन्न मानते हैं। संभव है कि आपके हृदय में अहिंसा का आदर्श हो और होना भी चाहिए। लेकिन हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि आपके विरोधी इसे आपकी निर्बलता तो नहीं मान रहे। जिस क्षण वे मानेंगे कि आप कमज़ोर हैं, वे आपको कुचलने का पूरा प्रयास करेंगे। अतः प्रदर्शन भी कई बार आवश्यक होता है।

आप उतने ही शक्तिशाली होते हैं, जितना कि दूसरे आपको समझते हैं।

आइए, अब चलते हैं दसवें अध्याय की तरफ–

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुविः भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥

भावार्थ – जिनके पास न विद्या है, न तप है, न दानशीलता है, न चरित्र में शील है, न गुण है, न धर्म है–वे भूमि पर भाररूप पशु ही हैं, जो मनुष्य के रूप में विचरण करते हैं।

व्याख्या – आचार्य चाणक्य तीखे लहज़े में बताते हैं कि मनुष्य के रूप में जानवर कौन हैं। साथ ही किस तरह मनुष्य को पशु बनने से बचना चाहिए। यदि इंसान को जानवर होने से बचना है तो उसे विद्यावान होना ही चाहिए–सदैव सीखने की ललक उसमें बनी रहनी चाहिए। उसे तपशील होना चाहिए–श्रम के प्रति आस्था होनी चाहिए। उसे मेहनत से जी नहीं चुराना चाहिए। शीलवान होना चाहिए। मनुष्य को गुणग्राही होना चाहिए। स्वयं में सदैव सद्गुण विकसित करने का यत्न करते रहना चाहिए। प्रत्येक को वास्तविक मनुष्यत्व प्राप्ति के लिए धर्म पर स्थिर रहना चाहिए। धर्म माने जो ठीक है, जो सही है, जो उचित है। इन गुणों की जिनमें आभा है, वे ही मनुष्य हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि शेष तो निरे पशु ही हैं।

देखते हैं ग्यारहवें अध्याय में क्या हैं चाणक्य के कड़वे वचन (Chanakya Ke Kadve Vachan)–

न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहु प्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तं पयसा घृतेन न निम्बवृ़क्षोः मधुरत्वमेति॥

भावार्थ – अनेक तरह से समझाए और सिखाए जाने पर भी दुष्ट व्यक्ति अभद्रता को नहीं छोड़ता, जिस प्रकार नीम का वृक्ष दूध और घी से सींचे जाने पर भी मधुरता को प्राप्त नहीं होता।

व्याख्या – किसी का भी स्वभाव बदलना बहुत मुश्किल है। यह काम लगभग असंभव की श्रेणी का है। ऐसा नहीं कि स्वभाव कभी बदलता ही नहीं, लेकिन लाखों में से एक बार ऐसा होता है। अपवाद नियम को ही पुष्ट करता है। अतः दुर्जनों से सदैव सावधान रहना चाहिए, चाहे वे कितना ही भरोसा दिलाने की कोशिश करें कि वे बदल गए हैं, उनका दिल साफ़ हो गया है, अब वे ग़लत नहीं करेंगे आदि आदि। उनका कड़वापन इतनी आसानी से समाप्त नहीं होता है। जहाँ आपने थोड़ा-सा भी विश्वास किया, थोड़ी-सी ढील दी, वहीं आपकी पतंग उन दुर्जनों द्वारा काट दी जाएगी।

अब क़दम बढ़ाते हैं बारहवें अध्याय की ओर–

हस्तौ दानवर्जितौ श्रुतिपुटौ सारस्वतद्रोहिणी
नेत्रे साधुविलोकरहिते पादौ न तीर्थं गतौ।
अन्यायार्जितवित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुंगं शिरौ
रे रे जम्बुक मुञ्च-मुञ्च सहसा नीचं सुनिन्द्यं वपुः॥

