डुण्डुभ की आत्मकथा व उपदेश – महाभारत का ग्यारहावाँ अध्याय (पौलोमपर्व)
“डुण्डुभ की आत्मकथा व अहिंसा का उपदेश” नामक यह कथा महाभारत में आदि पर्व के अन्तर्गत पौलोम पर्व में आती है। इसमें डुण्डुभ रुरु को अपनी कहानी सुनाता है कि कैसे वह शाप-ग्रस्त होकर साँप बन गया। साथ ही अपनी आत्मकथा के माध्यम से वह रुरु को अहिंसा की श्रेष्ठता का उपदेश देता है। इस अध्याय में पढ़ें डुण्डुभ की आत्मकथा और रुरु को दिया गया अहिंसा का उपदेश। महाभारत के अन्य अध्याय देखने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत।
डुण्डुभ उवाच
सखा बभूव मे पूर्वं खगमो नाम वै द्विजः।
भृशं संशितवाक् तात तपोबलसमन्वितः ॥ १ ॥
स मया क्रीडता बाल्ये कृत्वा तार्णं भुजङ्गमम्।
अग्निहोत्रे प्रसक्तस्तु भीषितः प्रमुमोह वै ॥ २ ॥
डुण्डुभने कहा—तात! पूर्वकाल में खगम नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण मेरा मित्र था। वह महान् तपोबल से सम्पन्न होकर भी बहुत कठोर वचन बोला करता था। एक दिन वह अग्निहोत्र में लगा था। मैंने खिलवाड़ में तिनकों का एक सर्प बनाकर उसे डरा दिया। वह भय के मारे मूर्च्छित हो गया ॥ १-२ ॥
लब्ध्वा स च पुनः संज्ञां मामुवाच तपोधनः।
निर्दहन्निव कोपेन सत्यवाक् संशितव्रतः ॥ ३ ॥
फिर होश में आनेपर वह सत्यवादी एवं कठोरव्रती तपस्वी मुझे क्रोध से दग्ध-सा करता हुआ बोला— ॥ ३ ॥
यथावीर्यस्त्वया सर्पः कृतोऽयं मद्बिभीषया।
तथावीर्यो भुजङ्गस्त्वं मम शापाद् भविष्यसि ॥ ४ ॥
‘अरे! तूने मुझे डराने के लिये जैसा अल्प शक्ति वाला सर्प बनाया था, मेरे शापवश ऐसा ही अल्प-शक्तिसम्पन्न सर्प तुझे भी होना पड़ेगा’ ॥ ४ ॥
तस्याहं तपसो वीर्यं जानन्नासं तपोधन।
भृशमुद्विग्नहृदयस्तमवोचमहं तदा ॥ ५ ॥
प्रणतः सम्भ्रमाच्चैव प्राञ्जलिः पुरतः स्थितः।
सखेति सहसेदं ते नर्मार्थं वै कृतं मया ॥ ६ ॥
क्षन्तुमर्हसि मे ब्रह्मन् शापोऽयं विनिवर्त्यताम्।
सोऽथ मामब्रवीद् दृष्ट्वा भृशमुद्विग्नचेतसम् ॥ ७ ॥
मुहुरुष्णं विनिःश्वस्य सुसम्भ्रान्तस्तपोधनः।
नानृतं वै मया प्रोक्तं भवितेदं कथंचन ॥ ८ ॥
तपोधन! मैं उसकी तपस्या का बल जानता था, अतः मेरा हृदय अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और बड़े वेग से उसके चरणों में प्रणाम करके, हाथ जोड़, सामने खड़ा हो, उस तपोधन से बोला—सखे! मैंने परिहास के लिये सहसा यह कार्य कर डाला है। ब्रह्मन्! इसके लिये क्षमा करो और अपना यह शाप लौटा लो। मुझे अत्यन्त घबराया हुआ देखकर सम्भ्रम में पड़े हुए उस तपस्वी ने बार-बार गरम साँस खींचते हुए कहा—‘मेरी कही हुई यह बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती’ ॥ ५—८ ॥
यत्तु वक्ष्यामि ते वाक्यं शृणु तन्मे तपोधन।
श्रुत्वा च हृदि ते वाक्यमिदमस्तु सदानघ ॥ ९ ॥
‘निष्पाप तपोधन! इस समय मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो और सुनकर अपने हृदय में सदा धारण करो ॥ ९ ॥
