धर्मस्वामी विवेकानंद

माया और ईश्वर-धारणा का क्रमविकास – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)

“माया और ईश्वर-धारणा का क्रमविकास” नामक यह व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने 20 अक्टूबर 1896 को लंदन में दिया था। यह स्वामी जी की विख्यात पुस्तक ज्ञान योग का चतुर्थ अध्याय है। इसमें स्वामी विवेकानन्द बता रहे हैं कि विभिन्न सभ्यताओं में माया और ईश्वर-धारणा का विकास किस तरह हुआ। साथ ही धीरे-धीरे वेदान्त में यह मायावाद और ईश्वर की धारणाएँ किस तरह विकसित हुईं, उसे भी स्वामी जी ने भली-भाँति समझाया है। इस किताब के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग

हमने देखा कि अद्वैत वेदान्त का एक आधारभूत सिद्धान्त मायावाद बीज रूप से संहिताओं में भी देखा जाता है, और जिन विचारों का विकास उपनिषदों में हुआ है वे वस्तुतः किसी न किसी रूप में संहिताओं में विद्यमान हैं । तुम में से बहुत से लोग अब माया की धारणा से परिचित हो गये होंगे और यह भी जान गये होंगे कि प्रायः लोग भ्रान्तिवश माया को ‘भ्रम’ कहकर उसकी व्याख्या करते हैं । अतएव जब जगत् को माया कहते हैं, तब उसे भी भ्रम ही कहकर उसकी व्याख्या करनी पड़ती है । किन्तु माया को ‘भ्रम’ के अर्थ में लेना ठीक नहीं। माया कोई विशेष सिद्धान्त नहीं है, वह तो यह संसार जैसा है, केवल उसका तथ्यात्मक कथन है । इस माया को समझने के लिए हमें संहिताओं तक जाना होगा, और उसके मूल बीज का अर्थ समझना होगा।

हम यह देख चुके हैं कि लोगों में देवताओं का ज्ञान किस प्रकार आया। साथ ही हम यह भी जानते हैं कि ये देवता पहले केवल शक्तिशाली व्यक्तिमात्र थे। तुम लोगों में से अनेक ग्रीक, हिब्रू, पारसी अथवा अन्य जातियों के प्राचीन शास्त्रों में यह पढ़कर भयभीत हो जाते हो कि देवता लोग कभी कभी ऐसा कार्य करते थे, जो हमारी दृष्टि में अत्यन्त घृणित है । पर हम यह भूल जाते हैं कि हम लोग उन्नीसवीं शताब्दी के हैं और देवतागण सहस्रों वर्ष पहले के जीव थे, और हम यह भी भूल जाते हैं कि इन सब देवताओं के उपासक लोग उनके चरित्र में कुछ भी असंगत बात नहीं देख पाते थे और वे जिस ढंग से अपने उन देवताओं का वर्णन करते थे उससे उन्हें कुछ भी भय नहीं होता था, क्योंकि वे सब देवता उन्हीं के अनुरूप थे। हम लोगों को आजीवन यह बात सीखनी होगी कि प्रत्येक व्यक्ति की परख उसके अपने आदर्शों के अनुसार करनी चाहिए, दूसरों के आदर्शों के अनुसार नहीं। ऐसा न करके हम दूसरों को अपने आदर्शों की दृष्टि से देखते हैं, यह ठीक नहीं । अपने आसपास रहने वाले लोगों के साथ व्यवहार करते समय हम सदा यही भूल करते हैं, और मेरे मतानुसार, दूसरों के साथ हमारी जो कुछ भी अनबन हो जाती है वह अधिकतर इसी एक कारण से होती है कि हम दूसरों के देवता को अपने देवता के द्वारा, दूसरों के आदर्शों को अपने आदर्शों के द्वारा और दूसरों के उद्देश्य को अपने उद्देश्य के द्वारा परखने की चेष्टा करते – हैं। कुछ विशेष परिस्थितियों से बाध्य हो मान लो, मैंने कोई एक विशेष कार्य किया, और जब मैं देखता हूँ कि एक दूसरा व्यक्ति वही कार्य कर रहा है, तो मैं सोच लेता हूँ कि उसका भी वही उद्देश्य है, मेरे मन में यह बात एक बार भी नहीं उठती कि यद्यपि फल एक हो सकता है, तथापि उस एक फल के उत्पन्न करनेवाले भिन्न-भिन्न सहस्रों कारण हो सकते है । मैं जिस हेतु से उस कार्य को करने में प्रवृत्त होता हूँ, अन्य सब लोग उसी कार्य को अन्य हेतुओं से कर सकते हैं । अतएव इन सभी प्राचीन धर्मों पर विचार करते समय हम सामान्यतया जिस तरह दूसरों के सम्बन्ध में विचार करते हैं वैसा न करके अपने को प्राचीन काल के लोगों के जीवन और विचार की स्थिति में रखकर विचार करना चाहिए ।

