धर्मस्वामी विवेकानंद

माया और मुक्ति – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)

“माया और मुक्ति” नामक यह व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने 22 अक्टूबर 1896 को लंदन में दिया था। इस व्याख्यान में स्वामी जी ने माया और मुक्ति के स्वरूप की विवेचना की है तथा मायामय जगत के भीतर से मुक्ति के मार्ग पर कैसे चला जा सकता है–इसपर प्रकाश डाला है। पढ़ें ज्ञान योग का पंचम अध्याय और जानें क्या है जागतिक माया और मुक्ति की साधना किस प्रकार संभव है। अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – स्वामी विवेकानंद कृत ज्ञानयोग हिंदी में

कवि कहता है “हम जगत् में अपने पीछे मानो एक हिरण्मय मेघजाल लेकर प्रवेश करते हैं ।” पर सच पूछो तो हममें से सभी इस प्रकार महिमामण्डित होकर संसार में प्रवेश नहीं करते; हममें से बहुत से तो अपने पीछे कुहरे की कालिमा लेकर ही जगत् में प्रवेश करते हैं; इसमें कोई सन्देह नहीं। हम लोग – हम में से सभी – मानो युद्ध करने के लिए युद्धक्षेत्र में भेजे गये हैं । रोते-रोते हमें इस संसार में प्रवेश करना पड़ता हैं, यथासाध्य प्रयत्न करके अपना मार्ग बना लेना पड़ता है – इस अनन्त जीवन-समुद्र में हम अपना मार्ग बनाते हैं । आगे हम बढ़ते जाते हैं और अगणित युग हमारे पीछे रहते हैं और असीम विस्तार हमारे परे । इसी प्रकार हम चलते रहते हैं और अन्त में मृत्यु आकर हमें इस क्षेत्र से उठा ले जाती है – विजयी अथवा पराजित, कुछ भी निश्चित नहीं। और यही माया है!

बालक के हृदय में आशा बड़ी बलवती होती है। बालकों के विस्फारित नयनों के समक्ष समस्त जगत् मानो एक सुनहले चित्र के समान मालूम पड़ता है; वह समझता है कि मेरी जो इच्छा होगी, वही होगा। किन्तु जैसे वह आगे बढ़ता है, वैसे ही प्रत्येक पद पर प्रकृति वजदृढू प्राचीर के रूप में उसकी भविष्य प्रगति रोध करके खड़ी हो जाती है। उस प्राचीर को भंग करने के लिए वह भले ही बारम्बार वेग के साथ उस पर टक्कर मारता रहे । सारे जीवन भर वह जैसे-जैसे अग्रसर होता जाता है, वैसे-वैसे उसका आदर्श उससे दूर होता जाता है – अन्त में मृत्यु आ जाती है, और शायद इस सब से छुटकारा मिल जाता है। और यही माया है!

एक वैज्ञानिक उठता है, महाज्ञान की पिपासा लिये । उसके लिए ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसका वह त्याग न कर सकता हो, कोई भी संघर्ष उसे निरुत्साह नहीं कर सकता। वह लगातार आगे बढ़ता हुआ प्रकृति के एक के बाद एक गुप्त तत्त्वों का पता लगाता जाता है। प्रकृति के अन्तस्तल में से आभ्यन्तरिक गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन करता जाता है, पर इस सब का उद्देश्य क्या है? यह सब करने का हेतु क्या है? हम ‘इन वैज्ञानिकों को क्यों मान दें? उन्हें कीर्ति क्यों मिले? मनुष्य जितना कर सकता है, प्रकृति क्या उससे अनन्तगुना अधिक नहीं करती? और प्रकृति तो जड़ है, अचेतन है। तो फिर जड़ के अनुकरण में कौन-सा गौरव है? प्रकृति कितनी भी वियुत्शक्ति-सम्पन्न वज्र को चाहे जितनी दूर फेंक दे सकती है। यदि कोई मनुष्य उसका शतांश भी कर दे, तो हम उसे आसमान पर चढ़ा देते हैं! यह सब क्यों? प्रकृति के अनुकरण के लिये, मृत्यु के जड़त्व के, अचेतन के अनुकरण के लिये हम उसकी प्रशंसा क्यों करें? गुरुत्वाकर्षण-शक्ति भारी से भारी पदार्थ को क्षण भर में टुकड़े टुकड़े कर फेंक दे सकती है, फिर भी वह जड़ है । जड़ के अनुकरण से क्या लाभ? फिर भी हम सारा जीवन उसी के लिए संघर्ष करते रहते हैं । और यही माया है!

इन्द्रियाँ मनुष्य की आत्मा को बाहर खींच लाती हैं। मनुष्य ऐसे स्थानों में सुख और आनन्द की खोज कर रहा है, जहाँ वह उन्हें कभी नहीं पा सकता। युगों से हम यह शिक्षा पाते आ रहे हैं कि यह निरर्थक और व्यर्थ है; यहाँ हमें सुख नहीं मिल सकता । परन्तु हम सीख नहीं सकते! अपने अनुभव के अतिरिक्त और किसी उपाय से हम सीख नहीं सकते । हम प्रयत्न करते हैं और हमें एक धक्का लगता है; फिर भी क्या हम सीखते हैं? नहीं फिर भी नहीं सीखते। पतिंगे जिस प्रकार दीपक की लौ पर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार हम इन्द्रियों में सुख पाने की आशा से अपने को बारम्बार झोंकते रहते हैं । पुनः पुनः लौटकर हम फिर से नये उत्साह के साथ लग जाते हैं । बस इसी प्रकार चलता रहता हैं और अन्त में लूले-लँगड़े होकर, धोखा खाकर हम मर जाते हैं। और यही माया है!

