डुण्डुभ की प्राण-रक्षा – महाभारत का दसवाँ अध्याय (पौलोम पर्व)
“डुण्डुभ की प्राण-रक्षा” अध्याय महाभारत के आदि पर्व में पौलोम पर्व के अन्तर्गत आता है। पिछली कथा में प्रमद्वरा के सर्प दंश से बचकर फिर से जीवित होने के बाद रुरु जब डुण्डुभ साँप को देखता है, तो वह क्रोध से भर जाता है। वह डुण्डुभ को डंडे से मारने की कोशिश करता है। किंतु डुण्डुभ मनुष्य की तरह बोलकर तर्क करता है कि किसी अन्य साँप के कारण इस तरह उसे मारना अनुचित है। इस अध्याय में पढ़ें किस तरह होती है डुण्डुभ की प्राण-रक्षा। महाभारत के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया देखें – महाभारत की कथा।
रुरुरुवाच
मम प्राणसमा भार्या दष्टासीद् भुजगेन ह ।
तत्र मे समयो घोर आत्मनोरग वै कृतः ॥ १ ॥
भुजङ्गं वै सदा हन्यां यं यं पश्येयमित्युत ।
ततोऽहं त्वां जिघांसामि जीवितेनाद्य मोक्ष्यसे ॥ २ ॥
रुरु बोला—सर्प! मेरी प्राणों के समान प्यारी पत्नी को एक साँप ने डँस लिया था। उसी समय मैंने यह घोर प्रतिज्ञा कर ली कि जिस-जिस सर्प को देख लूँगा, उसे-उसे अवश्य मार डालूँगा। उसी प्रतिज्ञा के अनुसार मैं तुम्हें मार डालना चाहता हूँ। अतः आज तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा ॥ १-२ ॥
डुण्डुभ उवाच
अन्ये ते भुजगा ब्रह्मन् ये दशन्तीह मानवान् ।
डुण्डुभानहिगन्धेन न त्वं हिंसितुमर्हसि ॥ ३ ॥
डुण्डुभने कहा—ब्रह्मन्! वे दूसरे ही साँप हैं जो इस लोक में मनुष्यों को डँसते हैं। साँपों की आकृति-मात्र से ही तुम्हें डुण्डुभों को नहीं मारना चाहिये ॥ ३ ॥
एकानर्थान् पृथगर्थानेकदुःखान् पृथक्सुखान् ।
डुण्डुभान् धर्मविद् भूत्वा न त्वं हिंसितुमर्हसि ॥ ४ ॥
अहो! आश्चर्य है, बेचारे डुण्डुभ अनर्थ भोगने में सब सर्पों के साथ एक हैं; परंतु उनका स्वभाव दूसरे सर्पों से भिन्न है तथा दुःख भोगने में तो वे सब सर्पों के साथ एक हैं; किंतु सुख सबका अलग-अलग है। तुम धर्मज्ञ हो, अतः तुम्हें डुण्डुभों की हिंसा नहीं करनी चाहिये ॥ ४ ॥
सौतिरुवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्य भुजगस्य रुरुस्तदा ।
नावधीद् भयसंविग्नमृषिं मत्वाथ डुण्डुभम् ॥ ५ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं—डुण्डुभ सर्प का यह वचन सुनकर रुरु ने उसे कोई भयभीत ऋषि समझा, अतः उसका वध नहीं किया ॥ ५ ॥
उवाच चैनं भगवान् रुरुः संशमयन्निव ।
कामं मां भुजग ब्रूहि कोऽसीमां विक्रियां गतः ॥ ६ ॥
इसके सिवा, बड़भागी रुरु ने उसे शान्ति प्रदान करते हुए-से कहा—‘भुजंगम! बताओ, इस विकृत (सर्प) योनि में पड़े हुए तुम कौन हो?’ ॥ ६ ॥
डुण्डुभ उवाच
अहं पुरा रुरो नाम्ना ऋषिरासं सहस्रपात् ।
सोऽहं शापेन विप्रस्य भुजगत्वमुपागतः ॥ ७ ॥
डुण्डुभने कहा—रुरो! मैं पूर्वजन्म में सहस्रपाद नामक ऋषि था; किंतु एक ब्राह्मण के शाप से मुझे सर्पयोनि में आना पड़ा है ॥ ७ ॥
रुरुरुवाच
किमर्थं शप्तवान् क्रुद्धो द्विजस्त्वां भुजगोत्तम ।
कियन्तं चैव कालं ते वपुरेतद् भविष्यति ॥ ८ ॥
रुरुने पूछा—भुजगोत्तम! उस ब्राह्मण ने किसलिये कुपित होकर तुम्हें शाप दिया? तुम्हारा यह शरीर अभी कितने समय तक रहेगा? ॥ ८ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि रुरुडुण्डुभसंवादे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें रुरु-डुण्डुभसंवादविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