प्राचीन व्यवस्थान (Old Testament) में क्रूर और निष्ठुर जिहोवा के वर्णन से बहुत से लोग भयभीत हो उठते हैं; पर क्यों? लोगों को यह कल्पना करने का क्या अधिकार है कि प्राचीन यहूदियों का जिहोवा आधुनिक रूढ़िगत कल्पना के ईश्वर के समान होगा? और साथ ही हमें यह भी न भूलना चाहिए कि हमारे बाद जो लोग आएँगे, वे उसी तरह हमारे धर्म और ईश्वर की धारणा पर हँसेंगे, जिस तरह हम प्राचीन लोगों के धर्म और ईश्वर की धारणा पर हँसते हैं। यह सब होने पर भी, इन सब विभिन्न ईश्वरसम्बन्धी धारणाओं का संयोग करने वाला एक स्वर्णसूत्र है, और वेदान्त का उद्देश्य है इस सूत्र की खोज करना। भगवान् कृष्ण ने कहा है – “भिन्न-भिन्न मणियाँ जिस प्रकार एक सूत्र में पिरोयी हुई रहती हैं, उसी प्रकार इन सब विभिन्न भावों के भीतर भी एक सूत्र विद्यमान है । “और आजकल की धारणाओं की दृष्टि में वे सब प्राचीन धारणाएँ कितनी ही वीभत्स भयानक अथवा घृणित क्यों न मालूम पड़े, वेदान्त का कर्तव्य उन सभी प्राचीन धारणाओं एवं सभी वर्तमान धारणाओं के भीतर इस संयोग-सूत्र की प्रतिष्ठा करनी है । प्राचीन काल की पीठिका में वे धारणाएँ संगत मालूम पड़ती हैं और ऐसा लगता है कि हमारी वर्तमान धारणाओं से वे अधिक वीभत्स नहीं थीं। उनकी बीभत्सता हमारे सामने तभी प्रकट होती है, जब हम उनको उनकी पीठिका से अलग करके उन पर अपनी परिस्थितियाँ लागू करते हैं। जिस प्रकार प्राचीन यहूदी आज के तीक्ष्ण-बुद्धि यहुदी में परिणत हो गया है, और प्राचीन आर्य आज के बुद्धिमान हिन्दू में विकसित हो गया है, उसी प्रकार जिहोवा का और अन्य देवताओं का भी विकास हुआ है ।

हम यह महान भूल करते हैं कि हम उपासक का क्रमविकास तो स्वीकार करते हैं, परन्तु उपास्य का नहीं । हम उपासकों को जिस प्रकार उन्नति का श्रेय देते है, उसी प्रकार उपास्य को नहीं देना चाहते । तात्पर्य यह कि हम-तुम जिस प्रकार कुछ विशिष्ट भावों के प्रतीक होने के नाते उन भावों के विकास के साथ साथ विकसित हुए हैं, उसी प्रकार देवतागण भी विशेष विशेष भावों के प्रतीक होने के कारण, उन भावों के विकास के साथ विकसित हुए हैं । तुम शायद यह आश्चर्य करो कि ईश्वर का भी कहीं विकास होता है? उसका विकास नहीं हो सकता; वह तो अपरिणामी है । इसी प्रकार यथार्थ मनुष्य का भी कभी विकास नहीं होता। किन्तु मनुष्य की ईश्वरविषयक धारणाएँ नित्य परिवर्तित और विकसित हो रही हैं। आगे चलकर हम देखेंगे कि प्रत्येक मानवी अभिव्यक्ति के पीछे जो यथार्थ मनुष्य है, वह अचल, अपरिणामी शुद्ध और नित्यमुक्त है । और उसी प्रकार हमारी ईश्वरसम्बन्धी धारणा केवल एक अभिव्यक्ति है – हमारे मन की सृष्टि है । इन समस्त अभिव्यक्तियों के पीछे प्रकृत ईश्वर है जो नित्यशुद्ध, अपरिणामी और अजर है । किन्तु ये सब अभिव्यक्तियाँ सर्वदा ही परिणामशील हैं – ये अपने अन्तरालस्थ सत्य को अधिकाधिक प्रकाशित करती हैं । वह सत्य जब अधिक परिमाण में अभिव्यक्त होता है, तब उसे उन्नति, और जब उसका अधिकांश ढका हुआ या अनभिव्यक्त रहता है, तब उसे अवनति कहते हैं । इस प्रकार जैसे जैसे हमारा विकास होता है वैसे ही वैसे देवताओं का भी होता है। सीधे-सादे शब्दों में जैसे जैसे हमारी उन्नति होती है, जैसे जैसे हमारा स्वरूप प्रकाशित होता है, वैसे वैसे देवता भी अपना स्वरूप प्रकाशित करते जाते हैं ।

अब हम मायावाद को समझ सकेंगे। संसार के सभी धर्मों ने इस प्रश्न को उठाया है – संसार में यह असामंजस्य क्यों है? संसार में यह अशुभ क्यों है? आदिम धर्मभाव के आविर्भाव के समय हम इस प्रश्न को उठते नहीं देखते, इसका कारण यह है कि आदिम मनुष्य को संसार असामंजस्यपूर्ण नहीं प्रतीत हुआ। उसके लिए परिस्थितियों में कोई असामंजस्य नहीं था, किसी प्रकार का मत-विरोध नहीं था, भले-बुरे की कोई प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी। उसके हृदय में केवल दो बातों का संग्राम हो रहा था। एक कहती थी – यह करो, और दूसरी उसको करने का निषेध करती थी। आदिम मानव संवेगों का दास था। उसके मन में जो आता था, वही शरीर से कर डालता था। वह इन संवेगों के सम्बन्ध में विचार करने अथवा उनका संयम करने का बिलकुल प्रयत्न नहीं करता था। इन सब देवताओं के सम्बन्ध में भी यही बात हैं; ये लोग भी अपने संवेगों के अधीन थे। इन्द्र आया और उसने दैत्य-बल को छिन्न-भिन्न कर दिया। जिहोवा किसी के प्रति सन्तुष्ट था, तो किसी से रुष्ट; क्यों, यह कोई भी नहीं जानता, जानना भी नहीं, चाहता। इसका कारण यह है कि उस समय लोगों में अनुसन्धान की प्रवृत्ति ही नहीं जगी थी; इसलिए वे जो कुछ भी करते वही ठीक था। उस समय भले-बुरे की कोई धारणा नहीं थी। हम जिन्हें बुरा कहते हैं, ऐसे बहुत से कार्य देवता लोग करते थे; हम वेदों में देखते हैं कि इन्द्र और अन्यान्य देवताओं ने अनेक बुरे कार्य किये हैं, पर इन्द्र के उपासकों की दृष्टि में पाप या बुरा काम कुछ भी न था, अतः वे इस सम्बन्ध में कोई प्रश्न ही नहीं करते थे।

