मनुष्य का यथार्थ स्वरूप – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)
“मनुष्य का यथार्थ स्वरूप” नामक यह भाषण स्वामी विवेकानंद ने लंदन में दिया था। यह उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ज्ञान योग का प्रथम अध्याय है। इसमें स्वामी जी ने आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निरूपण किया है कि किस तरह आत्मा शरीर और मन से परे तथा साक्षीस्वरूप है। साथ ही यहाँ वे इस ज्ञान की व्यावहारिकता का उपदेश भी कर रहे हैं। इस पुस्तक के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग।
इस पंचेन्द्रिय-ग्राह्य जगत् में मनुष्य इतना अधिक आसक्त है कि वह उसे सहज में ही छोड़ना नहीं चाहता। किन्तु वह इस बाह्य जगत् को चाहे जितना ही सत्य या साररूप क्यों न समझे, प्रत्येक व्यक्ति और जाति के जीवन में एक समय ऐसा अवश्य आता है कि जब उसे इच्छा न रहते हुए भी प्रश्न करना पड़ता है – ‘क्या यह जगत् सत्य है?’ जिन व्यक्तियों को अपनी इन्द्रियों की विश्वसनीयता में शंका करने का तनिक भी समय नहीं मिलता, जिनके जीवन का प्रत्येक क्षण किसी न किसी प्रकार के विषय-भोग में ही बीतता है, मृत्यु एक दिन उनके भी सिरहाने आकर खड़ी हो जाती है और विवश होकर उन्हें भी कहना पड़ता है – ‘क्या यह जगत् सत्य है?’ इसी एक प्रश्न से धर्म का आरम्भ होता है और इसके उत्तर में ही धर्म की इति है । इतना ही क्यों, सुदूर अतीत काल में, जहाँ इतिहास की कोई पहुँच नहीं, उस रहस्यमय पौराणिक युग में, सभ्यता के उस अस्फुट उषाकाल में, भी हम देखते हैं कि यही एक प्रश्न उस समय भी पूछा गया है – ‘इसका क्या होता है? क्या यह सत्य है?’
कवित्वमय कठोपनिषद् के प्रारम्भ में हम यह प्रश्न देखते हैं – “कोई कोई कहते हैं कि मनुष्य के मरने पर उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है, और कोई कहते है कि, नहीं उसका अस्तित्व फिर भी रहता है, इन दोनों बातों में कौन-सी सत्य है? (येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये, अस्तीत्येके नायमस्तीति चैके । )” संसार में इस सम्बन्ध में अनेक प्रकार के उत्तर मिलते हैं । जितने प्रकार के दर्शन या धर्म संसार में हैं, वे सब वास्तव में इसी प्रश्न के विभिन्न उत्तरों से परिपूर्ण हैं। अनेक बार तो इन प्रश्नों को – ‘परे क्या है? सत्य क्या है?’ – प्राणों की इस महती अशान्ति को – संसार से अतीत परमार्थ सत्ता के इस अन्वेषण को – व्यर्थ कहकर उड़ा देने की चेष्टा की गयी है। किन्तु जब तक मृत्यु नामक वस्तु जगत् में है, तब तक इस प्रश्न को योंही उड़ा देने की सारी चेष्टाएं विफल रहेंगी। यह कहना सरल है कि हम जगतातीत सत्ता का अन्वेषण- नहीं करेंगे अपनी समस्त आशा और आकांक्षा को वर्तमान क्षण में ही सीमित रखेंगे; और हम: इसके लिए भरपूर चेष्टा भी कर सकते हैं, बहिर्जगत् की सारी वस्तुएँ भी हमें इन्द्रियों की सीमा के भीतर बन्द करने में सहायता पहुँचाती हैं सारा संसार भी एक हो हमें वर्तमान की क्षुद्र सीमा के बाहर दृष्टि डालने से रोक सकता है; पर जब तक जगत् में मृत्यु रहेगी, तब तक यह प्रश्न बार बार उठेगा – ‘हम जो इन सब वस्तुओं को सत्य का भी सत्य सार का भी सार समझकर इनमें भयानक रूप से आसक्त हैं तो क्या मृत्यु ही इन सब का अन्तिम परिणाम है?’ जगत् तो एक क्षण में ही ध्वंस हो न जाने कहाँ चला जाता है। ऊपर है अत्युच्च गगनचुम्बी पर्वत और नीचे गहरी खाई, मानो मुँह फैलाये जीव को निगलने के लिए आ रही हो। इस पर्वत के किनारे खड़े होने पर कितना ही कठोर अन्तःकरण क्यों न हो निश्चित ही सिहर उठेगा और पूछेगा – ‘यह सब क्या सत्य है?’ कोई तेजस्वी हृदय जीवन भर बड़े प्रयत्न के साथ जिस आशा को अपने हृदय में सँजोये रहा, वह एक मुहूर्त में ही उड़कर न जाने कहाँ चली गयी, तो क्या हम इन सब आशा को सत्य कहेंगे? इस प्रश्न का उत्तर देना होगा। काल प्राणों की इस आकांक्षा की हृदय के इस गम्भीर प्रश्न की शक्ति का कभी भी हास नहीं कर सकता, प्रत्युत काल का स्रोत ज्यों ज्यों आगे बढ़ता जाता है त्यों त्यों इस प्रश्न की शक्ति भी बढ़ती जाती है और उतने ही अधिक प्रबल वेग से यह प्रश्न हृदय पर आघात करता रहता है।
मनुष्य को सुखी होने की इच्छा होती है। अपने को मुखी करने के लिए वह सभी ओर दौड़ता फिरता है – इन्द्रियों के पीछे पीछे भागता रहता है- पागल -की भांति बाह्य जगत् में कार्य करता जाता है। जो युवक जीवन- संग्राम में सफल हुए हैं उनसे यदि पूछो,. तो कहेंगे, ‘यह जगत् सत्य है’ – उन्हें सभी बातें सत्य प्रतीत होती हैं। ये ही व्यक्ति जब बूढ़े हो जाएँगे, जब सौभाग्य-लक्ष्मी उन्हें बारम्बार धोखा देगी तब उनसे यदि पूछो, तो शायद यही कहेंगे ‘अरे भाई सब भाग्य का खेल है। ‘ इतने दिनों बाद वे जान सके कि वासना की पूर्ति नहीं होती। वे जिधर जाते हैं उधर ही मानो वज्र के समान दृढ़ दीवार उनके सामने खड़ी हो जाती है जिसे लाँघना उनके बस की बात नहीं। प्रत्येक इन्द्रिय-चंचलता के परिणामस्वरूप प्रतिक्रिया होती ही है। हर वस्तु क्षणस्थायी है । विलास, वैभव, शक्ति, दारिद्र, यहाँ तक कि जीवन भी क्षणस्थायी है।
मनुष्य के लिए दो उत्तर रह जाते हैं । एक है – शून्यवादियों की भाँति विश्वास करना कि सब कुछ शून्य है हम कुछ भी नहीं जान सकते – भूत, भविष्य या वर्तमान के भी सम्बन्ध में कुछ नहीं जान सकते; क्योंकि जो व्यक्ति भूत-भविष्य को अस्वीकार कर केवल वर्तमान को स्वीकार करते हुए उसी में अपनी दृष्टि को सीमित रखना चाहता है वह निरा पागल है। यह तो बस वैसा ही हुआ, जैसा माता-पिता के अस्तित्व को अस्वीकार करते हुए सन्तान के अस्तित्व को स्वीकार करना! दोनों समान रूप से युक्तिसंगत है । भूत और भविष्य को अस्वीकार करने का अर्थ है वर्तमान को भी अस्वीकार करना। यह एक भाव हुआ – यह शून्यवादियों का मत। पर मैंने ऐसा मनुष्य आज तक नहीं देखा, जो एक क्षण के लिए भी शून्यवादी हो सके – मुख से कहना अवश्य बड़ा सरल है।
