धर्मस्वामी विवेकानंद

अपरोक्षानुभूति – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)

“अपरोक्षानुभूति” नामक व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने 29 अक्टूबर 1896 को लन्दन में दिया था। यह भाषण उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ज्ञानयोग में संकलित है। अपरोक्षानुभूति विषयक यह व्याख्यान कठोपनिषद पर आधारित है, जो स्वामीजी को अत्यन्त प्रिय था। इसमें वे कहते हैं कि प्रत्यक्ष अनुभूति के बिना परम कल्याण की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यह अपरोक्षानुभूति भोगों से ऊपर उठकर त्याग द्वारा ही संभव है। इस किताब के अन्य अध्याय यहाँ पढ़ें – ज्ञानयोग हिन्दी में

मैं तुम लोगों को एक दूसरी उपनिषद् से कुछ अंश पढ़कर सुनाऊंगा! यह अत्यन्त सरल एवं अतिशय कवित्वपूर्ण है । इसका नाम है कठोपनिषद! सर एडविन अर्नाल्ड कृत इसका अनुवादक1 शायद तुममें से कुछ ने पड़ा होगा। हम लोगों ने पहले देखा ही है कि ‘जगत् की सृष्टि कहाँ से हुई?’ इस प्रश्न का उत्तर बाह्य जगत् से नहीं मिला; अतः इस प्रश्न के समाधान के लिए लोगों की दृष्टि अन्तर्जगत् की ओर आकृष्ट हुई । यह पुस्तक इस संकेत को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विकसित करती है, और मनुष्य के आन्तरिक स्वरूप के सम्बन्ध में जिज्ञासा करती है। पहले यह प्रश्न होता था कि इस बाह्य जगत् की सृष्टि किसने की? इसकी उत्पत्ति कैसी हुई? – इत्यादि। किन्तु अब यह प्रश्न उठा कि मनुष्य के अन्दर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो उसे जीवित रखती और चलाती है, और मृत्यु के बाद मनुष्य का क्या होता है? प्रारम्भिक दार्शनिकों ने इस जड़ जगत् को लेकर क्रमशः इसके माध्यम से परमतत्त्व में पहुँचने की चेष्टा की थी और इससे उसने अधिक से अधिक पाया तो, यही कि इस जगत् का एक व्यक्तित्वयुक्त शासनकर्ता है, एक अतिशय प्रवर्धित मनुष्य, किन्तु जो कुल मिलाकर है, एक व्यक्ति, एक मनुष्य ही। हो सकता है, मानवी गुणों को अनन्त परिमाण में बढ़ाकर उसके नाम के साथ जोड़ दिया गया हो, पर कार्यत: वह एक मनुष्य मात्र है। पर यह कभी पूर्ण सत्य नहीं हो सकता। अधिक से अधिक इसे आशिक सत्य कह सकते हैं । हम लोग इस जगत् को मानवी दृष्टि से देखते हैं, और हम लोगों का ईश्वर इस जगत् की मानवी व्याख्या मात्र है।

कल्पना करो, एक गाय दार्शनिक और धर्मज्ञ है – तब तो वह जगत् को अपनी गो-दृष्टि से देखेगी । वह जब इस समस्या का समाधान करेगी, तो गाय के भाव से ही करेगी और वह हमारे ईश्वर को देखने में समर्थ न होगी। इस प्रकार यदि बिल्ली दार्शनिक बने, तो वह बिल्ली-जगत् को ही देखेगी, विश्वसमस्या का उसका समाधान बिल्ली-उचित ही होगा और उसका यही सिद्धान्त होगा कि कोई बिल्ली ही इस जगत् का शासन कर रही है। अतएव हम देखते हैं कि जगत् के सम्बन्ध में हम लोगों की व्याख्या पूर्ण नहीं है, और हम लोगों की धारणा भी जगत् के सर्वांश को स्पर्श करनेवाली नहीं है । मनुष्य जिस तरह से जगत् के सम्बन्ध में भयानक स्वार्थपरक मीमांसा करता है, उसे ग्रहण करना एक भीषण भूल होगी। बाह्य जगत् से जगत् के सम्बन्ध में जो समाधान प्राप्त होता है, उसमें दोष यही है कि जिस जगत् को हम देखते हैं, वह हमारा अपना ही जगत् है – हम सत्य को जिस रूप में देखते है, वह बस वैसा ही है । वह प्रकृत सत्य, वह परमार्थ वस्तु कभी इन्द्रियग्राह्य नहीं हो सकती, उसे हम समझ नहीं सकते । किन्तु हम जगत को पंचेन्द्रिय-विशिष्ट प्राणियों की दृष्टि से ही जानते हैं। कल्पना करो, हमारे एक इन्द्रिय और हो जाए; तब तो समस्त ब्रह्माण्ड हमारी दृष्टि में अन्य रूप धारण कर लेगा। कल्पना करो, हमें एक चौम्बक (Magnetic) इन्द्रिय प्राप्त हुई; तब यह बिलकुल सम्भव है कि हम ऐसी लाखों शक्तियों का अस्तित्व अनुभव करने लगें, जिनका हमें आज पता नहीं है और जिनका अस्तित्व अनुभव करने के लिए हमारे पास आज कोई इन्द्रिय नहीं है । हमारी इन्द्रियाँ सीमाबद्ध हैं – अत्यन्त सीमाबद्ध हैं – और इन सीमाओं के भीतर ही हमारा यह अपना जगत् अवस्थित है तथा हमारा ईश्वर हमारे इसी जगत् का समाधान है। पर वह पूर्ण समस्या का समाधान नहीं हो सकता। किन्तु मनुष्य चुप होकर नहीं रह सकता, वह चिन्तनशील प्राणी है, वह ऐसा एक समाधान करना चाहता है, जिससे जगत् की सारी समस्याओं का समाधान हो जाए। वह एक ऐसा जगत् देखना चाहता है, जो एक ही साथ मनुष्यों, देवताओं तथा सभी सम्भाव्य प्राणियों का जगत् है और एक ऐसा समाधान पाना चाहता है, जिससे समस्त विश्व की व्याख्या हो जाए।