नैतिक धारणाओं की उन्नति के साथ साथ मनुष्य के मन में एक संग्राम प्रारम्भ हुआ, मनुष्य में मानो एक नयी इन्द्रिय का आविर्भाव हुआ। भिन्न-भिन्न भाषाओं और भिन्न-भिन्न जातियों ने इसे भिन्न-भिन्न नाम दिये हैं; कोई कहता है – यह ईश्वर की वाणी है, और कोई यह कि वह पहले की शिक्षा का फल है । जो भी हो उसने मनुष्य के स्वाभाविक संवेगों को दमन करनेवाली शक्ति के रूप में काम किया। हमारे मन का एक संवेग कहता है करो; इसके पीछे एक दूसरा स्वर उठता है जो कहता है, मत करो। हमारे मन में धारणाओं का एक समूह है जो सर्वदा इन्द्रियों के द्वारा बाहर जाने की चेष्टा करता रहता है । और उनके पीछे, चाहे कितना ही क्षीण क्यों न हो, एक स्वर कहता रहता है – बाहर मत जाना। इन दो बातों के संस्कृत नाम हैं – प्रवृत्ति और निवृत्ति। प्रवृत्ति ही हमारे समस्त कर्मों का मूल है । निवृत्ति से धर्म का आरम्भ है । धर्म आरम्भ होता है – इस ‘मत करना’ से; अध्यात्मिकता भी इस “मत करना” से ही आरम्भ होती है । जहाँ यह ‘मत करना’ नहीं है वहाँ जानना कि धर्म का आरम्भ ही नहीं हुआ। इस ‘मत करना’ से ही निवृत्ति का भाव आ गया, और जिससे परस्पर युद्ध में रत देवतागण आराधित होने के बावजूद मनुष्य की धारणाएँ विकसित होने लगीं।

अब मनुष्य के हृदय में कुछ प्रेम जागृत हुआ। अवश्य उसकी मात्रा बहुत थोड़ी थी और आज भी वह मात्रा कोई अधिक नहीं है । पहले-पहल यह प्रेम कबीले तक सीमित रहा। ये सब देवता केवल अपने कबीले से प्रेम करते थे। प्रत्येक देवता एक एक कबीले का देवता था और उस विशिष्ट कबीले का रक्षक मात्र था। और जिस प्रकार भिन्न-भिन्न देशों के विभिन्न वंशीय लोग अपने को उस एक पुरुषविशेष का वंशज कहते हैं, जो उस वंश का प्रतिष्ठाता होता है, उसी प्रकार कभी-कभी किसी कबीले के लोग अपने को अपने देवता का वंशज समझते थे। प्राचीन काल में कुछ ऐसे लोग थे और आज भी हैं, जो अपने को न केवल इस कबीला-सम्बन्धी देवताओं का वंशज होने का दावा करते, बल्कि चन्द्र या सूर्य का भी वंशज कहते हैं । संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में तुमने बड़े बड़े सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी वीर सम्राटों की कथाएँ पढ़ी होंगी। ये लोग पहले चन्द्र या सूर्य के उपासक थे, और बाद में ये अपने को चन्द्र या सूर्य का वंशज कहने लगे। अतः जब यह कबीले का भाव आने लगा, तब किंचित् प्रेम जागा, एक दूसरे के प्रति थोड़ा कर्तव्य-भाव आया, कुछ सामाजिक शृंखला की उत्पत्ति हुई और इसके साथ ही साथ यह भावना भी आने लगी की एक दूसरे का दोष सहन या क्षमा किये बिना हम कैसे एक साथ रह सकेंगे? एक न एक समय अपनी प्रवृत्तियों का संयम किये बिना मनुष्य भला किस प्रकार दूसरों के साथ, यहाँ तक कि एक भी व्यक्ति के साथ रह सकता है? यह असम्भव है । बस इसी प्रकार संयम की भावना आयी। इस संयम की भावना पर ही सम्पूर्ण सामाजिक रचना आधारित है, और हम जानते हैं कि जिन नर-नारियों ने इस सहिष्णुता या क्षमा-रूपी महान् पाठ को नहीं पढ़ा है, वे अत्यन्त कष्ट में जीवन बिताते हैं ।