दूसरा उत्तर यह है कि इस प्रश्न के वास्तविक उत्तर की खोज करो – सत्य की खोज करो – इस नित्य परिवर्तनशील नश्वर जगत् में क्या सत्य है इसकी खोज करो। कुछ भौतिक परमाणुओं के समष्टिस्वरूप इस देह के भीतर क्या कोई ऐसी चीज है, जो सत्य हो? मानव जीवन के इतिहास में सदैव इस तत्त्व का अन्वेषण किया गया है। हम देखते हैं कि अति प्राचीन काल से ही मनुष्य के मन में इस तत्त्व का अस्पष्ट प्रकाश उद्भासित हो गया था । हम देखते हैं कि उसी समय से मनुष्य ने स्थूल देह से अतीत एक अन्य देह का भी पता पा लिया है जो अनेक अंशों में इस स्थूल देह के ही समान होने पर भी पूर्ण रूप से वैसा नहीं है; वह स्कूल देह से श्रेष्ठ है – शरीर का नाश हो जाने पर भी उसका नाश नहीं होता। हम ऋग्वेद के एक सूक्त में, मृत शरीर को दग्ध करने वाले अग्निदेव के प्रति यह मन्त्र पाते हैं – “हे अग्नि! तुम इसे अपने हाथों में लेकर धीरे धीरे ले जाओ – इसे सर्वागसुन्दर ज्योतिर्मय देह से संपन्न करो – इसे उसी स्थान में ले जाओ जहाँ पितृगण वास करते हैं जहाँ दुःख नहीं है जहाँ मृत्यु नहीं है ।” तुम देखोगे कि सभी धर्मों में यह भाव विद्यमान है और इसके साथ ही हम और एक विचार पाते हैं । आश्चर्य की बात है कि सभी धर्म एक स्वर से घोषणा करते हैं कि मनुष्य पहले निष्पाप और पवित्र था, पर आज उसकी अवनति हो गयी है । इस भाव को फिर वे रूपक की भाषा में या दर्शन की स्पष्ट भाषा में अथवा कविता की सुन्दर भाषा में क्यों न प्रकाशित करें पर वे सब के सब अवश्य इस एक तत्त्व की घोषणा करते हैं । सभी शास्त्रों और पुराणों में यही एक तत्त्व पाया जाता है कि मनुष्य जैसा पहले था वैसा अब नहीं है – आज वह पहले से गिरी हुई दशा में हैं । यहूदियों के धर्म ग्रंथ में आदम के पतन की जो कथा है उसका भी मर्म वास्तव में यही है । हिन्दू शास्त्रों में इसका बार बार उल्लेख हुआ है । हिन्दुओं ने सतयुग कहकर जिस युग का वर्णन किया है – जब कि मनुष्य की मृत्यु उसकी इच्छानुसार होती थी, जब मनुष्य जितने दिन चाहे अपने शरीर को धारण कर सकता था जब मनुष्यों का मन शुद्ध और दृढ़ था – उसमें भी इसी सार्वभौमिक सत्य का संकेत मिलता है। वे कहते हैं कि उस समय? मृत्यु नहीं थी किसी प्रकार का अशुभ या दुःख नहीं था, और वर्तमान युग उसी उन्नत अवस्था का भ्रष्ट-भाव मात्र है। इस वर्णन के साथ साथ हम सभी धर्मों में जल-प्लावन अर्थात् प्रलय का वर्णन भी पाते हैं । प्रलय की यह कथा ही इस बात को प्रमाणित करती है कि सभी धर्म वर्तमान युग को प्राचीन युग की भ्रष्ट अवस्था ही मानते है । जगत् की भ्रष्टता क्रमशः बढ़ती गयी। इसके बाद जब प्रलय हुआ, तो अधिकांश जगत् उसमें डूब गया। फिर उन्नति आरम्भ हुई । और अब यह जगत् अपनी उसी प्राचीन, पवित्र अवस्था को प्राप्त करने के लिए धीरे धीरे अग्रसर हो रहा है । तुम सब प्राचीन व्यवस्थान (Old Testament) के प्रलय की कथा जानते ही हो। ठीक इसी प्रकार की कथा प्राचीन बेबिलोन, मिल, चीन और हिन्दुओं में भी प्रचलित थी। हिन्दू शास्त्रों में प्रलय का इस प्रकार का वर्णन है – महर्षि मनु जब एक दिन गंगातट पर सच्चा-वन्दन में लगे थे तो एक छोटी-सी मछली ने आकर उनसे कहा ‘मुझे आश्रय दीजिए।’ मनु ने उसी क्षण पास रखे हुए पात्र में उसे रखकर उससे पूछा, ‘तू क्या चाहती है?’ मछली बोली ‘एक बड़ी मछली मुझे मार डालने के लिए मेरा पीछा कर रही है। आप मेरी रक्षा कीजिए।’ मनु उसे घर ले गये। सबेरे देखा, वह बढ़कर पात्र के बराबर हो गयी है । मछली बोली, ‘मैं अब इस पात्र में नहीं रह सकती।’ तब मनु ने उसे एक कुण्ड में रख दिया । दूसरे दिन वह कुण्ड के बराबर हो गयी और कहने लगी ‘मैं इसमें भी नहीं रह सकती ।’ तब मनु ने उसे नदी में डाल दिया। सबेरे देखा कि उसका शरीर सारी नदी में फैल गया है। तब उन्होंने उसे समुद्र में डाल दिया। तब मछली कहने लगी, ‘मनु मैं जगत् का सृष्टिकर्ता हूँ! मैं प्रलय से जगत् का ध्वंस करूंगा। तुम्हें सावधान करने के लिए मैं मछली का रूप धारण करके आया था । तुम एक बहुत बड़ी नौका बनाकर उसमें सभी प्रकार के प्राणियों का एक-एक जोड़ा रखकर उनकी रक्षा करो और स्वयं भी सपरिवार उसमें जा बैठो। जब सारी पृथ्वी जल में डूब जाएगी, तब उस जल में तुम्हें मेरा एक सींग (काँटा) दिखेगा, तुम नौका को उससे बाँध देना। उसके बाद जल घट जाने पर नौका से उतरकर प्रजावृद्धि करना। ‘ इस प्रकार भगवान के कथनानुसार प्रलय हुआ और मनु ने अपने परिवारसहित प्रत्येक प्राणी के एक-एक जोड़े और उद्भिदों के बीजों की प्रलय से रक्षा की और प्रलय समाप्त हो जाने पर इस नौका से उतरकर वे प्रजा उत्पन्न करने में लग गये – और हम लोग मनु के वंशज होने के कारण मानव कहलाने लगे। (मन् धातु से बनता है : मन् धातु का अर्थ है मनन अर्थात चिन्तन करना।)
अब देखो, मानवी भाषा उस आभ्यन्तरिक सत्य को प्रकाशित करने का प्रयत्न मात्र है। मेरा तो स्थिर विश्वास है कि एक छोटा बच्चा भी अपनी अस्पष्ट, तोतली बोली में उच्चतम दार्शनिक सत्य को प्रकट करने की चेष्टा कर रहा है – पर हाँ, उसके पास उसे प्रकाशित करने के लिए कोई उपयुक्त इन्द्रिय अथवा साधन नहीं है। उच्चतम दार्शनिक और शिशु की भाषा में जो भेद है, वह प्रकारगत नहीं है, वह केवल परिमाणगत है । आजकल की विशुद्ध प्रणालीबद्ध, गणित के समान कटी-छँटी भाषा और प्राचीन ऋषियों की अस्फुट, रहस्यमय, पौराणिक भाषा में अन्तर केवल मात्रा के तारतम्य में है । इन सब कथाओं के पीछे एक महान सत्य छिपा है, जिसे प्रकाशित करने का प्राचीन लोग मानो प्रयत्न कर रहे हैं। बहुधा इन सब प्राचीन, पौराणिक कथाओं के भीतर ही बहुमूल्य सत्य रहता है और मुझे यह कहते दुःख होता है कि आधुनिक लोगों की चटपटी भाषा में बहुधा भूसी ही रहती है तत्व नहीं। अतएव, रूपक में सत्य छिपा है यह कहकर, अथवा वह अमुक-तमुक के विचारों से मेल नहीं खाता यह कहकर सभी प्राचीन बातों को एक किनारे कर देना उचित नहीं। ‘अमुक महापुरुष ने ऐसा कहा है, अतएव इस पर विश्वास करो – इस प्रकार घोषणा करने के कारण ही यदि सभी धर्म उपहासास्पद हो जाते हों, तब तो आजकल के लोग और भी अधिक उपहासास्पद हैं। आजकल यदि कोई मूसा, बुद्ध अथवा ईसा की उक्ति उद्धृत करता है तो उसकी हँसी उड़ायी जाती है; किन्तु हक्सले टिन्टल अथवा डारविन का नाम लेते ही बात एकदम अकाटय और प्रामाणिक बन जाती है! ‘हक्सले ने ऐसा कहा है’ इतना कहना ही बहुतों के लिए पर्याप्त है! हम लोग सचमुच अन्धविश्वास से मुक्त है! पहले था धर्म का अन्धविश्वास, अब है विज्ञान का अन्धविश्वास; फिर भी पहले के अन्धविश्वास में से एक जीवनप्रद आध्यात्मिक भाव आता था, पर आधुनिक अन्धविश्वास के भीतर से तो केवल काम और लोभ ही आ रहे है। वह अन्धविश्वास था ईश्वर की उपासना को लेकर, और आज कल का अन्धविश्वास है, महाघृणित धन, यश और शक्ति की उपासना को लेकर । बस यही भेद है।
