चाणक्य नीति का सोलहवाँ अध्याय
चाणक्य नीति का सोलहवाँ अध्याय बहुत ही गहन है। गंभीरता पूर्वक इसका जितना अध्ययन किया जाए, वह कम है। प्रत्येक गंभीर अध्येता को चाणक्य नीति का सोलहवाँ अध्याय जरूर पढ़ना चाहिए, जो व्यावहारिक ज्ञान का कोष है।
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न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये
स्वर्गद्वारकृपाटपाटनपटुः धर्माेऽपि नोपार्जितः।
नारीपीनपयोधरयुगलं स्वप्नेऽपि नार्लिगितं
मातुः केवलमेव यौवनच्छेदकुठारो वयम् ॥१॥
जिसने संसार सागर में उद्धार के लिए न तो विधिपूर्वक श्री नारायण की आराधना की, न जप-तप योगादि किए, न स्वर्ग का द्वार खोलने के लिए धर्म-संग्रह किया, न ही यथार्थ में तो क्या स्वप्न में भी किसी रमणी के स्तनों और जांघों का आलिंगन किया, ऐसे लोग जिन्होंने न तो इस लोक में सुख भोगा और न ही परलोक में सुख का कोई साधन किया। ऐसे लोगों का जन्म तो माँ के यौवन रूपी उपवन का काटकर नष्ट कर देने वाली कुल्हाड़ी है।
जल्पन्ति सार्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः।
हृदये चिन्तयन्त्यन्यं न स्त्रीणामेकतो रतिः॥२॥
कुल्टा स्त्रियों बातचीत किसी के साथ करती हैं, हाव-भाव के साथ विलास पूर्वक देखती अन्य को हैं और हृदय में और ही किसी का चिन्तन करती हैं। कुलटाओं, वेश्याओं की एक से चाहत नहीं होती।
यो मोहयन्मन्यते मूढो रत्तेयं मयि कामिनी।
स तस्य वशगो भूत्वा नृत्येत क्रीडा शकुन्तवत् ॥३॥
जो व्यक्ति अविवेक के कारण ऐसा समझता है कि यह मनोहर और सुन्दर स्त्री मुझ से मोहित है, वह व्यक्ति उसके वशीभूत होकर मनोरंजन के लिए पाले गए पक्षी की भांति उसके इशारों पर नाचा करता है।
कोऽर्थान्प्राप्य न गर्वितो विषयिणः कस्यापदोऽस्तंगताः।
स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः को नाम राज्ञप्रियः।।
कः कालस्य न गोचरत्वमगमत् कोऽर्थो गतो गौरवम्।
को वा दुर्जनदुर्गुणेषु पतितः क्षेमेण यातः पथिः ॥४॥
इस संसार में कोई ऐसा मनुष्य नहीं हुआ जो धन-ऐश्वर्य पाकर अहंकार ग्रस्त न हुआ हो। विषय भोगी ऐसा कोई नहीं जिसे संकटों का सामना न करना पड़ा हो। ऐसा कोई प्राणी नहीं हुआ जिसे रूपवतियों ने अपने वश में न किया हो। ऐसा कोई प्राणी नहीं जो राजा द्वारा सदा ही सम्मानित किया गया हो। ऐसा कोई प्राणी नहीं जो पैदा तो हुआ हो, किन्तु मृत्यु को प्राप्त न हुआ हो। ऐसा कोई प्राणी नहीं हुआ जो कभी याचक न बना हो। ऐसा कोई प्राणी नहीं जो दुर्जनों द्वारा सताया न गया हो अथवा जिसने दुर्गुण न अपनाए हों।
न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरंगी।
तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ॥५॥
स्वर्ण का मृग (हिरन) न तो किसी के द्वारा निर्मित हुआ, न पहले कभी देखा गया और न किसी से सुना ही गया। फिर भी श्री रामचन्द्र जी की कामना उसे पाने की हुई। ठीक ही है, विनाश का समय आने पर मनुष्य की बुद्धि उल्टी हो जाती है।
गुणैरुत्तमतां यान्ति नौच्चैरासनसंस्थितैः।
प्रसादशिखरस्थोऽपि किं काको गरुडायतेम ॥६॥
ऊँचे स्थान पर बैठने से कोई ऊँचा नहीं हो जाता। गुणवान ही ऊँचा माना जाता है। महल की अटारी पर बैठने से कौआ, गरुड़ नहीं कहलाने लगता।
गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योऽपि सम्पदः।
पूर्णेन्दु किं तथा वन्द्यो निष्कलंको यथा कुशः ॥७॥
सभी स्थानों पर व्यक्ति के गुणों की पूजा होती है, गुणों का आदर-सम्मान होता है। सम्पत्ति होने पर भी गुणहीन व्यक्ति का सत्कार नहीं होता। पूर्ण चन्द्र (पूर्णिमा का) क्या वैसा दिखाई देता है, जैसा बहुत मामूली प्रकाश वाला किन्तु धब्बों से रहित द्वितीया का चन्द्रमा? आचार्य चाणक्य कहते हैं कि कभी नहीं, ऐसा कभी नहीं होता।
परमोक्तगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः ॥८॥
जिसके गुणों की प्रशंसा दूसरे लोग करते हैं, वह अल्पगुणी होने पर भी गुणवान माना जाएगा। किन्तु पूर्णगुणी होने पर भी जो स्वयं अपने गुणों की चर्चा करता है वह गुणहीन ही माना जाएगा, चाहे वह साक्षात इन्द्र ही क्यों न हो।