अतएव जब इस प्रकार धर्म का भाव आया, तब मनुष्य के मन में एक अपेक्षाकृत उच्चतर एवं अधिक नीतिसंगत भाव की झलक उठी। तब वे अपने उन्हीं प्राचीन देवताओं में – चंचल, लड़ाकू, शराबी, गोमांसाहारी देवताओं में, जिनको जले मांस की गन्ध और तीव्र सुरा की आहुति से ही परम आनन्द मिलता था – कुछ असंगति देखने लगे। कभी कभी इन्द्र इतना मद्यपान कर लेता था कि वह बेहोश होकर गिर पड़ता और अण्ड- बण्ड बकने लगता। इस प्रकार के देवताओं को अब सहन नहीं किया जा सकता। तब उद्देश्यों के सम्बन्ध में पूछताछ करने का भाव जागृत हुआ और देवताओं के कार्यों के उद्देश्य भी पूछे जाने लगे । अमुक देवता के अमुक कार्य का क्या उद्देश्य है? कोई उद्देश्य नहीं मिला। अतएव लोगों ने उन सब देवताओं का त्याग कर दिया, अथवा दूसरे शब्दों में, वे फिर देवताओं के विषय में और भी उच्च धारणाएँ बनाने लगे। उन्होंने देवताओं के समस्त कार्यों और गुणों का मानो परीक्षण किया और जिन कार्यों को वे संगत नहीं कर सके उन्हें त्याग दिया। तथा जो अच्छे थे, जिन्हें वे समझ सकते थे एकत्र किया और इन अच्छे अच्छे भावों की समष्टि को उन्होंने एक नाम ‘देवदेव’ या देवताओं का देवता दे दिया। तब उनके उपास्य देवता केवल शक्ति के परिचायक मात्र नहीं रहे; शक्ति से अधिक और भी कुछ उनके लिए आवश्यक हो गया। अब वे नीतिपरायण देवता हो गये; वे मनुष्यों से प्रेम करने लगे, मनुष्यों का हित करने लगे। पर देवतासम्बन्धी धारणा फिर भी अक्षुण्ण रही। उन लोगों ने देवता की नैतिक सार्थकता तथा शक्ति को केवल बढ़ा भर दिया। अब वे देवता विश्व में सर्वश्रेष्ठ नीतिपरायण तथा एक प्रकार से सर्वशक्तिमान् भी हो गये।

किन्तु यह जोड़-गठित कब तक चल सकती थी? जैसे जैसे व्याख्या स्व से सूक्ष्मतर होती गयी, वैसे वैसे जगत्-रहस्य के समाधान करने में कठिनाई मानो और भी बढ़ती गयी। देवता अथवा ईश्वर के गुण यदि गणितीय क्रम (Arithmetical Progression) के नियम से बढ़ने लगे, तो सन्देह और कठिनाइयाँ ज्यामितीय क्रम (Geometrical Progression) के नियम से बढ़ने लगीं। निष्ठुर जिहोवा के साथ जगत् का सामंजस्य स्थापित करने में जो कठिनाई होती थी, उससे भी अधिक कठिनाई ईश्वरसम्बन्धी नवीन धारणा के साथ जगत् का सामंजस्य स्थापित करने में होने लगी। और यह कठिनाई आज तक बनी रही। सर्वशक्तिमान् और प्रेममय ईश्वर के राज्य में ऐसी पैशाचिक घटनाएँ क्यों घटती हैं? सुख की अपेक्षा दुःख इतना अधिक क्यों है? साधु-भाव जितना है, असाधु-भाव उससे इतना अधिक क्यों है? संसार में कुछ भी अशुभ नहीं है, ऐसा समझकर भले ही हम आंखें बन्द करके बैठे रहें, पर यह तथ्य तो बना ही रहता है कि यह संसार एक वीभत्स संसार है। बहुत हुआ तो यह संसार बस टैन्टालस के नरक10 के समान है; उससे यह किसी अंश में अच्छा नहीं। यहाँ हम हैं प्रबल प्रवृत्तियाँ लिये, और इन्द्रियों को चरितार्थ करने की प्रबलतर वासनाएँ लिये, पर उनकी पूर्ति का कोई उपाय नहीं । हमारी अपनी इच्छा के बावजूद हममें एक तरंग उठती है, जो हमें आगे बढ़ने को बाध्य करती है, परन्तु जैसे ही हम एक पाँव आगे बढ़ाते हैं, वैसे ही एक धक्का लगता है। हम सभी टैन्टालस की भाँति इस जगत् में जीवित रहने को मानो विधि-विधान से अभिशप्त हैं! पंचेन्द्रिय द्वारा सीमाबद्ध जगत् से अतीत के आदर्श हमारे मस्तिष्क में आते हैं, पर उन्हें हम कार्य रूप में परिणत नहीं कर सकते। दूसरी ओर हम अपने चारों ओर की परिस्थिति के चक्र में पिसते जाते हैं । फिर यदि मैं आदर्शप्राप्ति की चेष्टा का परित्याग कर केवल सांसारिक भाव को लेकर रहना चाहूँ, तो मुझे पशु-जीवन बिताना पड़ता है और मैं अपने को पतित और गर्हित कर लेता हूँ। अतएव किसी भी ओर सुख नहीं। जो लोग इस संसार में जिस अवस्था में उत्पन्न हुए हैं उसी अवस्था में रहना चाहते हैं, उनके भाग्य में भी दुःख है । और जो लोग सत्य तथा उच्चतर आदर्श के लिए- इस पाशविक जीवन की अपेक्षा कुछ उन्नत जीवन के लिए – आगे बढ़ने का साहस करते हैं, उनके लिए तो और भी सहस्र गुना अधिक दुःख है। यही वस्तुस्थिति है, पर इसकी कोई व्याख्या नहीं – व्याख्या हो भी नहीं सकती। पर वेदान्त इससे बाहर निकलने का मार्ग बतलाता है। ये सब भाषण देते समय शायद मुझे कुछ ऐसी भी बातें कहनी पड़े, जिनसे तुम भयभीत हो जाओ, पर जो कुछ मैं कह रहा हूँ उसे यदि तुम याद रखो, भलीभाँति आत्मसात् कर लो और उसके सम्बन्ध में दिन-रात चिन्तन करो, तो वह तुम्हारे अन्दर बैठ जाएगी, तुम्हारी उन्नति करेगी और सत्य को समझने तथा सत्य में प्रतिष्ठित होने में तुमको समर्थ करेगी।

