मनुष्य का वास्तविक और प्रातिभासिक स्वरूप – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)
“मनुष्य का वास्तविक और प्रातिभासिक स्वरूप” नामक यह व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने न्यू यॉर्क में दिया था। ज्ञान योग पुस्तक में संकलित इस भाषण में स्वामी जी ने बहुत ही सुन्दरता से समझाया है कि मनुष्य जो दिखता है वह नहीं है, बल्कि वह साक्षात सच्चिदानन्द ब्रह्म ही है। मनुष्य का वास्तविक और प्रातिभासिक स्वरूप बहुत भिन्न-भिन्न हैं और बिना अपरोक्षानुभूति के यह जानना बहुत कठिन है। इस पुस्तक के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग हिंदी में।
हम यहाँ खड़े है, परन्तु हमारी दृष्टि दूर बहुत दूर, और कभी-कभी तो, कोसों दूर चली जाती है। जब से मनुष्य ने विचार करना आरम्भ किया, तभी से वह ऐसा करता आ रहा है। मनुष्य सदैव आगे और दूर देखने का प्रयत्न करता है । यह जानना चाहता है कि इस शरीर के नष्ट होने के बाद वह कहाँ चला जाता है । इसकी व्याख्या करने के लिए अनेक सिद्धान्तों का प्रचार हुआ, सैकड़ों मतों की स्थापना हुई। उनमें से कुछ मत खण्डित करके छोड़ भी दिये गये और कुछ स्वीकार किये गये; और जब तक मनुष्य इस जगत् में रहेगा, जब तक वह विचार करता रहेगा, तब तक ऐसा ही चलेगा। इन सभी मतों में कुछ न कुछ सत्य है और साथ ही, उनमें बहुत-सा असत्य भी है । इस सम्बन्ध में भारत में जो सब अनुसन्धान हुए हैं, उन्हीं का सार, उन्हीं का फल मैं तुम्हारे सामने रखने का प्रयत्न करूँगा। भारतीय दार्शनिकों के इन सब विभिन्न मतों का समन्वय, तत्त्वचिन्तकों तथा मनोवैज्ञानिकों के सिद्धान्तों का समन्वय, और यदि हो सका तो, उनके साथ आधुनिक वैज्ञानिक चिन्तकों के सिद्धान्तों का भी समन्वय करने का मैं प्रयत्न करूँगा।
वेदान्त-दर्शन का एक मात्र विषय है – एकत्व की खोज। हिन्दू मन वस्तुविशेष के लिए परवाह नहीं करता, वह तो सदैव सामान्य की, यही क्यों सार्वभौमिक की खोज करता है। “वह क्या है, जिसके जान लेने से सब कुछ जाना जा सकता है?” यही एक विषयवस्तु है । जिस प्रकार मिट्टी के एक ढेले को जान लेने पर मिट्टी से बनी हुई समस्त वस्तुओं को जान लिया जाता है, उसी प्रकार ऐसी कौन-सी वस्तु है, जिसे जान लेने पर समस्त विश्व को जाना जा सकता है? यही एक खोज है । हिन्दू दार्शनिकों के मतानुसार समस्त जगत का विश्लेषण करके उसे ‘आकाश’ में पर्यवसित किया जा सकता है । हम अपने चारों ओर जो कुछ देखते है, अनुभव करते है, छूते है, आस्वादन करते हैं, वह सब इसी आकाश की विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र हैं । यह आकाश सूक्ष्म और सर्वव्यापी हैं । ठोस तरल और वाष्पीय सब प्रकार के पदार्थ सब प्रकार के रूप, शरीर, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, तारे – सब इसी आकाश से निर्मित है ।
किस शक्ति ने इस आकाश पर कार्य करके इसमें से जगत की सृष्टि की ? आकाश के साथ एक सर्वव्यापी शक्ति रहती है । जगत में जितनी भी भिन्न-भिन्न शक्तियाँ है – आकर्षण विकर्षण यहाँ तक कि विचार-शक्ति भी – सभी ‘प्राण’ नामक एक महाशक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं । इसी प्राण ने आकाश पर कार्य करके इस जगत-प्रपंच की रचना की है । कल्प के प्रारम्भ में यह प्राण, मानो अनन्त आकाश-समुद्र में प्रसुप्त रहता है । प्रारम्भ में यह आकाश गतिहीन होकर अवस्थित था । बाद में प्राण के प्रभाव से इस आकाश-समुद्र में गति उत्पन्न होने लगती है । और जैसे जैसे इस प्राण का स्पन्दन या गति होने लगती है, वैसे-वैसे इस आकाश-समुद्र मैं से नाना ब्रह्माण्ड नाना जगत कितने ही सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथ्वी, मनुष्य, जन्तु, उदभिद और नानाविध शक्तियाँ उत्पन्न होती रहती हैं । अतएव हिन्दुओं के मत से सब प्रकार की शक्तियों प्राण की और सब प्रकार के भौतिक पदार्थ आकाश की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ है, कल्पान्त में सभी ठोस पदार्थ पिघल जाएँगे । और वह तरल पदार्थ वाष्पीय आकार में परिणत हो जाएगा । वह फिर तेज-रूप धारण करेगा । अन्त में सब कुछ जिस आकाश में से उत्पन्न हुआ था, उसी में विलीन हो जाएगा । और आकर्षण, विकर्षण, गति आदि समस्त शक्तियां धीरे-धीरे मूल प्राण में परिणत हो जाएँगी । उसके बाद जब तक फिर से कत्यारम्भ नहीं होता, तब तक यह प्राण मानो निद्रित अवस्था में रहेगा । कल्पारम्भ होने पर वह जागकर पुनः नाना रूपों को प्रकाशित करेगा और कल्पान्त में फिर से सब रहा लय हो जाएगा । बस इसी प्रकार सृष्टि आती है और चली जाती है, वह मानो एक बार पीछे और एक बार आगे झूल रही है । आधुनिक विज्ञान की भाषा में कहेंगे कि एक समय वह स्थितिशील रहती है, फिर गतिशील हो जाती है, एक समय प्रसुप्त रहती है और फिर क्रियाशील हो जाती है । बस इसी प्रकार अनन्त काल से चला आ रहा है।
पर यह विश्लेषण भी अधूरा है । इतना तो आधुनिक भौतिक विज्ञान को भी ज्ञात है । इसके परे भौतिक विज्ञान की पहुँच नहीं है । पर इस अनुसन्धान का यही अन्त नहीं हो जाता । हमने अभी तक उस वस्तु को प्राप्त नहीं किया, जिसे जान लेने पर सब कुछ जाना जा सके । हमने समस्त जगत को भूत और शक्ति में अथवा प्राचीन भारतीय दार्शनिकों के शब्दों में आकाश और प्राण में पर्यवसित कर दिया। अब आकाश और प्राण को उनके मूल-तत्व में पर्यवसित करना होगा। इन्हें मन नामक उच्चतर सत्ता में पर्यवसित किया जा सकता है । मन महत् अथवा समष्टि विचार-शक्ति से, प्राण और आकाश दोनों की उत्पत्ति होती है । प्राण या आकाश की अपेक्षा विचार सत्ता की और अधिक सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है । विचार ही स्वयं इन दोनों में विभक्त हो जाता है । प्रारम्भ में यह सर्वव्यापी मन ही था और इसने स्वयं व्यक्त, परिवर्तित और विकसित होकर आकाश और प्राण ये दो रूप धारण किये और इन दोनों के सम्मिश्रण से सारा जगत बना।
अब हम मनोविज्ञान की चर्चा करेंगे । मैं तुमको देख रहा हूँ । आँखें बाह्य संवेदनाएँ मेरे पास लाती हैं और संवेदक नाड़ियाँ उन्हें मस्तिष्क में ले जाती हैं। आंखें देखने का साधन नहीं है, वे उसका केवल बाहरी यन्त्र हैं, क्योंकि देखने का जो वास्तविक साधन है, जो मस्तिष्क में संवेदनाएँ ले जाता है, उसको यदि नष्ट कर दिया जाए तब बीस आंखें रहते हुए भी मैं तुममें से किसी को भी न देख सकूँगा। नेत्रपट (Retina) पर भले ही चित्र पूरा हो, फिर भी मैं तुमको न देख सकूँगा। अतएव वास्तविक दर्शनेन्द्रिय इस यन्त्र से भिन्न है । इस यन्त्रे – चक्षु के पीछे यथार्थ चक्षुरिंन्द्रिय है । सब प्रकार की विषयानुभूतियों के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए। नासिका प्राणेन्द्रिय नहीं है, वह तो यन्त्र मात्र है, प्राणेन्द्रिय उसके पीछे है । प्रत्येक इन्द्रिय के सम्बन्ध में समझना चाहिए कि बाह्य यन्त्र इस स्थूल शरीर में अवस्थित है, और उनके पीछे इस स्थूल शरीर में ही, इन्द्रियाँ भी मौजूद है। पर इतना ही पर्याप्त नहीं है । मान लो मैं तुमसे कुछ कह रहा हूँ और तुम बड़े ध्यान से मेरी बात सुन रहे हो। इसी समय यहाँ एक घण्टा बजता है और शायद तुम उस घण्टे की ध्वनि को नहीं सुन पाते। यह शब्द-तरंगों ने तुम्हारे कान में पहुँचकर कान के परदे में आघात किया, नाड़ियों के द्वारा यह संवाद मस्तिष्क में पहुँचा, पर फिर भी तुम उसे नहीं सुन सके। ऐसा क्यों? यदि मस्तिष्क में आवेग संवाहित करने से