उत्पत्स्यति रुरुर्नाम प्रमतेरात्मजः शुचिः।
तं दृष्ट्वा शापमोक्षस्ते भविता नचिरादिव ॥ १० ॥
‘भविष्य में महर्षि प्रमति के पवित्र पुत्र रुरु उत्पन्न होंगे, उनका दर्शन करके तुम्हें शीघ्र ही इस शाप से छुटकारा मिल जायगा’ ॥ १० ॥
स त्वं रुरुरिति ख्यातः प्रमतेरात्मजोऽपि च।
स्वरूपं प्रतिपद्याहमद्य वक्ष्यामि ते हितम् ॥ ११ ॥
जान पड़ता है तुम वही रुरु नाम से विख्यात महर्षि प्रमति के पुत्र हो। अब मैं अपना स्वरूप धारण करके तुम्हारे हितकी बात बताऊँगा ॥ ११ ॥
स डौण्डुभं परित्यज्य रूपं विप्रर्षभस्तदा।
स्वरूपं भास्वरं भूयः प्रतिपेदे महायशाः ॥ १२ ॥
इदं चोवाच वचनं रुरुमप्रतिमौजसम्।
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वर ॥ १३ ॥
इतना कहकर महायशस्वी विप्रवर सहस्रपाद ने डुण्डुभ का रूप त्यागकर पुनः अपने प्रकाशमान स्वरूप को प्राप्त कर लिया। फिर अनुपम ओज वाले रुरु से यह बात कही—‘समस्त प्राणियोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण! अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है ॥ १२-१३ ॥
तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् न हिंस्याद् ब्राह्मणः क्वचित्।
ब्राह्मणः सौम्य एवेह भवतीति परा श्रुतिः ॥ १४ ॥
‘अतः ब्राह्मण को समस्त प्राणियों में से किसी की कभी और कहीं भी हिंसा नहीं करनी चाहिये। ब्राह्मण इस लोक में सदा सौम्य स्वभाव का ही होता है, ऐसा श्रुति का उत्तम वचन है ॥ १४ ॥
वेदवेदाङ्गविन्नाम सर्वभूताभयप्रदः।
अहिंसा सत्यवचनं क्षमा चेति विनिश्चितम् ॥ १५ ॥
ब्राह्मणस्य परो धर्मो वेदानां धारणापि च।
क्षत्रियस्य हि यो धर्मः स हि नेष्येत वै तव ॥ १६ ॥
‘वह वेद-वेदांगों का विद्वान् और समस्त प्राणियों को अभय देनेवाला होता है। अहिंसा, सत्यभाषण, क्षमा और वेदों का स्वाध्याय निश्चय ही ये ब्राह्मण के उत्तम धर्म हैं। क्षत्रिय का जो धर्म है वह तुम्हारे लिये अभीष्ट नहीं है ॥ १५-१६ ॥
दण्डधारणमुग्रत्वं प्रजानां परिपालनम्।
तदिदं क्षत्रियस्यासीत् कर्म वै शृणु मे रुरो ॥ १७ ॥
जनमेजयस्य यज्ञेऽस्मिन् सर्पाणां हिंसनं पुरा।
परित्राणं च भीतानां सर्पाणां ब्राह्मणादपि ॥ १८ ॥
तपोवीर्यबलोपेताद् वेदवेदाङ्गपारगात्।
आस्तीकाद् द्विजमुख्याद् वै सर्पसत्रे द्विजोत्तम ॥ १९ ॥
‘रुरो! दण्डधारण, उग्रता और प्रजा-पालन—ये सब क्षत्रियों के कर्म रहे हैं। मेरी बात सुनो, पहले राजा जनमेजय के यज्ञ में सर्पों की बड़ी भारी हिंसा हुई। द्विजश्रेष्ठ! फिर उसी सर्प सत्र में तपस्या के बल-वीर्य से सम्पन्न, वेद वेदांगों के पारंगत वद्वान् विप्रवर आस्तीक नामक ब्राह्मण के द्वारा भयभीत सर्पों की प्राण-रक्षा हुई’ ॥ १७—१९ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि डुण्डुभशापमोक्षे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें डुण्डुभशापमोक्षविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