हाँ, तो पौराणिक कथाओं की बात चल रही थी। इन सब कथाओं में यही एक प्रधान भाव देखने में आता है कि मनुष्य जिस अवस्था में पहले था, अब उससे गिरी हुई दशा में है। आजकल के तत्त्वान्वेषी इस बात को एकदम अस्वीकार करते है । क्रमविकासवादी विद्वानों ने तो मानो इस सत्य का सम्पूर्ण रूप से खण्डन ही कर दिया है। उनके मत से मनुष्य एक विशेष प्रकार के क्षुद्र मांसल जन्तु (Mollusc) का क्रमविकास मात्र है, अतएव पूर्वोक्त पौराणिक सिद्धान्त सत्य नहीं हो सकता। पर भारतीय पुराण दोनों मतों का समन्वय करने में समर्थ हैं । भारतीय पुराण के मतानुसार सभी प्रकार की उन्नति तरंगाकार होती है । प्रत्येक तरंग एक बार उठती है, फिर गिरती है, गिरकर फिर उठती है और फिर गिरती है । इसी प्रकार क्रम चलता रहता है । प्रत्येक गति चक्रों में होती है। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से देखने पर भी यह दिखेगा कि मनुष्य केवल क्रमविकास का परिणाम है यह बात सिद्ध नहीं होती। क्रमविकास कहने के साथ ही साथ क्रमसंकोच की प्रक्रिया को भी मानना पड़ेगा। विज्ञानवेत्ता ही तुमसे कहते है कि किसी यन्त्र में तुम जितनी शक्ति का प्रयोग करोगे, उसमें से तुम्हें बस उतनी ही शक्ति मिल सकती है । असत् (कुछ नहीं) से कभी भी सत् (कुछ) की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि मानव – पूर्ण मानव – बुद्ध-मानव, ईसा-मानव एक क्षुद्र मांसल जन्तु का ही विकास हो, तब तो इस क्षुद्र जन्तु को भी संकुचित या अव्यक्त बुद्ध कहना पड़ेगा। यदि ऐसा न हो, तो ये सब महापुरुष फिर कहाँ से उत्पन्न हुए? असत् से तो कभी सत् की उत्पत्ति नहीं होती। इसी प्रकार हम शास्त्र के साथ आधुनिक विज्ञान का समन्वय कर सकते हैं। जो शक्ति धीरे-धीरे नाना सोपानों में से होती हुई पूर्ण मनुष्य के रूप में परिणत होती है, वह कभी भी शून्य से उत्पन्न नहीं हो सकती। वह कहीं न कहीं अवश्य वर्तमान थी; और यदि तुम विश्लेषण करते करते इस प्रकार के क्षुद्र मांसल जन्तुविशेष या जीविसार (Protoplam) तक ही पहुँचकर, उसी को आदिकारण सिद्ध करते हो, तो यह निश्चित है कि इस जीविसार में ही यह शक्ति किसी न किसी रूप में विद्यमान थी। आजकल यह विवाद चल रहा है कि क्या पंचभूतों की समष्टि यह देह ही आत्मा, चिन्तन-शक्ति या विचार आदि नामों से परिचित शक्तियों के विकास का कारण है अथवा चिन्तन- शक्ति ही देहोत्पत्ति का कारण है? निश्चय ही संसार के सभी धर्म कहते हैं कि विचार नामक शक्ति ही शरीर की प्रकाशक है, और वे इसके विपरीत मत में आस्था नहीं रखते। अनेक आधुनिक विचारधाराएँ (Comte’s Positivism) मानती हैं कि चिन्तन-शक्ति केवल शरीर नामक यन्त्र के विभिन्न अंशों के एक विशेष रूप के समायोजन से उत्पन्न होती है । यदि इस द्वितीय मत को मान लिया जाए अर्थात यह स्वीकार कर लिया जाए कि यह आत्मा या मन, या इसे किसी भी नाम से क्यों न पुकारो, इस जड़ देहस्वरूप यन्त्र का ही फलस्वरूप है – जिन सब जड़ परमाणुओं से मस्तिष्क और शरीर का गठन होता है, यह उन्हीं के रासायनिक अथवा भौतिक योग से उत्पन्न होनेवाली वस्तु है, तब तो यह प्रश्न ही अमीमांसित रह जाएगा। शरीर की रचना कौन करता है? कौनसी शक्ति इन भौतिक अणुओं को शरीर के रूप में परिणत करती है? कौनसी शक्ति प्रकृति में पड़ी हुई जडवस्तु के ढेर में से कुछ अंश लेकर तुम्हारा शरीर एक प्रकार का और मेरा शरीर दूसरे प्रकार का बना डालती है? यह सब अनन्त विभिन्नता कैसे होती है? यह कहना कि आत्मा नामक शक्ति शरीर के भौतिक परमाणुओं के विभिन्न संघातों से उत्पन्न होती है, ठीक वैसा ही है, जैसे बैल के आगे गाड़ी जोतना। यह संघात कैसे उत्पन्न हुआ? किस शक्ति ने ऐसा कर दिया? यदि तुम कहो कि अन्य किसी शक्ति ने यह संघात कर दिया है और आत्मा, जो इस समय एक विशेष जड़राशि के साथ संहत दिखाई दे रही है, इन्हीं सब जड़ परमाणुओं के संघात का फल है तब तो यह कोई उत्तर न हुआ। जो मत अन्यान्य मतों का बिना खण्डन किये चाहे सब की न हो पर अधिकतर घटनाओं की, अधिकतर विषयों की व्याख्या कर सकता है, वही ग्राह्य है । अतएव यही बात अधिक युक्तिसंगत है कि जो शक्ति जड्तत्त्व को लेकर उससे शरीर का निर्माण करती है और जो शक्ति शरीर के भीतर व्यक्त है, वे दोनों एक ही है । अतः यह कहना कि ‘जो चिन्तन-शक्ति हमारे शरीर में व्यक्त है, वह केवल जड़ अणुओं के संयोग से उत्पन्न होती है और इसीलिए शरीर से पृथक् उसका कोई अस्तित्व नहीं’ बिलकुल निरर्थक है – इस कथन में कोई तथ्य नहीं । फिर, शक्ति कभी जड्तत्त्व से उत्पन्न हो नहीं सकती । बल्कि यह प्रमाणित करना अधिक सम्भव है कि हम जिसे जड़ कहकर पुकारते है, उसका अस्तित्व ही नहीं है, वह केवल शक्ति की एक विशेष अवस्था है । यह सिद्ध किया जा सकता है कि ठोसपन, कठिनता आदि जो सब जड़ के गुण हैं, वे गति के फल हैं। द्रवों को प्रचुर शीर्षीय गति देने से वे ठोस हो जाएँगे। वायुपुंज में यदि अतिशय शीर्षीय गति उत्पन्न कर दी जाए, जैसे तूफान में, तो वह ठोस सा हो जाता है और अपने आघात से ठोस पदार्थों को तोड़ या काट सकता है । यदि मकड़ी के जाले के एक तन्तु को अनन्त वेग दिया जाए तो वह लोहे की जंजीर जैसा सशक्त हो जाएगा और बड़े पेड़ तक को काटकर पार हो जाएगा। इस प्रकार से विचार करने पर यह सिद्ध करना सहज है कि हम जिसे जड्तत्त्व कहते हैं उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है । किन्तु दूसरा मत सिद्ध नहीं किया जा सकता। शरीर के भीतर यह जो शक्ति की अभिव्यक्ति देखी जाती है, यह है क्या? हम सभी यह बात सरलता से समझ सकते हैं कि यही शक्ति फिर वह चाहे जो हो, जड़ परमाणुओं को लेकर उनसे एक विशेष आकृति – मनुष्यदेह – तैयार कर रही है । अन्य कोई आकर तुम्हारे या मेरे शरीर को नहीं बना देता। ऐसा मैंने कभी नहीं देखा कि दूसरा कोई मेरे लिए भोजन कर लेता हो। मुझे ही इस भोजन का सार शरीर में लेकर उससे रक्त, मांस, अस्थि आदि का गठन करना पड़ता है। यह अछूत शक्ति क्या है?