ही सुनने की सारी क्रिया सम्पूर्ण हो जाती है, तो फिर तुम क्यों सुन नहीं सके? किसी अन्य घटक का अभाव था – मन इन्द्रिय से युक्त नहीं था। जिस समय मन इन्द्रियों से पृथक रहता है, उस समय इन्द्रियों द्वारा लाये गये किसी भी संवाद को मन ग्रहण नहीं करता। जब मन उनसे युक्त रहता है, तभी वह किसी भी संवाद को ग्रहण करने में समर्थ होता है । पर इससे भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं हो जाती। बाहरी यन्त्र भले ही बाहर से संवाद ले आएँ इन्द्रियाँ भले ही उसे भीतर ले जाएँ और मन भी इन्द्रियों से संयुक्त रहे पर तो भी विषयानुभूति पूर्ण न होगी। एक और वस्तु आवश्यक है – भीतर से प्रतिक्रिया होनी चाहिए। प्रतिक्रिया से शान उत्पन्न होगा। बाहर की वस्तु ने मानो मेरे अन्दर संवाद-प्रवाह भेजा। मेरे मन ने उसे ले जाकर बुद्धि के निकट अर्पित कर दिया, बुद्धि ने पहले से बने हुए मन के संस्कारों के अनुसार उसे सजाया और बाहर की ओर एक प्रतिक्रिया-प्रवाह भेजा। बस, इस प्रतिक्रिया के साथ ही विषयानुभूति होती है । मन की जो स्थिति यह प्रतिक्रिया भेजती है, उसे ‘बुद्धि’ कहते हैं । किन्तु इससे भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं हुई । मान लो, एक कैमरा है और एक परदा। मैं इस परदे पर एक चित्र डालना चाहता हूँ। तो मुझे क्या करना होगा? मुझे उस यन्त्र में से नाना प्रकार की प्रकाशकिरणों को इस परदे पर डालने का और उन्हें एक स्थान में एकत्र करने का प्रयत्न करना होगा। इसके लिए एक अचल वस्तु की आवश्यकता है, जिस पर चित्र डाला जा सके । किसी चलनशील वस्तु पर ऐसा करना असम्भव है – कोई स्थिर वस्तु चाहिए; क्योंकि मैं जो प्रकाशकिरणें डालना चाहता हूँ, वे सचल है और इन सचल प्रकाशकिरणों को किसी अचल वस्तु पर एकत्र, एकीभूत, सम्मिलित और केन्द्रित करना होगा। यही बात उन संवेदनों के विषय में भी है, जिन्हें इन्द्रियाँ मन के निकट ऑर मन बुद्धि के निकट समर्पित करता है । जब तक ऐसी कोई वस्तु नहीं मिल जाती, जिस पर यह चित्र डाला जा सके, जिस पर ये भिन्न-भिन्न भाव एकत्रीभूत होकर मिल सके, तब तक यह विषयानुभूति पूर्ण नहीं होती। वह कौन-सी वस्तु है, जो हमारे अस्तित्व के विभिन्न परिवर्तनशील विभागों को एकत्व का भाव प्रदान करती है? वह कौन-सी वस्तु है, जो विभिन्न गतियों के भीतर भी प्रतिक्षण एकत्व की रक्षा किये रहती है? वह कौन-सी वस्तु है, जिस पर भिन्न-भिन्न भाव मानो एक ही जगह गुँथे रहते हैं, जिस पर विभिन्न विषय आकर मानो एक जगह वास करते हैं और एक अखण्ड भाव धारण करते है? हमने देखा है कि इस प्रकार की कोई वस्तु अवश्य चाहिए, और उस वस्तु का, शरीर और मन की तुलना में अचल होना आवश्यक है। जिस परदे पर यह कैमरा चित्र डाल रहा है, वह इन प्रकाशकिरणों की तुलना में अचल है । यदि ऐसा न हो, तो चित्र पड़ेगा ही नहीं। अर्थात् उस वस्तु को, उस द्रष्टा को एक अखण्ड, अविभाज्य व्यक्ति (Individual) होना चाहिए। जिस वस्तु पर मन सब चित्रांकन करता है, जिस पर मन और बुद्धि द्वारा ले जायी गयी हमारी संवेदनाएँ स्थापित, श्रेणीबद्ध और एकत्रीभूत होती है, बस उसी को मनुष्य की आत्मा कहते हैं ।
तो हमने ‘देखा -कि समष्टि-मन या महत् आकाश और प्राण इन दो भागों में विभक्त है। और मन के पीछे है आत्मा। समष्टि-मन के पीछे जो आत्मा है, उसे ईश्वर कहते है । व्यष्टि में यह मनुष्य की आत्मा मात्र है। जिस प्रकार विश्व में समष्टि-मन आकाश और प्राण के रूप में परिणत हो गया है उसी प्रकार समष्टि-आत्मा भी मन के रूप में परिणत हो गयी है। अब प्रश्न उठता है – क्या इसी प्रकार व्यष्टि-मनुष्य के सम्बन्ध में भी समझना होगा? मनुष्य का मन भी क्या उसके शरीर का स्रष्टा है और क्या उसकी आत्मा उसके मन की स्रष्टा है? अर्थात मनुष्य का शरीर, मन और आत्मा – ये क्या. तीन विभिन्न वस्तुएँ हैं, अथवा ये एक के भीतर ही तीन हैं, अथवा ये सब एक ही सत्ता की तीन विभिन्न अवस्थाएं हैं? हम क्रमशः इसी प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न करेंगे। जो भी हो हमने अब तक यही देखा। कि पहले तो यह स्थूल देह है, उसके पीछे हैं, इन्द्रियाँ फिर मन, तत्पश्चात् बुद्धि और बुद्धि के भी पीछे आत्मा। तो पहली बात यह हुई कि आत्मा शरीर से पृथक है तथा वह मन से भी पृथक है। बस, यहीं से धर्मजगत में मतभेद देखा जाता है । द्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा सगुण है, अर्थात भोग सुख, दुःख आदि सभी यथार्थ में आत्मा के धर्म है, पर अद्वैतवादी कहते हैं कि वह निर्गुण है, उसमें यह धर्म नहीं है ।
हम पहले द्वैतवादियों के मत का – आत्मा और उसकी गति के सम्बन्ध में उनके मत का – वर्णन करके, उसके नाद उस मत का वर्णन करेंगे, जो इसका पूर्ण रूप से खण्डन करता है, और अन्त में अद्वैतवाद के द्वारा दोनों मतों का सांमजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करेंगे। यह मानवात्मा शरीर और मन से पृथक् होने के कारण एवं आकाश और प्राण से गठित न होने के कारण अवश्य अमर है। क्यों? मृत्यु या विनाश का क्या अर्थ है? – विघटित हो जाना, और जो वस्तु कुछ पदार्थों के संयोग से बनती है, वही विघटित होती है । जो अन्य पदार्थों के संयोग से उत्पन्न नहीं है, वह कभी विघटित नहीं होती, इसलिए उसका विनाश भी कभी नहीं हो सकता। वह अविनाशी है । वह अनन्त काल से है, उसकी कभी सृष्टि नहीं हुई। सृष्टि तो संयोग अथवा संघात मात्र है । शून्य से कभी किसी ने सृष्टि नहीं देखी । सृष्टि के सम्बन्ध में हम बस इतना ही जानते हैं कि वह पहले से वर्तमान कुछ वस्तुओं का नये-नये रूपों में एकत्र मिलन मात्र है । यदि ऐसा है, तो फिर यह मानवात्मा भिन्न-भिन्न वस्तुओं के संयोग से उत्पन्न नहीं है अतः वह अवश्य अनन्त काल से है और अनन्त काल तक रहेगी। इस शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा रहेगी । वेदान्तवादियों के मत से जब इस शरीर का नाश हो जाता है, तब मनुष्य की इन्द्रियाँ मन में लीन हो जाती है, मन का प्राण में लय हो जाता है, प्राण आत्मा में प्रविष्ट हो जाता है और तब मानव की वह आत्मा मानो सूक्ष्मशरीर अथवा लिंगशरीर-रूपी वस्त्र पहनकर चली जाती है । इस सूक्ष्मशरीर में ही मनुष्य के सारे संस्कार वास करते हैं। संस्कार क्या हैं? मन मानो सरोवर के समान है और हमारा प्रत्येक विचार मानो उस सरोवर की लहर के समान है । जिस प्रकार सरोवर में लहर उठती है, गिरती है, गिरकर अन्तर्हित हो जाती है, उसी प्रकार मन में ये सब विचार-तरंगें लगातार उठती और अन्तर्हित होती रहती हैं। किन्तु वे एकदम अन्तर्हित नहीं हो जातीं। वे क्रमशः सूक्ष्मतर होती जाती हैं, पर वर्तमान रहती ही हैं। प्रयोजन होने पर फिर उठती हैं। जिन विचारों ने सूक्ष्मतर रूप धारण कर लिया है, उन्हीं में से कुछ को फिर से तरंगाकार में लाने को ही स्मृति कहते हैं। इस प्रकार, हमने जो कुछ सोचा है, जो कुछ किया है, सारा का सारा मन में अवस्थित है। ये सब वहाँ सूक्ष्म रूप में हैं और मनुष्य के मर जाने पर भी ये संस्कार उसके मन में विद्यमान रहते हैं – वे फिर सूक्ष्म शरीर पर कार्य करते रहते है। आत्मा ये सब संस्कार एवं सूक्ष्मशरीर-रूपी वस्त्र पहनकर चली जाती है और विभिन्न संस्कारों की इन विभिन्न शक्तियों का समवेत फल ही आत्मा की भविष्य गति को निर्धारित करता है। उनके मत से आत्मा की तीन प्रकार की गति होती है।