अतएव स्पष्ट है कि पहले हमें एक ऐसे जगत् की खोज करनी चाहिए, जिसमें अन्य सभी जगत् समाविष्ट हों, एक ऐसे पदार्थ का अन्वेषण करना चाहिए, जो सत्ता के सभी स्तरों में विद्यमान उपादान हो, चाहे वह इन्द्रियों से प्रत्यक्ष हो या न हो। यदि हम निम्न और उच्च लोकों के सामान्य लक्षण स्वरूप इस प्रकार के एक पदार्थ का आविष्कार कर सकें तभी हमारी समस्या का समाधान हो सकेगा। यदि हम केवल तार्किक विचारणा से ही विवश होकर यह समझ ले कि समस्त अस्तित्व का आधार एक है, तो भी हमारी समस्या कुछ समाधान पा लेगी। पर यह समाधान हमारे इस दृष्टिगोचर, ज्ञात जगत् से कभी प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि यह तो पूर्ण का खण्ड ज्ञान मात्र है।

अतः और भी गहराई में प्रवेश करना ही इस समस्या के समाधान का एकमात्र उपाय है। प्रारम्भिक विचारकों ने देखा था कि वे केन्द्र से जितनी दूर जाते हैं, वैचित्र्य और विभिन्नताएं उतनी ही अधिक होती जाती हैं, और वे केन्द्र के जितने निकट आते हैं, उतने ही वे एकत्व के निकट आते हैं। हम वृत्त के केन्द्र के जितने निकट जाएँगे, हम सारी त्रिज्याओं के मिलनबिन्दु के उतने ही निकट पहुँचेंगे और हम उससे जितनी दूर जाएँगे हमारी त्रिज्या दूसरी त्रिज्याओं से उतनी ही दूर होती जाएगी। यह बाह्य जगत् उस केन्द्र से बहुत दूर है, अतएव इसमें कोई ऐसी साधारण मिलन-भूमि नहीं हो सकती, जहाँ पर सम्पूर्ण अस्तित्व-समष्टि का एक सर्व-साधारण समाधान हो सके। यह जगत् समूचे अस्तित्व का, अधिक से अधिक एक अंश मात्र है। और भी कितने व्यापार हैं; जैसे मनोजगत् के व्यापार, नैतिक जगत् के व्यापार बुद्धिराज्य के व्यापार, आदि आदि। इन सब में से केवल एक को लेकर उससे समस्त जगत्-समस्या का समाधान करना असम्भव है । अतः हमें प्रथमतः कहीं एक ऐसे केन्द्र का पता लगाना होगा, जिससे सत्ता के अन्य सभी स्तरों की उत्पत्ति हुई है; और फिर उसी केन्द्र में खड़े होकर हम इस प्रश्न के समाधान की चेष्टा करेंगे । यही इस समय प्रस्तावित विषय है। वह केन्द्र कहाँ है? वह हमारे भीतर है – इस मनुष्य के भीतर जो मनुष्य रहता है, वही यह केन्द्र है । लगातार भीतर की ओर अग्रसर होते-होते महापुरुषों ने देखा कि जीवात्मा का गम्भीरतम प्रदेश ही समुच्य ब्रह्माण्ड का केन्द्र है। जितने प्रकार के अस्तित्व हैं, सभी आकर उसी एक केन्द्र में एकीभूत होते है । वस्तुतः यही स्थान सब की एक साधारण मिलन-भूमि है । इस स्थान पर आकर हम एक सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुँच सकते हैं । अतएव ‘किसने इस जगत् की सृष्टि की है?’ – यह प्रश्न विशेष दार्शनिक नहीं है और न उसका समाधान किसी काम का है ।

कठोपनिषद् में यह भाव बड़ी अलंकार पूर्ण भाषा में दर्शाया गया है। अति प्राचीन काल में एक बड़ा धनी व्यक्ति था। एक समय उसने एक यज्ञ किया। उस यज्ञ में सर्वस्व दान करने का नियम था। यह यज्ञकर्ता हृदय का सच्चा नहीं था। वह यज्ञ करके बहुत मान और यश पाने की इच्छा रखता था, पर यज्ञ में उसने ऐसी वस्तुएँ दान में दीं, जो उपयोग के लायक नहीं थीं। उसने जराजीर्ण, अर्धमृत बन्ध्या, कानी और लँगड़ी गायें ब्राह्मणों को दान में दीं। उसका एक छोटा पुत्र था, जिसका नाम था नचिकेता। उसने देखा मेरे पिता ठीक ठीक अपना व्रत-पालन नहीं कर रहें है, अपितु वे व्रत का भंग कर रहे हैं अतएव वह निश्चय नहीं कर पाया कि वह उनसे क्या कहे । भारतवर्ष में माता-पिता प्रत्यक्ष जीवन्त देवता माने जाते हैं। उनके सामने पुत्र कुछ कहने या करने का साहस नहीं करता, केवल चुप होकर खड़ा रहता है । अतः उस बालक ने पिता का प्रकट विरोध करने में असमर्थ हो, उनसे केवल यही पूछा, “पिताजी, आप मुझे किसको देंगे? आपने तो यज्ञ में सर्वस्व-दान का संकल्प किया है । “यह सुनकर पिता चिढ़ से गये और बोले “अरे यह तू क्या कह रहा है? भला पिता अपने पुत्र का दान करेगा यह कैसी बात है?” पर बालक ने दूसरी बार, तीसरी बार पिता से यही प्रश्न किया, तब पिता कुद्ध होकर बोले “जा तुझे यम को देता हूँ। “उसके बाद आख्यायिका ऐसी है कि वह बालक यम के घर गया। यमदेवता आदि-मृतक हैं, वे स्वर्ग में पितरों के शासनकर्ता हैं। अच्छे व्यक्ति मृत्यु के बाद यम के निकट अनेक दिनों तक रहते हैं। ये यम एक अत्यन्त शुद्धस्वभाव साधुपुरुष हैं, जैसा कि उनके नाम (यम) से ही पता चलता है । वह बालक नचिकेता यमलोक को गया। देवता भी समय-समय पर अपने घर में नहीं रहते। यमराज उस समय घर पर नहीं थे, इसलिए उस बालक को तीन दिन तक उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी। चौथे दिन यम अपने घर आये।