भावार्थ – जिसने जीवन में कभी दान नहीं दिया, जिसके कानों ने कभी वेद मंत्रों को नहीं सुना, जिसने आँखों से साधुओं के दर्शन नहीं किए, पैरों से तीर्थ यात्राएँ नहीं की, अन्याय से अर्जित धन से जिसका पेट भरा है और सर गर्व से ऊँचा उठा हुआ है – रे रे सियार जैसे नीच मनुष्य, ऐसे नीच और निन्दनीय शरीर को जल्दी छोड़ दे।

व्याख्या – दान देना धर्म का सबसे बड़ा साधन है। गृहस्थ का दान न केवल समाज के संन्यासी आदि वर्गों को पोषण देता है, बल्कि स्वयं की धनादि में आसक्ति को भी कम करता है। वेद स्वयं ईश्वर की वाणी है। प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि इहलोक में उन्नति व परलोक में सद्गति प्राप्त करने के लिए वेद पढ़े व उनका नित्य श्रवण करे। वेदाध्ययन ही जीवन को सही दशा-दिशा दे सकता है।

दान और वेदाध्ययन आदि की कामना भी चित्त में तभी पैदा होती है, जब हृदय निर्मल होता है। हृदय को निर्मल बनाने का सबसे सुगम साधन है सत्संग। आज-कल लोग इसका अर्थ बड़े-बड़े कार्यक्रमों में बैठकर किसी बाबाजी को सुनना समझते हैं। उसका भी अपना महत्व है। लेकिन सत्संग का अर्थ है सज्जनों से नैकट्य, उनकी संगति, ऐसे लोगों के क़रीब रहना जो अन्तःकरण में सत् को धारण किए हुए हैं। ऐसे लोगों का सामीप्य स्वयमेव ही हृदय को निर्विकार कर देता है। तीर्थ का भी बड़ा महत्व है। जहाँ संतों ने साधना की हो, ऐसे स्थान का वातावरण आध्यात्मिकता से भर जाता है। जिस तरह सत्संग तुरतफलदायी है, वैसे ही यथार्थ तीर्थ पर की गयी साधना भी तीव्रता से फल देती है।

इन सबके अभाव में शरीर व्यर्थ है। अन्याय से अर्जित धन तन और कुल का नाश कर ही देता है। अहंकार भी महापातकी है, जो स्वयं साक्षात् द्वैतबुद्धि का कारण है। उपर्युक्त दान, सत्संग आदि कर्मों के अभाव में मनुष्य सियार की तरह है।

आइए, देखते हैं तेरहवें अध्याय की कुछ कड़वी बातें–

यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्।
स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत्सुखम्॥

भावार्थ – जिससे स्नेह होता है, उसी का डर भी लगा रहता है। स्नेह ही दुख का आधार है। स्नेह ही दुख का मूल है। स्नेह को त्यागकर ही व्यक्ति सुख से रह सकता है।

व्याख्या – भय का एक ही कारण है, वह है आसक्ति। जहाँ आसक्ति है, वहाँ भय होगा ही। आचार्य चाणक्य के अनुसार दुःख का आधार ही आसक्ति है। फिर सुख पाने का क्या रास्ता है? अनासक्त ही दुःख का त्याग कर सकता है। अनासक्ति का अर्थ यह नहीं जड़ की तरह होकर सभी संबंध छोड़ दिए जाएँ और व्यक्ति भावहीन हो जाए। अनासक्ति का अर्थ है सभी स्वार्थों को छोड़कर धर्म और परहित के लिए कार्य किया जाए। यह आदर्श है, जो निश्चय ही बहुत दूर जान पड़ता है। ऐसी अनासक्ति पाना एक दिन का कार्य नहीं है। लेकिन इसे स्मरण रखते हुए जीवन में धीरे-धीरे विकसित करने का प्रयास ही दुःखों से परे ले जाता है।

जीवन में धीरे-धीरे अनासक्ति विकसित करने का प्रयास ही दुःखों से परे ले जाता है।

अब नज़र डालते हैं कि चौदहवें अध्याय में कौटिल्य के कौन-से कड़वे कथन हैं–

आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।
दारिद्र्यरोग दुःखानि बन्धनव्यसनानिच॥

भावार्थ – दरिद्रता, शारीरिक और मानसिक व्याधि, दुख और बंधन तथा विपत्तियाँ ये सब व्यक्ति के अपने पापरूप वृक्ष के फल हैं।