अब, यह एक तथ्यात्मक वर्णन है, कि यह संसार टैन्टालस का नरक है, और हम इस जगत् के बारे में कुछ भी नहीं जानते; पर साथ ही हम यह भी तो नहीं कह सकते कि हम नहीं जानते। जब मैं सोचता हूँ कि मैं इस जगत्-शृंखला के बारे में नहीं जानता, तो मैं यह नहीं कह सकता कि इसका अस्तित्व है । वह मेरे मस्तिष्क का पूर्ण भ्रम हो सकता है। हो सकता है, मैं केवल स्वप्न देख रहा हूँ । मैं स्वप्न देख रहा हूँ कि मैं तुमसे बातें कर रहा हूँ और तुम मेरी बात सुन रहे हो। कोई भी यह सिद्ध नहीं कर सकता कि यह स्वप्न नहीं है। ‘मेरा मस्तिष्क’ भी तो एक स्वप्न हो सकता है, और सचमुच, अपना मस्तिष्क देखा किसने है? वह तो हमने केवल मान लिया है । सभी विषयों के सम्बन्ध में यही बात है। अपने शरीर को भी तो हम मान ही लेते हैं। फिर यह भी नहीं कह सकते कि हम नहीं जानते। ज्ञान और अज्ञान के बीच की यह अवस्था, यह रहस्यमय पहेली, यह सत्य और मिथ्या का मिश्रण – कहाँ जाकर इनका मिलन हुआ है, कौन जाने? हम स्वप्न में विचरण कर रहे हैं – अर्धनिद्रित, अर्धजागृत – जीवनभर एक पहेली में आबद्ध, हममें से प्रत्येक की बस यही दशा है! सारे इन्द्रिय-ज्ञान की यही दशा है । सारे दर्शनों की सारे विज्ञान की, सब प्रकार के मानवीय ज्ञान की – जिनको लेकर हमें इतना अहंकार है – सब की बस यही दशा है – यही परिणाम है । बस यही संसार है । चाहे जड़ पदार्थ कहो चाहे चेतन, चाहे आत्मा, चाहे किसी भी नाम से क्यों न पुकारो, बात एक ही है – हम यह नहीं कह सकते कि ये सब हैं, और यह भी नहीं कह सकते कि ये सब नहीं हैं। हम इन सब को एक भी नहीं कह सकते और अनेक भी नहीं। यह प्रकाश और अन्धकार का खेल – यह अविविक्त, अपृथक् और अविभाज्य मिश्रण, जिसमें सारी घटनाएँ कभी सत्य मालूम होती हैं, कभी मिथ्या – सदा से चल रहा है । इसके कारण कभी लगता है कि हम जागृत हैं, कभी लगता है कि हम सोये हुए हैं। बस यही माया है, यही वस्तुस्थिति है । इसी माया में हमारा जन्म हुआ है, इसी में हम जीवित हैं; इसी में सोच-विचार करते हैं, इसी में स्वप्न देखते हैं । इसी में हम दार्शनिक है, इसी में साधु है; यही नहीं, हम इस माया में ही कभी दानव और कभी देवता हो जाते हैं । विचार के रथ पर चढ़कर चाहे जितनी दूर जाओ अपनी धारणा को ऊँचे से ऊँचा बनाओ उसे अनन्त या जो इच्छा हो नाम दो पर तो भी यह सब माया के ही भीतर है । इसके विपरीत हो ही नहीं सकता; और मनुष्य का जो कुछ ज्ञान है, वह बस इस माया का ही साधारणीकरण है – इस माया के दिखने वाले स्वरूप को ही जानने का प्रयत्न है । यह माया नाम-रूप का कार्य है । जिस किसी वस्तु का रूप है, जो भी कुछ तुम्हारे मन में किसी प्रकार के भाव का उद्दीपन कर देता है, वह सब माया के ही अन्तर्गत है । जो कुछ देश-काल-निमित्त के नियम के अधीन है, वही माया के अन्तर्गत है ।

अब हम पुनः यह विचार करें कि उस प्रारम्भिक ईश्वर-धारणा का क्या हुआ। यह धारणा कि एक ईश्वर अनन्त काल से हमें प्यार कर रहा है, अनन्त सर्वशक्तिमान् और निःस्वार्थ पुरुष है और इस विश्व का शाक्त कर रहा है, स्पष्ट ही हमें सन्तुष्ट नहीं कर सकती। दार्शनिक साहस के साथ इस सगुण ईश्वर-धारणा के विरुद्ध खड़ा होता है । वह पूछता है – तुम्हारा न्यायशील, दयालु ईश्वर कहाँ है? क्या वह अपनी मनुष्य और पशु-रूप लाखों सन्तानों का विनाश नहीं देखता? कारण, ऐसा कौन है, जो एक क्षण भी दूसरों की हिंसा किये बिना जीवन धारण कर सकता है? क्या तुम सहस्रों जीवों का संहार किये बिना एक साँस भी ले सकते हो? लाखों जीव मर रहे हैं, इसी से तुम जीवित हो। तुम्हारे जीवन का प्रत्येक क्षण, तुम्हारा प्रत्येक निःश्वास सहस्रों जीवों के लिए मृत्यु है; तुम्हारी प्रत्येक हलचल लाखों का काल है । तुम्हारा प्रत्येक ग्रास लाखों की मौत है । वे क्यों मरें? इस सम्बन्ध में एक प्राचीन कुतर्क है – “वे तो अति निम्न जीव हैं ।” माना वे ऐसा हैं, पर यह तो एक सन्दिग्ध विषय है। कौन कह सकता है कि चींटी मनुष्य से श्रेष्ठ है, अथवा मनुष्य चींटी से? कौन सिद्ध कर सकता है कि यह ठीक है अथवा वह? यदि मान भी लिया जाए कि वे अति निम्न जीव हैं, तो भी वे मरें क्यों? यदि वे निम्नस्तर के हैं, तो उनको बचे रहने का तो और भी अधिकार है। वे क्यों न जीवित रहे? उनका जीवन इन्द्रियों में ही अधिक आबद्ध है अतः वे हमारी-तुम्हारी अपेक्षा सहस्रगुना अधिक सुख-दुःख का बोध करते हैं । कुत्ता या भेड़िया जिस चाव के साथ भोजन करता है, उस तरह कौन मनुष्य कर सकता है? इसका कारण यह है कि हमारी समस्त कार्य-प्रवृत्ति इन्द्रियों में नहीं है – वह बुद्धि में है, आत्मा में है । पर कुत्ते के प्राण इन्द्रियों में ही पड़े रहते हैं, वह इन्द्रिय-सुख के लिए पागल हो जाता है; वह जितने आनन्द के साथ इन्द्रिय-सुख का उपभोग करता है, हम मनुष्य उस प्रकार नहीं कर सकते। पर उसका दुःख भी सुख के ही समान तीव्र होता है।