जो अत्यन्त धार्मिक हैं, वे मृत्यु के बाद सूर्यरश्मियों का अनुसरण करते है; सूर्यरश्मियों का अनुसरण करते हुए वे सूर्य लोक में जाते हैं; वहाँ से वे चन्द्रलोक और चन्द्रलोक से विशुल्लोक में उपस्थित होते है; वहाँ- एक मुक्त आत्मा से उनका साक्षात्कार होता है; वह इन जीवात्माओं को सर्वोच्च ब्रह्मलोक में ले जाती है। यहाँ उन्हें सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता प्राप्त होती है; उनकी शक्ति और ज्ञान प्रायः ईश्वर के समान हो जाता है; और द्वैतवादियों के मत से वे अनन्त काल तक वहाँ वास करते हैं; अथवा, अद्वैतवादियों के अनुसार कल्पान्त में ब्रह्म के साथ एकत्व प्राप्त करते हैं । जो लोग सकाम भाव से सत्कार्य करते हैं, वे मृत्यु के बाद चन्द्रलोक में जाते हैं। वहां नाना प्रकार के स्वर्ग है । वे वहाँ पर सूक्ष्मशरीर – देवशरीर – प्राप्त करते है । वे देवता होकर वहाँ वास करते हैं और दीर्घ काल तक स्वर्ग के सुखों का उपभोग करते है । इस भोग का अन्त होने पर फिर उनका प्राचीन कर्म बलवान् हो जाता है; अतः फिर से उनका मर्त्यलोक में पतन हो जाता है । वे वायुलोक, मेघलोक आदि लोकों में से होते हुए अन्त में वृष्टिधारा के साथ पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं । वृष्टि के साथ गिरकर वे किसी शस्य का आश्रय लेकर रहते है । इसके बाद जब कोई व्यक्ति उस शस्य को खाता है, तब उसके वीर्य से वे फिर से शरीर धारण करते हैं। जो लोग अत्यन्त दुष्ट हैं, वे मरने पर भूत अथवा दानव हो जाते हैं एवं चन्द्रलोक और पृथ्वी के बीच किसी स्थान में वास करते हैं । उनमें से कुछ मनुष्यों को त्रस्त करते हैं और कुछ मनुष्यों से मैत्रीभाव रखते हैं। वे कुछ समय तक उस स्थान मैं रहकर फिर पृथ्वी पर पशु-जन्म लेते हैं। कुछ समय पशु-देह में रहकर वे फिर से मनुष्य-योनि में आते हैं – वे और एक बार मुक्तिलाभ करने की उपयुक्त अवस्था प्राप्त करते हैं । तो इस प्रकार हमने देखा कि जो लोग मुक्ति की निकटतम सीढ़ी पर पहुंच गये है, जिनमें अपवित्रता बहुत कम रह गयी है, वे ही सूर्यकिरणों के सहारे ब्रह्मलोक में जाते है । जो मध्यम- वर्ग के लोग है, जो स्वर्ग जाने की इच्छा से सत्कर्म करते हैं, वे चन्द्रलोक में जाकर वहाँ के स्वर्गों में वास करते है और देवशरीर प्राप्त करते हैं, पर उन्हें मुक्ति की प्राप्ति के लिए फिर से मनुष्य-देह धारण करनी पड़ती है । और जो अत्यन्त दुष्ट हैं, वे भूत दानव आदि रूपों में परिणत होते हैं, उसके बाद वे पशु होते, और मुक्तिलाभ के लिए उन्हें फिर से मनुष्य- जन्म ग्रहण करना पड़ता है । इस पृथ्वी को कर्मभूमि कहा जाता है । अच्छा-बुरा सभी कर्म यहीं करना होता है । मनुष्य स्वर्गकाम होकर सत्कार्य करने पर स्वर्ग में जाकर देवता हो जाता है; इस अवस्था में वह कोई नया कर्म नहीं करता वह तो, बस पृथ्वी पर किये हुए अपने सत्कर्मों के फलों का ही भोग करता है । और जब वे सत्कर्म समाप्त हो जाते है, तो उसी समय जो असत् या बुरे कर्म उसने पृथ्वी पर किये थे, उन सब का संचित फल वेग के साथ उस पर आ जाता है और उसे वहाँ से फिर एक बार पृथ्वी पर घसीट लाता है । इसी प्रकार जो भूत हो जाते हैं, वे उस अवस्था में कोई नूतन कर्म न करते हुए केवल अपने पूर्व कर्मों का फल भोगते रहते हैं; तत्पश्चात् पशु-जन्म ग्रहण कर वे वहाँ भी कोई नया कर्म नहीं करते। उसके बाद वे भी फिर मनुष्य हो जाते हैं । शुभ और अशुभ कर्मों द्वारा जनित पुरस्कार और दण्ड की अवस्थाओं में नूतन कर्मों को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होती वे केवल भोगी जाती हैं।। अत्यन्त शुभ और अत्यन्त अशुभ कर्मों का फल बहुत शीघ्र प्राप्त होता है । मान लो कि एक व्यक्ति ने जीवन भर अनेक बुरे काम किये पर एक बहुत अच्छा काम भी किया। ऐसी दशा में उस सत्कार्य का फल उसी क्षण प्रकाशित हो जाएगा और इस सत्कार्य का फल समाप्त होते ही बुरे कार्य भी अपना फल दिखाने लगेंगे । जिन लोगों ने कुछ अच्छे-अच्छे बड़े-बड़े कार्य किये हैं पर जिनके सारे जीवन की सामान्य गति अच्छी नहीं रही वे सब देवता हो जाएँगे । देव-देह धारण कर देवताओं की शक्ति का कुछ काल तक भोग करके उन्हें फिर से मनुष्य होना पड़ेगा। जब सत्कर्मों की शक्ति का क्षय हो जाएगा, तब फिर से उन पुराने असत्कार्यों का फल होने लगेगा। जो अत्यन्त बुरे कर्म करते हैं, उन्हें भूत-योनि दानव-योनि में जाना पड़ेगा, और जब उनके बुरे कर्मों का फल समाप्त हो जाएगा, तो उस समय उनका जितना भी सत्कर्म शेष है, उसके फल से वे फिर मनुष्य हो जाएँगे। जिस मार्ग से ब्रह्मलोक में जाते हैं, जहाँ से पतन होने अथवा लौटने की सम्भावना नहीं रहती, उसे देवयान कहते हैं और चन्द्रलोक के मार्ग को पितृयान कहते हैं ।
अतएव वेदान्त-दर्शन के मत से मनुष्य ही जगत में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और यह कर्म भूमि पृथ्वी ही सर्वश्रेष्ठ स्थान है, क्योंकि एकमात्र यहीं पर उसके पूर्णत्व प्राप्त करने की सर्वोत्कृष्ट और सर्वाधिक सम्भावना है । देवदूत या देवता आदि को भी पूर्ण होने के लिए मनुष्य-जन्म ग्रहण करना पड़ेगा। यह मानव-जीवन एक अद्भुत स्थिति और अद्भुत अवसर है।
अब हम दर्शन के एक अन्य पक्ष पर विचार करेंगे। बौद्ध लोग इस आत्मा का अस्तित्व एकदम अस्वीकार करते हैं । वे कहते है : हम विचारों के प्रवाह को ही क्यों न चलने दें? शरीर और मन के पीछे उनके आधार- स्वरूप आत्मा नामक कोई वस्तु मानने की क्या आवश्यकता है? इस शरीर और मन-रूपी वस्तु से ही क्या यथेष्ट व्याख्या नहीं हो जाती? और एक तीसरी वस्तु से क्या लाभ? यह युक्ति है, तो बड़ी प्रबल। जहाँ तक बाह्य अनुसन्धान की पहुँच है, वहाँ तक तो यही प्रतीत होता है कि यह शरीर और मन-रूपी यन्त्र अपनी व्याख्या के लिए स्वयं ही पर्याप्त है; कम से कम हममें से अनेक इस तत्व को इसी दृष्टि से देखते हैं । तब फिर शरीर और मन से भिन्न पर साथ ही शरीर और मन के अधिष्ठानस्वरूप आत्मा नामक एक पदार्थ के अस्तित्व की कल्पना की क्या आवश्यकता? बस शरीर और मन कहना ही तो पर्याप्त है; सतत परिणामशील जड़-प्रवाह का नाम है शरीर, और सतत परिणामशील विचार-प्रवाह का नाम है, मन। तब, यह जो एकत्व की प्रतीति हो रही है, वह कैसे होती है? बौद्ध कहते हैं कि यह एकत्व वास्तविक नहीं है । मान लो एक जलती मशाल को घुमाया जा रहा है । तो इससे वह आग एक वृत्त सी प्रतीत होती है । वास्तव में कही कोई वृत्त नहीं है, पर मशाल के सतत घूमने से आग ने यह वृत्त- रूप धारण कर लिया है। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी एकत्व नहीं है, जड़ की राशि लगातार चल रही है । यदि सम्पूर्ण जड़राशी को एक कहकर सम्बोधित करने की इच्छा हो, तो करो पर उसके अतिरिक्त वास्तव में कोई एकत्व नहीं है । मन के सम्बन्ध में भी यही बात है, प्रत्येक विचार दूसरे विचारों से पृथक है । यह प्रबल विचार-प्रवाह ही इस भ्रमात्मक एकत्व का भाव उत्पन्न कर देता है; अतएव फिर तीसरी वस्तु की क्या आवश्यकता? जो कुछ दिखता है, यह जड़-प्रवाह और यह विचार-प्रवाह – बस, इन्हीं का अस्तित्व है; इनके पीछे और कुछ है यह सोचने की आवश्यकता ही क्या? बहुत-से आधुनिक सम्प्रदायों ने बौद्धों के इस मत को ग्रहण कर लिया है, पर वे सभी इसे नयी तथा अपनी खोज कहकर प्रतिपादित करना चाहते है । अधिकतर बौद्ध दर्शनों में मुख्य बात यही है कि यह परिदृश्यमान जगत पर्याप्त है, इसके पीछे और कुछ है या नहीं यह अनुसन्धान करने की बिलकुल आवश्यकता नहीं। यह. इन्द्रियग्राह्य जगत ही सर्वस्व है – किसी वस्तु को इस जगत के आश्रय रूप में कल्पना करने की आवश्यकता ही क्या? सब कुछ गुणों का ही संघात है । ऐसे किसी आनुमानिक द्रव्य की कल्पना करने की क्या आवश्यकता जिसमें वे सब गुण आश्रित हो? द्रव्य का शान आता है, केवल गुणराशि के त्वरित स्थान-परिवर्तन के कारण इसलिए नहीं कि कोई अपरिणामी वस्तु वास्तव में उनके पीछे है । हम देखते है कि ये युक्तियाँ बड़ी प्रबल हैं और मानव के सामान्य अनुभव को मन प्रतीत होती है । वास्तव में एक लाख मनुष्यों में एक व्यक्ति भी इस दृश्य जगत से अतीत किसी वस्तु कीं धारणा नहीं कर सकता । अधिकांश लोगों के लिए प्रकृति केवल एक परिवर्तन की राशि मात्र है – सदा परिवर्तन परिणाम चक्रगति सम्मिश्रण । हममें से बहुत कम लोगों ने ही अपने पीछे स्थित उस स्थिर समुद्र का थोड़ा-सा आभास पाया होगा । हमारे लिए तो वह समुद्र तरंगों से आलोकित रहता है और जगत हमें तरंगों की चंचल राशि मात्र प्रतीत होता है। इस प्रकार हम दो मत देखते हैं । एक तो यह कि इस शरीर और मन के पीछे एक स्थिर और अपरिणामी सत्ता है; और दूसरा यह कि इस जगत में स्थिरता और नित्यता जैसा कुछ भी नहीं है; सब कुछ परिवर्तन ही परिवर्तन है । इस मतवैभिन्य का समाधान हम विचार के अगले सोपान अद्वैत में मिलता है ।
अद्वैतवादी कहते हैं, द्वैतवादिया की यह बात कि ‘जगत का एक अपरिणामी आधार या पृष्ठभूमि है’ सत्य है । किसी अपरिणामी वस्तु की कल्पना किये बिना हम परिणाम की कल्पना कर ही नहीं सकते । किसी अपेक्षाकृत अल्प-परिणामी वस्तु की तुलना में ही किसी वस्तु के परिणाम की बात सोची जा सकती है और पूर्वोक्त अल्प- परिणामी वस्तु भी अपने से कम परिणामवाली वस्तु की तुलना में अधिक परिणामशील है और इस प्रकार का कम चलता ही रहेगा जब तक न हम विवश होकर एक ऐसी वस्तु को स्वीकार कर लेते जिसका कभी परिणाम नहीं होता । यह समस्त व्यक्त जगत्-प्रपंच निश्चय ही एक अव्यक्त, स्थिर और शान्त अवस्था में था, जब वह विरोधी शक्तियों का सन्तुलनस्वरूप था अर्थात् जब कोई भी शक्ति क्रियाशील नहीं थी; क्योंकि साम्यावस्था भंग होने पर ही शक्ति क्रियाशील होती है। यह ब्रह्माण्ड फिर से उसी साम्यावस्था की प्राप्ति के लिए सदा धावमान है। यदि हमारा किसी विषय के सम्बन्ध में निश्चित ज्ञान है, तो वह यही है। द्वैतवादी जब कहते हैं कि कोई अपरिणामी वस्तु है, तब वे ठीक ही कहते है; पर उनका यह विश्लेषण कि एक अफर्निहित वस्तु है, जो न शरीर है, न मन, वरन् इन दोनों से पृथक है, भूल है। बौद्ध लोग जो कहते है कि समस्त जगत परिणामप्रवाह मात्र है, तो यह भी पूर्णतया सत्य है; क्योंकि जब तक मैं जगत से पृथक् हूँ, जब तक मैं अपने अतिरिक्त और कुछ देखता हूँ, तब तक एक द्रष्टा है और दृश्य वस्तु है – संक्षेप में, जब तक द्वैतभाव है, यह जगत सदैव परिणामशील ही प्रतीत होगा। पर असल बात यह है कि इस जगत में परिणाम भी है और अपरिणाम भी। आत्मा, मन और शरीर ये तीनों पृथक् पृथक् वस्तुएँ नहीं है, बल्कि वे एक ही है, क्योंकि इन तीनों से बना हुआ यह प्राणी वस्तुतः एक है। एक ही वस्तु कभी देह, कभी मन और कभी देह और मन से अतीत आत्मा के रूप में प्रतीत होती है, किन्तु वह एक ही समय में ये तीनों नहीं होती। जो शरीर को देखते हैं, वे मन को नहीं देख पाते; जो मन को देखते है, वे आत्मा को नहीं देख पाते; और जो आत्मा को देखते हैं, उनके लिए शरीर और मन दोनों न जाने कहाँ चले जाते है। जो लोग केवल गति देखते हैं, वे सम्पूर्ण स्थिर भाव को नहीं देख पाते, और जो इस संपूर्ण स्थिर भाव को देख पाते हैं, उनके लिए गति न जाने कहाँ चली जाती है। रज्जु में सर्प का भ्रम हुआ। जो व्यक्ति रज्जु में सर्प देखता है, उसके लिए रज्जु न जाने कहाँ चली जाती है, और जब भ्रान्ति दूर होने पर वह व्यक्ति रज्जु ही देखता है, तो उसके लिए फिर सर्प नहीं रह जाता।
तो हमने देखा कि सर्वव्यापी वस्तु एक ही है और वह नाना रूपों में प्रतीत होती है। इसको चाहे आत्मा कहो या अन्य कोई द्रव्य कहो, जगत में एकमात्र इसी का अस्तित्व है। अद्वैतवादियों की भाषा में यह आत्मा ही ब्रह्म है, जो नाम-रूप की उपाधि के कारण अनेक प्रतीत हो रहा है । समुद्र की तरंगों की ओर देखो; एक भी तरंग समुद्र से पृथक् नहीं है । फिर भी तरंग पृथक् क्यों प्रतीत होती है? नाम और रूप के कारण तरंग की आकृति और उसे हमने जो ‘तरंग’ नाम दिया है, बस, इन दोनों ने उसे समुद्र से पृथक् किया है। नाम-रूप के नष्ट हो जानें पर वह समुद्र की समुद्र ही रह जाती है। तरंग और समुद्र के बीच भला कौन भेद कर सकता है? अतएव यह समस्त जगत एकस्वरूप है। जो भी पार्थक्य दिखता है, वह सब नाम-रूप के ही कारण है । जिस प्रकार सूर्य लाखों जलकणों पर प्रतिबिम्बित होकर प्रत्येक जलकण में अपनी एक सम्पूर्ण प्रतिकृति सृष्ट कर देता है, उसी प्रकार वही एक आत्मा, वही एक सत्ता विभिन्न वस्तुओं में प्रतिबिम्बित होकर नाना रूपों में दिखाई पड़ती है। किन्तु वास्तव में वह एक ही है। वास्तव में ‘मैं’ अथवा ‘तुम’ कुछ नहीं है – सब एक ही है। चाहे कह लो – ‘सभी मैं हूँ या कह लो – ‘सभी तुम हो’ । यह द्वैतज्ञान बिलकुल मिथ्या है और सारा जगत इसी द्वैतज्ञान का फल है। जब विवेक का उदय होने पर मनुष्य देखता है कि दो वस्तुएँ नहीं हैं, एक ही वस्तु है, तब उसे यह बोध होता है कि वह स्वयं यह अनन्त ब्रह्माण्ड स्वरूप है। ‘मैं ही यह परिवर्तन शील जगत हूँ और मैं ही अपरिणामी निर्गुण, नित्यपूर्ण, नित्यानन्दमय हूँ।
अतएव नित्यशुद्ध, नित्यपूर्ण, अपरिणामी, अपरिवर्तनीय एक आत्मा है; उसका कभी परिणाम नहीं होता और ये सब विभिन्न परिणाम उस एक आत्मा में प्रतीत मात्र होते हैं।
उस पर नाम-रूप ने ये सब विभिन्न स्वप्न-चित्र अंकित कर दिये है। रूप ने ही तरंग को समुद्र से पृथक् किया है। मान लो कि तरंग विलीन हो गयी, तो क्या यह रूप रहेगा? नहीं, वह बिलकुल चला जाएगा। तरंग का अस्तित्व पूर्ण रूप से समुद्र के अस्तित्व पर निर्भर है; पर समुद्र का अस्तित्व तरंग के अस्तित्व पर निर्भर नहीं है। जब तक तरंग रहती है, तब तक रूप भी रहता है, पर तरंग के विलीन हो जाने पर वह रूप फिर नहीं रह सकता। इस नाम-रूप को ही माया कहते हैं । यह माया ही भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का सृजन करके उनमें आपस में पार्थक्य का बोध करा रही है । पर वास्तव में इसका अस्तित्व नहीं है । माया का अस्तित्व है, यह नहीं कहा जा सकता । रूप या आकृति का अस्तित्व है, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह तो दूसरे के अस्तित्व पर निर्भर रहती है। और उसका अस्तित्व नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसी ने तो यह सारा भेद उत्पन्न किया है । अद्वैतवादियों के मत से दस माया या अज्ञान या नाम- रूप अथवा यूरोपीय लोगों की भाषा में इस देश-काल-निमित्त के कारण यह एक अनन्त सत्ता इस वेंचिप्नमय जगत के रूप में दीख पड़ती है । परमार्थत: यह जगत् एक अखण्डस्वरूप है, जब तक कोई दो परमार्थत: सत्य वस्तुओं की कल्पना करता है, तब तक वह भ्रम में है । जब वह जान जाता है कि सत्ता केवल एक है, तभी वह यथार्थ में जानता है । जितना ही काल बीतता जाता है, उतना ही हमारे निकट भौतिक स्तर पर मानसिक स्तर पर और आध्यात्मिक स्तर पर भी यह सत्य प्रमाणित होता जाता है । अब प्रमाणित हो गया है कि तुम मैं सूर्य चन्द्र तारे -सभी एक ही जड़समुद्र के भिन्न-भिन्न अंशों के नाम मात्र है । और यह जडराशि सतत परिवर्तित होती रहती है । शक्ति का जो कण कुछ मास पहले सूर्य में था हो सकता है, आज वह मनुष्य के भीतर आ गया हो कल शायद वह पशु के भीतर और परसो शायद किसी उदभिद के भीतर प्रवेश कर जाएगा । आना-जाना निरन्तर हो रहा है । यह सब एक अखण्ड जड़राशि है – भेद है केवल नाम और रूप में । इसके एक बिन्दु का नाम है सूर्य एक का चन्द्र, एक का तारा, एक का मनुष्य एक का पशु, एक का उदभिद आदि आदि । और ये सारे नाम भ्रमात्मक है; इसमें कोई वास्तविकता नहीं है क्योंकि इस जड़राशि का लगातार परिवर्तन हो रहा हैँ । इसी जगत को एक दूसरे मरीझुकान से देखने पर यह एक विशाल विचार-समुद्र के समान प्रतीत होगा, जिसका एक-एक बिन्दु विशेष मन है – तुम एक मन हो मैं एक मन हूँ, प्रत्येक व्यक्ति केवल एक-एक मन है । फिर इसी जगत को जब ज्ञान की दृष्टि से देखा जाता है, अर्थात् जब आँखों पर से मोह का आवरण हट जाता है, जब शुद्ध हो जाता है, तब यही नित्य शुद्ध, अपरिणामी, अविनाशी, अखण्ड पूर्ण स्वरूप पुरुष के रूप में प्रतीत होता है ।