व्याख्या – प्राचीन काल से ही हमारे यहाँ कर्मफल का सिद्धांत मान्य है। जैसा कर्म होगा, वैसा फल मिलेगा ही मिलेगा। यह पुण्य कर्म के जाएँ, तो अच्छा परिणाम प्राप्त होगा। यदि व्यक्ति पाप कर्म करे, तो दुःख, दारिद्र्य और रोग मिलना स्वाभाविक ही है। अतः बुरे परिणामों से बचने के लिए पाप-रूपी वृक्ष को काट देना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है।

आइए, अब चलते हैं अध्याय 15 की ओर–

खलानां कण्टकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया।
उपानामुखभंगो वा दूरतैव विसर्जनम्॥

भावार्थ – दुष्टों और कांटों को दूर करने के दो ही उपाय हैं – या तो जूतों से उनका मुंह कुचल दिया जाए अथवा दूर से ही उन्हें त्याग दें।

व्याख्या – दुर्जनों से बचने के दो मार्ग आचार्य चाणक्य यहाँ बता रहे हैं। पहला तरीक़ा तो यह है कि बल का उपयोग किया जाए। दुष्ट लोगों को बल से पराभूत कर दिया जाए। दुष्ट लोग आपको व आपके अपनों को हानि पहुँचाए बिना नहीं रहते हैं। वे राष्ट्र व समाज के लिए भी घातक हैं। ऐसे में उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है। अतः उन्हें कुचल देना ही उपाय है। किंतु ऐसे में क्या किया जाए जब आप इतने शक्तिशाली न हों कि उन्हें पराजित कर सकें। ऐसे में मात्र एक ही उपाय शेष रहता है। वह उपाय है उनसे दूर रहना। यदि उनकी दृष्टि आपके ऊपर पड़ी, तो अनिष्ट निश्चित ही है। फिर कुछ नहीं किया जा सकता। इसलिए उनका दमन करने की शक्ति के अभाव में उनकी नज़र में आने से बचना ही बुद्धिमानी है।

दुष्टों और कांटों को दूर करने के दो ही उपाय हैं – या तो जूतों से उनका मुंह कुचल दिया जाए या दूर से ही उन्हें त्याग दें।

आइए, नजर डालते हैं चाणक्य नीति दर्पण के अध्याय 16 पर–

न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरंगी।
तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥

भावार्थ – स्वर्ण का मृग (हिरन) न तो किसी के द्वारा निर्मित हुआ, न पहले कभी देखा गया और न किसी से सुना ही गया। फिर भी श्री रामचन्द्र जी की कामना उसे पाने की हुई। ठीक ही है, विनाश का समय आने पर मनुष्य की बुद्धि उल्टी हो जाती है।

व्याख्या – जब ख़राब समय आता है, तो बुद्धि उल्टी चलने लगती है। व्यक्ति हर तरह की ग़लतियाँ करने लगता है। उसका विवेक उसका साथ छोड़ने लगता है। यहाँ आचार्य चाणक्य रामायण से भगवान् श्रीराम का उदाहरण देते हैं। सोने का हिरन न तो होता है और न ही किसी ने आज तक देखा है। फिर भी ख़राब समय के कारण ही श्रीराम ने ऐसी बात पर विश्वास किया और मृग-रूपी राक्षस के पीछे गए। यदि वे ऐसा न करते, तो न ही माता सीता का हरण होता और न ही भीषण युद्ध होता।

अब चलते हैं अंतिम अध्याय 17 की तरफ़–

अशक्तस्तुभवेत्साधुर्ब्रह्मचारी च निर्धनः।
व्याधिष्ठो देवभक्तश्च वृद्धा नारी पतिव्रता॥

भावार्थ – शक्ति (पौरुष) हीन व्यक्ति ब्रह्मचारी बन जाता है। निर्धन और आजीविका कमाने में अयोग्य व्यक्ति संन्यासी बन जाता है। असाध्य रोगों से ग्रस्त व्यक्ति देवों का उपासक बन जाता है। वृद्ध स्त्री पतिव्रता बन जाती है।