जितना सुख है, उतना ही दुःख है। यदि पशु मनुष्य की अपेक्षा इतनी तीव्रता से सुख का अनुभव करते है, तो यह भी सत्य है कि उनको दुःख का अनुभव भी उतना ही अधिक तीव्र होता है – मनुष्य की अपेक्षा तीव्रतर होता है। अतएव मनुष्य को मरने में जो कष्ट होता है उसकी अपेक्षा सहस्रगुना अधिक कष्ट उन पशुओं को मरने में होता है। फिर भी हम उनके कष्ट की कोई चिन्ता न करते हुए उन्हें मार डालते हैं । यही माया है । और यदि हम मान लें कि मनुष्य के समान एक सगुण ईश्वर है, जिसने यह सृष्टि रची, तो ये सब तथाकथित सिद्धान्त और व्याख्याएँ जो यह सिद्ध करने का प्रयत्न करती हैं कि बुराई से ही भलाई होती हैं, पर्याप्त नहीं हैं । उपकार चाहे सहस्रों हों पर वे अपकार से प्रसूत क्यों हों? इस सिद्धान्त के अनुसार तो मैं अपनी पाँच इन्द्रियों के सुख के लिए दूसरों का गला काट सकता हूँ! अतएव यह कोई युक्ति नहीं। बुराई में से भलाई क्यों निकले? इस प्रश्न का उत्तर देना होगा। पर इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं। यह बात भारतीय दर्शन को बाध्य होकर स्वीकार करनी पड़ी।

वेदान्त सभी धर्मों में सर्वाधिक साहसी था (और है) । सत्य का अन्वेषण करते हुए वह रुका कहीं भी नहीं। उसको अग्रसर होने में एक सुविधा भी थी। वह यह कि वेदान्त-धर्म के विकास के समय पुरोहित-सम्प्रदाय ने सत्यान्वेषियों का मुँह बन्द करने का प्रयत्न नहीं किया। धर्म में पूर्ण स्वाधीनता थी। उन लोगों की संकीर्णता थी सामाजिक रीति-रिवाजों में। यहाँ इंग्लैंड में) समाज खूब स्वाधीन है। भारतवर्ष में सामाजिक स्वाधीनता नहीं थी, थी धार्मिक स्वाधीनता। इस देश में कोई चाहे जैसी पोशाक पहने, अथवा जो इच्छा हो करे कोई कुछ न कहेगा; पर गिरजाघर में यदि कोई एक दिन न जाए, तो तरह तरह की बातें उठ खड़ी होगी। सत्य का विचार करते समय उसे पहले सोचना पड़ता है कि समाज धर्म पर क्या कहता है । दूसरी ओर भारतवर्ष में यदि कोई व्यक्ति दूसरी जाति के हाथ का खाना खा ले तो समाज उसे तुरन्त जातिचूत कर देगा। पुरखे जैसी पोशाक पहनते थे, उससे थोड़ा-सा भी भिन्न रूप से पोशाक पहनते ही बस, उसका सर्वनाश ही समझो। मैंने तो यहाँ तक सुना है कि एक व्यक्ति पहली बार रेलगाड़ी देखने गया, इसलिए उसे जातिच्युत कर दिया गया! माना, यह बात सत्य न भी हो, परन्तु हमारे समाज की गति ही ऐसी है। किन्तु धर्म के विषय में देखता हूँ कि नास्तिक, बौद्ध, जड़वादी, सब प्रकार के धर्म, सब प्रकार के सम्प्रदाय, अछूत और बड़े विस्मयकारी मत-मतान्तर साथ साथ रह रहे हैं। सभी सम्प्रदायों के प्रचारक उपदेश देते फिरते हैं और सब को अनुयायी भी मिलते जाते हैं। और तो और, देव मन्दिरों के द्वार पर ही ब्राह्मण लोग जड़वादियों को खड़ा होने और उनके मत का प्रचार करने की अनुमति देते हैं । यह बात उनकी उदारता और महत्ता की ही परिचायक है ।