यम बोले, “हे विद्वान! तुम पूजनीय अतिथि होकर भी तीन दिन तक बिना कुछ खाये-पिये प्रतीक्षा करते रहे । हे ब्रह्मन्! तुम्हें प्रणाम है, हमारा कल्याण हो । मैं घर पर नहीं था, इसका मुझे बहुत दुःख है। किन्तु मैं इस अपराध के प्रायश्चित्त-स्वरूप तुम्हें प्रत्येक दिन के लिए एक-एक करके तीन वर देने को प्रस्तुत हूँ, तुम वर माँग लो। “बालक ने कहा, “आप मुझे पहला वर यह दीजिए कि मेरे प्रति पिताजी का क्रोध दूर हो जाए, वे मेरे प्रति प्रसन्न हों और आपसे प्रस्थान की आज्ञा लेकर जब मैं पिता के निकट जाऊं, तो वे मुझे पहचान लें। “यम ने कहा, “तथास्तु।!’ नचिकेता ने द्वितीय वर में स्वर्ग पहुँचाने वाले यज्ञविशेष के विषय में जानने की इच्छा की। हमने पहले ही देखा है कि वेद के संहिता-भाग में केवल स्वर्ग की बातें हैं । वहाँ सब का शरीर ज्योतिर्मय होता है और वे अपने पितरों के साथ वहाँ वास करते हैं। क्रमशः अन्यान्य भाव आये, पर इन सब से लोगों को पूरी तृप्ति नहीं हुई। इस स्वर्ग से और भी कुछ उच्चतर उन्हें आवश्यक प्रतीत होने लगा। स्वर्ग में रहना इस जगत् में रहने से कोई अधिक भिन्न नहीं है। जिस प्रकार एक स्वस्थ धनिक नवयुवक का जीवन होता है, उसी प्रकार स्वर्गीय जीवों का भी जीवन होता है, भेद केवल इतना है -कि उनकी भोग-सामग्री अपरिमित होती है और उनका शरीर नीरोग, स्वस्थ एवं अधिक बलशाली होता है। वह सब तो जड़-जगत् की ही वस्तु ठहरी; हाँ, इससे कुछ अच्छी अवश्य है, बस इतना ही। और जब हमने देखा है कि यह जड़-जगत् पूर्वोक्त समस्या का कोई समाधान नहीं कर सकता, तो स्वर्ग से भी भला उसका क्या समाधान हो सकता है? इसलिए कितने भी स्वर्गों की कल्पना क्यों न करो, पर उससे समस्या का ठीक समाधान नहीं हो सकता। यदि यह जगत् इस समस्या का कोई समाधान नहीं कर सकता, तो इस तरह के चाहे कितने भी जगत् हों, वे भला किस तरह इसका समाधान करेंगे? कारण, हमें स्मरण रखना उचित है कि स्कूल- भूत समस्त प्राकृतिक व्यापारों का एक अत्यन्त सामान्य अंश मात्र है । हम जिन असंख्य घटनाओं को सचमुच देखते हैं, उनका अधिकांश भौतिक नहीं है ।

अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को ही देखो – इसमें मानसिक घटनाएँ बाहर की भौतिक घटनाओं की तुलना में कितनी अधिक है! यह अन्तर्जगत् प्रबल वेगशील है और इसका कार्यक्षेत्र भी कितना विस्तृत है; इन्द्रिय-ग्राह्य व्यापार इसकी तुलना में बिलकुल अल्प है । स्वर्गवाद के समाधान की भूल यह है कि वह कहता है कि हम लोगों का जीवन और जीवन की घटनावली केवल रूप, रस गन्ध स्पर्श और शब्द में ही आबद्ध है। अतएव स्वर्ग की इस धारणा से अधिकांश लोगों को तृप्ति नहीँ हुई । तो भी इस जगह नचिकेता ने द्वितीय वर में स्वर्ग प्राप्त करानेवाले यज्ञ-सम्बन्धी ज्ञान की प्रार्थना की है।। वेद के प्राचीन भाग में वर्णित है कि देवतागण यज्ञ द्वारा सन्तुष्ट हो लोगों को स्वर्ग ले जाते हैं । सभी धर्मों का अध्ययन करने पर हमें यह तथ्य प्राप्त होता है कि जो कुछ प्राचीन होता है, वही कालान्तर में पवित्र हो जाता है । हमारे पुरखे भोज-पत्र पर लिखते थे बाद में उन्होंने कागज बनाने की प्रणाली सीखी, परन्तु इस समय भी भोज-पत्र पवित्र माना जाता है। प्रायः नौ-दस हजार वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज दो लकड़ियाँ घिसकर आग पैदा करते थे वह प्रणाली आज भी वर्तमान है। यज्ञ के समय किसी दूसरी प्रणाली द्वारा अग्नि पैदा करने से काम नहीं चलेगा। एशियावासी आर्यों की अक्स एक शाखा के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है । आज भी उनके वर्तमान वंशधर विदुर से अग्नि प्राप्त कर उसकी रक्षा करना पसन्द करते हैं। इससे प्रमाणित होता है कि ये लोग पहले इस तरह से अग्नि प्राप्त करते थे; बाद में उन्होंने दो लकड़ियों को घिसकर अग्नि उत्पादन करना सीखा, फिर जब अग्नि उत्पादन करने के अन्यान्य उपाय उन्होंने सीखे, तब भी पहले के उपायों का परित्याग नहीं किया। वे प्राचीन उपाय पवित्र आचारों में परिणत हो गये । यहुदियों के सम्बन्ध में भी यही सत्य है। उनके पूर्वज पार्चमेन्ट (parchment) पर लिखते थे। इस समय वे लोग कागज पर लिखते हैं किन्तु पार्चमेन्ट पर लिखना उनकी दृष्टि में परम पवित्र है । इसी तरह सभी जातियों के सम्बन्ध में है। इस समय जो आचार शुद्धाचार कहे जाते हैं वे प्राचीन प्रथा मात्र हैं। यह भी इसी तरह प्राचीन प्रथा मात्र थे। कालक्रम से जब लोग पहले की अपेक्षा उत्तम रीति से जीवन-निर्वाह करने लगे तब उनकी धारणाएँ भी पहले की अपेक्षा अधिक उन्नत हुईं, पर ये प्राचीन प्रथाएँ रह गयीं। समय समय पर इनका अनुष्ठान होने लगा और वे पवित्र आचार माने जाने लगे। उसके बाद कुछ व्यक्तियों ने इस यज्ञ-कार्य के सम्पादन का भार अपने ऊपर ले लिया। ये ही पुरोहित हुए। ये यज्ञ के सम्बन्ध में गम्भीर गवेषणा करने लगे – यश ही इन लोगों का सर्वस्व हो गया। उन लोगों में इस धारणा ने तब जड़ें जमा लीं कि देवता लोग यज्ञ की गन्ध लेने के लिए आते हैं, और यज्ञ की शक्ति से संसार में सब कुछ हो सकता है। यदि निर्दिष्ट संख्या में आहुतियाँ दी जाएँ, कुछ विशेष विशेष स्तोत्रों का पाठ हो, विशेष आकारवाली कुछ वेदियों का निर्माण हो, तो देवता सब कुछ कर सकते हैं, इस प्रकार के मतवादों की सृष्टि हुई । नचिकेता इसीलिए दूसरे वर द्वारा पूछता है कि किस तरह के यज्ञ से स्वर्ग-प्राप्ति हो सकती है । यम ने यह वर भी तत्काल दे दिया और यह आदेश दिया कि भविष्य में इस यज्ञ का नाम नाचिकेत यज्ञ होगा।