व्याख्या – दुनिया में लोग अपनी कमज़ोरियों को ढँकने के लिए उनपर कुछ-न-कुछ मुलम्मा चढ़ा लिया करते हैं। प्रायः देखा गया है कि जो व्यक्ति स्त्रियों को आकृष्ट नहीं कर सकता, वह ब्रह्मचारी होने का ढोंग रचने लगता है। बहुत-से लोग जो धनार्जन नहीं कर सकते या उसके लिए उद्योग नहीं करना चाहते, वे संन्यासी का भेष धरकर यत्र-तत्र घूमते रहते हैं। जो रोगी है, वह तपस्वी होने का नाटक करने लगता है। जिस स्त्री के प्रति वृद्धावस्था के कारण कोई आकृष्ट नहीं होता, वह पतिव्रता होने का ढोंग करने लगती है। ऐसा नहीं है कि सच्चे ब्रह्मचारी, संन्यासी, साधक व पतिव्रता स्त्रियाँ नहीं होते। लेकिन उनसे कई ज़्यादा ढोंग करने वाले होते हैं। बुद्धिमान वह है जो ढोंग को पहचानता हो।

महाराज चन्द्रगुप्त काल के आचार्य चाणक्य और उनके द्वारा रचित कड़वे वचन जगत प्रसिद्द हैं। इन्हें लोग कौटिल्य के नाम से भी जानते हैं। वे चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री और गुरु थे। उन्होंने महाराज के अखंड भारत के सम्राट बनने में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आचार्य चाणक्य ने प्रजा का मार्गदर्शन करने के लिए एक नीति शास्त्र की रचना की थी, जिसे हम चाणक्य नीति के नाम से जानते हैं। चाणक्य के कड़वे वचन इसी नीतिशास्त्र का हिस्सा है। इनके द्वारा रचित कड़वे वचन आज भी लोगों के लिए प्रेरणा का उत्तम स्रोत है। सुनने और पढ़ने में शायद ये अच्छे ना लगते हों और कानों को चुभ भी सकते हैं, परन्तु ये अत्यंत मीठे फल देने वाले होते हैं। जो भी व्यक्ति इन्हें पढ़कर अपने जीवन में समाहित करता है, उसके जीवन को एक नई दिशा अवश्य मिलती है। जीवन की किसी भी कसौटी में चाणक्य नीति और उसमें उल्लेखित कड़वे वचन एकदम सटीक बैठते हैं। हर व्यक्ति को हिंदीपथ के माध्यम से चाणक्य के कड़वे वचन को पढ़कर, अपने जीवन में समाहित करना चाहिए। 

आइये जानते हैं जीवन की विविध परिस्थितियों में चाणक्य के विचार

चाणक्य के कड़वे वचन 

  • हर मित्रता के पीछे कोई स्वार्थ ज़रूर होता है- यह कड़वा सच है। 
  • संसार में न कोई किसी का मित्र न शत्रु होता है,  स्वयं के विचार ही इसके लिए उत्तरदायी है। 
  • जब बुरा समय आता है तो मनुष्य की बुद्धि भी काम नहीं करती है।
  • जो अपने धर्म, कर्म को नहीं पहचानता, वह अंधा है। 
  • किसी भी व्यक्ति को बहुत अधिक ईमानदार नहीं होना चाहिए, सीधे वृक्ष और व्यक्ति पहले काटे जाते हैं। 

चाणक्य नीति की बातें 

  • अज्ञानी मनुष्य के लिए किताबें और अंधे मनुष्य के लिए दर्पण एक समान ही होते हैं। 
  • एक अवगुण बहुत से गुणों पर भारी पड़ सकता है। 
  • शांत व्यक्ति अपने व्यवहार से हर किसी को अपना बना लेता है। 
  • जिस प्रकार वन की अग्नि चन्दन की लकड़ी को भी जला देती है, उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति किसी का भी अहित कर सकते हैं। 
  • कभी भी अपने राज़ दूसरों को नहीं बताने चाहिए, यह आपको बर्बाद कर सकता है। 