तब फिर द्वैतवादियों के परलोकवाद का – मनुष्य मरने के बाद स्वर्ग जाता है अथवा अमुक लोक में जाता है और बुरा आदमी भूत हो जाता है, उसके बाद पशु होता है, आदि बातों का – क्या होता? कहते हैं – ‘न कोई आता है, न कोई जाता है – तुम्हारे लिए आना-जाना किस प्रकार सम्भव है? तुम तो अनन्तस्वरूप हो; तुम्हें जाने के लिए स्थान कहाँ?’ किसी स्कूल में छोटे बच्चों की परीक्षा हो रही थी। परीक्षक उन छोटे-छोटे बच्चों से कठिन प्रश्न कर रहे थे। उन प्रश्नों में एक प्रश्न यह भी था, “पृथ्वी गिरती क्यों नहीं?” उन्हें आशा थी कि बच्चों से उत्तर मेँ गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त या दूसरा कोई जटिल वैज्ञानिक सत्य मिले। अनेक बालक इस प्रश्न को समझ न सके और अपनी अपनी समझ से उलटे-सीधे उत्तर देने लगे। पर एक बुद्धिमती बालिका ने एक दूसरा प्रश्न करते हुए उसका उत्तर दिया, “पृथ्वी गिरेगी कहाँ?” यह प्रश्न तो निरर्थक है। विश्व में ऊँचा-नीचा कुछ भी नहीं है। ऊँचा-नीचा तो सापेक्ष ज्ञान मात्र है । आत्मा के सम्बन्ध में भी यही बात है । इसके सम्बन्ध में जन्म-मृत्यु का प्रश्न ही निरी मूर्खता है । कौन जाता है, कौन आता है? तुम कहाँ नहीं हो? वह स्वर्ग कहाँ है, जहाँ तुम पहले से ही नहीं हो? मनुष्य की आत्मा सर्वव्यापी है। तुम कहाँ जाओगे, कहाँ नहीं जाओगे? आत्मा तो सब जगह है। अतएव यह जन्म-मृत्यु-स्वर्ग-नरक आदि-रूप बच्चों जैसा स्वप्न, बच्चों जैसा भ्रम – सब कुछ पूर्ण जीवमुक्त व्यक्ति के लिए एकदम गायब हो जाता है। जिनके भीतर कुछ अज्ञान अवशिष्ट है, उनको वह ब्रह्मलोक पर्यन्त नाना प्रकार के दृश्य दिखाकर फिर अन्तर्हित होता है। और जो अज्ञानी है, उनके लिए वह रह जाता है ।
स्वर्ग जाएंगे मरेंगे पैदा होंगे – इन सब बातों पर सारा संसार विश्वास क्यों करता है? मैं एक पुस्तक पढ़ रहा हूँ, उसके पृष्ठ पर पृष्ठ पड़े जा रहा हूँ और उन्हें उलटाते जा रहा हूँ। और एक पृष्ठ आया, वह भी उलट दिया गया। परिवर्तन किसमें हो रहा है? कौन आ-जा रहा है? मैं नहीं, इस पुस्तक के पन्ने ही उलटे जा रहे हैं। सारी प्रकृति आत्मा के सम्मुख रखी एक पुस्तक के समान है। उसका एक के बाद दूसरा अध्याय पढ़ा जा रहा है। फिर एक नया दृश्य सामने आता है। पढ़ने के बाद उसे भी उलट दिया जाता है। फिर एक नया अध्याय सामने आता है; पर आत्मा जैसी थी, वैसी ही रहती है – वही अनन्तस्वरूप। परिणाम प्रकृति का हो रहा है, आत्मा का नहीं। आत्मा का कभी भी परिणाम नहीं होता। जन्म- मृत्यु प्रकृति में हैं, तुममें नहीं। फिर भी अज्ञ लोग प्रान्त होकर सोचते हैं कि हम मर रहे हैं, हम जी रहे हैं, प्रकृति नहीं। यह बात ठीक वैसी ही है, जैसे हम प्रान्तिवश समझते हैं कि सूर्य चल रहा है, पृथ्वी नहीं। अतः यह समस्त भ्रान्ति ही है। जैसे रेलगाड़ी के बदले हम खेत आदि को चलायमान मानते है, जन्म और मृत्यु की यह भ्रान्ति भी ठीक वैसी ही है। जब मनुष्य किसी विशेष भाव में रहता है, तब वह इसी सत्ता को पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, तारा आदि के रूप में देखता है; और जो लोग इसी मनोभाव से युक्त है, वे भी ठीक ऐसा ही देखते है। मेरे-तुम्हारे बीच अस्तित्व के विभिन्न स्तरों पर लाखों जीव हो सकते है। वे हमें कभी न देख पाएँगे और हम भी उन्हें कभी नहीं। हम केवल अपने ही प्रकार के चित्तवृत्तिसम्पन्न और अपने ही स्तर के प्राणियों को देख सकते हैं। जिन वाद्ययन्त्रों में एक ही प्रकार का कम्पन है, उनमें से एक के बजने पर शेष सभी बज उठेंगे। मान लो, हम अभी जिस कम्पन से युक्त है, उसे हम ‘मानव-कम्पन नाम दे देते है। अब यदि यह कम्पन बदल जाए, तो फिर मनुष्य दिखाई नहीं देंगे। संपूर्ण मानव-जगत अदृश्य हो जाएगा और उसके बदले अन्य दृश्य हमारे सामने आ जाएगा – हो सकता है, देव-जगत और देवता आदि आ जाएँ, अथवा दुष्ट मनुष्यों के लिए दानव और दानव-जगत आ जाएँ। पर ये सभी एक ही जगत के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। यह जगत मानव-दृष्टि से पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, तारा आदि रूपों में दिखता है, फिर यही दानवों की दृष्टि से देखने पर नरक या दण्डालय के रूप में प्रतीत होता है। और जो स्वर्ग जाना चाहते है, वे इसी जगत को स्वर्ग के रूप में देखते हैं। जो व्यक्ति आजीवन यह सोचता रहा है कि मैं स्वर्ग में सिंहासन पर बैठे हुए ईश्वर के निकट जाकर सारा जीवन उनकी उपासना करूँगा, वह मृत्यु के बाद अपने उसी मनोभाव के अनुरूप देखेगा। यह जगत ही उसके लिए एक बृहत् स्वर्ग में परिणत हो जाएगा; वह देखेगा कि नाना प्रकार की अप्सराएँ, किन्नर आदि उड़ते फिर रहे हैं और देवतागण सिंहासनों पर बैठे हैं। स्वर्ग आदि सब कुछ मनुष्य के गढ़े हुए हैं। अतएव अद्वैतवादी कहते हैं – द्वैतवादियों की बात सत्य तो है, पर यह सब उनका अपना ही बनाया हुआ है। ये सब लोक ये देव, दानव, जन्म, पुनर्जन्म आदि सभी काल्पनिक हैं; और मानव-जीवन भी ऐसा ही हे । ये सब तो काल्पनिक हों और मानव-जीवन सत्य हो ऐसा कभी नहीं हो सकता। इसी जीवन मात्र को सत्य मानकर मनुष्य सर्वदा एक महान् भूल करता है । अन्यान्य वस्तुओं को तो – जैसे स्वर्ग नरक आदि को काल्पनिक कहने से वह ठीक समझ लेता है, पर अपने अस्तित्व को वह कभी काल्पनिक मानना नहीं चाहता। यह सारा दृश्यमान जगत कल्पना मात्र है और सब से बड़ा मिथ्या ज्ञान तो यह है कि हम शरीर हैं। हम कभी भी शरीर नहीं थे, और न कभी हो सकते हैं। हम केवल मनुष्य हैं यह कहना एक भयानक असत्य है। हम तो जगत के ईश्वर हैं। ईश्वर की उपासना करके हमने सदा अपनी अव्यक्त आत्मा की ही उपासना की है । अपने को जन्म से ही दुष्ट और पापी सोचना – यही सब से बड़ी मिथ्या बात है, पापी तो वह है, जो दूसरों को पापी देखता है। मान लो यहाँ एक बच्चा है और सोने की मोहरों से भरी एक थैली तुम यहाँ मेज पर रख देते हो। मान लो, एक चोर आया और थैली ले गया। बच्चे की दृष्टि में थैली का रखा जाना और चोरी हो जाना – दोनों समान है । उसके भीतर चोर नहीं है, इसलिए वह बाहर भी चोर नहीं देखता। पापी और दुष्ट मनुष्य को ही बाहर में पाप दिखता है, साधु पुरुष को नहीं। अत्यन्त असाधु व्यक्ति इस जगत को नरक के रूप में देखते हैं; मध्यम श्रेणी के लोग इसे स्वर्ग के रूप में देखते है; और जो पूर्ण, सिद्ध पुरुष हैं, वे इसे साक्षात् भगवान् के रूप में देखते है। बस, तभी नेत्रों पर से आवरण हट जाता है, और