इसके बाद नचिकेता ने तीसरे वर की प्रार्थना की और यहीं से यथार्थ उपनिषद् का आरम्भ है। नचिकेता बोला, “कोई कोई कहते हैं मृत्यु के बाद आत्मा रहती है, कोई कोई कहते हैं, आत्मा मृत्यु के बाद नहीं रहती। आप मुझे इस विषय का यथार्थ तत्व समझा दे।”

यम भयभीत हो गये। उन्होंने परम आनन्द के साथ नचिकेता के प्रथमोक्त दोनों वरों को पूर्ण किया था। इस समय वे बोले, “प्राचीन काल में देवताओं को भी इस विषय में सन्देह था। यह सूक्ष्म धर्म सुविज्ञेय नहीं है । हे नचिकेता! ‘तुम कोई दूसरा वर माँगो। मुझसे इस विषय में और अधिक अनुरोध न करो – मुझे छोड़ दो।”

नचिकेता दृढ़मति था वह बोला, “हे मृत्यो! आप जो कहते हैं कि देवताओं को भी इस विषय में सन्देह था और इसे समझना भी कोई सरल बात नहीं है, यह सत्य है। किन्तु मैं इस विषय पर आपके सदृश कोई दूसरा वक्ता भी नहीं पा सकता, और इस वर के समान दूसरा कोई वर भी नहीं है। “यम बोले, “हे नचिकेता! शतायु पुत्र, पौत्र, पशु, हाथी, सोना, घोड़ा आदि माँग लो। इस पृथ्वी पर राज्य करो, एवं जितने दिन तुम जीने की इच्छा करो, उतने दिन तक जीवित रहो। इसके समान और भी कोई दूसरा वर यदि तुम्हारे मन में हो, तो वह भी माँग लो अथवा धन और दीर्घ जीवन की प्रार्थना कर लो। अथवा हे नचिकेता! तुम इस विशाल धरणी पर राज्य करो, मैं तुम्हें सभी प्रकार की काम्य वस्तुओं से पूर्ण कर दूँगा। पृथ्वी में जो जो काम्य वस्तुएं दुर्लभ हैं, उनकी प्रार्थना करो। गीत और वाद्य में विशारद इन रथारूढ़ रमणियों को मनुष्य नहीं पा सकता। हे नचिकेता! इन सभी रमणियों को मैं तुम्हें देता हूँ, ये तुम्हारी सेवा करेंगी; पर तुम मृत्यु के सम्बन्ध में मत पूछो। “

नचिकेता ने कहा “ये सभी वस्तुएँ केवल दो दिन के लिए हैं, ये इन्द्रियों के तेज को हर लेती है। अतिदीर्घ जीवन भी अनन्त काल की तुलना में वस्तुतः अत्यन्त अल्प है । इसीलिए ये हाथी, घोड़े, रथ, गीत, वाद्य आदि आपके ही पास रहें । मनुष्य धन से कभी तृप्त नहीं हो सकता। जब मैं आपके पाश में आऊँगा तो इस वित्त की फिर किस प्रकार रक्षा कर सकूँगा? आप जब तक इच्छा करेंगे, मैं तभी तक जीवित रह सकूँगा। अतः मैंने जिस वर की प्रार्थना की है, बस वही वर मैं चाहता हूँ ।” यम इस उत्तर से प्रसन्न हो गये। वे बोले “श्रेय (परमकल्याण) और प्रेय (आपातरम्य भोग) इन दोनों के उद्देश्य भिन्न है – ये दोनों मनुष्यों को विभिन्न दिशा में ले जाते हैं। जो इनमें से श्रेय को ग्रहण करते हैं, उनका कल्याण होता है और जो प्रेय को ग्रहण करते हैं वे लक्ष्यभ्रष्ट हो जाते है । ये श्रेय और प्रेय दोनों मनुष्य के समक्ष उपस्थित होते हैं। ज्ञानी दोनों पर विचार कर एक को दूसरे से पृथक् जानते है। वे श्रेय को प्रेय से श्रेष्ठ समझकर स्वीकार करते हैं, किन्तु अज्ञानी पुरुष अपने शारीरिक सुख के लिए प्रेय को ही ग्रहण करते है । हे नचिकेता! तुमने आपातरम्य समग्र विषयों की नश्वरता समझकर उन सभी को बुद्धिमानी से छोड़ दिया है ।” इन वचनों से नचिकेता की प्रशंसा कर अन्त में यम ने उसे परम तत्व का उपदेश देना आरम्भ किया।