यही बात हमारी बुद्धि के सम्बन्ध में भी है । हम विश्व के रहस्य का हल करने की चेष्टा करते हैं – हम इस जिज्ञासा, इस अनुसन्धान की प्रवृत्ति को बन्द नहीं रख सकते । ऐसा लगता है कि यह सब हमें अवश्य जान लेना चाहिए और हम विश्वास ही नहीं कर सकते कि ज्ञान कोई प्राप्त की जाने वाली वस्तु नहीं है। हम कुछ कदम आगे जाते हैं कि अनादि, अनन्त काल रूपी प्राचीर बीच में व्यवधान के रूप में आ खड़ा होता है, जिसे हम लाँघ नहीं सकते। कुछ दूर बढ़ते ही । असीम देश का व्यवधान आकर खड़ा हो जाता है, जिसके अतिक्रमण करने की हममें शक्ति नहीं। और फिर यह सब कार्य-कारणरूपी दीवार द्वारा सुदृढ़ रूप से सीमाबद्ध है । हम इस दीवार को नहीं लाँघ सकते। तो भी हम संघर्ष करते रहते हैं । हमें संघर्ष करना ही पड़ता है । और यही माया है!

प्रत्येक साँस के साथ, हृदय की प्रत्येक धड़कन के साथ, अपनी प्रत्येक हलचल के साथ हम समझते हैं कि हम स्वतन्त्र हैं और उसी क्षण हम देखते हैं कि हम स्वतन्त्र नहीं हैं। बद्ध गुलाम – हम प्रकृति के गुलाम हैं! शरीर, मन, सर्वविध विचारों एवं समस्त भावों में हम प्रकृति के गुलाम हैं! और यही माया है!

ऐसी एक भी माता नहीं है, जो अपनी सन्तान को जन्मत: एक अद्भुत प्रतिभासम्पन्न महापुरुष न समझती हो। वह उस बालक को लेकर पागल सी हो जाती है, उस बालक में ही उसके प्राण पड़े रहते हैं । बालक बड़ा होता है – शायद घोर शराबी और पशुतुल्य हो जाता है, जननी के प्रति दुष्ट व्यवहार तक करने लगता है। जितना ही उसका दुर्व्यवहार बढ़ता है, उतना ही जननी का प्रेम भी बढ़ता है । लोग इसे जननी का निःस्वार्थ प्रेम कहकर प्रशंसा करते हैं! उनके मन में यह प्रश्न तक नहीं उठता कि वह माता जन्मत: एक गुलाम है – वह इस प्रकार प्रेम किये बिना रह नहीं सकती। हजारों बार उसकी इच्छा होती है कि वह इस मोह का त्याग कर दे, पर वह कर नहीं पाती। अतः वह इसे पुष्प-राशि द्वारा आच्छादित कर लेती है और उसी को असुत प्रेम कहती है । और यही माया है!.

