ग्रंथ

चाणक्य नीति अध्याय-6

Chapter 6 Of Chanakya Niti In Hindi

चाणक्य नीति का छठा अध्याय आपके सामने प्रस्तुत है। यह अध्याय अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। विशेषतः 14वें श्लोक से वर्णित गुण सफलता के लिए बेहद आवश्यक हैं। चाणक्य नीति के अन्य अध्याय पढ़ने तथा PDF डाउनलोड करने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – चाणक्य नीति

श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात् ॥१॥

व्यक्ति वेदान्त आदि को सुनकर ही धर्म के गूढ़ तत्त्वों को समझता है। शास्त्र और ज्ञानियों के वचन सुनकर ही ग़लत विचारों को छोड़ देता है। शास्त्र के अध्ययन से ज्ञान-विज्ञान को पाता है और शास्त्र सुनकर ही मुक्ति को भी प्राप्त करता है।

पक्षिणां काकश्चाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः।
मुनीनां कोपीश्चाण्डालः सर्वेषां चैव निन्दकः ॥२॥

पक्षियों में कौआ चाण्डाल माना गया है। पशुओं में कुत्ता चाण्डाल कहा जाता है। मुनियों में क्रोधित होने वाला चाण्डाल होता है और दूसरों की निन्दा करने वाला सर्वाधिक चाण्डाल माना जाता है।

भस्मना शुद्ध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन शुध्यति।
रजसा शुध्यते नारी नदी वेगेन शुध्यति ॥३॥

काँसा राख से माँजने पर स्वच्छ होता है। तांबे का बर्तन खटाई से साफ़ होता है। स्त्री रजस्वला होने से शुद्ध होती है व नदी वेग से बहकर शुद्ध होती है।

भ्रमन् सम्पूज्यते राजा भ्रमन् सम्पूज्यते द्विजः।
भ्रमन् सम्पूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति ॥४॥

जनता के बीच भ्रमण करने वाला राजा प्रजा द्वारा पूजा जाता है। भ्रमण करने वाला वेदपाठी विद्वान भी सम्मान प्राप्त करता है। भ्रमण करने वाले योगी का हर जगह सम्मान होता है। किन्तु अधिक भ्रमण करने वाली स्त्री का नाश हो जाता है।

तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः।
सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता ॥५॥

जिस तरह होना होता है, बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है। साथ ही व्यवसाय भी वैसा हो जाता है और मदद करने वाले भी वैसे ही मिल जाते हैं।

कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥६॥

काल या समय सब प्राणियों को पचा जाता या निगल लेता है। काल ही प्रजाओं को विनष्ट करता है। काल सदा जागृत रहता है। वह कभी सोता नहीं है। काल का अतिक्रमण असम्भव है।

न पश्यति च जन्मान्धः कामान्धो नैव पश्यति।
न पश्यति मदोन्मत्तो ह्यर्थी दोषान् न पश्यति ॥७॥

जन्म से अन्धा व्यक्ति नहीं देख सकता। काम में अंधा हुआ कामातुर व्यक्ति भी सही-ग़लत नहीं देख पाता। मद में उन्मत्त अहंकारी या मदिरा आदि का सेवन करने वाला भी सही-सही देखने में असमर्थ होता है। इसी तरह स्वार्थी व्यक्ति किसी भी काम के दोषों को नहीं देख पाता है।

स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्व फलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥८॥

जीवात्मा स्वयं कर्म करता है। वह स्वयं ही उसके शुभ-अशुभ फलों को भोगता है। वह स्वयं संसार में अनेकानेक योनियों में घूमा करता है और स्वयं पुरुषार्थ के द्वारा आवागमन के चक्र से छूटकर मोक्ष प्राप्त करता है।

राजा राष्ट्रकृतं पापं भुंक्ते राज्ञः पापं पुरोहितः।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा ॥९॥

राष्ट्र द्वारा किए गए पाप राजा को भोगने पड़ते हैं। इसी प्रकार राजा के द्वारा किए गए पाप पुरोहित भोगता है। वैसे ही पत्नी के द्वारा किए गए पापों को पति व शिष्य के पापों को गुरु भोगता है।

ऋणकर्ता पिता शत्रुः माता च व्यभिचारिणी।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ॥१०॥

अपनी संतान पर ऋण का भार छोड़ने वाला पिता शत्रु के समान है। व्यभिचारिणी माँ भी सन्तान के लिए शत्रु की तरह है। इसी तरह बहुत अधिक सुन्दर पत्नी पति की शत्रु है व मूर्ख पुत्र भी शत्रु के समान ही माना गया है।

लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा।
मूर्ख छन्दोऽनुवृत्तेन यथार्थत्वेन पण्डितम् ॥११॥

लोभी व्यक्ति को धन के द्वारा, हठधर्मी मनुष्य को हाथ जोड़कर, मूर्ख को इच्छा की पूर्ति करके और बुद्धिमान को सही-सही स्थिति बताकर वश में किया जाता है।

वरं न राज्यं न कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदाराः ॥१२॥

दुष्ट राजा के राज्य में रहने से श्रेष्ठ है कि राज्यविहीन होकर रहा जाए। ख़राब मित्रों से बेहतर है मित्रता के बिना ही रहा जाए। अयोग्य शिष्यों की अपेक्षा शिष्यों का न होना अच्छा है। ख़राब पत्नी होने से बिना पत्नी के रहना ही उत्तम है।