यहाँ पर हमें वैराग्य और वैदिक नीति की अत्युन्नत धारणा प्राप्त होती है कि जब तक मनुष्य की भोग-वासना का त्याग नहीं होता, तब तक उसके हृदय में सत्य-ज्योति का प्रकाश नहीं हो सकता। जब तक ये तुच्छ विषय-वासनाएँ हृदय में मचलती रहती हैं, जब तक प्रतिमुहूर्त वे हमें बाहर खींच ले जाकर प्रत्येक बाह्य वस्तु का – एक बिन्दु रूप का, एक बिन्दु रस का, एक बिन्दु स्पर्श का – दास बनाती रहती हैं, तब तक फिर हम अपने ज्ञान का कितना ही दम्भ क्यों न करें हमारे हृदय में सत्य किस तरह प्रकाशित हो सकता है?

यम बोले, “जिस आत्मा के सम्बन्ध में, जिस परलोकतत्त्व के सम्बन्ध में तुमने प्रश्न किया है, वह वित्त-मोह से छू बालकों के हृदय में उदित नहीं हो सकता। ‘इसी जगत् का अस्तित्व है, परलोक का नहीं’ इस प्रकार चिन्तन कर वे बारम्बार मेरे वश में आते हैं। इस सत्य को समझना अत्यन्त कठिन है । बहुत से लोग तो लगातार इस विषय को सुनकर भी समझ नहीं पाते, क्योंकि इस विषय का वक्ता भी विलक्षण होना चाहिए और श्रोता भी। गुरु का भी अछूत शक्तिसम्पन्न होना आवश्यक है और शिष्य का भी उसी तरह होना जरूरी है । फिर, मन को वृथा तर्क के द्वारा चंचल करना उचित नहीं है। कारण, परमार्थतत्व तर्क का विषय नहीं है, वह तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय है ।”

हम लोग हमेशा सुनते आ रहे हैं कि प्रत्येक धर्म विश्वास करने पर बल देता है । हमने आंखें बन्द करके विश्वास करने की शिक्षा पायी है। यह अन्धविश्वास सचमुच ही बुरी वस्तु है, इसमें कोई सन्देह नहीं। पर यदि इस अन्धविश्वास का हम विश्लेषण करके देखें तो ज्ञात होगा कि इसके पीछे एक महान् सत्य है । उसका वास्तविक अर्थ क्या है, उसी के विषय में हम इस समय पढ़ रहे हैं। मन को व्यर्थ ही तर्क के द्वारा चंचल करने से काम नहीं चलेगा क्योंकि तर्क से कभी ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती । यह प्रत्यक्ष का विषय है, तर्क का नहीं। समस्त तर्क कुछ प्रत्यक्षों पर स्थापित रहते हैं । इनको छोड़कर तर्क हो ही नहीं सकता। हमारी प्रत्यक्ष की हुई अनुभूतियों के बीच तुलना की प्रणाली को तर्क कहते हैं। यदि ये अनुभूतियाँ पहले से न हों, तो तर्क हो ही नहीं सकता। बाह्य जगत् के सम्बन्ध में यदि यह सत्य है, तो अन्तर्जगत् के सम्बन्ध में भी ऐसा क्यों न होगा? रसायनवेत्ता कुछ द्रव्य लेते हैं – उनसे और कुछ परिणाम द्रव्य उत्पन्न होते हैं । यह एक तथ्य है । हम उसे स्पष्ट देखते हैं, प्रत्यक्ष करते हैं एवं उसे नींव बनाकर हम रसायनशास का विचार करते हैं । पदार्थतत्त्ववेत्ता भी वैसा ही करते हैं – सभी विज्ञानों के विषय में यही बात है। सभी प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव पर स्थापित होना चाहिए और उसके आधार पर ही हमें तर्क और विचार करना चाहिए। किन्तु आश्चर्य की बात है कि अधिकांश लोग, विशेषतः वर्तमान काल में, सोचते हैं कि धर्मतत्त्व में इस प्रकार की प्रत्यक्ष अनुभूति सम्भव नहीं है, धर्म का तत्व केवल युक्ति-तर्क द्वारा समझा जा सकता है । इसीलिए यहाँ पर यम सावधान कर रहे हैं कि मन को वृथा तर्कों से चंचल नहीं करना चाहिए। धर्म बातों का विषय नहीं है – वह तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय है। हमें अपनी आत्मा में अन्वेषण करके देखना होगा कि वहाँ क्या है । हमें उसे समझना होगा और समझकर उसका साक्षात्कार करना होगा। यही धर्म है। लम्बी-चौड़ी बातों में धर्म नहीं रखा है । अतएव, कोई ईश्वर है या नहीं यह तर्क से प्रमाणित नहीं हो सकता क्योंकि युक्ति दोनों ओर समान है । किन्तु यदि कोई ईश्वर है, तो वह हमारे अन्तर में ही है । क्या तुमने कभी उसे देखा है? यही प्रश्न है । जगत् का अस्तित्व है या नहीं – इस प्रश्न की मीमांसा अभी तक नहीं हो सकी है और प्रत्यक्षवादियों (realists) एवं विज्ञानवादियों (idealists) का विवाद कभी समाप्त नहीं होने का। फिर भी हम जानते है कि जगत् है और वह चल रहा है। हम केवल शब्दों के तात्पर्य में हेर-फेर कर देते हैं । अतः जीवन के इन सारे प्रश्नों के बावजूद हमें प्रत्यक्ष घटनाओं में आना ही पड़ेगा। बाह्य-विज्ञान के ही समान परमार्थ-विज्ञान में भी हमें कुछ पारमार्थिक व्यापारों को प्रत्यक्ष करना होगा। उन्हीं पर धर्म स्थापित होगा। हाँ, यह सत्य है कि धर्म की प्रत्येक बात पर विश्वास करना – यह एक युक्तिहीन दावा है और इसमें कोई आस्था नहीं रखी जा सकती। उससे मनुष्य के मन की अवनति होती है । जो व्यक्ति तुमसे सभी विषयों में विश्वास करने को कहता है, वह अपने को नीचे गिराता है और यदि तुम उसके वचनों पर विश्वास करते हो, तो वह तुम्हें भी नीचे गिराता है । संसार के साधु-महापुरुषों को हम से बस यही कहने का अधिकार है कि हमने अपने मन का विश्लेषण किया है और ये सत्य पाये हैं । और यदि तुम भी वैसा करो, तो तुम भी उन पर विश्वास करोगे, उसके पहले नहीं। बस, यही धर्म का सार है। एक बात तुम सदैव ध्यान में रखो कि जो लोग धर्म के विरुद्ध तर्क करते हैं, उनमें से ९१.९ प्रतिशत व्यक्तियों ने कभी अपने मन का विश्लेषण करके नहीं देखा है, सत्य को पाने की कभी चेष्टा नहीं की है। इसीलिए धर्म के विरोध में उनकी युक्ति का कोई मूल्य नहीं है। यदि कोई अन्धा मनुष्य चिल्लाकर कहे, “सूर्य के अस्तित्व में विश्वास करनेवाले तुम सभी प्रान्त हो”, तो उसके इस वाक्य का जितना मूल्य होगा बस उतना ही उनकी युक्ति का है ।