पवित्र एवं शुद्ध हुआ वह व्यक्ति देखता है कि उसकी दृष्टि बिलकुल बदल गयी है। जो दुःस्वप्न उसे लाखों वर्षों से पीड़ित कर रहे थे, वे सब एकदम समाप्त हो जाते है। और जो अपने को इतने दिन मनुष्य, देवता, दानव आदि समझ रहा था, जो अपने को कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी पृथ्वी पर, कभी स्वर्ग में, तो कभी और किसी स्थान में स्थित समझता था, वह देखता है कि वह वास्तव में सर्वव्यापी है, वह काल के अधीन नहीं हैं। काल ही उसके अधीन है, सारे स्वर्ग उसके भीतर है, वह स्वयं किसी स्वर्ग में अवस्थित नहीं है – और मनुष्य ने आज तक जितने देवताओं की उपासना की है, वे सब के सब उसके भीतर ही अवस्थित है, वह स्वयं किसी देवता में अवस्थित नहीं है। वह देव, असुर, मानव, पशु, उदभित प्रस्तर आदि सभी का सृष्टिकर्ता है । और उस समय मनुष्य का असल स्वरूप उसके निकट इस जगत से श्रेष्ठतर स्वर्ग से भी श्रेष्ठतर अनन्त काल से भी अधिक अनन्त और सर्वव्यापी आकाश से भी अधिक सर्वव्यापी रूप में प्रकाशित होता है । तभी मनुष्य निर्भय हो जाता है, तभी वह मुक्त हो जाता है। तब सारी भ्रान्ति दूर हो जाती है, सारे दुःख दूर हो जाते है, सात भय एकदम चिरकाल के लिए समाप्त हो जाता है। तब जन्म न जाने कहाँ चला जाता है और उसके साथ मृत्यु भी; दुःख न जाने कहाँ गायब हो जाता है और उसके साथ सुख भी। पृथ्वी उड़ जाती है और उसके साथ साथ स्वर्ग भी उड़ जाता है; शरीर चला जाता है और उसके साथ मन भी। उस व्यक्ति की दृष्टि में यह सारा विश्व मानो अन्तर्हित हो जाता है । यह जो शक्तियों का निरन्तर संग्राम, निरन्तर संघर्ष है, यह सब एकदम समाप्त हो जाता है और जो स्वयं शक्ति और भूत के रूप में, प्रकृति के विभिन्न संघर्षों के रूप में, स्वयं प्रकृति के रूप में, स्वर्ग, पृथ्वी, उदभिद, पशु, मनुष्य, देवता आदि के रूप में प्रकट हो रहा था, वह समस्त एक अनन्त, अच्छेद्य, अपरिणामी सत्ता के रूप में परिणत हो जाता है; और ज्ञानी पुरुष देख पाते हैं कि वे उस सत्ता से अभिन्न हैं । ‘जिस प्रकार आकाश में नाना वर्ण के मेघ आकार कुछ देर खेलकर फिर अन्तर्हित हो जाते हैं, उसी प्रकार इस आत्मा के सम्मुख पृथ्वी, स्वर्ग, चन्द्रलोक, देवता, सुख, दुःख आदि आते हैं, पर वे उसी अनन्त अपरिणामी नील आकाश को हमारे सम्मुख छोड़कर अन्तर्हित हो जाते हैं। आकाश में कभी परिवर्तन नहीं होता, परिवर्तन केवल मेघ में होता है । भ्रम के वश हो हम सोचते हैं कि हम अपवित्र हैं, हम सान्त हैं, हम पृथक् हैं। पर असल में यथार्थ मनुष्य एक अखण्ड सत्तास्वरूप है।
यहाँ पर दो प्रश्न उठते हैं। पहला यह कि “क्या इसकी उपलब्धि सम्भव है? अब तक तो सिद्धान्त और दर्शन की बात हुई; पर क्या उसकी अपरोक्षानुभूति सम्भव है?” हाँ, बिलकुल सम्भव है । ऐसे अनेक व्यक्ति संसार में इस समय भी जीवित हैं, जिनका अज्ञान सदा के लिए चला गया है। तो क्या सत्य की उपलब्धि के बाद उनकी तुरन्त मृत्यु हो जाती है? उतनी जल्दी नहीं जितनी जल्दी हम समझते हैं। मान लो, एक लकड़ी से जुड़े हुए दो पहिये साथ साथ चल रहे है। अब यदि मैं एक पहिये को पकड़कर बीच की लकड़ी को काट हूँ, तो जिस पहिये को मैंने पकड़ रखा है, वह तो रुक जाएगा; पर दूसरा पहिया, जिसमें पहले का वेग अभी नष्ट नहीं हुआ है, कुछ दूर चलेगा और फिर गिर पड़ेगा। पूर्ण शुद्धस्वरुप आत्मा मानो एक पहिया है और शरीर-मनरूप भ्रान्ति दूसरा पहिया; ये दोनों कर्मरूपी लकड़ी द्वारा जुड़े हुए है। ज्ञान मानो कुल्हाड़ी है, जो जोड़नेवाली इस लकड़ी को काट देता है । जब आत्मारूपी पहिया रुक जाता है, तब आत्मा यह सोचना छोड़ देती है कि वह आ रही है, जा रही है अथवा उसका जन्म होता है, मृत्यु होती है; तब वह इस: प्रकार के सभी अज्ञानात्मक भावों का त्याग कर देती है और तब उसका यह भाव कि वह प्रकृति के साथ संयुक्त है, उसके अभाव और वासनाएँ है, बिलकुल चला जाता है। तब वह देखती है, कि वह पूर्ण है वासनारहित है । पर शरीर-मनरूप पहिये में पूर्वकर्मों का वेग बचा रहता है। अतः जब तक पूर्व कर्मों का यह वेग पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता, तब तक शरीर और मन बने रहते है। यह वेग समाप्त हो जाने पर इनका भी नाश हो जाता है और तब आत्मा मुक्त हो जाती है । तब फिर स्वर्गलोक जाना या स्वर्ग से पृथ्वी पर लौटना यहाँ तक कि ब्रह्मलोक जाना भी समाप्त हो जाता है; क्योंकि आत्मा भला कहाँ से आएगी, और कहाँ जाएगी? जिन व्यक्तियों ने इस जीवन में ही इस अवस्था को प्राप्त कर लिया है, जिन्हें कम से कम एक मिनट के लिए भी संसार का यह साधारण दृश्य बदलकर सत्य का ज्ञान मिल गया है, उन्हें अविमुक्त कहते है। जीवित रहते हुए यह मुक्ति प्राप्त करना ही वेदान्ती का लक्ष्य है ।
एक बार में पश्चिमी भारत में सागर के तटवर्ती मरुस्थल में भ्रमण कर रहा था। बहुत दिन तक निरन्तर पैदल भ्रमण करता रहा था । किन्तु प्रतिदिन यह देखकर मुझे महान् आश्चर्य होता था कि चारों ओर सुन्दर सुन्दर झीलें हैं, वे चारों ओर वृक्षों से घिरी हैं और वृक्षों की परछाई जल में पड़ रही है। मैं अपने मन में कहने लगा, “कैसे अछूत दृश्य है ये! और लोग इसे रेगिस्तान कहते हैं!” एक मास तक वहाँ मैं घूमता रहा और प्रतिदिन मुझे वे सुन्दर दृश्य दिखाई देते रहे । एक दिन मुझे बड़ी प्यास लगी। मैंने सोचा कि चलूँ वहाँ एक झील पर जाकर प्यास बुझा लूँ । अतएव मैं इन सुन्दर निर्मल झीलों में से एक की ओर अग्रसर हुआ । जैसे ही मैं आगे-बढ़ा कि वह सब दृश्य न जाने कहाँ लुप्त हो गया और! तब मेरे मन में एकदम यह ज्ञान हुआ कि ‘जीवन भर जिस मरीचिका की बात पुस्तकों में पड़ता रहा हैं, यह तो वही मरीचिका है।’ और उसके साथ साथ यह ज्ञान भी हुआ कि ‘इस पिछले मास प्रतिदिन मैं मरीचिका ही देखता रहा, पर कभी जान न पाया कि यह मरीचिका है। ‘ दूसरे दिन मैंने पुनः चलना प्रारम्भ किया फिर से वही सुन्दर दृश्य दिखने लगे, पर अब साथ-साथ यह ज्ञान भी रहने लगा कि यह सचमुच की झील नहीं है, यह मरीचिका है । बस, इस जगत के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है । हम प्रतिदिन, प्रतिमास, प्रतिवर्ष, इस जगतरूपी मरुस्थल में भ्रमण कर रहे हैं, पर मरीचिका को मरीचिका नहीं समझ पा रहे हैं। एक दिन यह मरीचिका अदृश्य हो जाएगी। पर वह फिर से आ जाएगी – शरीर को पूर्व कर्मों के अधीन रहना पड़ता है, अतः यह मरीचिका फिर से लौट आएगी। जब तक हम कर्म से बँधे हुए हैं, तब तक जगत हमारे सम्मुख आएगा ही। नर, नारी, पशु, उद्भिद, आसक्ति कर्तव्य – सब कुछ आएगा, पर वे पहले की भांति हम पर प्रभाव न डाल सकेंगे। इस नवीन ज्ञान के प्रभाव से कर्म की शक्ति का नाश हो जाएगा उसके विष के दाँत टूट जाएँगे; जगत हमारे लिए एकदम बदल जाएगा; क्योंकि जैसे ही जगत दिखाई देगा वैसे ही उसके साथ उसका स्वरूप और सत्य तथा मरीचिका के भेद का ज्ञान भी हमारे सामने प्रकाशित हो जाएगा।
