धर्म की आवश्यकता – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)
“धर्म की आवश्यकता” नामक यह व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने लंदन में दिया था। इस भाषण को उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ज्ञान योग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी धार्मिक धारणाओं का क्रम-विकास और धर्म की आवश्यकता के कारणों की विवेचना कर रहे हैं। व्यक्ति के जीवन में धर्म की आवश्यकता क्या है और समाज के लिए भी यह किस तरह उपयोगी है, इसी बात को वे समझाते हैं। अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग।
मानव-जाति के भाग-निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं उन सब में धर्म के रूप में प्रगट होनेवाली शक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण कोई नहीं है। सभी सामाजिक संगठनों के मूल में कहीं न कहीं यही अद्भुत शक्ति काम करती रही है तथा अब तक मानवता की विविध इकाइयों को संगठित करनेवाली सर्वश्रेष्ठ प्रेरणा इसी शक्ति से प्राप्त हुई है। हम सभी जानते है कि धार्मिक एकता का सम्बन्ध प्रायः जातिगत, जलवायुगत तथा वंशानुगत एकता के सम्बन्धों से भी दृढ़तर सिद्ध होता है । यह एक सर्वविदित तथ्य है कि एक ईश्वर को पूजनेवाले तथा एक धर्म में विश्वास करने वाले लोग जिस दृढ़ता और शक्ति से एक दूसरे का साथ देते हैं वह एक ही वंश के लोगों की बात ही क्या भाई-भाई में भी देखने को नहीं मिलता। धर्म के प्रादुर्भाव को समझने के लिए अनेक प्रयास किये गये हैं । अब तक हमें जितने प्राचीन धर्मों का ज्ञान है वे सब एक यह दावा करते हैं कि वे सभी अलौकिक हैं मानो उनका उद्धव मानव-मस्तिष्क से नहीं बल्कि उस स्रोत से हुआ है, जो उसके बाहर है ।
आधुनिक विद्वान् दो सिद्धान्तों के बारे में कुछ अंश तक सहमत हैं । एक है धर्म का आत्मामूलक सिद्धान्त और दूसरा असीम की धारणा का विकासमूलक सिद्धान्त। पहले सिद्धान्त के अनुसार पूर्वजों की पूजा से ही धार्मिक भावना का विकास हुआ, दूसरे के अनुसार प्राकृतिक शक्तियों को वैयक्तिक स्वरूप देने से धर्म का प्रारम्भ हुआ। मनुष्य अपने दिवंगत सम्बन्धियों की स्मृति सजीव रखना चाहता है और सोचता है कि यद्यपि उनके शरीर नष्ट हो चुके, फिर भी वे जीवित हैं। इसी विश्वास पर वह उनके लिए खाद्य पदार्थ रखना तथा एक अर्थ में उनकी पूजा करना चाहता है । मनुष्य की इसी भावना से धर्म का विकास हुआ।
मिस्र, बेबिलोन, चीन तथा अमेरिका आदि के प्राचीन धर्मों के अध्ययन से ऐसे स्पष्ट चिन्हों का पता चलता है जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि पितर-पूजा से ही धर्म का आविर्भाव हुआ है । प्राचीन मिस्रवादियों की आत्मा-सम्बन्धी धारणा द्वित्वमूलक थी। उनका विश्वास था कि प्रत्येक मानव-शरीर के भीतर एक और जीव रहता है जो शरीर के ही समरूप होता है और मनुष्य के मर जाने पर भी उसका यह प्रतिरूप शरीर जीवित रहता है । किन्तु यह प्रतिरूप शरीर तभी तक जीवित रहता है, जब तक मृत शरीर सुरक्षित रहता है । इसी कारण से हम मिस्रवासियों में मृत शरीर को सुरक्षित रखने की प्रथा पाते हैं और इसी के लिए उन्होंने विशाल पिरामिडों का निर्माण किया, जिसमें मृत शरीर को सुरक्षित ढंग से रखा जा सके। उनकी धारणा थी कि अगर इस शरीर को किसी तरह की क्षति पहुँची, तो उस प्रतिरूप शरीर को ठीक वैसी ही क्षति पहुँचेगी। यह स्पष्टतः पितरं-पूजा है। बेबिलोन के प्राचीन निवासियों में भी प्रतिरूप शरीर की ऐसी ही धारणा देखने को मिलती है, यद्यपि वे कुछ अंश में इससे भिन्न है। वे मानते हैं प्रतिरूप शरीर में स्नेह का भाव नहीं रह जाता। उसकी