बहुतों को भूत और भविष्य सम्बन्धी सिद्धान्त भयावह प्रतीत होते हैं, बहुतों को तो वे केवल आनुमानिक व्यापार ही प्रतीत होते है । अतएव वर्तमान में क्या होता है, हम यही समझने की चेष्टा करेंगे। हम प्रस्तुत विषय को ही लेंगे। वह- शक्ति क्या है, जो इस समय हममें काम कर रही है? हम देख चुके हैं कि सभी प्राचीन शास्त्रों में इस शक्ति को – इसी शक्ति की अभिव्यक्ती को – इसी शरीर की आकृतिवाला एक ऐसा ज्योतिर्मय पदार्थ माना है; जो इस शरीर के नष्ट हो जाने पर भी बचा रहता है । क्रमशः हम देखते है कि केवल ज्योतिर्मय देह कहने से सन्तोष नहीं होता – एक और भी उच्चतर भाव लोगों के मन पर अधिकार करता दिखाई देता है। वह यह है कि किसी भी प्रकार का शरीर शक्ति का स्थान नहीं ले सकता। जिस किसी वस्तु की आकृति है, वह बहुत से परमाणुओं की एक संहति मात्र है, अतएव उसको चलाने के लिए दूसरी कोई चीज चाहिए। यदि इस शरीर का गठन और परिचालन करने के लिए इस शरीर से भिन्न अन्य किसी वस्तु की आवश्यकता होती हो, तो इसी तर्क के बल पर इस ज्योतिर्मय देह का गठन और परिचालन करने के लिए भी इससे भिन्न अन्य कोई वस्तु चाहिए। यह “अन्य कोई वस्तु” ही संस्कृत भाषा में आत्मा नाम से सम्बोधित हुई। यह आत्मा ही इस ज्योतिर्मय देह में से मानो स्थूल शरीर पर काम कर रही है । यह ज्योतिर्मय शरीर ही मन का आधार कहा जाता है, और आत्मा इससे अतीत है । आत्मा मन नहीं है, वह मन पर कार्य करती है और मन के माध्यम से शरीर पर। तुम्हारे एक आत्मा है मेरे भी एक आत्मा है – सभी के अलग अलग आत्मा हैं और एक एक सूक्ष्म शरीर भी, इस सूक्ष्म शरीर की सहायता से हम स्थूल शरीर पर कार्य करते हैं । अब प्रश्न उठने लगा – आत्मा और उसके स्वरूप के सम्बन्ध में। शरीर और मन से पृथक् इस आत्मा का क्या स्वरूप है? बहुत से वाद-प्रतिवाद होने लगे, नाना प्रकार के सिद्धान्त और अनुमान होने लगे अनेकविध दार्शनिक अनुसन्धान होने लगे। इस आत्मा के सम्बन्ध में वे जिन सिद्धांतों पर पहुँचे, मैं तुम्हारे समक्ष उनका वर्णन करने का प्रयत्न करूंगा।
भिन्न भिन्न दर्शनों का इस विषय में मतैक्य देखा जाता है कि आत्मा का स्वरूप जो कुछ भी हो, उसकी कोई आकृति नहीं है, और जिसकी आकृति नहीं, वह अवश्य सर्वव्यापी होगा। काल का आरम्भ मन से होता है – देश भी मन के अन्तर्गत है । काल को छोड़ कार्य-कारण-भाव नहीं रह सकता। क्रम की भावना के बिना कार्य-कारण-भाव नहीं रह सकता। अतएव, देश-काल-निमित्त मन के अन्तर्गत हैं और यह आत्मा, मन से अतीत और निराकार होने के कारण, देश-काल-निमित्त से परे है। और जब वह देश-काल-निमित्त से अतीत है, तो अवश्य अनन्त होगी। अब हमारे हिजूदर्शन का उच्चतम विचार आता है। अनन्त कभी दो नहीं हो सकता। यदि आत्मा अनन्त है, तो केवल एक ही आत्मा हो सकती है, और यह जो अनेक आत्माओं की धारणा है – तुम्हारी एक आत्मा, मेरी दूसरी आत्मा – यह सत्य नहीं है। अतएव मनुष्य का प्रकृत स्वरूप एक ही है वह अनन्त और सर्वव्यापी है और यह प्रातिभासिक जीव मनुष्य के इस वास्तविक स्वरूप का एक सीमाबद्ध भाव मात्र है । इसी अर्थ में पूर्वोक्त पौराणिक तत्त्व भी सत्य हो सकते हैं कि प्रातिभासिक जीव, चाहे वह कितना ही महान् क्यों न हो, मनुष्य के इस अतीन्द्रिय, प्रकृत स्वरूप का धुँधला प्रतिबिंब मात्र है । अतएव मनुष्य का प्रकृत स्वरूप – आत्मा – कार्य-कारण से अतीत होने के कारण, देश-काल से अतीत होने के कारण, अवश्य मुक्तस्वभाव है । वह कभी बद्ध नहीं थी, न ही बद्ध हो सकती थी। यह प्रातिभासिक जीव, यह प्रतिबिम्ब, देश-काल-निमित्त के द्वारा सीमाबद्ध होने के कारण बद्ध है। अथवा हमारे कुछ दार्शनिकों की भाषा में, “प्रतीत होता है मानो वह बद्ध हो गयी है, पर वास्तव में वह बद्ध नहीं है । “हमारी आत्मा के भीतर जो यथार्थ सत्य है, वह यही कि आत्मा सर्वव्यापी है, अनन्त है, चैतन्यस्वभाव है; हम स्वभाव से ही वैसे हैं – हमें प्रयत्न करके वैसा नहीं बनना पड़ता। प्रत्येक आत्मा अनन्त है, अतः जन्म और मृत्यु का प्रश्न उठ ही नहीं सकता। कुछ बालक परीक्षा दे रहे थे। परीक्षक कठिन कठिन प्रश्न पूछ रहे थे। उनमें यह भी प्रश्न था – “पृथ्वी गिरती क्यों नहीं?” वे गुरुत्वाकर्षण के नियम आदि सम्बन्धी उत्तर की आशा कर रहे थे। अधिकांश बालक-बालिकाएं कोई उत्तर न दे सके । कोई कोई गुरुत्वाकर्षण या और कुछ कह-कहकर उत्तर देने लगे। उनमें से एक बुद्धिमती बालिका ने एक और प्रश्न करके इस प्रश्न का समाधान कर दिया – “पृथ्वी गिरेगी कहाँ पर?” यह प्रश्न ही तो गलत है! पृथ्वी गिरे कहाँ? पृथ्वी के लिए गिरने और उठने का कोई अर्थ नहीं। अनन्त देश में ऊपर और नीचे नहीं होता। ये दोनों सापेक्ष देश में हैं। जो अनन्त है, वह कहाँ जाएगा और कहाँ से आएगा?