हम सब का भी बस यही हाल है। नारद ने एक दिन श्रीकृष्ण से पूछा, “प्रभो, आपकी माया कैसी है, मैं देखना चाहता हूँ।” एक दिन श्रीकृष्ण नारद को लेकर एक मरुस्थल की ओर चले। बहुत दूर जाने के बाद श्रीकृष्ण नारद से बोले “नारद मुझे बड़ी प्यास लगी है । क्या कहीं से थोड़ा-सा जल ला सकते हो?” नारद बोले, ‘प्रभो, ठहरिए, मैं अभी जल लिये आया’ यह कहकर नारद चले गये। कुछ दूर पर एक गाँव था, नारद वहीं जल की खोज में गये । एक मकान में जाकर उन्होंने दरवाजा खटखटाया। द्वार खुला और एक परम सुन्दरी कन्या उनके सम्मुख आकर खड़ी हुई । उसे देखते ही नारद सब कुछ भूल गये। भगवान् मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, वे प्यासे होंगे हो सकता है, प्यास से उनके प्राण भी निकल जाएँ – ये सारी बातें नारद भूल गये। सब कुछ भूलकर वे उस कन्या के साथ बातचीत करने लगे। उस दिन वे अपने प्रभु के पास लौटे ही नहीं। दूसरे दिन वे फिर से उस लड़की के घर आ उपस्थित हुए और उससे बातचीत करने लगे । धीरे-धीरे बातचीत ने प्रणय का रूप धारण कर लिया। तब नारद उस कन्या के पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने की अनुमति माँगने लगे । विवाह हो गया। नवदम्पति उसी गाँव में रहने लगे। धीरे-धीरे उनके सन्तानें भी हुईं। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गये। इस बीच नारद के ससुर मर गये। और वे उनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो गये । पुत्र-कलत्र, भूमि, पशु, सम्पत्ति, गृह आदि को लेकर नारद बड़े सुख-चैन से दिन बिताने लगे । कम से कम उन्हें तो यही लगने लगा कि वे बड़े सुखी हैं। इतने में उस देश में बाढ़ आयी। रात के समय नदी दोनों कगारों को तोड़कर बहने लगी और सारा गाँव डूब गया। मकान गिरने लगे; मनुष्य और पशु बह-बहकर डूबने लगे, नदी की धार में सब कुछ बहने लगा। नारद को भी भागना पड़ा। एक हाथ से उन्होंने स्त्री को पकड़ा, दूसरे हाथ से दो बच्चों को, और एक बालक को कन्धे पर बिठाकर वे उस भयंकर बाढ़ से बचने का प्रयत्न करने लगे। कुछ ही दूर जाने के बाद उन्हें लहरों का वेग अत्यन्त तीव्र प्रतीत होने लगा। कन्धे पर बैठे हुए शिशु की नारद किसी प्रकार रक्षा न कर सके; वह गिरकर तरंगों में बह गया । उसकी रक्षा करने के प्रयास में एक और बालक, जिसका हाथ वे पकड़े हुए थे, छूटकर डूब गया। निराशा और दुःख से नारद आर्तनाद करने लगे। अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की सारी शक्ति लगाकर पकड़े हुए थे, अन्त में तरंगों के वेग से पत्नी भी उनके हाथ से छूट गयी और वे स्वयं तट पर जा गिरे एवं मिट्टी में लोट- पोट हो बड़े कातर स्वर से विलाप करने लगे। इसी समय मानो किसी ने उनकी पीठ पर कोमल हाथ रखा और कहा, ‘वत्स, जल कहाँ है? तुम जल लेने गये थे न, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में खड़ा हूँ । तुम्हें गये आधा घाटा बीत चुका। ““आधा घण्टा। “नारद चिल्ला पड़े उनके लिए तो बारह वर्ष बीत चुके थे। और आधे घण्टे के भीतर ही ये सब दृश्य उनके मन में से होकर निकल गये! और यही माया है!

किसी न किसी रूप में हम सभी इस माया के भीतर हैं। यह बात समझना बड़ा कठिन है – विषय भी बड़ा जटिल है। इसका तात्पर्य क्या? यही कि यह बात बड़ी भयानक है – सभी देशों में महापुरुषों ने इस तत्व का प्रचार किया है, सभी देश के लोगों ने इसकी शिक्षा प्राप्त की है, पर बहुत कम लोगों ने इस पर विश्वास किया है । इसका कारण यही है कि स्वयं बिना भोगे, स्वयं बिना ठोकर खाये हम इस पर विश्वास नहीं कर सकते। सच पूछो तो सभी वृथा है, सभी मिथ्या है । सर्वसंहारक काल आकर सब को ग्रस लेता है, कुछ भी नहीं छोड़ता। वह पापी को खा जाता है, सन्त को खा जाता है, राजा, प्रजा, सुन्दर, कुत्सित – सभी को खा डालता है, किसी को नहीं छोड़ता। सब कुछ उस चरम गति – विनाश – की ही ओर अग्रसर हो रहा है। हमारा ज्ञान, शिल्प, विज्ञान – सब कुछ उसी की ओर अग्रसर हो रहा है। कोई भी इस ज्वार की गति को नहीं रोक सकता। हम भले ही उसे भूले रहने की चेष्टा करें जैसे किसी देश में महामारी फैलने पर लोग शराब, नाच, गान आदि व्यर्थ की चेष्टाओं में रत रहकर सब कुछ भूलने का प्रयत्न करते हुए, पक्षाघातग्रस्त से हो जाते हैं । हम लोग भी उसी प्रकार इस मृत्यु की चिन्ता को भूलने का कठोर प्रयत्न कर रहे है – सब प्रकार के इन्द्रिय-सुखों में रत रहकर उसे भूल जाने की चेष्टा कर रहे हैं । और यही माया है!