प्रेतात्मा भोजन और पेय तथा अन्य सहायताओं के लिए जीवित लोगों को आतंकित करती है । अपने बच्चों तथा पत्नी तक के लिए उसमें कोई प्रेम नहीं रहता। प्राचीन हिन्दुओं में भी इस पितर-पूजा के उदाहरण देखने को मिलते हैं । चीनवालों के सम्बन्ध में भी ऐसा कहा जा सकता है कि उनके धर्म का आधार पितर- पूजा ही है और यह अब भी समस्त देश के कोने-कोने में परिव्याप्त है। वस्तुत: चीन में यदि कोई धर्म प्रचलित माना जा सकता है, तो वह केवल यही है । इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म को पितर-पूजा से विकसित माननेवालों का आधार काफी सुदृढ़ है ।
किन्तु कुछ ऐसे भी विद्वान् हैं, जो प्राचीन आर्य-साहित्य के आधार पर सिद्ध करते हैं कि धर्म का आविर्भाव प्रकृति की पूजा से हुआ। यद्यपि भारत में पितर-पूजा के उदाहरण सर्वत्र ही देखने को मिलते हैं, तथापि प्राचीन अर्थों में इसकी किंचित् चर्चा भी नहीं मिलती। आर्य जाति के सब से प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद-संहिता में इसका कोई उल्लेख नहीं है । आधुनिक विद्वान् उसमें प्रकृति-पूजा के ही चिन्ह पाते हैं । जो प्रस्तुत दृश्य के परे है, उसकी एक झाँकी पाने के लिए मानव-मन आकुल प्रतीत होता है। उषा, संध्या, चक्रवात, प्रकृति की विशाल और विराट् शक्तियाँ, उसका सौन्दर्य – इन सब ने मानव- मन के ऊपर ऐसा प्रभाव डाला कि वह इन सब के परे जाने की और उनको समझ सकने की आकांक्षा करने लगा। इस प्रयास में मनुष्य ने इन दृश्यों में आत्मा तथा शरीर की प्रतिष्ठा की, उसने उनमें वैयक्तिक गुणों का आरोपण करना शुरू किया, जो कभी सुन्दर और कभी इन्द्रियातीत होते थे । उनको समझने के हर प्रयास में उन्हें व्यक्तिरूप दिया गया, या नहीं दिया गया, किन्तु उनका अन्त उनको अमूर्त कर देने में ही हुआ । ठीक ऐसी ही बात प्राचीन यूनानियों के सम्बन्ध में भी हुई, उनके तो सम्पूर्ण पुराणोपाख्यान अमूर्त प्रकृति-पूजा ही है । और ऐसा ही प्राचीन जर्मनी तथा स्कैन्टिनेविया के निवासियों एवं शेष सभी आर्य जातियों के बारे में भी कहा जा सकता है । इस तरह प्रकृति की शक्तियों का मानवीकरण करने में धर्म का आदि स्रोत माननेवालों का भी पक्ष काफी प्रबल हो जाता है ।
यद्यपि ये दोनों सिद्धान्त परस्परविरोधी लगते हैं, किन्तु उनका समन्वय एक तीसरे आधार पर किया जा सकता है, जो मेरी समझ में धर्म का वास्तविक बीज है और जिसे मैं ‘इन्द्रियों की सीमा का अतिक्रमण करने के लिए संघर्ष’ मानता हूँ। एक ओर मनुष्य अपने पितरों की आत्माओं की खोज करता है, मृतकों की प्रेतात्माओं को ढूँढ़ता है, अर्थात् शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी वह जानना चाहता है कि उसके बाद क्या होता है। दूसरी ओर मनुष्य प्रकृति की विशाल दृश्यावली के पीछे काम करनेवाली शक्ति को समझना चाहता है । इन दोनों ही स्थितियों में इतना तो निश्चित है कि मनुष्य इन्द्रियों की सीमा के बाहर जाना चाहता है। वह इन्द्रियों से ही सन्तुष्ट नहीं है, वह इनसे परे भी जाना चाहता है । इस व्याख्या को रहस्यात्मक रूप देने की आवश्यकता नहीं। मुझे तो यह बिलकुल स्वाभाविक लगता है कि धर्म की पहली झाँकी स्वप्न में मिली होगी । मनुष्य अमरता की कल्पना स्वप्न के आधार पर कर सकता है । कैसी अछूत है स्वप्न की अवस्था! हम जानते हैं कि बच्चे तथा कोरे मस्तिष्कवाले लोग स्वप्न और जाग्रत् स्थिति में कोई भेद नहीं कर पाते । उनके लिए साधारण तर्क के रूप में इससे अधिक और क्या स्वाभाविक हो सकता है कि स्वप्नावस्था में भी, जब शरीर प्रायः मृत-सा हो जाता है तब भी मन के सारे जटिल क्रियाकलाप चलते रहते हैं! अतः इसमें क्या आश्रय, यदि मनुष्य हठात् यह