अतः अपरोक्षानुभूति के इस भाव को मन में सर्वदा जागरूक रखना और उसे पकड़े रहना चाहिए। धर्म को लेकर ये सब झगड़े मारामारी तर्क- वितर्क तभी जाएँगे, जब हम समझ लेंगे कि धर्म अन्यों या मन्दिरों में नहीं है । वह अतीन्द्रिय तत्त्व की अपरोक्षानुभूति है – इन्द्रियों से उसका अनुभव नहीं हो सकता। जिन व्यक्तियों ने वास्तव में ईश्वर एवं आत्मा की उपलब्धि की है, वे ही यथार्थ धार्मिक हैं । धर्म पर धाराप्रवाह भाषण देने वाले एक प्रकाण्ड पण्डित- यदि प्रत्यक्षानुभूति से रहित हों, तो उनमें और एक बिलकुल अज्ञ जड़वादी में कोई अन्तर नहीं है। हम सब नास्तिक है, यह हम क्यों नहीं मान लेते? धर्म के सत्य में केवल बौद्धिक सम्मति देने मात्र से हम धार्मिक नहीं बन जाते। एक ईसाई या मुसलमान अथवा अन्य किसी दूसरे धर्म के अनुयायी की बात लो। ‘ईसा के उस पर्वत पर के उपदेश का स्मरण करो। जो कोई व्यक्ति इस उपदेश को कार्य रूप में परिणत करेगा, वह उसी क्षण देवता हो जाएगा। सुनते हैं कि पृथ्वी में इतने करोड़ ईसाई हैं, तो क्या तुम कहना चाहते हो, ये सभी ईसाई हैं? इसका वास्तविक अर्थ यह है कि ये किसी न किसी समय इस उपदेश के अनुसार कार्य करने की चेष्टा कर सकते हैं। दो करोड़ लोगों में एक भी सच्चा ईसाई है या नहीं, इसमें सन्देह है ।

भारतवर्ष में भी, इसी तरह, सुनते हैं कि तीस कोटि वेदान्ती हैं। यदि प्रत्यक्षानुभूति-सम्पन्न व्यक्ति हजार में एक भी होता तो यह संसार पाँच मिनट में बदल जाता! हम सभी नास्तिक हैं, परन्तु जो व्यक्ति उसे स्पष्ट स्वीकार करता है, उससे हम विवाद करने को प्रस्तुत हो जाते हैं। हम सभी अन्धकार में पड़े हुए हैं । धर्म हम लोगों के समीप मानो कुछ नहीं है, केवल विचारलब्ध कुछ मतों का अनुमोदन मात्र है, केवल मुँह की बात है। जो व्यक्ति बहुत अच्छी तरह से बोल सकता है, हम बहुधा उसी को धार्मिक समझा करते है। पर यह धर्म नहीं है। “शब्द-योजना करने के सुन्दर कौशल, आलंकारिक शब्दों में वर्णन करने की क्षमता शास्त्रों के श्लोकों की अनेक प्रकार से व्याख्या – ये सब केवल पण्डितों के आमोद की बातें हैं – धर्म नहीं। “हमारी आत्मा में जब प्रत्यक्षानुभूति आरम्भ होगी, तभी धर्म का प्रारम्भ होगा। तभी तुम धार्मिक होगे एवं तभी नैतिक जीवन का भी प्रारम्भ होगा। इस समय हम पशुओं की अपेक्षा अधिक नीतिपरायण नहीं हैं । केवल समाज के अनुशासन के भय से हम कुछ गड़बड़ नहीं करते। यदि समाज आज कह दे कि चोरी करने से अब दण्ड नहीं मिलेगा तो हम इसी समय दूसरे की सम्पत्ति लूटने को टूट पड़ेंगे। पुलिस ही हमें सच्चरित्र बनाती है । सामाजिक प्रतिष्ठा के लोप की आशंका ही हमें नीतिपरायण बनाती है, और वस्तुस्थिति तो यह है कि हम पशुओं से अधिक उन्नत नहीं हैं । हम जब अपने हृदय को टटोलेंगे, तभी समझ सकेंगे कि यह बात कितनी सत्य है। अतएव आओ इस कपट का त्याग करें। आओ, स्वीकार करें कि हम धार्मिक नहीं हैं और दूसरों से घृणा करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। हम सभी असल में भाई भाई हैं, और जब हमें धर्म की प्रत्यक्षानुभूति होगी, तभी हम नीतिपरायण होने की आशा कर सकते हैं ।