जब मनुष्य भूत और भविष्य की चिन्ता का – उसका क्या होगा, इस चिन्ता का – त्याग कर देता है, जब वह देह को सीमाबद्ध और इसलिए उत्पत्ति-विनाशशील जानकर देहाभिमान का त्याग कर देता है तब वह एक उच्चतर आदर्श में पहुँच जाता है । देह भी आत्मा नहीं और मन भी आत्मा नहीं; क्योंकि इन दोनों में ह्रास और वृद्धि होती है। जड़ जगत् से अतीत आत्मा ही अनन्त काल तक रह सकती है । शरीर और मन सतत परिवर्तनशील हैं । वे दोनों परिवर्तनशील कुछ घटना- श्रेणियों के केवल नाम हैं । वे मानो एक नदी के समान हैं, जिसका प्रत्येक जल-परमाणु सतत चलायमान है । फिर भी वह नदी सदा एक अविच्छिन्न प्रवाह-सी दिखती है । इस देह का प्रत्येक परमाणु सतत परिणामशील है; किसी भी व्यक्ति का शरीर कुछ क्षण के लिए भी, एक समान नहीं रहता। फिर भी मन पर एक प्रकार का संस्कार बैठ गया है, जिसके कारण हम इसे एक ही शरीर समझते हैं । मन के सम्बन्ध में यही बात है; क्षण में सुखी, क्षण में दुःखी; क्षण में सबल और क्षण में दुर्बल! वह सतत परिणामशील भँवर के समान है! अतएव मन भी आत्मा नहीं हो सकता, आत्मा तो अनन्त है । परिवर्तन केवल ससीम वस्तु में ही सम्भव है। अनन्त में किसी प्रकार का परिवर्तन हो यह एक असम्भव बात है । यह कभी हो नहीं सकता। शरीर की दृष्टि से तुम और मैं एक स्थान से दूसरे स्थान को जा सकते हैं, जगत् का प्रत्येक अणु-परमाणु नित्य परिणामशील है; पर जगत् को एक समष्टि के रूप में लेने पर उसमें गति या परिवर्तन असम्भव है। गति सर्वत्र सापेक्ष है। मैं जब एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता हूँ, तब किसी वस्तु के सन्दर्भ में ही। एक मेज अथवा अन्य किसी वस्तु के साथ तुलना करके ही मेरी वह गति समझ में आ सकती है । जगत् का कोई परमाणु किसी दूसरे परमाणु की तुलना में ही परिणाम को प्राप्त हो सकता है; किन्तु सम्पूर्ण जगत् को एक समष्टिरूप में लेने पर किसकी तुलना में उसका स्थान परिवर्तन होगा? इस समष्टि के अतिरिक्त और कुछ तो है नहीं । अतएव यह अनन्त इकाई अपरिणामी, अचल और निरपेक्ष है और यही पारमार्थिक सत्ता है । अतः हमारा सत्य सर्वव्यापकता में है, सान्तता में नहीं। यह धारणा कि मैं एक क्षुद्र सान्त सतत परिणामी जीव हूँ, कितनी ही सुखद क्यों न हो, फिर भी यह एक पुराना भ्रम ही है । यदि किसी से कहो कि ‘तुम सर्वव्यापी, अनन्त पुरुष हो, तो वह डर जाएगा । सब के माध्यम से तुम कार्य कर रहे हो, सब पैरों द्वारा तुम चल रहे हो, सब मुखों से तुम बातचीत कर रहे हो, सब हृदयों से अनुभव कर रहे हो।
ऐसी बातें यदि तुम किसी से कहो, तो वह डर जाएगा। वह तुमसे बार बार पूछेगा कि क्या फिर उसका अपना व्यक्तित्व नहीं रह जाएगा? क्या मैं नहीं रह जाऊँगा? यह व्यक्तित्व – मैं – क्या है? यदि जान पाऊँ तो अच्छा हो! छोटे बालक के मूंछें नहीं होती। बड़े होने पर उसके दाढ़ी- मूंछें निकल आती हैं । यदि ‘ अहं’ या व्यक्तित्व शरीर में रहता होता, तब तो बालक का व्यक्तित्व नष्ट हो गया होता। यदि ‘अहं’ या व्यक्तित्व शरीरगत होता, तब तो हमारी एक आंख अथवा हाथ नष्ट हो जाने पर वह नष्ट हो जाता । फिर शराबी का शराब छोड़ना ठीक नहीं, क्योंकि तब तो उसका व्यक्तित्व ही नष्ट हो जाएगा! चोर का साधु बनना भी ठीक नहीं, क्योंकि इससे वह अपना व्यक्तित्व खो बैठेगा! तब तो फिर कोई भी अपना व्यसन छोड़ना न चाहेगा। पर बात यह है कि अनन्त को छोड़कर और किसी में व्यक्तित्व है ही नहीं। केवल इस अनन्त का ही परिवर्तन नहीं होता, और शेष सभी का सतत परिवर्तन होता रहता है। व्यक्तित्व- भाव पति में भी नहीं है। स्मृति में यदि व्यक्तित्व-भाव रहता, तो मस्तिष्क में गहरी चोट लगने से स्मृति-लोप हो जाने पर वह नष्ट हो जाता और हमारा बिलकुल लोप हो जाता! बचपन के पहले दो-तीन वर्षों का मुझे कोई स्मरण नहीं; यदि स्मृति पर मेरा अस्तित्व निर्भर होता, तो फिर कहना पड़ेगा कि इन दो- तीन वर्षों में मेरा अस्तित्व ही नहीं था। तब तो मेरे जीवन का जो अंश मुझे स्मरण नहीं उस समय मैं जीवित ही नहीं था – यही कहना पड़ेगा यह ‘व्यक्तित्व’ का बहुत संकीर्ण अर्थ है ।
हम अभी तक ‘व्यक्ति’ या ‘मैं’ नहीं हैं। हम इसी ‘व्यक्तित्व’ को प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं – और वह अनन्त है, वही मनुष्य का प्रकृत स्वरूप है। जिनका जीवन सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त किये हुए है, वे ही जीवित हैं और हम जितना ही अपने जीवन को शरीर आदि छोटे छोटे सान्त पदार्थों में बद्ध करके रखेंगे, उतना ही हम मृत्यु की ओर अग्रसर’ होंगे। जितने क्षण हमारा जीवन समस्त जगत् में व्याप्त रहता है, दूसरों में व्याप्त रहता है, उतने ही क्षण हम जीवित रहते हैं। इस क्षुद्र जीवन में अपने को बद्ध कर रखना तो मृत्यु है और इसी कारण हमें मृत्युभय होता है । मृत्युभय तो तभी जीता जा सकता है, जब मनुष्य यह समझ ले कि जब तक जगत् में एक भी जीवन शेष है, तब तक वह भी जीवित है । जब वह कह सकता है कि ‘मैं सब वस्तुओं में, सब देहों में, सब प्राणियों में वर्तमान हूँ । मैं ही जगत् हूँ सम्पूर्ण जगत् ही मेरा शरीर है! जब तक एक भी परमाणु शेष है तब तक मेरी मृत्यु कहाँ? कौन कहता है कि मेरी मृत्यु होगी? ‘ तभी यह निर्भीक अवस्था आती है। सतत परिणामशील वस्तुओं में अविनाशित्व खोजना भारी भूल है। एक प्राचीन भारतीय दार्शनिक ने कहा है कि आत्मा अनन्त है, इसलिए आत्मा ही ‘ अविभाज्य व्यक्तित्व’ हो सकती है । अनन्त का विभाजन नहीं किया जा सकता – अनन्त को खण्ड-खण्ड नहीं किया जा सकता। वह सदा एक अविभक्त समष्टिस्वरूप, अनन्त आत्मा ही है और वही मनुष्य का ‘यथार्थ मैं’ है, वही ‘प्रकृत मनुष्य’ है। ‘मनुष्य’ के नाम से जिसको हम जानते हैं, वह इस ‘मैं’ को व्यक्त जगत् में अभिव्यक्त करने के प्रयत्न का फल मात्र है। ‘क्रमविकास’ आत्मा में नहीं है । यह जो सब परिवर्तन हो रहा है – बुरा व्यक्ति भला हो रहा है, पशु मनुष्य हो रहा है – यह सब कभी आत्मा में नहीं होता। कल्पना करो कि एक परदा मेरे सामने