सफलता और असफलता सम्बन्धी चाणक्य के कड़वे वचन 

  • ईमानदार व्यक्ति हमेशा प्रसन्न रहता है।
  • किस्मत के सहारे चलने वाला व्यक्ति शीघ्र ही बर्बाद हो जाता है। 
  • बुद्धि से पैसे कमाना आसान है परंतु पैसे से बुद्धि नहीं कमाई जा सकती। 
  • लक्ष्य प्राप्ति के लिए दुश्मन का सहारा कभी नहीं लेना चाहिए। आपको जीवन भर उसके सामने झुकना पड़ सकता है। 
  • आलसी मनुष्य का न वर्तमान होता है और न भविष्य। 

शिक्षा संबंधी चाणक्य के कड़वे वचन

  • शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है। 
  • शिक्षा मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र होती है। 
  • शिक्षित मनुष्य हर जगह सम्मान प्राप्त करता है। 
  • शिक्षा देने वाला इंसान यदि घटिया भी है तो भी उसे ले लेना चाहिए।
  • कोई भी शिक्षक कभी साधारण नहीं होता प्रलय और निर्माण उसकी गोद मे पलते है। 

मित्रता संबंधी चाणक्य के कड़वे वचन

  • कपटी मित्र पर कभी विश्वास ना करें। 
  • अगर कोई व्यक्ति बुरे वक्त में भी आपसे स्नेह करता है तो वही आपका सच्चा मित्र है। 
  • बुरे वक्त पर काम आने वाला ही सच्चा मित्र होता है।
  • मित्रता हमेशा बराबरी वालों से ही करनी चाहिए। यदि आप अपने से अधिक धनी और निर्धन व्यक्ति से मित्रता करते हैं तो आपको इसकी भरपाई करनी पड़ सकती है। 
  • सही रास्ता न दिखाने वाली मित्रता शत्रुता से अधिक नष्ट कारी हो सकती है। 

स्री संबंधी चाणक्य के कड़वे वचन

  • स्री के प्रति आसक्त रहने वाले पुरुष को न स्वर्ग मिलता है, न धर्म-कर्म। 
  • जो पुरुष पराई स्त्री को माता समान मानता है, वह ज्ञानी होता है। 
  • सौभाग्य ही स्त्री का आभूषण होता है।
  • पुरुष का विवेक और महिला की सुन्दरता, विश्व की सबसे बड़ी ताकत हैं। 
  • स्त्री का निरीक्षण करने में आलस्य नहीं करना चाहिए क्योंकि उनका मन सैनिक रूप से स्थिर होता है। 

 धन और धर्म संबंधित चाणक्य के कड़वे वचन

  • सत्य और दान ही धर्म का आधार है। 
  • धर्म ही संसार की सबसे बड़ी मानवता है। 
  • अपनी आत्मा को मंदिर बनाइये, क्यूंकि ईश्वर चित्र में नहीं अपितु चरित्र में बसते हैं। 
  • अगर कुबेर भी आय से अधिक व्यय कर दे तो वह भी कंगाल हो जाता है। 
  • दूसरे व्यक्ति के धन का लालच आपके नाश का कारण बन सकता है। 

निष्कर्ष 

चाणक्य के एक-एक नीति या कड़वे वचन व्यक्ति के अस्तित्व को प्रभावशाली बनाने में मददगार हो सकते हैं। हमने यहाँ उनके द्वारा रचित कुछ उत्तम विचारों का वर्णन किया है। आशा है कि आचार्य चाणक्य के इन कड़वे अपितु प्रेरणादायक वचनों को पढ़कर आप अपने जीवन में सही बदलाव लाएंगे।

विदेशों में बसे कुछ हिंदू स्वजनों के आग्रह पर हम चाणक्य के कड़वे वचन श्लोकों को रोमन में भी प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें आशा है कि वे इससे अवश्य लाभान्वित होंगे। पढ़ें श्लोक रोमन में–

