दान – स्वामी विवेकानंद
जब स्वामी विवेकानंद मद्रास में थे, उस समय एक बार उनके सभापतित्व में ‘चेन्नपुरी अन्नदानसमाजम्’ नामक एक दातव्य संस्था का वार्षिक समारोह मनाया गया। उस अवसर पर उन्होंने एक संक्षिप्त भाषण दिया, जिसमें उन्होंने उसी समारोह के एक वक्त्ता महोदय के विचारों पर कुछ प्रकाश डाला। इन वक्त्ता महोदय ने कहा था कि यह अनुचित है कि अन्य सब जातियों की अपेक्षा केवल ब्राह्मण को ही विशेष दान दिया जाता है।
इसी प्रसंग में स्वामी विवेकानंद जी ने कहा कि इस बात के दो पहलू हैं – एक अच्छा और दूसरा बुरा। यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो प्रतीत होगा कि राष्ट्र की समस्त शिक्षा एवं सभ्यता अधिकतर ब्राह्मणों में ही पायी जाती है; साथ ही ब्राह्मण ही समाज के विचारशील तथा मननशील व्यक्ति रहे हैं। यदि थोड़ी देर के लिए मान लो कि तुम उनके वे साधन छीन लो, जिनके सहारे वे चिन्तन-मनन करते हैं, तो परिणाम यह होगा कि सारे राष्ट्र को धक्का लगेगा।
इसके बाद स्वामीजी ने यह बतलाया कि यदि हम भारत के दान की शैली की, जो बिना विचार अथवा भेदभाव के होती है, तुलना दूसरे राष्ट्रों की उस शैली से करें, जिसका एक प्रकार से कानूनी रूप होता है, तो हमें यह प्रतीत होगा कि हमारे यहाँ एक भिखमंगा भी बस उतने से सन्तुष्ट हो जाता है, जो उसे तुरन्त दे दिया जाए, और उतने में ही रह अपनी सब्र की जिन्दगी बसर करता है। परन्तु इसके विपरीत पाश्चात्य देशों में पहली बात तो यह है कि कानून भिखमंगों को सेवाश्रम में जाने के लिए बाध्य करता है। परन्तु मनुष्य भोजन की अपेक्षा स्वतन्त्रता अधिक पसन्द करता है, इसलिए वह सेवाश्रम में न जाकर समाज का दुश्मन, डाकू बन जाता है। और फिर इसी कारण हमें इस बात की जरूरत पड़ती है कि हम अदालत, पुलिस, जेल तथा अन्य साधनों का निर्माण करें।
यह निश्चित है कि समाज के शरीर में जब तक ‘सभ्यता’ नामक बीमारी बनी रहेगी, तब तक उसके साथ साथ गरीबी भी रहेगी और इसीलिए गरीबों को सहायता देने की आवश्यकता भी रहेगी। यही कारण है कि भारतवासियों की बिना भेदभाव की दानशैली और पाश्चात्य देशों की भेदमूलक दानशैली में उनको चुनना पड़ेगा। भारतीय दानशैली में जहाँ तक संन्यासियों की बात है, उनका तो यह हाल है कि भले ही उनमें से कोई सच्चे संन्यासी न हों, परन्तु फिर भी उन्हें भिक्षाटन करने के लिए अपने शास्त्रों के कम से कम कुछ अंशों को तो पढ़ ही लेना पड़ता है। और पाश्चात्य देशों की दान देने की प्रथा के कारण निर्धन के लिए कड़े कानून बन गये, वहाँ फल यह हुआ कि फकीरों को डाकू तथा अत्याचारी बन जाना पड़ा।