भगवान् बुद्ध ने परिपक्व वृद्धावस्था में शरीर त्यागा था। मेरे एक अमेरिकन वैज्ञानिक मित्र बुद्धदेव का चरित्र पढ़ना बड़ा पसन्द करते थे; पर बुद्धदेव की मृत्यु उन्हें अच्छी नहीं लगती थी, क्योंकि उन्हें सूली पर नहीं चढ़ाया गया था। कैसी भ्रमात्मक धारणा है यह! बड़ा आदमी होने की कसौटी क्या? – उसकी हत्या! भारत में इस प्रकार की धारणा कभी प्रचलित न थी। बुद्धदेव ने भारतीय देवताओं तथा जगत् का शासन करनेवाले ईश्वर तक की निन्दा करते हुए भारत भर भ्रमण किया, और फिर भी वे वृद्धावस्था तक जीवित रहे। वे अस्सी वर्ष तक जीवित रहे और आधे देश को उन्होंने अपने धर्म का अनुयायी बना डाला।

चार्वाकों ने बड़े भयंकर मतों का प्रचार किया, जैसा कि आज उन्नीसवीं शताब्दी में भी लोग इस प्रकार खुल्लम-खुल्ला जड़वाद का प्रचार करने का साहस नहीं करते। इन चार्वाकों को स्वतन्त्रतापूर्वक मन्दिरों और नगरों में प्रचार करने दिया गया कि धर्म मिथ्या है, वह केवल पुरोहितों की स्वार्थपूर्ति का एक उपाय है, वेद केवल पाखण्डी धूर्त निशाचरों की रचना है – न कोई ईश्वर है, न आत्मा। यदि आत्मा है, तो मृत्यु के बाद वह पत्नी-पुत्र आदि के प्रेम से आकृष्ट होकर लौट क्यों नहीं आती? इन लोगों की यह धारणा थी कि यदि आत्मा होती, तो मृत्यु के बाद भी उसमें प्रेम आदि की भावनाएँ रहतीं और वह अच्छा खाना और अच्छा पहनना चाहती । ऐसा होने पर भी चार्वाकों को किसी ने सताया नहीं।

भारत में धार्मिक स्वाधीनता का यह उदात्त भाव सदा से ही रहा है और तुम यह अवश्य स्मरण रखो कि विकास की पहली शर्त है – स्वाधीनता। जिसे तुम बन्धन-मुक्त नहीं करोगे, वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता। अपने लिए शिक्षक की स्वाधीनता रखते हुए यदि कोई सोचे कि वह दूसरों को उन्नत कर सकता है, उनकी उन्नति में सहायता दे सकता है और उनका पथ-प्रदर्शन कर सकता है, तो यह एक अर्थहीन विचार है, एक भयानक मिथ्या बात है, जिसने संसार के लाखों मनुष्यों के विकास में अड़ंगे डाले हैं । तोड़ डालो मानव के बन्धन, उन्हें स्वाधीनता के प्रकाश में आने दो। बस यही विकास की एकमात्र शर्त है ।

हमने भारत में धर्म के विषय में स्वाधीनता दी थी, और उसके फलस्वरूप आज भी धर्म जगत् में हमें एक प्रबल आध्यात्मिक शक्ति मिली है । तुम लोगों ने सामाजिक स्वतन्त्रता दी थी, इसीलिए तुम्हारा सामाजिक संगठन इतना सुन्दर है । हमने सामाजिक बातों में बिलकुल स्वतन्त्रता नहीं दी, इसलिए हमारे समाज में संकीर्णता है । तुम्हारे देश में धार्मिक स्वतन्त्रता नहीं दी गयी, अतः धार्मिक विश्वास दूसरों पर लादने के लिए तलवारों और बन्दूकों का उपयोग किया गया । उसी का फल यह है कि आज यूरोप में धर्म इतना कुण्ठित और संकीर्ण है । भारत में समाज की बेड़ी को तोड़ना होगा, और यूरोप में धर्म की बेड़ी को। तभी मनुष्य का आश्चर्यजनक विकास और उन्नति होगी। यदि हम लोग इस आध्यात्मिक नैतिक या सामाजिक उन्नति में निहित एकत्व का पता लगा सकें, यदि हम जान लें कि वे सब एक ही वस्तु के विभिन्न विकास मात्र हैं, तो हम देखेंगे कि धर्म अपने पूर्ण अर्थ में हमारे समाज के भीतर अवश्य प्रवेश कर जाएगा, हमारे जीवन का प्रति मुहूर्त धर्म-भाव से परिपूर्ण हो जाएगा। वेदान्त के प्रकाश में तुम समझोगे कि सारे विज्ञान धर्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं और जगत् की सारी वस्तुएँ भी उसी की अभिव्यक्ति हैं ।

तो हमने देखा कि स्वाधीनता से ही इन सब विज्ञानों की उत्पत्ति और उन्नति हुई है; और हम उनमें दो प्रकार के मत पाते हैं – एक भौतिक और निन्दा करने वाला और दूसरा सकारात्मक और निर्माण करने वाला। एक विचित्र बात यह है कि वे सभी समाजों में पाये जाते हैं। मान लो समाज में कोई दोष हैं, तो तुम देखोगे कि फौरन ही एक दल उठकर प्रतिहिंसात्मक रूप से गाली-गलौज करने लगता है । कभी कभी तो ये लोग बड़े मतान्ध और कट्टर हो उठते हैं। सभी समाजों में तुम ऐसे मतान्ध लोग पाओगे; और अधिकतर स्त्रियाँ ही इस आवाज में भाग लेती हैं, क्योंकि वे स्वभाव से भावुक होती हैं। जो भी मतान्ध खड़ा होकर किसी विषय के विरुद्ध व्याख्यानबाजी कर सकता है, उसे अनुयायी मिल जाता है। तोड़ना सहज है; पागल आदमी जो चाहे तोड़-फोड़ सकता है, पर किसी वस्तु को गढ़ना उसके लिए बड़ा कठिन है । मान लो कि कोई दोष है, तो केवल गाली-गलौज से तो कुछ होगा नहीं; हमें उसकी जड़ तक जाकर कार्य करना पड़ेगा। पहले तो यह जानो कि दोष का कारण क्या है, फिर उस कारण को दूर करो और कार्य अपने आप ही चला जाएगा। केवल चिल्लाने से कोई लाभ नहीं होता, वरन् उससे हानि की ही अधिक सम्भावना रहती है ।