यदि तुमने कोई देश देखा है, तो फिर कोई व्यक्ति तुमसे चाहे कितना भी क्यों न कहे कि तुमने वह नहीं देखा है, तो भी तुम अपने हृदय में यह अच्छी तरह जानते हो कि तुमने देखा है । इसी प्रकार जब तुम धर्म और ईश्वर को इस बाह्य जगत् की भी अपेक्षा अधिक तीव्र रूप से प्रत्यक्ष कर लेते हो, तब कुछ भी तुम्हारे विश्वास को नष्ट नहीं कर सकता। तभी सच्चा विश्वास आरम्भ होता है । यही तात्पर्य है बाइबिल की इस बात का – “जिसे एक सरसों मात्र भी विश्वास है, वह यदि पहाड़ के पास जाकर कहे कि तुम हट जाओ, तो पहाड़ भी उसकी बात सुनेगा। “तब, तुम सत्य को जान लोगे क्योंकि तुम स्वयं ही सत्यस्वरूप हो जाओगे।

वेदान्त की मूल बात यही है – धर्म का साक्षात्कार करो केवल बातें करने से कुछ न होगा। किन्तु साक्षात्कार करना बहुत कठिन है । जो परमाणु के अन्दर अति गुहा रूप से रहता है, वही पुराणपुरुष प्रत्येक मानव-हृदय के गुह्यतम प्रदेश में निवास करता है। ऋषियों ने उसे अन्तर्दृष्टि द्वारा उपलब्ध किया और सुख-दुःख दोनों के पार हो गये – धर्म और अधर्म, शुभ और अशुभ कर्म, सत् और असत् इन सब के वे पार चले गये। जिसने उस पुराणपुरुष को देखा है, उसी ने यथार्थ सत्य का दर्शन किया है । तो फिर स्वर्ग का क्या हुआ? स्वर्ग के सम्बन्ध में धारणा थी कि वह दुःखशून्य सुख है; अर्थात् हम ऐसा स्थान चाहते हैं, जहाँ संसार के सभी सुख हों और उसके दुःख बिलकुल न हों। यह है, तो अत्यन्त सुन्दर धारणा और बिलकुल स्वाभाविक भी है, पर यह पूर्णतः भ्रमात्मक है; क्योंकि पूर्ण सुख या पूर्ण दुःख नाम का कोई पदार्थ नहीं है ।

रोम में एक बड़ा धनी व्यक्ति था। उसने एक दिन जाना कि उसके पास अब केवल दस लाख पौण्ड शेष रहे हैं। उसने कहा “तब मैं कल क्या करूँगा?” और ऐसा कहकर उसने उसी समय आत्महत्या कर ली! दस लाख पौण्ड उसके लिए दारिद्र था! किन्तु हम लोगों के लिए वैसा नहीं है। वह तो हमारे सम्पूर्ण जीवन की आवश्यकता से भी अधिक है। सचमुच में, ये सुख और दुःख हैं क्या? वे तो सतत परिवर्तनशील हैं, लगातार विभिन्न रूप धारण करते रहते हैं। मैं जब छोटा था, तो सोचता था – जब मैं गाड़ीवान बनूँगा तो सुख की पराकाष्ठा को प्राप्त करूँगा। इस समय मैं ऐसा नहीं समझता। अब तुम कौन-से सुख को पकड़े रहोगे? हमें यही समझना है । प्रत्येक की सुख धारणा अलग-अलग है। मैंने एक ऐसा व्यक्ति देखा है, जो प्रतिदिन अफीम का गोला खाये बिना सुखी नहीं होता। वह ऐसे स्वर्ग की कल्पना करता है, जहाँ मिट्टी अफीम की ही बनी है । पर मेरे लिए तो वह स्वर्ग बड़ा दुःखदायी होगा। हम लोग बारम्बार अरबी कविता में पढ़ते हैं कि स्वर्ग अनेक प्रकार के मनोहर उद्यानों से पूर्ण है, उसमें अनेक नदियाँ बहती हैं। मैंने अपना अधिकांश जीवन एक ऐसे स्थान में बिताया है जहाँ जल प्रचुर मात्रा में है और जहाँ प्रतिवर्ष बाढ़ में सैकड़ों गाँव बह जाते हैं । अतएव मेरा स्वर्ग नदी और उद्यान से पूर्ण नहीं हो सकता; मेरा स्वर्ग तो ऐसा होगा, जहाँ अधिक वर्षा नहीं होती। हमारी सुखद की धारणा हमेशा बदलती रहती है। एक युवक यदि स्वर्ग की कल्पना करे तो, उसका स्वर्ग परम सुन्दर रमणियों से परिपूर्ण होगा। उसी व्यक्ति के आगे चलकर वृद्ध हो जाने पर उसे स्त्री की आवश्यकता फिर न रहेगी। हमारे प्रयोजन ही हमारे स्वर्ग का निर्माण करते हैं और हमारे प्रयोजन के परिवर्तन के साथ-साथ हमारा स्वर्ग भी भिन्न भिन्न रूप धारण करता है। यदि हम इस प्रकार के एक स्वर्ग में जाएँ, जहाँ अनन्त इन्द्रिय-सुख प्राप्त हो, तो उस जगह हमारी उन्नति नहीं हो सकती। जो विषयभोग को ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य मानते हैं, वे ही इस प्रकार के स्वर्ग की प्रार्थना करते है । यह वास्तव में मंगलकारी न होकर महान् अमंगलकारी होगा। यही क्या हमारी अन्तिम गति है? थोड़ा हँसना-रोना, उसके बाद कुत्ते के समान मृत्यु! जब तुम इन सब विषयभोगों की प्रार्थना करते हो, उस समय तुम यह नहीं जानते कि मानव जाति के लिए जो अत्यन्त अमंगलकारक है, तुम उसी की कामना कर रहे हो। इसका कारण यह है कि तुम यथार्थ आनन्द का स्वरूप नहीं जानते। वास्तव में दर्शन शास्त्र में आनन्द को त्यागने का उपदेश नहीं दिया गया है । उसमें तो यथार्थ आनन्द क्या है, बस इसी का उपदेश दिया गया है । नार्वेवासियों की स्वर्ग के सम्बन्ध में ऐसी धारणा है कि वह एक भयानक युद्धक्षेत्र है – वहाँ सब लोग जाकर ‘ओडिन’ देवता के सम्मुख बैठते हैं। कुछ समय के बाद जंगली सूअर का शिकार आरम्भ होता है । बाद में वे आपस में ही युद्ध करते हैं और एक दूसरे को खण्ड खण्ड कर डालते हैं । किन्तु इसके थोड़ी ही देर बाद किसी रूप से उन लोगों के घाव भर जाते हैं । तब वे एक बड़े कमरे में जाकर उस सूअर के मांस को पकाकर खाते तथा आमोद-प्रमोद करते हैं। उसके दूसरे दिन वह सूअर फिर से जीवित हो जाता है और फिर उसी तरह शिकार आदि होता है। यह भी हमारी ही धारणा के अनुरूप है, अन्तर इतना ही है कि हमारी धारणा कुछ अधिक परिष्कृत है । हम भी नार्वेवासियों के ही समान सूअर का शिकार करना चाहते है – एक ऐसे स्थान में जाना चाहते है, जहाँ ये विषयभोग पूर्ण मात्रा में लगातार चलते रहें ।