कुराजराज्येन कुतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽस्ति निवृत्तिः।
कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः ॥१३॥

ख़राब राजा के राज्य में प्रजा को सुख कहाँ? दुष्ट मित्र की मित्रता में आनन्द कहाँ? ख़राब स्त्री को पत्नी बनाने से घर में प्रीति कहाँ? ख़राब शिष्य को पढ़ाने वाले को यश कहाँ? अर्थात् ये सभी असम्भव हैं।

सिंहादेकं बकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।
वायसात्पञ्च शिक्षेच्च षट् शुनस्त्रीणि गर्दभात् ॥१४॥

मनुष्य को शेर से एक गुण, बगुले से एक गुण और कुक्कुट (मुर्गे) से चार गुण, कौए से पाँच गुण, कुत्ते से छः गुण और गधे से तीन गुण ग्रहण करने चाहिए। आगे के श्लोकों में इन गुणों का वर्णन किया गया है।

प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते ॥१५॥

बड़े-छोटे प्रत्येक कार्य को पूरा जी-जान लगाकर, पूरे सामर्थ्य से करना सिंह का गुण है। मनुष्य को सिंह से यही गुण सीखना चाहिए।

इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत् ॥१६॥

विद्वान मनुष्य को चाहिए कि बगुले की तरह इन्द्रियों को वश में करके देश, काल और स्वयं की क्षमता को ध्यान में रखकर ही सभी कार्यों को करे।

प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बन्धुषु।
स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात् ॥१७॥

सही समय पर जागना, युद्ध के लिए सदैव तैयार रहना, बन्धुओं को उनका उचित भाग प्रदान करना व झपटकर अर्थात् निर्विलम्ब भोजन करना – इन चारों बातों को मुर्गे से सीखना चाहिए।

गूढमैथुनचरित्वं च काले काले च संग्रहम्।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात् ॥१८॥

गूढ़ रूप से अर्थात् छिपकर मैथुन करना, ढीठ या दृढ़ होना और उचित समय पर आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करते रहना, सदा-सर्वदा आलस्य त्यागकर सजग रहना व किसी पर भी आँख मूंदकर भरोसा न करना – ये पाँच बातें कौए से सीखनी चाहिए।

बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनः।
स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणाः ॥१९॥

कुत्ते में मिलने पर बहुत खाने की क्षमता होती है। न मिलने पर वह थोड़े में ही सन्तुष्ट हो जाता है। वह ख़ूब गहरी नींद सोता है लेकिन तनिक-सी आहट से जाग जाता है। वह बहुत स्वामी-भक्त और वीर होता है – ये छः गुण कुत्ते से सीखने योग्य हैं।

सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं न च पश्यति।
सन्तुष्टश्चरते नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात् ॥२०

गधा थक जाने पर भी गंतव्य पर पहुँचने तक नहीं रुकता। वह सर्दी-गर्मी आदि की परवाह किए बिना भार ढोने के कार्य में लगा रहता है। साथ ही वह हमेशा सन्तोषपूर्ण जीवन जीता है – ये तीनों बातें गधे से सीखनी चाहिए।

य एतान् विंशतिगुणानाचरिष्यति मानवः।
कार्याऽवस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति ॥२१॥

आचार्य चाणक्य के मतानुसार जो भी व्यक्ति उपर्युक्त बीस गुणों का आचरण करेगा, वह सभी कार्यों और परिस्थितियों में अजेय (जिसे जीता न जा सके) बन जाएगा।

संबंधित लेख

4 thoughts on “चाणक्य नीति अध्याय-6

    • HindiPath

      बहुत-बहुत धन्यवाद सुभाष जी। ऐसे ही हिंदी पथ पढ़ते रहें और हमारा मार्गदर्शन करते रहें।

      Reply
  • सर जी इस की सारी पोस्ट बनाकर में वाट्सएप्प पर डालता हूँ जो हिन्दुत्व के लगभग सभी ग्रुपों मे जाती हे प्रशासक समिति के द्वारा क्या इसके सभी अध्याय उपलब्ध हो जाएँगे

    Reply
    • HindiPath

      टिप्पणी करने के बहुत-बहुत धन्यवाद, बृज पाल जी। जानकर बहुत अच्छा लगा कि आप भारतीय संस्कृति से प्रचार-प्रसार में कार्यरत हैं। न केवल चाणक्य नीति, बल्कि सारे हिंदू शास्त्र व ग्रंथ यहाँ हिंदी पथ पर शीघ्र ही उपलब्ध होंगे। यदि आप वॉट्सऍप पर इन्हें भेजना चाहते हैं, तो इनकी PDF बनाकर आपको उपलब्ध कराने का प्रयत्न रहेगा।

      चाणक्य नीति का अनुवाद कार्य हिंदी पथ द्वारा स्वयं किया जा रहा है, क्योंकि अन्य उपलब्ध कई अनुवादों में बहुत-सी जगह सही अर्थ परिलक्षित नहीं होता है। इसलिए प्रत्येक एक-दो दिन में एक अध्याय यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। उम्मीद है अक्टूबर के अन्त तक सभी अध्याय और चाणक्य नीति सूत्र हिन्दी अर्थ सहित उपलब्ध हो जाएंगे।

      Reply

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!
Exit mobile version