तब यह जगत् पहले का सा जगत नहीं रह जाएगा। किन्तु इसमें एक भय की आशंका है। हम देखते हैं कि प्रत्येक देश में लोग इस वेदान्तमत को अपनाकर कहते हैं “मैं धर्माधर्म से अतीत हूँ, मैं नैतिकता के किसी नियम से नहीं बँधा हूँ, अतः मेरी जो इच्छा होगी वही करूँगा। “इस देश में आजकल देखोगे, अनेक मूर्ख कहते रहते हैं “मैं बद्ध नहीं हूँ, मैं स्वयं ईश्वर हूँ, मेरी जो इच्छा होगी वही करूँगा। “यह ठीक नहीं है, यद्यपि यह बात सच है कि आत्मा भौतिक मानसिक और नैतिक सभी प्रकार के नियमों के परे है । नियम के अन्दर बन्धन है और नियम के बाहर मुक्ति । यह भी सच है कि मुक्ति आत्मा का जन्मगत स्वभाव है; यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है और आत्मा का यह वास्तविक मुक्त स्वभाव भौतिक आवरण के भीतर से मनुष्य की आपात प्रतीयमान स्वतन्त्रता के रूप में प्रतीत होता है । अपने जीवन के प्रत्येक क्षण हम अपने को मुक्त अनुभव करते है। हम अपने को मुक्त अनुभव किये बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते, बोल नहीं सकते और श्वास-प्रश्वास भी नहीं ले सकते। किन्तु फिर कुछ विचार करने पर यह भी प्रमाणित हो जाता है कि हम एक यन्त्र के समान हैं मुक्त नहीं । तब कौन-सी बात सत्य मानी जाए? “हम मुक्त है” यह धारणा ही क्या भ्रमात्मक है? एक पक्ष कहता है कि ‘मैं मुक्त हूँ, यह धारणा भ्रमात्मक है और दूसरा पक्ष कहता है कि ‘मैं बद्ध हूँ’ यह धारणा भ्रमात्मक है। यह कैसे? वास्तव में, मनुष्य मुक्त है; मनुष्य परमार्थत: जो है, वह मुक्त के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता, किन्तु ज्योंही वह माया के जगत में आता है, ज्योंही नाम-रूप के भीतर पड़ जाता है, त्योंही वह बद्ध हो जाता है। ‘स्वाधीन इच्छा, कहना ही भूल है । इच्छा कभी स्वाधीन हो नहीं सकती! होगी कैसे? जो यथार्थ मनुष्य है, वह जब बद्ध हो जाता है, तभी इसकी इच्छा की उत्पत्ति होती हैं, उससे पहले नहीं। मनुष्य की इच्छा बद्ध है, किन्तु जो इसका आधार है, वह तो सदा ही मुक्त है। इसीलिए बन्धन की दशा में भी – चाहे मनुष्य-जीवन हो, चाहे देव-जीवन, चाहे पृथ्वी पर हो चाहे स्वर्ग में – हममें इस स्वतन्त्रता या मुक्ति की स्मृति रहती ही है, जो कि हमारा विधिप्रदत्त अधिकार है। और’ जाने हो या अनजाने, हम सब इस मुक्ति की ही ओर अग्रसर हो रहे हैं । मनुष्य जब मुक्त हो जाता है, तब वह किस प्रकार नियम में बद्ध रह सकता है? तब विश्व का कोई भी नियम उसे बाँध नहीं सकता; क्योंकि वह विश्व-ब्रह्माण्ड ही उसका हो जाता है ।
वह विश्व-ब्रह्माण्डस्वरूप है । या तो कह लो कि वही विश्व-ब्रह्माण्ड है या फिर कह लो कि उसके लिए विश्व-ब्रह्माण्ड का अस्तित्व ही नहीं है । तब फिर उसके लिए लिंग, देश आदि छोटे-छोटे भाव किस प्रकार सम्भव है? वह कैसे कहेगो – ‘मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ अथवा मैं बालक हूँ?’ क्या ये सब मिथ्या बातें नहीं है? उसने जान लिया है कि यह सब मिथ्या है । तब वह भला किस तरह कहेगा – ‘ये-ये पुरुष के अधिकार हैं और ये ये सी के?’ किसी का कुछ अधिकार नहीं है, किसी का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। पुरुष भी नहीं है और स्त्री भी नहीं; आत्मा तो लिंगहीन है, वह नित्यशुद्ध है । मैं पुरुष या स्त्री हूँ, मैं अमुक देशवासी हूँ – यह सब कहना केवल मिश्रा है । सभी देश मेरे है सारा विश्व मेरा है क्योंकि मैंने अपने को मानो सारे विश्व से ढक लिया है सारा विश्व ही मानो मेरा शरीर हो गया है। किन्तु हम देखते है कि बहुत-से लोग विचार करते समय ये सब बातें मुख से कहने पर भी आचरण में सभी प्रकार के अपवित्र कार्य करते रहते है; और यदि उनसे पूछें ‘तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?’ तो वे उत्तर देंगे, ‘यह तुम्हारी समझ की भूल है । हमसे कोई अन्यान्य होना असम्भव है । ‘ इन सब लोगों को किस कसौटी पर कसे? कसौटी यह है :
यद्यपि शुभ और अशुभ दोनों एक ही आत्मा के आशिक प्रकाश मात्र है, फिर भी ‘अशुभ’ मनुष्य के वास्तविक स्वरूप का, उसकी आत्मा का बाह्यतम आवरण है और ‘शुभ’ अपेक्षाकृत निकटतर आवरण है। जब तक मनुष्य अशुभ के स्तर को छिन्न नहीं कर लेता, तब तक वह शुभ के स्तर पर नहीं पहुंच-सकता, और जब तक वह शुभ और अशुभ दोनों के स्तरों को पार नहीं कर लेता, तब तक वह आत्मा तक नहीं पहुँच सकता। आत्मा की प्राप्ति होने पर उसके लिए फिर क्या रह जाता है? – अत्यन्त अल्प कर्म, अतीत जीवन के कर्मों का अति अल्प वेग/ पर यह वेग भी शुभ कर्मों का ही वेग होता है । जब तक अशुभ-वेग एकदम समाप्त नहीं हो जाता, जब तक पहले की अपवित्रता बिलकुल दग्ध नहीं हों जाती, तब तक कोई भी सत्य का साक्षात्कार और उसकी उपलब्धि नहीं कर सकता। अतएव जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए अतीत जीवन के शुभ संस्कार, शुभवेग ही बच रहता है। शरीर में वास करते हुए भी और अविरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं; उनके मुख से सब के प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है, उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं, उनका मन केवल सच्चिन्तन ही कर सकता है, उनकी उपस्थिति ही, चाहे वे कहीं भी रहें, सर्वत्र मानवजाति के लिए महान् आशीर्वाद होती है। वे स्वयं सजीव आशीर्वादस्वरूप हो जाते है । यदि वे कुछ भी न बोले, तो भी उनका होना मात्र मानवता के लिए एक आशीषस्वरूप है। ऐसा व्यक्ति अपनी उपस्थिति मात्र से घोर दुरात्मा को भी सन्त बना देता है। इस प्रकार के व्यक्ति के द्वारा क्या बुरा कार्य सम्भव है? याद रखो, ‘प्रत्यक्षानुभूति’ और ‘केवल मुख से कहने’ में आकाश-पाताल का अन्तर है। अज्ञानी व्यक्ति भी नाना प्रकार के ज्ञान की बातें कहता है । तोता भी इस तरह बक लेता है। मुँह से कहना एक बात है और अनुभव करना दूसरी बात। दर्शन, मतामत, विचार, शास्त्र मन्दिर सम्प्रदाय आदि अपने अपने स्थान पैर ठीक हैं । पर प्रत्यक्षानुभूति होने पर ये सब पीछे छूट जाते हैं । जैसे नक्शा अच्छी चीज है, पर नक्शे में अंकित देश को स्वयं देखकर आने के बाद यदि उसी नक्शे को फिर से देखो तो कितना अन्तर दिखाई पड़ेगा! अतएव जिन्होंने सत्य को प्रत्यक्ष कर लिया है, उन्हें फिर सत्य को समझने के लिए न्याय-युक्ति, तर्क-वितर्क आदि आदि बौद्धिक व्यायामों की आवश्यकता नहीं रह जाती। उनके लिए तो सत्य जीवन का जीवन, प्रत्यक्ष से भी प्रत्यक्ष हो जाता है । वेदात्रियों की भाषा में वह मानों उनके लिए करामलकवत् हो गया है । प्रत्यक्ष उपलब्धि करनेवाले लोग निःसंकोच भाव से कह सकते हैं, ‘यही आत्मा है’ । तुम उनके साथ कितना ही तर्क क्यों न करो वे तुम्हारी बात पर केवल हंसेंगे वे उसे बच्चे की अण्ड-बण्ड बकवास ही समझेंगे; और उन्हें बकने देंगे। उन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया और पूर्ण हो गये। मान लो तुम एक देश देखकर आये और कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर यह तर्क करने लगा कि उस देश का कहीं अस्तित्व ही नहीं है । वह फिर कितना ही तर्क क्यों न करे पर उसके प्रति तुम्हारा भाव यही रहेगा कि यह पागलखाने में भेज देने लायक है । इसी प्रकार जो धर्म की प्रत्यक्ष उपलब्धि कर चुके हैं, वे कहते हैं, “जगत में धर्म सम्बन्धी जो बातें सुनी जाती हैं, वे सब केवल बच्चों की सी बातें हैं। प्रत्यक्षानुभूति ही धर्म का सार है । “धर्म की उपलब्धि की जा सकती है । प्रश्न यह है? कि क्या तुम उसके अधिकारी हो चुके हो? क्या तुम्हें धर्म की सचमुच में आवश्यकता है? यदि तुम ठीक-ठीक प्रयत्न करो, तभी तुम्हें प्रत्यक्ष उपलब्धि होगी, और तभी तुम वास्तव में धार्मिक होंगे। जब तक यह उपलब्धि तुम्हें नहीं होती, तब तक तुममें और नास्तिक में कोई भेद नहीं। नास्तिक तो फिर भी निष्कपट होते है; किन्तु जो कहता है कि ‘मैं धर्म में विश्वास करता हूँ, पर उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की चेष्टा नहीं करता’ वह निश्चय ही निष्कपट नहीं है।