लोगों के सामने दो मार्ग हैं । इनमें से एक को तो सभी जानते हैं । वह यह है – “संसार में दुःख है कष्ट है – सब सत्य है, पर इस सम्बन्ध में बिल्कुल मत सोचो।” ‘यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋण कृत्वा मृत पिबेत्।’ दुःख है अवश्य, पर उधर नजर मत डालो। जो कुछ थोड़ा-बहुत सुख मिले, उसका भोग कर लो, इस संसार-चित्र के अन्धकारमय भाग को मत देखो – केवल प्रकाशमय और आशाप्रद पक्ष की ओर दृष्टि रखो। “इस मत में कुछ सत्य तो अवश्य है, पर साथ ही एक खतरा भी है। इसमें सत्य इतना ही है कि यह हमें कार्य की प्रेरणा देता है । आशा एवं इसी प्रकार का एक प्रत्यक्ष आदर्श हमें कार्य में प्रवृत्त’ और उत्साहित करता है अवश्य, पर इसमें विपत्ति यह है कि अन्त में हमें हताश होकर सब चेष्टाएँ छोड़ देनी पड़ती है।। यही हाल होता है उन लोगों का, जो कहते हैं – “संसार को जैसा देखते हो, वैसा ही ग्रहण करो; जितना स्वच्छन्द रह सकते हो रहो; दुःख, कष्ट आने पर भी सन्तुष्ट रहो, आघात होने पर भी कहो कि यह आघात नहीं, पुष्पवृष्टि है; दास के समान दुत्कारे जाने पर भी कहो – ‘मैं मुक्त हूँ स्वाधीन हूँ ‘; ‘दूसरों तथा अपनी आत्मा के सम्मुख दिन-रात झूठ बोलो, क्योंकि संसार में रहने का, जीवित रहने का यही एकमात्र उपाय है ।” इसी को सांसारिक ज्ञान कहते हैं और इस उन्नीसवीं शताब्दी में इसका जितना प्रभाव है, उतना और कभी नहीं रहा; क्योंकि लोग इस समय जो चोटें खा रहे हैं, वैसी उन्होंने पहले कभी नहीं खाय, प्रतिद्वन्द्विता भी इतनी तीव्र पहले कभी नहीं थी; मनुष्य अपने भाइयों के प्रति आज जितना निष्ठुर हैं, उतना पहले कभी नहीं था, और इसीलिए आजकल यह सानना दी जाती है । आजकल इस उपदेश का ही जोर है ,पर अब उससे कोई फल नहीं होता – कभी होता भी नहीं। सड़े-गले मुर्दे को फूलों से ढककर नहीं रखा जा सकता – यह असम्भव है। ऐसा अधिक दिन नहीं चलता। एक दिन ये सब फूल सुख जाएँगे और तब वह शव पहले से भी अधिक वीभत्स दिखाई देगा। हमारा सारा जीवन भी ऐसा ही है । हम भले ही अपने पुराने,सड़े घाव को स्वर्ण के वस्त्र से ढक रखने की चेष्टा करें, पर एक दिन ऐसा आएगा, जब वह स्वर्ण वस्त्र खिसक पड़ेगा और वह घाव अत्यन्त वीभत्स रूप में आंखों के सामने प्रकट हो जाएगा।

तब क्या कोई आशा नहीं हैं? यह सत्य है कि हम सभी माया के दास हैं, हम सभी माया के अन्दर ही जन्म लेते हैं और माया में ही जीवित रहते हैं । तब क्या कोई उपाय नहीं है? कोई आशा नहीं है? ये सब बातें तो सैकड़ों युगों से लोगों को मालूम हैं कि हम सब अतीव दुर्दशा में पड़े हैं, यह जगत् वास्तव में एक कारागार है, हमारी पूर्वप्राप्त महिमा की छटा भी एक कारागार है, हमारी बुद्धि और मन भी एक कारागार के समान हैं । मनुष्य चाहे जो कुछ कहे, पर ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जो किसी न किसी समय इस बात को हृदय से अनुभव न करता हो। वृद्ध लोग इसको और भी तीव्रता के साथ अनुभव करते हैं, क्योंकि उनकी जीवन भर की संचित अभिज्ञता रहती है। प्रकृति की मिथ्या भाषा उन्हें और अधिक नहीं ठगा सकती। इस बन्धन को तोड़ने का क्या उपाय है? क्या कोई उपाय नहीं है? हम देखते हैं कि इस भयंकर व्यापार के बावजूद हमारे सामने पीछे चारों ओर यह बन्धन रहने पर भी इस दुःख और कष्ट के बीच इस जगत् में ही, जहाँ जीवन और मृत्यु समानार्थी हैं एक महावाणी समस्त युगों समस्त देशों और समस्त व्यक्तियों के हृदय में गूँज रही है –

“दैदी ह्योषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते । ।”

“मेरी यह दैवी, त्रिगुणमयी माया, बड़ी मुश्किल से पार की जाती है । जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया से पार हो जाते हैं ।”11

“हे थके-माँदे, भार से लदे मनुष्यों, आओ, मैं तुम्हें आश्रय दूंगा ।” यह वाणी ही हम सब को बराबर अग्रसर कर रही है । मनुष्य ने इस वाणी को सुना है, और अनन्त युगों से सुनता आ रहा है। जब मनुष्य को लगता है कि उसका सब कुछ चला जा रहा है, जब उसकी आशा टूटने लगती है, जब अपने बल में उसका विश्वास हटने लगता है, जब सब कुछ मानो उसकी उँगलियों में से खिसककर भागने लगता है और जीवन केवल एक भग्नावशेष में परिणत हो जाता है, तब वह इस वाणी को सुन पाता है – और यही धर्म है ।