Read Chanakya Ke Kadve Vachan Shlok

duṣṭā bhāryā śaṭhaṃ mitraṃ bhṛtyaścottaradāyakaḥ।
sasarpe ca gṛhe vāso mṛtyureva na saṃśayaḥ॥

nakhīnāṃ ca nadīnāṃ ca śṛṅgīṇāṃ śastrapāṇinām।
viśvāso naiva karttavyaḥ strīṣu rājakuleṣu ca॥

na viśvaset kumitre ca mitre cā’pi na viśvaset।
kadācit kupitaṃ mitraṃ sarva guhyaṃ prakāśayet॥

mātā śatruḥ pitā vairī yena bālo na pāṭhitaḥ।
na śobhate sabhāmadhye haṃsamadhye bako yathā॥

lālanād bahavo doṣāstāḍanād bahavo guṇāḥ।
tasmātputraṃ ca śiṣyaṃ ca tāḍayenna tu lālayet॥

atirūpeṇa vai sītā atigarveṇa rāvaṇaḥ।
atidānāt valibaddho ati sarvatra varjayet॥

upasarge’nyacakre ca durbhikṣe ca bhayāvahe।
asādhujanasamparke yaḥ palāyati saḥ jīvati॥

mūrkhaścirāyurjāto’pi tasmājjātamṛto vasaḥ।
mṛtaḥ sa cā’lpaduḥkhāya yāvajjīvaṃ jaḍo dahet॥

tyajeddharmaṃ dayāhīnaṃ vidyāhīnaṃ guruṃ tyajet।
tyajetkrodhamukhīṃ bhāryāṃ niḥsnehān bāndhavāṃstyajet॥

janmamṛtyu hi yātyeko bhunaktyekaḥ śubhā’śubham।
narakeṣu patatyeka eko yāti parāṃ gatim॥

varaṃ na rājyaṃ na kurājarājyaṃ varaṃ na mitraṃ na kumitramitram।
varaṃ na śiṣyo na kuśiṣyaśiṣyo varaṃ na dārā na kudāradārāḥ॥

hastī aṃkuśamātreṇa vājī hastena tāḍyate।
śṛṃgīlakuṭahastena khaḍgahastena durjanaḥ॥

cāṇḍālānāṃ sahasraiśca sūribhistatvadarśibhiḥ।
eko hi yavanaḥ prokto na nīco yavanātparaḥ॥

nirviṣeṇāpi sarpeṇa kartavyā mahatī phaṇā।
viṣamastu na vāpyastu ghaṭāṭopo bhayaṃkaraḥ॥

yeṣāṃ na vidyā na tapo na dānaṃ jñānaṃ na śīlaṃ na guṇo na dharmaḥ।
te martyaloke bhuviḥ bhārabhūtā manuṣyarūpeṇa mṛgāścaranti॥

na durjanaḥ sādhudaśāmupaiti bahu prakārairapi śikṣyamāṇaḥ।
āmūlasiktaṃ payasā ghṛtena na nimbavṛ़kṣoḥ madhuratvameti॥

hastau dānavarjitau śrutipuṭau sārasvatadrohiṇī
netre sādhuvilokarahite pādau na tīrthaṃ gatau।
anyāyārjitavittapūrṇamudaraṃ garveṇa tuṃgaṃ śirau
re re jambuka muñca-muñca sahasā nīcaṃ sunindyaṃ vapuḥ॥

yasya sneho bhayaṃ tasya sneho duḥkhasya bhājanam।
snehamūlāni duḥkhāni tāni tyaktvā vasetsukham॥

ātmāparādhavṛkṣasya phalānyetāni dehinām।
dāridryaroga duḥkhāni bandhanavyasanānica॥

khalānāṃ kaṇṭakānāṃ ca dvividhaiva pratikriyā।
upānāmukhabhaṃgo vā dūrataiva visarjanam॥

na nirmitā kena na dṛṣṭapūrvā na śrūyate hemamayī kuraṃgī।
tathā’pi tṛṣṇā raghunandanasya vināśakāle viparītabuddhiḥ॥

aśaktastubhavetsādhurbrahmacārī ca nirdhanaḥ।
vyādhiṣṭho devabhaktaśca vṛddhā nārī pativratā॥

संबंधित लेख

2 thoughts on “चाणक्य के कड़वे वचन – Chanakya Ke Kadve Vachan

    • HindiPath

      Thank you for your comment. Keep reading HindiPath for more information on Chanakya and his immortal wisdom.

      Reply

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!
Exit mobile version