दूसरा प्रश्न यह है कि उपलब्धि के बाद क्या होता है? मान लो कि हमने जगत का यह अखण्ड भाव – यह भाव कि हमीं एकमात्र अनन्त पुरुष हैं – उपलब्ध कर लिया; मान लो हमने जान लिया कि एकमात्र -आत्मा ही विद्यमान है और वह। विभिन्न रूपों से प्रकाशित हो रही है । तो अब प्रश्न यह है कि इस प्रकार जान लेने से हमारा क्या हुआ? तब क्या हम निश्चेष्ट हो एक कोने में बैठकर मर जाएं इससे जगत का क्या उपकार होगा? वही प्राचीन प्रश्न फिर से घूम-फिरकर आता है । पहले तो इससे जगत का उपकार क्यों हो? क्यों? मैं इसका, कारण जानना चाहता हूँ । लोगों को यह प्रश्न करने का अधिकार ही क्या है कि इससे जगत का क्या भला होगा? ऐसा पूछने का अर्थ क्या? छोटे-छोटे बच्चे मिठाई पसन्द करते हैं । मान लो तुम विद्युत् के बारे में कुछ खोज कर रहे हो और बच्चा तुमसे पूछता है ‘इससे क्या मिठाई मिलेगी?’ तुम कहते हो ‘नहीं’ । तो वह कह उठता है ‘तो फिर इससे क्या लाभ?’ किसी को तत्त्वज्ञान के अनुसन्धान में रत देखकर लोग ठीक इसी प्रकार पूछते हैं, ‘इससे जगत का क्या उपकार होगा? क्या इससे हमें रुपया मिलेगा?”नहीं” । ‘तो फिर इससे क्या लाभ?’ लोग उपकार का अर्थ’ बस इतना ही समझते हैं । तो भी, धर्म की इस प्रत्यक्ष अनुभूति से जगत का पूरा उपकार होता है । लोगों को भय होता है कि जब वे यह अवस्था प्राप्त कर लो जब उन्हें ज्ञान हो जाएगा कि सभी एक है, तब उनके प्रेम का स्रोत सूख जाएगा जीवन में जो कुछ मूल्यवान् है, वह सब चला जाएगा। इस जीवन में और पर-जीवन में जो कुछ उन्हें प्रिय था, उसमें से कुछ भी न बच रहेगा। पर लोग यह बात एक बार भी नहीं सोच देखते कि जो व्यक्ति अपने सुख की चिन्ता की ओर से उदासीन हो गये हैं, वे ही जगत में सर्वश्रेष्ठ कर्मी हुए हैं। मनुष्य तभी वास्तव में प्रेम करता है, जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई क्षुद्र मर्त्य जीव नहीं है । मनुष्य तभी वास्तविक प्रेम कर सकता है, जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र एक मिट्टी का ढेला नहीं, किन्तु स्वयं भगवान् है। पत्नी पति से अधिक प्रेम करेगी यदि वह समझेगी कि पति साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है । पति भी पत्नी से अधिक प्रेम करेगा, यदि वह जानेगा कि पत्नी स्वयं ब्रह्मस्वरूप है। वे माताएँ सन्तान से अधिक स्नेह कर सकेंगी, जो सन्तान को ब्रह्मस्वरूप देखेंगी। वे ही लोग अपने महान् शत्रुओं के प्रति भी प्रेमभाव रख सकेंगे, जो जानेंगे कि ये शत्रु साक्षात् ब्रह्मस्वरूप हैं। वे ही लोग पवित्र व्यक्तियों से प्रेम करेंगे, जो समझेंगे कि पवित्र व्यक्ति साक्षात ब्रह्मस्वरूप हैं। वे ही लोग अत्यन्त अपवित्र व्यक्तियों से प्रेम करेंगे, जो यह जान लेंगे कि इन महादुष्टों के भी पीछे वे ही प्रभु? विराजमान हैं। जिनका क्षुद्र अहं एकदम मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है, ‘वे ही लोग जगत को अपने इशारे पर चला सकते हैं । उनके लिए सारा जगत दूसरा ही रूप धारण कर लेता है। दुःखकर अथवा क्लेशकर जो कुछ भी है, वह सब उनकी दृष्टि से लुप्त हो जाता है, सभी प्रकार के द्वन्द्व और संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। तब यह जगत, जहाँ हम प्रतिदिन एक टुकड़ा रोटी के लिए झाड़ी और मारपीट करते हैं, उनके लिए कारागार होने के बदले एक क्रीडाक्षेत्र बन जाता है। तब जगत बड़ा सुन्दर रूप धारण कर लेता है। ऐसे ही व्यक्ति को यह कहने का अधिकार है कि ‘यह जगत कितना सुन्दर है!’ उन्हीं को यह कहने का अधिकार है कि सब मंगलस्वरूप है। इस प्रकार की प्रत्यक्ष उपलब्धि से जगत का यह महान् हित होगा कि ये अविराम विवाद द्वन्द्व आदि सब दूर होकर जगत शान्ति का राज्य हो जाएगा। यदि जगत के सभी मनुष्य आज इस महान् सत्य के एक भी बिन्दु की उपलब्धि कर सकें तो, उनके लिए यह सारा जगत एक दूसरा ही रूप धारण कर लेगा और यह सब झगड़ा समाप्त हो शान्ति का राज्य आ जाएगा। यह घिनौना उतावलापन, यह स्पर्धा, जो हमें अन्य सभी को ढकेलकर आगे बढ़ निकलने के लिए विवश करती है, इस संसार से उठ जाएगी । इसके साथ साथ सब प्रकार की अशान्ति घृणा, ईर्ष्या एवं सभी प्रकार का अशुभ सदा के लिए चला जाएगा। उस समय देवता लोग इस जगत में वास करेंगे। उस समय यही जगत स्वर्ग हो जाएगा। और जब देवता देवता से खेलेगा, देवता देवता से मिलकर कार्य करेगा, देवता देवता से प्रेम करेगा, तब क्या अशुभ ठहर सकता है? ईश्वर की प्रत्यक्ष उपलब्धि की यही एक बड़ी उपयोगिता है। समाज में तुम जो कुछ भी देख रहे हो, वह सभी उस समय परिवर्तित होकर एक दिव्य रूप धारण कर लेगा। तब तुम किसी मनुष्य को बुरा नहीं समझोगे। यही प्रथम महालाभ है । उस समय तुम लोग किसी अन्याय करनेवाले नर-नारी की ओर घृणापूर्ण दृष्टि से नहीं देखोगे। हे महिलाओं, फिर तुम रातभर रास्ते में भटकती फिरनेवाली दुखिया स्त्री की ओर घृणा से न देखोगी, क्योंकि तुम वहाँ आई साक्षात् ईश्वर को देखोगी। तब तुममें ईर्ष्या अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव नहीं रहेगा; वह सब चला जाएगा। तब प्रेम इतना प्रबल हो जाएगा कि मानवजाति को सत्पथ पर चलाने के लिए फिर चाबुक की आवश्यकता नहीं रह जाएगी।
यदि संसार के नर-नारियों का दश लक्षांश भी बिलकुल चुप रहकर एक क्षण के लिए कहे “तुम सभी ईश्वर हो, हे मानवों, हे पशुओं, हे सब प्रकार के जीवित प्राणियों। तुम सभी एक जीवन्त ईश्वर के प्रकाश हो” तो आधे घण्टे के अन्दर ही सारे जगत का परिवर्तन हो जाए। उस समय चारों ओर घृणा के बीज न बोकर, ईर्ष्या और असत् चिन्ता का प्रवाह न फैलाकर सभी देशों के लोग सोचेंगे कि सभी ‘वह’ है । जो कुछ तुम देख रहे हो या अनुभव कर रहे हो, वह सब ‘वही’ है। तुम्हारे भीतर अशुभ न रहने पर तुम अशुभ किस तरह देखोगे? तुम्हारे भीतर यदि चोर न हो, तो तुम किस प्रकार चोर देखोगे? तुम स्वयं यदि खूनी नहीं हो, तो किस प्रकार खूनी देखोगे? तुम साधु हो जाओ, तो असाधु-भाव तुम्हारे अन्दर से एकदम चला जाएगा। इस प्रकार सारे जगत का परिवर्तन हो जाएगा। यही समाज का सब से बड़ा लाभ है । मनुष्य के लिए यही महान् लाभ है । ये सब भाव भारत में प्राचीन काल में अनेक महात्माओं द्वारा आविकृत और कार्यरूप में परिणत हुए थे। पर आचार्यों की संकीर्णता और देश की पराधीनता आदि अनेकविध कारणों से ये सब भाव चारों ओर फैल न सके। फिर भी ये सब महान् सत्य हैं। जहाँ भी इन विचारों का प्रभाव पड़ा है वहीं मनुष्य ने देवत्व प्राप्त कर लिया है। ऐसे ही एक देवस्वभाव मनुष्य के स्पर्श द्वारा मेरा समस्त जीवन परिवर्तित हो गया है; इनके सम्बन्ध में आगामी रविवार को मैं तुमसे कहूँगा। आज इन सब भावों का जगत में प्रचार करने का समय आ गया है । अब मठों की चहारदीवारी में आबद्ध न रहकर केवल पण्डितों के पढ़ने की दार्शनिक पुस्तकों में आबद्ध न रहकर केवल कुछ सम्प्रदायों के अथवा कुछ पण्डितों के एकाधिकार में न रहकर इन भावों का समस्त जगत् में प्रचार होगा जिससे ये साधु, पापी, आबाल-वृद्ध-वनिता शिक्षित, अशिक्षित सभी की साधारण सम्पत्ति हो जाएँ। तब ये सब भाव इस जगत के वातावरण को ओतप्रोत कर देंगे और हम श्वास-प्रश्वास द्वारा जो वायु ले रहे है, वह अपने प्रत्येक स्पन्दन के साथ कहने लगेगी – ‘तत्त्वमसि’! असंख्य चन्द्र-सूर्यपूर्ण यह समग्र ब्रह्माण्ड वाक्शक्ति युक्त प्रत्येक प्राणी के माध्यम से एक स्वर से कह उठेगा – ‘तत्त्वमसि’!
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