अतएव, एक ओर तो यह अभयवाणी है कि यह समस्त कुछ नहीं, केवल माया है और साथ ही यह आशाप्रद वाक्य है कि माया के बाहर जाने का मार्ग भी है । और दूसरी ओर हमारे सांसारिक लोग कहते हैं “धर्म, दर्शन, ये सब व्यर्थ की वस्तुएँ लेकर दिमाग खराब मत करो। दुनिया में रहो; माना यह दुनिया बड़ी खराब है, पर जितना हो सके, इसका मजा ले लो” सीधे-सादे शब्दों में इसका अर्थ यही है कि दिन-रात पाखण्डपूर्ण जीवन व्यतीत करो – अपने घाव को जब तक हो सके, ढके रखो। एक के बाद दूसरी जोड़-गाँठ करते जाओ, यहाँ तक कि सब कुछ नष्ट हो जाए और तुम केवल जोड़-गांठ का एक समूह मात्र रह जाओ। इसी को कहते हैं सांसारिक जीवन। जो इस जोड़-गांठ से सन्तुष्ट हैं, वे कभी भी धर्म लाभ नहीं कर सकते। जब जीवन की वर्तमान अवस्था में भयानक अशान्ति उत्पन्न हो जाती है, जब अपने जीवन के प्रति भी ममता नहीं रह जाती जब इस जोड़-गांठ पर अपार घृणा उत्पन्न हो जाती है, जब मिथ्या और पाखण्ड के प्रति प्रबल वितृष्णा उत्पन्न हो जाती है, तभी धर्म का प्रारम्भ होता है । भगवान् बुद्ध ने बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर दृढ़ स्वर से जो बात कही थी, उसे जो अपने रोम रोम से बोल सकता है, वही वास्तविक धार्मिक होने योग्य है। संसारी होने की इच्छा उनके भी हृदय में एक बार उत्पन्न हुई थी । इधर वे स्पष्ट रूप से देख रहे थे कि उनकी यह अवस्था, यह सांसारिक जीवन एकदम व्यर्थ है; पर इसके बाहरू जाने का उन्हें कोई मार्ग नहीं मिल रहा था। मार (= मोह) एक बार उनके निकट आया और कहने लगा – ‘छोड़ो भी सत्य की खोज, चलो संसार में लौट चलो, और पहले जैसा पाखण्डपूर्ण जीवन बिताओ, सब वस्तुओं को उनके मिथ्या नामों से पुकारो, अपने निकट और सबके निकट दिन-रात मिथ्या बोलते रहो।’ पर उस महावीर ने अपने अतुल पराक्रम से उसे उसी क्षण परास्त कर दिया। उन्होंने कहा, “अज्ञानपूर्वक केवल खा-पीकर जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है; पराजित होकर जीने की अपेक्षा युद्धक्षेत्र में मरना श्रेयस्कर है। “यही धर्म की नींव है । जब मनुष्य इस नींव पर खड़ा होता है, तब समझना चाहिए कि वह सत्य की प्राप्ति के पथ पर ईश्वर की प्राप्ति के पथ पर चल रहा है। धार्मिक होने के लिए भी पहले यह दृढ़ प्रतिज्ञा आवश्यक है। मैं अपना रास्ता स्वयं ढूँढ लूँगा। सत्य को जानूँगा अथवा इस प्रयत्न में प्राण दे दूँगा। कारण, संसार की ओर से तो और कुछ पाने की आशा है ही नहीं, यह तो शून्यस्वरूप है – दिन-रात उड़ता जा रहा है। आज का सुन्दर आशापूर्ण तरुण कल का बूढ़ा है। आशा, आनन्द, सुख – ये सब मुकुलों की भांति कल के शिशिर-पात से नष्ट हो जाएँगे। यह हुई इस ओर की बात; और दूसरी ओर है, विजय का प्रलोभन – जीवन के समस्त अशुभों पर विजय-प्राप्ति की संभावना। और तो और, स्वयं जीवन और जगत् पर भी विजय- प्राप्ति की सम्भावना है । इसी उपाय से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। अतएव जो लोग इस विजय-प्राप्ति के लिये, सत्य के लिए, धर्म के लिए चेष्टा कर रहे हैं, वे ही सत्यपथ पर है; और वेद भी यही उपदेश करते हैं “निराश मत होओ; मार्ग बड़ा कठिन है – छुरे की धार पर चलने के समान दुर्गम; फिर भी निराश मत हो;, उठो, जागो और अपने परम आदर्श को प्राप्त करो।”12

सारे धर्मों की, चाहे वे किसी भी रूप में मनुष्य के निकट अपनी अभिव्यक्ति करते हों, यही एक सामान्य केन्द्रीय नींव है । और वह है संसार के बाहर जाने का अर्थात् मुक्ति का उपदेश। इन सब धर्मों का उद्देश्य संसार और धर्म के बीच सुलह कराना नहीं पर धर्म को अपने आदर्श में दृढ़- प्रतिष्ठित करना है, संसार के साथ बिना समझौता किये ही उसकी जटिल समस्या का समाधान करना है । प्रत्येक धर्म इसका प्रचार करता है और वेदान्त का कर्तव्य है – इन सभी महत्वाकांक्षाओं में सामंजस्य स्थापित करना, और संसार के सारे उच्चतम और निम्नतम धर्मों में विद्यमान सामान्य तत्त्व को अभिव्यक्त करना। हम जिसको अत्यन्त भ्रान्त अन्धविश्वास कहते है, और जो सर्वोच्च दर्शन है, सभी की यही एक साधारण नींव है, कि वे सभी इस प्रकार के संकट से निस्तार पाने का मार्ग दिखाते हैं, और अधिकांश में किसी प्रपंचातीत पुरुषविशेष की सहायता से अर्थात् प्राकृतिक नियमों से आबद्ध न रहने वाले नित्यमुक्त पुरुष विशेष की सहायता से इस मुक्ति की प्राप्ति करनी पड़ती है । इस मुक्त पुरुष के स्वरूप के सम्बन्ध में नाना प्रकार की कठिनाइयाँ और मतभेद होने पर भी – वह ब्रह्म सगुण है या निर्गुण, मनुष्य की भांति ज्ञानसम्पन्न है अथवा नहीं, वह पुरुष है, स्त्री, या निर्लिग – इस प्रकार के अनन्त विचार तथा विभिन्न मतों के प्रबल विरोध होने पर भी, मूलभूत तत्त्व एक ही है । विविध मतवादों के इस प्रचण्ड परस्पर विरोध के बावजूद, हमें उन सब में एकत्व का एक स्वर्ण-सूत्र मिलता है और इस दर्शन में ही इस स्वर्ण-सूत्र की खोज हुई है, जो हमारी दृष्टि के सामने थोड़ा-थोड़ा करके अभिव्यक्त हुआ है, और यह सामान्य तत्त्व ही इस अभिव्यक्ति का पहला सोपान है कि हम सभी मुक्ति की ही ओर अग्रसर हो रहे हैं।