निष्कर्ष निकाल ले कि इस शरीर के विनष्ट हो जाने पर इसकी क्रियाएँ जारी रहेंगी? मेरे विचार से अलौकिकता की इससे अधिक स्वाभाविक व्याख्या और कोई नहीं हो सकती, और स्वप्न पर आधारित इस धारणा को क्रमशः विकसित करता हुआ मनुष्य ऊँचे से ऊँचे विचारों तक पहुँच सका होगा। हाँ, यह भी अवश्य ही सत्य है कि समय पाकर अधिकांश लोगों ने यह अनुभव किया कि ये स्वप्न हमारी जागृतावस्था में सत्य सिद्ध नहीं होते और स्वप्नावस्था में मनुष्य का कोई नया अस्तित्व नहीं हो जाता, बल्कि वह जागृतावस्था के अनुभवों का ही स्मरण करता है ।
किन्तु तब तक इस दिशा में अन्वेषण आरम्भ हो गया था और अन्वेषण की धारा अन्तर्मुखी हो गयी और मनुष्य ने अपने अन्दर अधिक गम्भीरता से मन की विभिन्न अवस्थाओं का अन्वेषण करते करते जागृतावस्था और स्वप्नावस्था से भी परे कई उच्च अवस्थाओं का आविष्कार किया। संसार के सभी संगठित धर्मों में इन अवस्थाओं की चर्चा परमानन्द या ‘अन्तःस्फुरण’ के रूप में मिलती है। सभी संगठित धर्मों में ऐसा माना जाता है कि उनके संस्थापक पैगम्बरों एवं सन्देशवाहकों ने मन की इन अवस्थाओं में प्रवेश किया था, और इनमें उन्हें एक ऐसी नवीन तथ्यमाला का साक्षात्कार हुआ था, जो आध्यात्मिक जगत् से सम्बद्ध है। उन अवस्थाओं में उन महापुरुषों को जो अनुभव हुए, वे हमारे जागृतावस्था के अनुभवों से कहीं अधिक ठोस साबित हुए। उदाहरण के लिए तुम ब्राह्मण धर्म को लो। ऐसा कहा जाता है कि वेद ऋषियों द्वारा रचित हैं । ये ऋषि ऐसे सन्त थे, जिन्हें विशिष्ट तथ्यों का अनुभव हुआ था । संस्कृत शब्द ‘ऋषि’ की ठीक परिभाषा है – मन्त्रों का द्रष्टा । ये मन्त्र वेदों की ऋचाओं के भाव है। इन ऋषियों ने यह घोषित किया कि उन्होंने कुछ विशिष्ट तथ्यों का साक्षात्कार – अनुभव किया है – अगर ‘ अनुभव’ शब्द को इन्द्रियातीत विषय में प्रयोग करना ठीक है तो – और तब उन्होंने अपने अनुभवों को लिपिबद्ध किया। हम देखते हैं कि यहूदियों और ईसाइयों में भी इसी सत्य का उद्घोष हुआ था।
दक्षिण सम्प्रदाय के प्रतिनिधि बौद्धों का जहाँ तक प्रश्न है, इस सिद्धान्त को अपवाद रूप में लिया जा सकता है। यह पूछा जा सकता है कि यदि बौद्ध लोग ईश्वर या आत्मा में विश्वास नहीं करते, तो यह कैसे माना जा सकता है कि उनका धर्म भी किसी अतीन्द्रिय स्तर पर आधारित है? इसका उत्तर यह है कि बौद्ध लोग भी एक शाश्वत नैतिक नियम-धर्म-में विश्वास करते हैं, और उस धर्म का ज्ञान सामान्य तर्कों के आधार पर नहीं हुआ था, वरन् बुद्ध ने अतीन्द्रियावस्था में इसका आविष्कार किया था। तुम लोगों में से जिन्होंने बुद्ध के जीवन-चरित्र का अध्ययन किया है चाहे वह ‘एशिया की ज्योति’ (The light of Asia) जैसी ललित कविता के माध्यम से संक्षिप्त रूप में ही क्यों न हो, उन्हें याद होगा कि बुद्ध को अश्वत्थ वृक्ष के तले बैठा हुआ दिखाया गया है जहाँ उन्हें निर्विकल्पावस्था की प्राप्ति हुई है । उनके सारे उपदेश इस अवस्था से ही प्रादुर्भूत हुए, न कि बौद्धिक चिन्तन से।
इस प्रकार सभी धर्मों ने यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि मनुष्य का मन कुछ खास क्षणों में इन्द्रियों की सीमाओं के ही नहीं, बुद्धि की शक्ति के भी परे पहुँच जाता है । उस अवस्था में वह उन तथ्यों का साक्षात्कार करता है जिनका ज्ञान न कभी इन्द्रियों से हो सकता था और न चिन्तन से ही। ये तथ्य ही संसार के सभी धर्मों के आधार हैं । निश्चय ही हमें इन तथ्यों में सन्देह करने और उन्हें बुद्धि की कसौटी पर कसने का अधिकार है। पर संसार के सभी वर्तमान धर्मों का दावा है कि मन को ऐसी कुछ असुत शक्तियाँ प्राप्त हैं जिनसे वह इन्द्रिय तथा बौद्धिक अवस्था का अतिक्रमण कर जाता है। और उसकी इस शक्ति को वे तथ्य के रूप में मानते हैं।