है और उसमें एक छोटासा छिद्र है, जिसमें से मैं केवल कुछ चेहरे देख सकता हूँ। यह छिद्र जितना बड़ा होता जाता है, सामने का दृश्य उतना ही अधिक मेरे सम्मुख प्रकट होता जाता है, और जब यह छिद्र पूरे स्वरूप परदे को व्याप्त कर लेता है, तब मैं तुम सब को स्पष्ट देख लेता हूँ। यहाँ पर तुममें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, तुम जो थे, वहीं रहे। केवल छिद्र का ‘क्रमविकास’ होता रहा, और उसके साथ साथ तुम्हारी अभिव्यक्ति क्रमशः अधिक होती रही । आत्मा के सम्बन्ध में भी यही बात है। तुम पहले से ही मुक्तस्वभाव और पूर्ण हो – पूर्णत्व को प्रयत्न करके मिलाना नहीं पड़ता। धर्म, ईश्वर या परलोक सम्बन्धी ये सब धारणाएँ कहाँ से आयीं? मनुष्य ‘ईश्वर, ईश्वर’ करता क्यों घूमता फिरता है? सभी देशों में सभी समाजों में मनुष्य क्यों पूर्ण आदर्श का अन्वेषण करता फिरता है – भले ही वह आदर्श मनुष्य में हो अथवा ईश्वर में या अन्य किसी वस्तु में? इसलिए कि वह भाव तुम्हारे ही भीतर वर्तमान है । वह थी तुम्हारे हृदय की धड़कन और तुम उसे नहीं जानते थे, तुम सोचते थे कि बाहर की कोई वस्तु यह ध्वनि कर रही है। तुम्हारी आत्मा में विराजमान ईश्वर ही तुम्हें अपना अनुसन्धान करने को – अपनी उपलब्धि करने को प्रेरित कर रहा है। यहाँ वहाँ, मन्दिर में, गिरजाघर में, स्वर्ग में मर्त्य में, विभिन्न स्थानों में अनेक उपायों से अन्वेषण करने के बाद अन्त में हमने जहाँ से आरम्भ किया था, वहीं अर्थात् अपनी आत्मा में ही हम एक चक्कर पूरा करके वापस आ जाते हैं और देखते हैं कि जिसकी हम समस्त जगत् में खोज करते फिर रहे थे, जिसके लिए हमने मन्दिरों और गिरजाघरों में जा जा कातर होकर प्रार्थनाएँ की, आंसू बहाये, जिसको हम सुदूर आकाश में मेघराशि के पीछे छिपा हुआ अव्यक्त और रहस्यमय समझते रहे, वह हमारे निकट से भी निकट है प्राणों का प्राण है, हमारा शरीर है, हमारी आत्मा है – तुम ही ‘मैं’ हो, मैं ही ‘तुम’ हूँ। यही तुम्हारा स्वरूप है – इसी को अभिव्यक्त करो। तुम्हें पवित्र होना नहीं पड़ेगा – तुम तो स्वरूपतः पवित्र ही हो। तुम्हें पूर्ण होना नहीं पड़ेगा – तुम तो स्वरूपतः पूर्ण ही हो। सारी प्रकृति देश-कालातीत सत्य को परदे के समान ढाँकी हुयी है। तुम जो कुछ भी अच्छा विचार या अच्छा कार्य करते हो, उससे मानो वह आवरण धीरे धीरे छिन्न होता रहता है और देशकालातीत वह शुद्धस्वरूप, अनन्त स्वयं अभिव्यक्त होता रहता है ।
यही मनुष्य का सारा इतिहास है । यह आवरण जितना ही सूक्ष्म होता जाता है, उतना ही प्रकृति के पीछे स्थित प्रकाश भी अपने स्वभाववश क्रमशः अधिकाधिक दीप्त होता जाता है, क्योंकि उसका स्वभाव ही इस प्रकार दीप्त होना है । उसको जाना नहीं जा सकता, हम उसे जानने का वृथा ही प्रयत्न करते रहते हैं । यदि वह ज्ञेय होता, तो उसका स्वभाव ही बदल जाता, क्योंकि वह स्वयं नित्यज्ञाता है । ज्ञान एक सीमाबद्ध भाव है; ज्ञान-लाभ करने के लिए उसका चिन्तन ज्ञेय वस्तु के रूप में, विषय के रूप में करना पड़ता है । जो सारी वस्तुओं का ज्ञातास्वरूप है, सब विषयों का विषयीस्वरूप है, इस विश्वब्रह्माण्ड का साक्षीस्वरूप है, वह तुम्हारी ही आत्मा है। शान तो मानो एक निम्न अवस्था है – एक भ्रष्ट भाव मात्र है । हम ही वह नित्यज्ञाता आत्मा हैं, फिर उसे हम किस प्रकार जानेंगे? प्रत्येक व्यक्ति वह आत्मा है और सब लोग विभिन्न उपायों से इसी आत्मा को जीवन में प्रकाशित करने का प्रयत्न कर रहे हैं! यदि ऐसा न होता तो ये सब नीतिसंहिताएँ कहाँ से आतीं? सारी नीतिसंहिताओं का तात्पर्य क्या है? सभी नीतिसंहिताओं में एक ही भाव भिन्न भिन्न रूप से प्रकाशित हुआ है और वह है – दूसरों का उपकार करना । मनुष्यों के, प्रति, सारे प्राणियों के प्रति दया ही मानवजाति के समस्त सत्कर्मों का पथप्रदर्शक प्रेरक है, और ये सब ‘मैं ही जगत् हूँ, यह जगत् एक अखण्डस्वरूप है’ इसी सनातन सत्य के विभिन्न भाव मात्र हैं । यदि ऐसा न हो तो, दूसरों का हित करने में भला कौनसी युक्ति है? मैं क्यों दूसरों का उपकार करूँ? परोपकार करने को मुझे कौन बाध्य करता है? सर्वत्र समदर्शन से उत्पन्न जो सहानुभूति की भावना है, उसी से यह बात होती है । अत्यन्त कठोर अन्तःकरण भी कभी-कभी दूसरों के प्रति सहानुभूति से भर जाता है, और तो और, जो व्यक्ति “यह आपातप्रतीयमान ‘व्यक्तित्व’ वास्तव में भ्रम मात्र है, इस भ्रमात्मक ‘व्यक्तित्व’ में आसक्त रहना अत्यन्त नीच कार्य है” ये सब बातें सुनकर भयभीत हो जाता है, वही व्यक्ति तुमसे कहेगा कि सम्पूर्ण आत्मत्याग ही सारी नैतिकता का केन्द्र है । किन्तु पूर्ण आत्मत्याग क्या है? सम्पूर्ण आत्मत्याग हो जाने पर क्या शेष रहता है? आत्मत्याग का अर्थ है इस मिथ्या ‘ अहं’ या व्यक्तित्व का त्याग, सब प्रकार की स्वार्थपरता का त्याग। यह अहंकार और ममता पूर्व कुसंस्कारों के फल हैं और जितना ही इस ‘व्यक्तित्व’ का त्याग होता जाता है ,उतनी ही आत्मा अपने नित्य स्वरूप में, अपनी पूर्ण महिमा में अभिव्यक्त होती है । यही वास्तविक आत्मत्याग है और यही समस्त नैतिक शिक्षा का आधार है केन्द्र है। मनुष्य इसे जाने या न जाने, समस्त जगत् धीरे-धीरे इसी दिशा में जा रहा है, अल्पाधिक परिमाण में इसी का अभ्यास कर रहा है। बात केवल इतनी ही है कि अधिकांश लोग इसे अज्ञात रूप से कर रहे हैं । वे इसे ज्ञात रूप से करें । यह ‘मैं’ और ‘मेरा’ प्रकृत आत्मा नहीं है किन्तु केवल एक सीमाबद्ध भाव है यह जानकर वे इस मिथ्या व्यक्तित्व को त्याग दें । आज जो मनुष्य नाम से परिचित है, वह जगत् के अतीत उस अनन्त सत्ता की एक झलक मात्र है, उस सर्वस्वरूप अनन्त अग्नि का एक स्फुल्लिंग मात्र है। किन्तु वह अनन्त ही उसका यथार्थ स्वरूप है।