अपने सुख, दुःख, विपत्ति और कष्ट – सभी अवस्थाओं में हम यह – आश्चर्य की बात देखते हैं कि हम सभी धीरे-धीरे मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे है । प्रश्न उठा – यह जगत् वास्तव में क्या है? कहाँ से इसकी उत्पत्ति हुई और कहाँ इसका लय है? और इसका उत्तर था – मुक्ति से ही इसकी उत्पत्ति है, मुक्ति में यह विश्राम करता है और अन्त में मुक्ति में ही इसका लय हो जाता है। यह जो मुक्ति की भावना है कि वास्तव में हम मुक्त है, इस आश्चर्यजनक भावना के बिना हम एक क्षण भी नहीं चल सकते, इस भाव के बिना तुम्हारे सभी कार्य, यहाँ तक कि तुम्हारा जीवन तक व्यर्थ है। प्रतिक्षण प्रकृति यह सिद्ध किये दे रही है कि हम दास हैं, पर उसके साथ ही यह दूसरा भाव भी हमारे मन में उत्पन्न होता रहता है कि हम मुक्त हैं । प्रतिक्षण हम माया से आहत होकर बद्ध-से प्रतीत होते हैं, पर उसी क्षण उस आघात के साथ ही – ‘हम बद्ध हैं’ इस भावना के साथ ही – और भी एक भाव हममें आता है कि हम मुक्त हैं । मानो हमारे अन्दर से कोई कह रहा है कि हम मुक्त हैं । इस मुक्ति की हृदय से उपलब्धि करने में, अपने मुक्त स्वभाव को प्रकट करने में जो बाधाएँ उपस्थित होती हैं, वे भी तो एक प्रकार से अनतिक्रमणीय हैं। तो भी अन्दर से, हमारे हृदय के अन्तस्तल से मानो कोई सर्वदा कहता रहता है – मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ । और यदि तुम संसार के विभिन्न धर्मों का अध्ययन करो तो देखोगे, उन सभी में किसी न किसी रूप में यह भाव प्रकाशित हुआ है । केवल धर्म नहीं – धर्म शब्द को तुम संकीर्ण अर्थ में मत लो – वरन् सारा सामाजिक जीवन इसी एक मुक्त भाव की अभिव्यक्ति है । सभी प्रकार की सामाजिक गतियाँ उसी एक मुक्त भाव की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं । मानो सभी ने, जाने-अनजाने उस स्वर को सुना है, जो दिन-रात कह रहा है “हे थके-माँदे और बोझ से लदे हुए मनुष्यों! मेरे पास आओ!” मुक्ति के लिए आह्वान करने वाली यह वाणी भले ही एक ही प्रकार की भाषा अथवा एक ही ढंग से प्रकाशित न होती हो, पर किसी न किसी रूप में वह हमारे साथ सदैव विद्यमान है । हमारा यहाँ जो जन्म हुआ है, वह भी इसी वाणी के कारण; हमारी प्रत्येक गति इसी के लिए है । हम जानें या न जानें, पर हम सभी मुक्ति की ओर चल रहे हैं, उसी वाणी का अनुसरण कर रहे हैं । जिस प्रकार गाँव के बालक उस वंशीवादक के संगीत से खिंचकर चले जाते थे, उसी प्रकार हम भी बिना जाने ही उस मधुर वाणी का अनुसरण कर रहे हैं ।

जब हम उस वाणी का अनुसरण करते हैं, तभी हम नीतिपरायण होते हैं । केवल जीवात्मा नहीं, वरन् छोटे से छोटे जड़ प्राणी से लेकर ऊँचे से ऊँचे मनुष्यों तक सभी ने वह स्वर सुना है, और सब उसी की दिशा में दौड़े जा रहे हैं । और इस चेष्टा में या तो हम परस्पर मिल जाते हैं या एक दूसरे को धक्का देते रहते हैं । इसी से प्रतिद्वन्द्विता, हर्ष, संघर्ष, जीवन, सुख और मृत्यु उत्पन्न होते हैं और उस वाणी तक पहुँचने के लिए यह जो संघर्ष चल रहा है, समय विश्व उसी का परिणाम मात्र है। हम यही करते आ रहे हैं। यही व्यक्त प्रकृति का परिचय है।