धर्म के इन तथ्यों से सम्बन्धित दावों की सत्यता पर विचार करने के अतिरिक्त हमें इन सारे तथ्यों में एक समानता मिलती है। ये सभी तथ्य भौतिक शास्त्र के स्थूल आविष्कारों की तुलना में अति सूक्ष्म हैं । सभी प्रतिष्ठित धर्मों में वे एक शुद्धतम अमूर्त तत्त्व का रूप ले लेते हैं, यह रूप या तो एक सर्वव्यापी सत्ता, ईश्वर कहा जानेवाला एक अमूर्त व्यक्तित्व, अथवा नैतिक विधान होता है, या समस्त भूतों में अन्तर्व्याप्त किसी अमूर्त सार तत्त्व का रूप। आधुनिक युग में भी जब मन की अतीन्द्रियावस्था की सहायता लिये बिना ही, धर्मोपदेश देने का प्रयास किया गया, तो उसमें भी पुराने धर्मों के अमूर्त भावों की ही सहायता ली गयी, भले ही उनको ‘नैतिक विधान’ (Moral law), ‘आदर्श एकत्व’ (Ideal unity) आदि नाम दिये गये हों, जिससे सिद्ध होता है कि यह अमूर्त भाव इन्द्रियगोचर नहीं है। हममें से किसी ने कभी एक ‘आदर्श मानव’, (ideal human being) को देखा नहीं है, फिर भी हमसे कहा जाता है कि उसकी सत्ता में विश्वास करो। हममें से किसी ने आदर्शतः पूर्ण मानव को देखा नहीं, फिर भी उस आदर्श में विश्वास किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। इस तरह इन सभी धर्मों का निर्णय यह है कि एक ‘आदर्श अमूर्त सत्ता’ है, जो हमारे सम्मुख एक व्यक्त अथवा अव्यक्त सत्ता, किसी विधान या सत् या सार-तत्त्व के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, हम सतत उस आदर्श तक अपने को उठाने का प्रयास कर रहे हैं। प्रत्येक मनुष्य के सामने, वह जो भी हो, जहाँ भी हो, एक अपरिमित शक्तिवाला आदर्श रहता है । प्रत्येक मनुष्य के सामने सुख का प्रतीक कोई आदर्श रहता है। हमारे चारों ओर जो अनेकानेक कार्य हो रहे है, उनमें से अधिकांश अपरिमित शक्ति अथवा अपरिमित आनन्द के आदर्श के निमित्त ही किये जा रहे हैं। पर कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें शीघ्र ही यह पता चल जाता है कि असीम शक्ति के लाभ के निमित्त ये प्रयास तो वे कर रहे हैं, किन्तु उसको इन्द्रियों के द्वारा कोई नहीं प्राप्त कर सकता। दूसरे शब्दों में, उन्हें इन्द्रियों की सीमाओं का ज्ञान हो जाता है। वे समझ जाते हैं कि ससीम शरीर से असीम की प्राप्ति नहीं हो सकती है । सीमित माध्यम में असीम की अभिव्यक्ति असम्भव है, और देर-सबेर मनुष्य को इस सत्य का ज्ञान हो ही जाता है और तब वह अपनी सीमाओं के भीतर असीम को पाने का प्रयास त्याग देता है । प्रयास का यह परित्याग ही नैतिकता की पृष्ठभूमि है । त्याग पर ही नैतिकता आधारित है। त्याग को आधारशिला माने बिना किसी नैतिक विधान का प्रचार कभी नहीं हो सका।
नीतिशास्र सदा कहता है – ‘मैं नहीं, तू। ‘ इसका उद्देश्य है – ‘स्व नहीं, नि: -स्व’ । इसका कहना है कि असीम सामर्थ्य अथवा असीम आनन्द को प्राप्त करने के क्रम में मनुष्य जिस निरर्थक व्यक्तित्व की धारणा से चिपटा रहता है, उसे छोड़ना पड़ेगा। तुमको दूसरों को आगे करना पड़ेगा और स्वयं को पीछे । हमारी इन्द्रियाँ कहती हैं, ‘ अपने को आगे रखो’ पर नीतिशास्र कहता है – ‘अपने को सब से अन्त में रखो। ‘ इस तरह नीतिशास्र का सम्पूर्ण विधान त्याग पर ही आधारित है । उसकी पहली माँग है कि भौतिक स्तर पर अपने व्यक्तित्व का हनन करो, निर्माण नहीं। वह जो असीम है, उसकी अभिव्यक्ति इस भौतिक स्तर पर नहीं हो सकती; ऐसा असम्भव है, अकल्पनीय है ।