पर दूसरे दल के हृदय में सहानुभूति थी। वे समझ गये थे कि दोषों को दूर करने के लिए उनके कारणों में पहुँचना होगा। यह दल बड़े बड़े साधु-महात्माओं का था। एक बात तुमको याद रखनी चाहिए कि जगत् के सभी बड़े बड़े आचार्य कह गये हैं – ‘हम नाश करने नहीं आये, पहले जो था, उसी को पूर्ण करने आये हैं ।’ बहुधा लोग, इस बात को समझ नहीं पाते और उनकी इस सहिष्णुता को तत्कालीन लोकप्रिय मतों से एक अशोभन समझौता कहते हैं । आज भी बहुत से लोग कहते हैं कि वे आचार्यगण जिस बात को सत्य समझते थे, उसे प्रकट रूप से कहने का साहस नहीं करते थे और वे कुछ अंश में कायर भी थे। पर बात यह नहीं थी। ये धर्मान्ध व्यक्ति उन महापुरुषों के हृदय से निःसृत प्रेम की अनन्त शक्ति को नहीं समझ सकते। वे महापुरुष संसार के समस्त नर-नारियों को अपनी सन्तान के समान देखते थे। वे ही यथार्थ पिता थे वे ही यथार्थ देवता थे, उनके हृदय में प्रत्येक के लिए अनन्त सहानुभूति और क्षमा थी – वे सदा ही सहने और क्षमा करने को प्रस्तुत रहते थे। वे जानते थे कि किस प्रकार मानव-समाज का विकास होना चाहिए; अतएव वे अत्यन्त धैर्य के साथ, धीरे-धीरे पर निश्चित रूप से अपनी संजीवनी औषधि का प्रयोग करने लगे। उन्होंने किसी को गालियाँ नहीं दी, भय नहीं दिखलाया, पर बड़ी कृपा के साथ वे लोगों को एक-एक सोपान ऊपर उठाते गये। और ऐसे ही लोग उपनिषदों के रचयिता थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि ईश्वर सम्बन्धी प्राचीन धारणाएँ अन्य सब उन्नत, नीति-संगत धारणाओं के साथ मेल नहीं खाती। वे पूरी तरह जानते थे कि नास्तिक लोग जो कुछ प्रचार करते हैं, उसमें अनेक महान् सत्य निहित है; पर साथ ही उन्हें यह भी ज्ञात था कि जो लोग पहले के मतों से कोई सरोकार न रखकर, जिस सूत्र में माला गुँथी हुई है उसी को तोड़ डालना चाहते हैं और शून्य पर एक नये समाज का गठन करना चाहते हैं, वे बुरी तरह असफल होंगे।

हम कभी भी किसी नयी वस्तु का निर्माण नहीं कर सकते। केवल पुरानी वस्तुओं का स्थान मात्र परिवर्तन कर दे सकते हैं। हमें कोई नयी वस्तु नहीं उपलब्ध होती, हम सिर्फ वस्तुओं की स्थिति का परिवर्तन करते हैं। बीज ही धीरे-धीरे वृक्ष के रूप में परिणत होता है। अतः हमें धैर्य के साथ, शान्तिपूर्वक सत्य की खोज में लगी हुई शक्ति को ठीक ढंग से चलाना होगा; जो सत्य पहले से ही विद्यमान है, उसी को सम्पूर्ण रूप से जानना होगा। नये सत्य के सृजन के लिए हमें प्रयत्न नहीं करना है। अतएव प्राचीन काल की इन ईश्वरसम्बन्धी धारणाओं को वर्तमान काल के लिए अनुपयुक्त कहकर एकदम उड़ाये बिना ही, वे प्राचीन महापुरुष, उनमें जो कुछ सत्य है, उसका अन्वेषण करने लगे; और उसका फल है, वेदान्त- दर्शन। उन्हें समस्त प्राचीन देवताओं और जगत् के शासनकर्ता एक ईश्वर की धारणा से भी उच्चतर धारणाओं का पता मिला। इस प्रकार उन्होंने जिस उच्चतम सत्य की खोज की उसी को निर्गुण, पूर्णब्रह्म कहते हैं, और इस निर्गुण ब्रह्म की उपलब्धि में उन्हें विश्व-ब्रह्माण्डव्यापी एक अखण्ड सत्ता प्राप्त हुई ।

“जो इस बहुत्वपूर्ण जगत् में उस एक अखण्डस्वरूप को देखते हैं, जो इस मर्त्य जगत् में उस एक अनन्त जीवन को देखते है जो इस जड़ता और अज्ञान से पूर्ण जगत् में उस एक प्रकाश और ज्ञानस्वरूप को देखते हैं, उन्हीं को चिरशान्ति मिलती है, अन्य किसी को नहीं ।”



1. ग्रीक लोगों की एक पौराणिक कथा है कि टैन्टालस नामक राजा पाताल के तालाब में गिर पड़ा था। तालाब का पानी उसके ओठों तक आता था, परन्तु जैसे ही वह अपनी प्यास बुझाने का प्रयत्न करता, वैसे ही पानी कम हो जाता था। उसके सिर के ऊपर नाना प्रकार के फल लटकते थे, पर जैसे ही वह उन्हें पकड़ने जाता कि वे गायब हो जाते थे।

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सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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