इस वाणी के सुनने से क्या होता है? इससे हमारे सामने का दृश्य परिवर्तित होने लगता है। जैसे ही तुम इस स्वर को सुनते हो और समझते हो कि यह क्या है, वैसे ही तुम्हारे सामने का सारा दृश्य बदल जाता है। यही जगत् जो पहले माया का वीभत्स युद्ध-क्षेत्र था, अब और कुछ – अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर – हो जाता है। तब फिर प्रकृति को कोसने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। संसार बड़ा वीभत्स है, अथवा यह सब वृथा है, यह कहने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती; रोने-चिल्लाने का भी प्रयोजन नहीं रह जाता। जैसे ही तुम इस स्वर का अर्थ समझते हो, वैसे ही तुम्हारी समझ में आ जाता है कि इस सब चेष्टा, इस युद्ध, इस प्रतिद्वन्द्विता, इस कठिनाई, इस निष्ठुरता, इन सब छोटे छोटे सुख एवं आनन्द आदि का प्रयोजन क्या है! तब यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि यह सब प्रकृति के स्वभाव से ही होता है; हम सब जाने अनजाने उसी स्वर की ओर अग्रसर हो रहे हैं, इसीलिए यह सब हो रहा है। अतएव समस्त मानव-जीवन, समस्त प्रकृति उसी मुक्तभाव को अभिव्यक्त करने की चेष्टा कर रही है, बस; सूर्य भी उसी ओर जा रहा है, पृथ्वी भी इसीलिए सूर्य के चारों ओर परिक्रमा कर रही है, चन्द्र भी इसीलिए पृथ्वी के चारों ओर घूम रहा है। उस स्थान पर पहुंचने के लिए ही समस्त ग्रह-नक्षत्र दौड़ रहे हैं और वायु बह रही है। उस मुक्ति के लिए ही बिजली तीव्र घोष करती है और मृत्यु भी उसी के लिए चारों ओर घूम-फिर रही है। सब कोई उसी दिशा में जाने का प्रयत्न कर रहे हैं। साधु भी उसी ओर जा रहे हैं, बिना गये वे रह ही नहीं सकते, उनके लिए यह कोई प्रशंसा की बात नहीं। पापियों की भी यही दशा है। बड़ा दानी व्यक्ति भी उसी को लक्ष्य बनाकर सरल भाव से चला जा रहा है, बिना गये वह रह ही नहीं सकता और एक भयानक कंजूस भी उसी को लक्ष्य बनाकर चल रहा है। जो बड़े सत्कर्मशील हैं, उन्होंने भी उसी वाणी को सुना है, वे सत्कर्म किये बिना रह नहीं सकते; और एक घोर आलसी व्यक्ति का भी यही हाल है। हो सकता है एक व्यक्ति दूसरे की अपेक्षा अधिक ठोकरें खाए। जो व्यक्ति अधिक ठोकरें खाता है, उसे हम बुरा कहते हैं और जो कम, उसे सज्जन या भला कहते हैं। भला और बुरा ये दो भिन्न चीजें नहीं हैं, दोनों एक ही है; उनके बीच का भेद प्रकारगत नहीं, परिमाणगत है ।

अब देखो यदि यह मुक्तभावरूपी शक्ति वास्तव में समस्त जगत् में कार्य कर रही है, तो अपने विशेष आलोच्य विषय धर्म में उसका प्रयोग करने पर हम देखते हैं कि सभी धर्मों में इस एक भाव को स्वीकार किया गया है। अत्यन्त निम्न कोटि के धर्म को लो, जिसमें किसी मृत पूर्वज अथवा निष्ठुर देवताओं की उपासना होती है । इन उपास्य देवताओं अथवा मृत पूर्वजों के बारे में क्या धारणा है? यही कि वे प्रकृति से उन्नत हैं, इस माया के द्वारा वे बद्ध नहीं हैं । पर हाँ प्रकृति के बारे में उपासक की धारणा अवश्य बिलकुल सामान्य है। उपासक एक मूर्ख अज्ञानी व्यक्ति है, उसकी बिलकुल स्थूल धारणा है, वह घर की दीवार को भेदकर नहीं जा सकता अथवा आकाश में विचरण नहीं कर सकता। अतः इन सब बाधाओं का अतिक्रमण करना – बस इसके अतिरिक्त उसकी शक्ति की कोई उच्चतर धारणा है ही नहीं; अतएव वह ऐसे देवता की उपासना करता है, जो दीवार भेदकर अथवा आकाश में उड़कर आ-जा सकते हैं, अथवा जो अपना रूप परिवर्तित कर सकते है। दार्शनिक भाव से देखने पर इस प्रकार की देवोपासना में कौन-सा रहस्य है? यह कि यहाँ भी वह मुक्ति का भाव मौजूद है, उसकी देवतासम्बन्धी धारणा प्रकृतिसम्बन्धी अपनी धारणा से उन्नत है । और जो लोग तदपेक्षा उन्नत देवों के उपासक हैं, उनकी भी उस एक ही मुक्ति की दूसरे प्रकार की धारणा है । जैसे जैसे प्रकृति के सम्बन्ध में हमारी धारणा उन्नत होती जाती है, वैसे ही वैसे प्रकृति की प्रभु आत्मा के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा उन्नत होती जाती है; अन्त में हम एकेश्वरवाद में पहुँच जाते हैं, जो माया या प्रकृति को स्वीकार करता है, और जिसके मतानुसार मायाधीश एक ईश्वर ही है।