इसलिए मनुष्य को ‘असीम’ की गहनतर अभिव्यक्ति की प्राप्ति के लिए भौतिक स्तर को छोड़कर क्रमशः ऊपर अन्य स्तरों में जाना है । इस प्रकार विविध नैतिक नियमों की संरचना होती है, किन्तु सभी का केन्द्रीभूत आदर्श यह आत्मत्याग ही है। अहन्ता का पूर्ण उच्छेदन ही नीतिशास्र का आदर्श है । लोग आश्चर्यचकित रह जाते, यदि उनसे अहन्ता (व्यक्तित्व) की चिन्ता न करने के लिए कहा जाता है । जिसे वे अपना व्यक्तित्व कहते हैं, उसके विनष्ट हो जाने के प्रति अत्यन्त भयभीत हो जाते हैं । पर साथ ही ऐसे ही लोग नीतिशास्र के उच्चतम आदर्शों को सत्य घोषित करते हैं। वे क्षण भर के लिए भी यह नहीं सोचते कि नैतिकता का समग्र क्षेत्र, ध्येय और विषय व्यक्ति का उच्छेदन है, न कि उसका निर्माण।
उपयोगितावाद मनुष्य के नैतिक सम्बन्धों की व्याख्या नहीं कर सकता; क्योंकि पहली बात तो यह है कि उपयोगिता के आधार पर हम किसी भी नैतिक नियम पर नहीं पहुँच सकते। कोई भी नीतिशास्र तब तक नहीं टिक सकता, जब तक उसके नियमों का आधार अलौकिकता न हो, या जैसा मैं कहना अधिक ठीक समझता हूँ – जब तक उसके नियम अतीन्द्रिय ज्ञान पर आधारित न हो। असीम के प्रति संग्राम के बिना कोई आदर्श नहीं हो सकता। ऐसा कोई भी सिद्धान्त नैतिक नियमों की व्याख्या नहीं कर सकता, जो मनुष्य को सामाजिक स्तर तक ही सीमित रखना चाहता हो । उपयोगितावादी हमसे ‘असीम’ – अतीन्द्रिय गन्तव्य स्थल – के प्रति संग्राम का त्याग चाहते हैं, क्योंकि अतीन्द्रियता अव्यावहारिक है, निरर्थक है । पर साथ ही वे यह भी कहते हैं कि नैतिक नियमों का पालन करो, समाज का कल्याण करो। आखिर हम क्यों किसी का कल्याण करें? भलाई करने की बात तो गौण है, प्रधान तो है – एक आदर्श। नीतिशास्त्र स्वयं साध्य नहीं है, प्रत्युत साध्य को पाने का साधन है। यदि उद्देश्य नहीं है, तो हम क्यों नैतिक बनें? हम क्यों दूसरों की भलाई करें? क्यों हम लोगों को सताएं नहीं? अगर आनन्द ही मानव-जीवन का चरम उद्देश्य है, तो क्यों न मैं दूसरों को कष्ट पहुँचाकर भी स्वयं सुखी रहूँ? ऐसा करने से मुझे रोकता कौन है? दूसरी बात यह है कि उपयोगिता का आधार अत्यन्त संकीर्ण है। सारे प्रचलित, सामाजिक नियमों की रचना तो, समाज की तात्कालिक स्थिति को दृष्टि में रखकर की गयी है। किन्तु उपयोगितावादियों को यह सोचने का क्या अधिकार है कि यह समाज शाश्वत है? कभी ऐसा भी समय था, जब समाज नहीं था, और ऐसा भी समय आएगा, जब यह नहीं रहेगा। यह तो शायद मनुष्य की प्रगति के क्रम में एक ऐसा स्थल है, जिससे होकर उसे विकास के उच्चतर स्तरों तक जाना है । और इस तरह कोई भी नियम जो मात्र समाज पर आधारित है, शाश्वत नहीं हो सकता मानव-प्रकृति को पूर्णरूपेण आच्छादित नहीं कर सकता। अधिक से अधिक यह उपयोगितावादी नियम समाज की वर्तमान स्थिति में काम कर सकता है । इसके आगे इसकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती। किन्तु धर्म तथा आध्यात्मिकता पर आधारित नीतिशास्र का क्षेत्र असीम मनुष्य है । वह व्यक्ति को लेता है पर उसके सम्बन्ध असीम हैं । वह समाज को भी लेता है, क्योंकि समाज व्यक्तियों के समूह का ही नाम है, इसलिए जिस प्रकार यह नियम व्यक्ति और उसके शाश्वत सम्बन्धों पर लागू होता है, ठीक उसी प्रकार समाज पर भी लागू होता है – समाज की स्थिति या दशा किसी समयविशेष में जो भी हो। इस तरह हम देखते हैं कि मनुष्य को सदैव आध्यात्मिक धर्म की आवश्यकता पड़ती रहेगी। वह हमेशा भौतिक जगत् में ही लिप्त नहीं रह सकता – वह उसे कितना भी आनन्ददायक क्यों न लगे ।