इस ज्ञान का फल – इस ज्ञान की उपयोगिता क्या है? आजकल सभी विषयों को उनकी उपयोगिता के मापदण्ड से नापा जाता है । अर्थात् संक्षेप में यह कि इससे कितने रुपये; कितने आने और कितने पैसों का लाभ होगा? लोगों को इस प्रकार प्रश्न करने का क्या अधिकार है? क्या सत्य को भी उपकार या धन के मापदण्ड से नापा जाएगा? मान लो कि उसकी कोई उपयोगिता नहीं है, तो क्या इससे सत्य घट जाएगा? उपयोगिता सत्य की कसौटी नहीं है । जो भी हो, इस ज्ञान में बड़ा उपकार तथा प्रयोजन भी है। हम देखते हैं, सब लोग सुख की खोज करते हैं; पर अधिकतर लोग नश्वर मिथ्या वस्तुओं में उसको ढूँढ़ते फिरते है । इन्द्रियों में कभी किसी को सुख नहीं मिलता। सुख तो केवल आत्मा में मिलता है। अतएव आत्मा में इस सुख की प्राप्ति ही मनुष्य का सब से बड़ा प्रयोजन है। और एक बात यह है कि अज्ञान ही सब दुःखों का कारण है, और मूलभूत अज्ञान तो यही है कि जो अनन्तस्वरूप है, वह अपने को सान्त मानकर रोता है, चिल्लाता है । समस्त अज्ञान का आधार यही है कि हम अविनाशी, नित्य शुद्ध पूर्ण आत्मा होते हुए भी सोचते है कि हम छोटे छोटे मन हैं; हम छोटी छोटी देह मात्र हैं; यही समस्त स्वार्थपरता की जड़ है। ज्योंही मैं अपने को एक क्षुद्र देह समझ बैठता हूँ, त्योंही मैं संसार के अन्यान्य शरीरों के सुख-दुःख की कोई परवाह न करते हुए अपने शरीर की रक्षा में, उसे सुन्दर बनाने के प्रयत्न में लग जाता हूँ। उस समय मैं तुमसे भिन्न हो जाता हूँ। ज्योंही यह भेद-ज्ञान आता है, त्योंही वह सब प्रकार के अमंगल के द्वार खोल देता है और सर्वविध दुःखों की उत्पत्ति करता है। अतः पूर्वोक्त ज्ञान की प्राप्ति से लाभ यह होगा कि यदि वर्तमान मानवजाति का एक बिलकुल छोटासा अंश भी इस क्षुद्र संकीर्ण और स्वार्थी भाव का त्याग कर सकें, तो कल ही यह संसार स्वर्ग में परिणत हो जाएगा; पर नाना प्रकार के यन्त्र तथा बाह्यजगत्-सम्बन्धी भौतिक ज्ञान की उन्नति से यह कभी सम्भव नहीं हो सकता। जिस प्रकार अग्नि में घी डालने से अग्निशिखा और भी वर्धित होती है, उसी प्रकार इन सब वस्तुओं से दुःखों की ही वृद्धि होती है। आत्मा के ज्ञान बिना जो कुछ भौतिक शान अर्जित किया जाता है, वह सब आग में घी डालने के समान है । उससे दूसरों के लिए प्राण उत्सर्ग कर देने की बात तो दूर ही रही, स्वार्थी लोगों को दूसरों की चीजें हर लेने के लिए, दूसरों के रक्त पर फलने-फूलने के लिए एक और यन्त्र, एक और सुविधा मिल जाती है ।
एक और प्रश्न है – क्या यह व्यवहार्य है? वर्तमान समाज में क्या इसे कार्य रूप में परिणत किया जा सकता है? इसका उत्तर यह है कि सत्य, प्राचीन अथवा आधुनिक किसी समाज का सम्मान नहीं करता। समाज को ही सत्य का सम्मान करना पड़ेगा, अन्यथा समाज नष्ट हो जाए। समाजों को सत्य के अनुरूप ढाला जाना चाहिए, सत्य को समाज के अनुसार अपने को ढालना नहीं पड़ता। यदि निःस्वार्थता के समान महान् सत्य समाज में कार्य रूप में परिणत न किया जा सकता हो, तो ऐसे समाज को छोड़कर वन में चले जाना ही बेहतर है । इसी का नाम साहस है। साहस दो प्रकार का होता है। एक प्रकार का साहस है – तोप के मुँह में दौड़ जाना। दूसरे प्रकार का साहस है, आध्यात्मिक विश्वास। एक बार एक दिग्विजयी सम्राट भारतवर्ष में आया। उसके गुरू ने उसे भारतीय साधुओं से साक्षात्कार करने का आदेश दिया था। बहुत खोज करने के बाद उसने देखा कि एक वृद्ध साधु एक पत्थर पर बैठे हैं । सम्राट ने उनके साथ कुछ देर बातचीत की और उसके ज्ञान से बड़ा प्रभावित हुआ। उसने साधु को अपने साथ देश ले जाने की इच्छा प्रकट की। साधु ने इसे स्वीकार नहीं किया और कहा, “मैं इस वन में बड़े आनन्द में हूँ ।” सम्राट बोला, “मैं समस्त पृथ्वी का सम्राट हूँ। मैं आपको असीम ऐश्वर्य, और उच्च पद-मर्यादा दूँगा।” साधु बोले “ऐश्वर्य, पद-मर्यादा आदि किसी बात की मेरी’ इच्छा नहीं।” तब सम्राट् ने कहा, “आप यदि मेरे साथ न चलेंगे, तो मैं आपको मार डालूँगा।” इस पर साधु बहुत हँसे और बोले, “राजन् आज तुमने अपने जीवन में सब से मूर्खतापूर्ण बात कही । तुम्हारी क्या हस्ती कि मुझे मारो? सूर्य मुझे सुखा नहीं सकता, अग्नि मुझे जला नहीं सकती, तलवार मेरा संहार नहीं कर सकती, क्योंकि मैं तो जन्मरहित, अविनाशी नित्यविद्यमान, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् आत्मा हूँ ।” यह आध्यात्मिक साहस है और दूसरा है शेर या सिंह का साहस । सर १८५७ ई. के गदर के समय एक मुसलमान सिपाही ने एक संन्यासी महात्मा को बुरी तरह घायल कर दिया। हिन्दू विद्रोहियों ने उस मुसलमान को पकड़ लिया और उसे स्वामीजी के पास लाकर कहा, “आप कहें तो इसकी खाल खींच लें।” स्वामीजी ने उसकी ओर देखकर कहा, “भाई, तुम्हीं वह हो, तुम्हीं वह हो – तत्वमसि।” और यह कहते कहते उन्होंने शरीर छोड़ दिया। यह दूसरा उदाहरण है। यदि तुम ऐसा समाज नहीं गढ़ सकते, जिसमें सर्वोच्च सत्य को स्थान मिले, तो धिक्कार है अपने बाहुबल पर तुम्हारे मिथ्या अभिमान को, धिक्कार है अपनी पाश्चात्य संस्थाओं पर तुम्हारे वृथा घमण्ड को! अपनी महत्ता और श्रेष्ठता की तुम क्यों व्यर्थ शेखी बघारते हो, यदि दिन-रात तुम यही कहते रहो कि “यह अव्यवहार्य है!” पैसे-कौड़ी को छोड़कर क्या और कुछ भी व्यवहार्य नहीं है? यदि ऐसा ही हो, तो फिर अपने समाज पर इतना घमण्ड क्यों करते हो? वही समाज सब से श्रेष्ठ है, जहाँ सर्वोच्च सत्य को कार्य में परिणत किया जा सकता है – यही मेरा मत है । और यदि समाज इस समय उच्चतम सत्य को स्थान देने में समर्थ नहीं है, तो उसे इस योग्य बनाओ। ओर जितना शीघ्र तुम ऐसा कर सको, उतना ही अच्छा। हे नर-नारियों! उठो, आत्मा के सम्बन्ध में जागृत होओ, सत्य में विश्वास करने का साहस करो, सत्य के अभ्यास का साहस करो । संसार को कुछ साहसी नर-नारियों की आवश्यकता है। अपने में वह साहस लाओ, जो सत्य को जान सके, जो जीवन में निहित सत्य को दिखा सके जो मृत्यु से न डरे, प्रत्युत उसका स्वागत करे, जो मनुष्य को यह ज्ञान करा दे की वह आत्मा है, और सारे जगत् में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो उसका विनाश कर सके। तब तुम मुक्त हो जाओगे। तब तुम अपनी यथार्थ आत्मा को जान लोगे। “इस आत्मा के सम्बन्ध में पहले श्रवण करना चाहिए, फिर मनन और तत्पक्षात् निदिध्यासन।”