जहाँ सर्वप्रथम इस एकेश्वरवाद-सूचक भाव का आरम्भ होता है, वहीं वेदान्त का आरम्भ हो जाता है । वेदान्त इससे भी अधिक गम्भीर अन्वेषण करना चाहता है । वह कहता है कि इस माया-प्रपंच के पीछे जो एक आत्मा मौजूद है, जो माया का स्वामी है पर जो माया के अधीन नहीं है, वह हमें अपनी ओर आकर्षित कर रहा है और हम भी धीरे धीरे उसी की ओर जा रहे हैं – यह धारणा है तो ठीक पर अभी भी यह धारणा शायद स्पष्ट नहीं हुई है, अब भी यह दर्शन मानो अस्पष्ट और अस्फुट है, यद्यपि वह स्पष्ट रूप से युक्ति-विरोधी नहीं है । जिस प्रकार तुम्हारे यहाँ प्रार्थना में कहा जाता है – ‘मेरे ईश्वर, तेरे अति निकट’ (Neare, my God to thee), वेदान्ती भी ऐसी ही प्रार्थना करता है, केवल एक शब्द बदलकर – ‘मेरे ईश्वर, मेरे अति निकट’ (Nearer, My God to me) । हमारा चरम लक्ष्य बहुत दूर है, प्रकृति से अतीत प्रदेश में है। वह हमें अपनी ओर खींच रहा है, उसे धीरे धीरे हमें अपने निकट लाना होगा; पर आदर्श की पवित्रता और उच्चता को अक्षुण्ण रखते हुए। मानो यह आदर्श क्रमशः हमारे निकटतर होता जाता है – अन्त में स्वर्ग का ईश्वर मानो प्रकृतिस्थ ईश्वर बन जाता है, फिर प्रकृति में और ईश्वर में कोई भेद नहीं रह जाता, वही मानो इस ‘देहमन्दिर के अधिशासक देवता के रूप में, और अन्त में इसी देहमन्दिर के रूप में जाना जाता है और वही मानो अन्त में जीवात्मा और मनुष्य के रूप में परिज्ञात होता है । बस यही वेदान्त की शिक्षा का अन्त है। जिसको ऋषिगण विभिन्न स्थानों में खोजा करते थे, वह हमारे अन्दर ही है। वेदान्त कहता है – तुमने जो वाणी सुनी थी, वह ठीक सुनी थी, पर उसे सुनकर तुम ठीक मार्ग पर चले नहीं। जिस मुक्ति के महान् आदर्श का तुमने अनुभव किया था, वह सत्य है, पर उसे बाहर की ओर खोजकर तुमने भूल की। इसी भाव को अपने निकट और निकटतर लाते चलो, जब तक कि तुम यह न जान लो कि यह मुक्ति, यह स्वाधीनता तुम्हारे अन्दर ही है, वह तुम्हारी आत्मा की अन्तरात्मा है। यह मुक्ति बराबर तुम्हारा स्वरूप ही थी, और माया ने तुम्हें कभी भी बद्ध नहीं किया। तुम पर अपना अधिकार जमाने की सामर्थ्य प्रकृति में कभी नहीं थी । डरे हुए बालक के समान तुम स्वप्न देख रहे थे कि प्रकृति तुम्हारा गला दबा रही है । इस भय से मुक्त होना ही लक्ष्य है । केवल इसे बुद्धि से जानना ही नहीं, वरन् प्रत्यक्ष करना होगा, अपरोक्ष करना होगा – हम इस जगत् को जितने स्पष्ट रूप से देखते हैं, उससे भी अधिक स्पष्ट रूप से देखना होगा। तभी हम मुक्त होंगे, तभी हमारी सारी कठिनाइयों का अन्त होगा तभी हृदय की सारी उलझनें नष्ट होंगी सारी वक्रताएँ सरल हो जाएँगी। तब यह विविधता और प्रकृति का भ्रम चला जाएगा। तब यह माया, आज के समान भयानक अवसादकारक स्वप्न न होकर अति सुन्दर रूप में दिखेगी, और यह जगत्, जो इस समय कारागार के समान प्रतीत हो रहा है, क्रीड़ा-क्षेत्र का रूप धारण कर लेगा। तब सारी विपत्तियाँ जटिलताएँ और तो और हम जो सब यन्त्रणाएँ भोग रहे हैं, वे भी ब्रह्मभाव में परिणत हो जाएँगी और हमारे सम्मुख अपना प्रकृत स्वरूप अभिव्यक्त करेंगी । तब हम देखेंगे कि सारी वस्तुओं के पीछे सब के सारसत्ता स्वरूप ‘वही’ विद्यमान है और हम जान लेंगे कि ‘वही’ हमारा वास्तविक अन्तरात्मा स्वरूप है ।


  1. गीता, ७ ।१४
  2. उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरात्रिबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया। दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति। । – कठोपनिषद् १।३। १४

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सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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