ऐसा कहा जाता है कि अधिक आध्यात्मिक होने पर सांसारिक व्यवहारों में कठिनाइयाँ हो सकती हैं। कन्फ्यूशियस के युग में ही कहा गया था कि ‘पहले हम इस संसार की चिन्ता करें और जब इससे छुट्टी मिले, तो दूसरे लोकों की चर्चा करें । ‘ इस लोक की चिन्ता करना बड़ा अच्छा है । पर अगर अधिक आध्यात्मिकता से हमारे लोकाचार में थोड़ी गड़बड़ी होती है, तो सांसारिकता पर अत्यधिक ध्यान देने से तो इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ जाएँगे। सांसारिकता हमें पूर्णतः भौतिकवादी बनाकर छोड़ेगी।। मनुष्य का उद्देश्य ‘प्रकृति’ नहीं है – वरन् कुछ उससे ऊपर की वस्तु है ।
‘मनुष्य तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जब तक वह प्रकृति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करता है।’ और यह प्रकृति बाह्य और आन्तरिक दोनों है । इस प्रकृति के भीतर केवल वे ही निमय नहीं हैं, जिनसे हमारे शरीर के तथा उसके बाहर के परमाणु नियन्त्रित होते हैं, वरन् ऐसे सूक्ष्म नियम भी हैं, जो वस्तुतः बाह्य प्रकृति को संचालित करनेवाली अन्तःस्थ प्रकृति का नियमन करते है । बाह्य प्रकृति को जीत लेना कितना अच्छा है, कितना भव्य है! पर उससे असंख्य गुना अच्छा और भव्य है आभ्यन्तर प्रकृति पर विजय पाना। ग्रहों और नक्षत्रों का नियन्त्रण करनेवाले नियमों को जान लेना बहुत अच्छा और गरिमामय है परन्तु उससे अनन्त गुना अच्छा और भव्य है, उन नियमों को जानना, जिनसे मनुष्य के मनोवेग, भावनाएँ और इच्छाएँ नियन्त्रित होती हैं । इस आन्तरिक मनुष्य पर विजय पाना, मानव-मन की जटिल स्व क्रियाओं के रहस्य को समझना, पूर्णतया धर्म के अन्तर्गत आता है। मनुष्य का स्वभाव-साधारण मनुष्य-स्वभाव – है कि वह वृहत भौतिक तथ्यों का अवलोकन करना चाहता है। साधारण मनुष्य किसी स्व वस्तु को नहीं समझ सकता। ठीक ही कहा गया है कि संसार तो उस सिंह का आदर करता है, जो हजारों मेमनों का वध करता है। लोगों को यह समझने का अवकाश कहाँ है कि सिंह की इस क्षणिक विजय का अर्थ है – हजारों मेमनों की मृत्यु! इसका कारण यह है कि मनुष्य शारीरिक शक्ति की अभिव्यक्ति से प्रसन्न होता है। मानव-जाति का यही सामान्य स्वभाव है । बाह्य वस्तुओं को ही लोग समझ सकते हैं इन्हीं में उन्हें आनन्द भी मिलता है । पर हर समाज में कुछ ऐसे लोग मिलते ही हैं जिन्हें इन्द्रियविषयक वस्तुओं में कोई आनन्द नहीं मिलता। वे इनसे ऊपर उठना चाहते हैं और यदाकदा सूक्ष्मतर तत्त्वों की झाँकी पाकर उन्हें ही पाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं । और जब हम विश्व-इतिहास का मनन करते हैं तो पाते हैं कि जब जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है, तथा जब भूमा या असीम की खोज – उसे उपयोगितावादी कितनी ही अर्थहीन कहें – समाप्त हो जाती है तो उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकता ही किसी भी राष्ट्र की शक्ति का प्रधान स्रोत है। जिस दिन से इसका हास और भौतिकता का उत्थान होने लगता है, उसी दिन से उस राष्ट्र की मृत्यु प्रारम्भ हो जाती है ।
इस तरह धर्म से ठोस सत्यों और तथ्यों को पाने के अतिरिक्त उससे मिलनेवाली सानना के अतिरिक्त एक विशुद्ध विज्ञान और एक अध्ययन के रूप में वह मानव-मन के लिए सर्वोत्कृष्ट और स्वस्थतम व्यायाम है । असीम की खोज करना, असीम को पाने के लिए उद्यम करना, इन्द्रियों – मानो भौतिक द्रव्यों – की सीमाओं से परे जाकर एक आध्यात्मिक मानव के रूप में विकसित होना – इन सारी चीजों के लिए दिन-रात जो प्रयत्न किया जाता है, वह अपने आप में ही मनुष्य के सभी प्रयत्नों में उदात्ततम और परम गौरवशाली है। कुछ ऐसे व्यक्ति मिलेंगे, जिन्हें भोजन में ही परमसुख मिलता है। हमें कोई अधिकार नहीं की हम उन्हें वैसा करने से मना करें । फिर कुछ ऐसे भी व्यक्ति मिलेंगे जिन्हें विशिष्ट वस्तुओं के स्वामित्व में आनन्द मिलता है । और हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम कहें कि उन्हें वैसा नहीं करना चाहिए। पर किसी को आध्यात्मिक चिन्तन में ही परमानन्द मिलता है, तो उसे मना करने का भी किसी को कोई अधिकार नहीं है। जो प्राणी जितना ही निम्न स्तर का होगा, उसे इन्द्रियजनित सुखों में उतना ही आनन्द मिलेगा। बहुत कम मनुष्य ऐसे मिलेंगे जिन्हें भोजन करते समय वैसा ही उल्लास होता है, जैसा किसी कुत्ते या भेड़िये को । किन्तु याद रहे कि कुत्ते और भेड़िये के सारे सुख इन्द्रियों तक ही सीमित हैं । निम्न कोटी के मनुष्यों को इन्द्रियजनित सुखों में ही आनन्द मिलता है । किन्तु जो लोग सुसंस्कृत एवं सुशिक्षित हैं उन्हें चिन्तन, दर्शन, कला और विज्ञान में आनन्द मिलता है। आध्यात्मिकता उससे भी उच्चतर स्तर की है । विषय के असीम होने के कारण वह स्तर उच्चतम है और जो इसे हृदयंगम कर सकते है उनके लिए उस स्तर का आनन्द सर्वोत्तम है। इसलिए अगर शुद्ध उपयोगितावादी दृष्टिकोण से भी आनन्द की प्राप्ति ही मनुष्य का उद्देश्य है, तो भी धार्मिक चिन्तन का अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि उसी में सर्वोत्तम सुख है । इस तरह मुझे तो ऐसा लगता है कि एक अध्ययन के रूप में भी धर्म अत्यन्त आवश्यक है;।
अब हम इसके परिणामों पर विचार करें । मानव-मन के लिए यह सब से बड़ी प्रेरक शक्ति है। जितनी शक्ति हममें आध्यात्मिक आदर्शों पर चलने से आती है, उतनी और किसी से नहीं। जहाँ तक मानव-इतिहास का प्रश्न है, हम लोगों के लिए सुस्पष्ट है कि बात ऐसी ही रही है और धर्म की शक्तियाँ मृत नहीं हैं। मैं यह नहीं कहता कि केवल उपयोगितावादी आधार पर मनुष्य नैतिक और अच्छा नहीं हो सकता। केवल उपयोगिता के स्तर पर भी पूर्णतया स्वस्थ, नैतिक और अच्छे महान् पुरुष इस संसार में हुए हैं। किन्तु वैसे संसार को हिला देनेवाले लोग जो मानो विश्व में एक महान् चुम्बकीय आकर्षण ला देते हैं, जिनकी आत्मा सैकड़ों और हजारों में कार्यशील है, जिनका जीवन आध्यात्मिक अग्नि से दूसरों को प्रज्वलित कर देता है, सदा आध्यात्मिकता की पृष्ठभूमि से ही आविर्भूत होते हैं । उनकी प्रेरक शक्ति का स्रोत सदा ही धर्म रहा है । जो असीम शक्ति प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव तथा जन्मसिद्ध अधिकार है, उसके साक्षात् के लिए धर्म सर्वश्रेष्ठ प्रेरक शक्ति है । चरित्र-निर्माण, शिव और महत् की प्राप्ति, स्वयं तथा विश्व की शान्ति की प्राप्ति के लिए धर्म ही सवोंपरि प्रेरक शक्ति है । अतः उसका अध्ययन इस दृष्टि से भी होना चाहिए। धर्म का अध्ययन अब पहले की अपेक्षा अधिक व्यापक आधार पर होना चाहिए। धर्मसम्बन्धी सभी संकीर्ण, सीमित, विवादास्पद धारणाओं को नष्ट होना चाहिए। सम्प्रदाय, जाति या राष्ट्र की भावना पर आधारित सारे धर्मों का परित्याग करना होगा। हर जाति या राष्ट्र का अपना अपना अलग ईश्वर मानना और दूसरों को भ्रान्त कहना, एक अन्धविश्वास है उसे अतीत की वस्तु हो जाना चाहिए। ऐसे सारे विचारों से मुक्ति पाना होगा।
जैसे जैसे मानव-मन का विकास होता है, वैसे वैसे आध्यात्मिक सोपान भी विस्तृत होते जाते हैं। वह समय तो आ ही गया है, जब कोई व्यक्ति पृथ्वी के किसी कोने में कोई बात कहे और सारे विश्व में वह गूँज उठे । मात्र भौतिक साधनों से हमने संपूर्ण जगत् को एक बना डाला है। इसलिए स्वभावतः ही आनेवाले धर्म को विश्वव्यापी होना पड़ेगा।