विवेकिमनुप्राप्तो गुणो याति मनोज्ञताम्।
सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम् ॥९॥
गुण, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, कर्तव्य अकर्तव्य को समझने वाले विवेकी व्यक्ति को पाकर सुन्दरता को प्राप्त करते हैं, खिल उठते हैं, सोने में जड़ा हुआ हीरा बहुत सुन्दर प्रतीत होता है।
गुणं सर्वत्र तुल्योऽपि सीदत्येको निराश्रयः।
अनर्घ्यमपि माणिक्यं हे माश्रयमपेक्षते ॥१०॥
गुणों से सर्वज्ञ ईश्वर के समान होता हुआ भी आश्रयहीन अकेला व्यक्ति दुख उठाता है। अत्यन्त मूल्यवान माणिक्य भी स्वर्ण में जड़े जाने की अपेक्षा रखता है।
अतिक्लेशेन ये चार्थाः धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रुणां प्रणिपातेन ते ह्यर्थाः न भवन्तु मे ॥११॥
जो धन अन्यों को हानि तथा पीड़ा पहुंचाकर, धर्म का उल्लंघन करके और शत्रु के सामने झुकने से प्राप्त होता है, ऐसा धन मुझे नहीं चाहिए।
किं तया क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिव केवला।
या तु वेश्यैव सामान्यपथिकैरपि भुज्यते ॥१२॥
उस धन-सम्पत्ति से क्या लाभ है जो घर की वधू के समान एक के उपयोग के लिए है। जो सम्पत्ति वेश्या के समान न केवल नागरिकों बल्कि पथिकों द्वारा भी भोगी जाती है, उसी धन-सम्पत्ति को श्रेष्ठ माना गया है।
धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मषु।
अतृप्ता प्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च ॥१३॥
धन, जीवन, स्त्री सेवन और अन्न सेवन के विषय में सभी मनुष्य अतृप्त रहकर गए हैं, जाएंगे और जाते हैं।
क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञहोमबलि क्रियाः।
न क्षीयते पात्रदानं भयं सर्वदेहिनाम् ॥१४॥
अन्न, जल, वस्त्र, भूमि आदि का दान तथा यज्ञ, होम और बलिदान ये सभी कर्मफल भोग के उपरान्त नष्ट हो जाते हैं, किन्तु सुपात्र को दिया हुआ दान और जीवों को दिया गया अभयदान कभी नष्ट नहीं होता।
तृणं लघु तृणात्तूलं तूलादपि च याचकः।
वायुना किं न जीतोऽसौ मामयं याचयिष्यति ॥१५॥
तिनका बहुत हल्का होता है किन्तु तिनके से भी रूई हल्की होती है और रूई से भी हल्का होता है याचक (माँगने वाला)। यदि ऐसा है तो वह याचक हवा के द्वारा क्यों नहीं उड़ाया जाता अर्थात् हवा उसे उड़ाकर क्यों नहीं ले जाती? यह याचक मुझसे भी कुछ मांगेगा, इस भय से हवा उसे उड़ाकर नहीं ले जाती।
वरं वनं व्याघ्रजेन्द्रसेवितं, द्रुमालयं पक्वाफलाम्बुसेवनं।
तृणेषु शय्या शतजीर्णवल्कलं, न बन्धुमध्ये धनहीन जीवनम् ॥१६॥
अपमान सहकर जीने से मर जाना अच्छा है, क्योंकि मृत्यु के समय क्षणभर के लिए दुःख होता है किन्तु अपमान होने पर नित्य दुख और क्लेश होता है।
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति मानवाः।
तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥१७॥
मधुर वचन बोलने से सब मनुष्य प्रसन्न और सन्तुष्ट होते हैं। अतः मधुर वचन ही बोलना चाहिए, क्योंकि वचनों में क्या दरिद्रता?
संसार कटु वृक्षस्य द्वे फले ह्यमृतोपमे।
सुभाषितं च सुस्वादुः संगति सज्जने जने ॥१८॥
संसार रूपी विष वृक्ष पर अमृत तुल्य दो ही फल हैं जो मनुष्य को ग्रहण करने चाहिए सुभाषित अर्थात् अच्छी वाणी एवं सुसंगति-सज्जनों का संग।
जन्मजन्मनि चाभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः।
तेनैवाभ्यासयोगेन देही वाऽभ्यस्यते ॥१९॥
जन्म-जन्मान्तर में मनुष्य ने जिस दान, विद्याध्ययन और तप का अभ्यास किया है, उस ही अभ्यास के योग से वह फिर उसी का अभ्यास करता है।
पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तेषु च यद्धनम्।
उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम् ॥२०॥
पुस्तकों में कैद विद्या और दूसरों के हाथों में गया धन, व्यक्ति के किसी काम नहीं आते।
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