आजकल के समाज में एक प्रवृत्ति देखी जा रही है और वह है – कार्य पर अधिक जोर देना और विचार की निन्दा करना। कार्य अवश्य अच्छा है, पर वह भी तो विचार या चिन्तन से उत्पन्न होता है । शरीर के माध्यम से शक्ति की जो छोटी छोटी अभिव्यक्तियाँ होती हैं उन्हीं को कार्य कहते हैं । बिना विचार या चिन्तन के कोई कार्य नहीं हो सकता। अतः मस्तिष्क को ऊँचे-ऊँचे विचारों, ऊँचे-ऊँचे आदर्शों से भर लो, और उनको दिन-रात मन के सन्मुख रखो; ऐसा होने पर इन्हीं विचारों से बड़े बड़े कार्य होंगे। अपवित्रता की कोई बात मन में न लाओ, प्रत्युत मन से कहो कि मैं शुद्ध, पवित्रस्वरूप हूँ। हम क्षुद्र हैं हमने जन्म लिया है, हम मरेंगे, इन्हीं विचारों से हमने अपने आपको एकदम सम्मोहित कर रखा है, और इसीलिए हम सर्वदा एक प्रकार के भय से काँपते रहते हैं ।
एक सिंहनी, जिसका प्रसवकाल निकट था, एक बार अपने शिकार की खोज में बाहर निकली। उसने दूर भेड़ों के एक झुण्ड को चरते देख, उन पर आक्रमण करने के लिए ज्योंही छलाँग मारी, त्योंही उसके प्राणपखेरू उड़ गये और एक मातृहीन सिंहशावक ने जन्म लिया। भेड़ें उस सिंह-शावक की देख-भाल करने लगीं और वह भेड़ों के बच्चों के साथ साथ बड़ा होने लगा भेड़ों की भांति घास-पात खाकर रहने लगा और भेड़ों की ही भांति ‘में-में’ करने लगा। और यद्यपि वह कुछ समय बाद एक शक्तिशाली पूर्णविकसित सिंह हो गया, फिर भी वह अपने को भेड़ ही समझता था। इसी प्रकार दिन बीतते गये कि एक दिन एक बड़ा भारी सिंह शिकार के लिए उधर आ निकला। पर उसे यह देख बड़ा आश्चर्य हुआ कि भेड़ों के बीच में सिंह भी है और वह भेड़ों की ही भांति डरकर भागा जा रहा है । तब सिंह उसकी ओर यह समझाने के लिए बढ़ा कि तू सिंह है, भेड़ नहीं। पर ज्योंही वह आगे बड़ा त्योंही भेड़ों का झुण्ड और भी भागा और उसके साथ साथ वह भेड़-सिंह भी। जो हो उसने उस भेड़-सिंह को उसके अपने यथार्थ स्वरूप को समझा देने का संकल्प नहीं छोड़ा। वह देखने लगा कि वह भेड़-सिंह कहाँ रहता है क्या करता है। एक दिन उसने देखा कि वह एक जगह पड़ा सो रहा है। देखते ही वह छलाँग मारकर उसके पास जा पहुँचा और बोला, “अरे तू भेड़ों के साथ रहकर अपना स्वभाव कैसे भूल गया? तू भेड़ नहीं है, तू तो सिंह है।” भेड़-सिंह बोल उठा, “क्या कह रहे हो? मैं तो भेड़ हूँ सिंह कैसे हो सकता हूँ?” उसे किसी प्रकार विश्वास नहीं हुआ कि वह सिंह है और वह भेड़ों की भांति मिमियाने लगा। तब सिंह उसे उठाकर एक सरोवर के किनारे ले गया और बोला “यह देख अपना प्रतिबिम्ब और यह देख मेरा प्रतिबिम्ब।” और तब वह उन दोनों परछाइयों की तुलना करने लगा। वह एक बार सिंह की ओर, और एक बार अपने प्रतिबिम्ब की ओर ध्यान से देखने लगा। तब क्षण भर में ही वह जान गया कि “सचमुच मैं तो सिंह ही हूँ।” तब वह सिंह-गर्जना करने लगा और उसका भेड़ों का-सा मिमियाना न जाने कहाँ चला गया। इस प्रकार तुम सब सिंह हो – तुम आत्मा हो शुद्ध अनन्त और पूर्ण हो । विश्व की महाशक्ति तुम्हारे भीतर है। “हे सखे, तुम क्यों रोते हो? जन्ममरण तुम्हारा भी नहीं है और मेरा भी नहीं। क्यों रोते हो? तुम्हें रोग-शोक कुछ भी नहीं है, तुम तो अनन्त आकाश के समान हो; उस पर नाना प्रकार के मेघ आते हैं और कुछ देर खेलकर न जाने कहाँ अन्तर्हित हो जाते हैं; पर वह आकाश जैसा पहले नीला था, वैसा ही नीला रह जाता है। “ इसी प्रकार के शान का अभ्यास करना होगा। हम संसार में पाप-ताप क्यों देखते हैं? किसी मार्ग में एक ठूंट खड़ा था। एक चोर उधर से जा रहा था, उसने समझा कि वह कोई पहरेवाला है । अपनी प्रेमिका की बाट जोहनेवाले प्रेमी ने समझा कि वह उसकी प्रेमिका है। एक बच्चे ने जब उसे देखा, तो भूत समझकर डर के मारे चिल्लाने लगा। इस प्रकार भिन्न भिन्न व्यक्तियों ने यद्यपि उसे भिन्न भिन्न रूपों में देखा, तथापि वह एक ठूंट के अतिरिक्त और कुछ भी न था।
हम स्वयं जैसे होते है, जगत् को भी वैसा ही देखते हैं । मान लो, कमरे में मेज पर मोहर की एक थैली रखी है ओर एक छोटा बच्चा वहाँ खेल रहा है। इतने में एक चोर वहाँ आता है और उस थैली को चुरा लेता है। तो क्या बच्चा यह समझेगा कि चोरी हो गयी? हमारे भीतर जो है, वही हम बाहर भी देखते हैं। बच्चे के मन में चोर नहीं है, अतएव वह बाहर भी चोर नहीं देखता। सब प्रकार के ज्ञान के सम्बन्ध में ऐसा ही है। संसार के पाप-अत्याचार आदि की बात मन में न लाओ, पर रोओ कि तुम्हें जगत् में अब भी पाप दिखता है । रोओ कि तुम्हें अब भी सर्वत्र अत्याचार दिखाई पड़ता है। और यदि तुम जगत् का उपकार करना चाहते हो, तो जगत् पर दोषारोपण करना छोड़ दो । उसे और भी दुर्बल मत करो। आखिर ये सब पाप, दुःख आदि क्या हैं? ये सब तो दुर्बलता के ही फल हैं। लोग बचपन से ही शिक्षा पाते हैं कि वे दुर्बल हैं, पापी हैं । इस प्रकार की शिक्षा से संसार दिन पर दिन दुर्बल होता जा रहा है । उनको सिखाओ कि वे सब उसी अमृत की सन्तान हैं – और तो और, जिसके भीतर आत्मा का प्रकाश अत्यन्त क्षीण है, उसे भी यही शिक्षा दो । बचपन से ही उनके मस्तिष्क में इस प्रकार के विचार प्रविष्ट हो जाएँ, जिनसे उनकी यथार्थ सहायता हो सके, जो उनको सबल बना दे, जिनसे उनका कुछ यथार्थ हित हो। दुर्बलता और अवसादकारक विचार उनके मस्तिष्क में प्रवेश ही न करें। सच्चिन्तन के स्रोत में शरीर को बहा दो, अपने मन से सर्वदा कहते रहो, ‘मैं ही वह हूँ, मैं ही वह हूँ, तुम्हारे मन में दिन-रात यह बात संगीत की भाँति झंकृत होती रहे, और मृत्यु के समय भी तुम्हारे अधरों पर सोऽम्, सोऽम् खेलता रहे। यही सत्य है – जगत् की अनन्त शक्ति तुम्हारे भीतर है। जो कुसंस्कार और भ्रम तुम्हारे मन को ढके हुए हैं, उन्हें भगा दो। साहसी बनो। सत्य को जानो और उसे जीवन में परिणत करो। चरम लक्ष्य भले ही बहुत दूर हो, पर उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरात्रिबोधता’ – उठो, जागो, जब तक ध्येय तक न पहुँचो तब तक मत रुको।
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