भविष्य के धार्मिक आदर्शों को सम्पूर्ण जगत् में जो कुछ भी सुन्दर और महत्त्वपूर्ण है, उन सबों को समेटकर चलना पड़ेगा और साथ ही भावविकास के लिए अनन्त क्षेत्र प्रदान करना पड़ेगा। अतीत में जो कुछ भी सुन्दर रहा है, उसे जीवित रखना. होगा। साथ ही वर्तमान के भण्डार को और भी समृद्ध बनाने के लिए भविष्य का विकासद्वार भी, खुला रखना होगा। धर्म को ग्रहणशील होना चाहिए, और ईश्वर-सम्बन्धी अपने आदर्शों में भिन्नता के कारण एक दूसरे का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। मैंने अपने जीवन में ऐसे अनेक महापुरुषों को देखा है, जो ईश्वर में एकदम विश्वास नहीं करते थे, अर्थात् हमारे और तुम्हारे ईश्वर में। किन्तु वे लोग ईश्वर को हमारी अपेक्षा अधिक अच्छी तरह समझते थे। ईश्वर-सम्बन्धी सभी सिद्धान्त – सगुण, निर्गुण, अनन्त, नैतिक नियम अथवा आदर्श मानव – धर्म की परिभाषा के अन्तर्गत आने चाहिए। और जब धर्म इतने उदार बन जाएँगे, तब उनकी कल्याणकारिणी शक्ति सौगुनी अधिक हो जाएगी। धर्मों में अछूत शक्ति है; पर इनकी संकीर्णताओं के कारण इनसे कल्याण की अपेक्षा अधिक हानि ही हुई है ।
यहाँ तक कि आज भी हम बहुत से सम्प्रदाय और समाज पाते हैं, जो प्रायः समान आदर्श के अनुगामी होते हुए भी परस्पर लड़ रहे है। इसका कारण यह है कि एक सम्प्रदाय आदर्शों को दूसरे के समान हूबहू प्रतिपादित नहीं करना चाहता। अतः धर्म के उदार होने की नितान्त आवश्यकता है । धार्मिक विचारों को विस्तृत, विश्वव्यापक और असीम होना ही पड़ेगा, और तभी हम धर्म का पूर्ण रूप प्राप्त करेंगे, क्योंकि धर्म की शक्तियों की वास्तविक अभिव्यक्ति तो बस अब शुरू हुई है। लोग कहते है – धर्म मर रहा है, आध्यात्मिकता का हास हो रहा है; पर मुझे तो लगता है कि अभी अभी ये पनपने लगे हैं । एक सुसंस्कृत एवं उदार धर्म की शक्ति अभी ही तो सम्पूर्ण मानव-जीवन में प्रवेश करने जा रही है। जब तक धर्म कुछ इने-गिने पण्डे-पादरियों के हाथों में रहा, तब तक इसका दायरा मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर और धर्मग्रंथों तथा धार्मिक नियमों, अनुष्ठानों और बाह्याचारों तक सीमित रहा। पर जब हम यथार्थ आध्यात्मिक और विश्वव्यापक धरातल पर आ पहुँचेंगे, तब और तभी धर्म यथार्थ हो उठेगा सजीव हो उठेगा, हमारे जीवन का अंग बन जाएगा, हमारी हर गति में रहेगा, समाज के रोम रोम में समा जाएगा, और तब इसकी शिवात्मक शक्ति पहले कभी भी की अपेक्षा अनन्त गुनी अधिक हो जाएगी।
आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी तरह के धर्म परस्पर बंधुत्व का भाव रखें, क्योंकि अगर उन्हें जीना है, तो साथ-साथ और मरना है, तो साथ-साथ। बंधुत्व की यह भावना पारस्परिक स्नेह और आदर पर आधारित होनी चाहिए। न कि संरक्षणशील, प्रसाद स्वरूप किंचित् शुभेच्छा की कृपण अभिव्यक्ति पर, जिसे आज एक धर्म अनुग्रह के भाव से दूसरे पर दर्शाते हुए पाया जाता है । एक ओर है मानसिक व्यापारों की अध्ययनजन्य धार्मिक अभिव्यक्तियाँ जो अभाग्यवश आज भी धर्म पर एकाधिकार का पूरा दावा रखती हैं – और दूसरी ओर हैं धर्म की वे अभिव्यक्तियाँ, जिनके मस्तिष्क तो स्वर्ग के रहस्यों में अधिक व्यस्त है, किन्तु जिनके चरण पृथ्वी से ही चिपके हैं – मेरा तात्पर्य है तथाकथित भौतिक विज्ञानों से । अब इन दोनों के मध्य इस बन्धुत्व की भावना की सर्वोपरि आवश्यकता है ।
इस सामंजस्य को लाने के लिए दोनों को ही आदान-प्रदान करना पड़ेगा, त्याग करना पड़ेगा, यही नहीं, कुछ दुःखद बातों को भी सहन करना पड़ेगा। पर इसी त्याग के परिणामस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति और भी निखर उठेगा और सत्य के सन्धान में अपने को और भी आगे पाएगा। अन्त में देश- काल की सीमाओं में बद्ध ज्ञान का महामिलन उस ज्ञान से होगा जो इन दोनों से परे है, जो मन तथा इन्द्रियों की पहुँच से परे है – जो निरपेक्ष है, असीम है, अद्वितीय है ।
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