दर्शनशास्त्र के मत में एक ऐसा आनन्द है, जो निरपेक्ष और अपरिणामी है । वह आनन्द हमारे ऐहिक सुखोपभोग के समान नहीं है। तो भी वेदान्त प्रमाणित करता है कि इस जगत् में जो कुछ आनन्दकारी है, वह उसी यथार्थ आनन्द का अंश मात्र है, क्योंकि एकमात्र उस आनन्द का ही वास्तविक अस्तित्व है। हम प्रतिक्षण उसी ब्रह्मानन्द का उपभोग कर रहे हैं, पर यह उसका आच्छन्न, प्रान्त और विकृत रूप ही होता है। जहाँ कहीं किसी प्रकार का हर्ष, आनन्द सुख देखो, यहाँ तक कि चोरों को चोरी में जो आनन्द मिलता है, वह भी वस्तुतः वही पूर्णानन्द है, वह तरह तरह की बाह्य वस्तुओं के सम्पर्क से मलिन और धुँधला हो गया है। उसकी प्राप्ति के लिए पहले हमें नेति नेति करते हुए समस्त ऐहिक सुखभोग का त्याग करना होगा, तभी प्रकृत आनन्द का आरम्भ होगा। पहले अज्ञान का – मिथ्या का – त्याग करना होगा, तभी सत्य अपने को प्रकाशित करने लगेगा। जब हम सत्य को दृढ़तापूर्वक पकड़ सकेंगे तब पहले हमने जो कुछ भी त्याग किया था, वह फिर एक नया रूप धारण कर लेगा, एक नये आलोक में प्रकट होगा और ब्रह्ममय हो जाएगा। सब कुछ एक उदात्त भाव धारण कर लेगा और तब हम सभी पदार्थों को नवीन आलोक में देख सकेंगे। किन्तु पहले हमें उन सब का त्याग करना होगा; बाद में सत्य का आभास पाने पर हम पुनः उन सब को ग्रहण कर लेंगे पर अब ब्रह्म के रूप में। अतएव हमें सुख-दुःख सभी का त्याग करना होगा।

“सभी वेद जिसकी घोषणा करते हैं, सभी प्रकार की तपस्याएँ जिसकी प्राप्ति के लिए की जाती है, जिसे पाने की इच्छा से लोग ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करते हैं, हम संक्षेप में उसी के सम्बन्ध में तुम्हें बताएँगे, वह ‘ॐ’ है ।” वेद में इस ‘ॐ’ शब्द की अतिशय महिमा और पवित्रता वर्णित है ।

अब हम नचिकेता के प्रश्न का, कि मृत्यु के बाद मनुष्य की क्या दशा होती है उत्तर देते है। “सदा-चैतन्यवान आत्मा कभी नहीं मरती। यह न कभी जन्म लेती है और न किसी से उत्पन्न होती है । यह नित्य है, अज है, शाश्वत है, पुराण है । देह के नष्ट हो जाने पर भी वह नष्ट नहीं होती। मारनेवाला यदि सोचे कि मैं किसी को मार सकता हूँ, अथवा मरनेवाला व्यक्ति यदि सोचे कि मैं मरा हूँ, तो दोनों को ही सत्य से अनभिज्ञ समझना चाहिए : क्योंकि आत्मा न किसी को मारती है न स्वयं मृत होती है ।” यह तो बड़ी भयानक बात हुई! प्रथम श्लोक में आत्मा का जो ‘सदा- चैतन्यवान’ विशेषण है, उस पर गौर करो। क्रमशः देखोगे, वेदान्त का प्रकृत मत यह है कि आत्मा में पहले से ही पूर्ण शान, पूर्ण पवित्रता है । उसका कहीं पर अधिक प्रकाश होता है और कहीं पर कम, बस इतना ही भेद है । मनुष्य के साथ मनुष्य का अथवा इस ब्रह्माण्ड के किसी भी पदार्थ का भेद प्रकारगत नहीं है परिमाणगत है । प्रत्येक के भीतर अवस्थित सत्य तो वही एकमात्र, अनन्त, नित्यानन्दमय, नित्यशुद्ध, नित्यपूर्ण ब्रह्म है । वही यह आत्मा है। वह पुण्यशील, पापी, सुखी, दुःखी, सुन्दर, कुरूप, पशु सब में समान रूप में वर्तमान है। वह ज्योतिर्मय है । उसके प्रकाश के तारतम्य से ही नाना प्रकार का भेद दीख पड़ता है । किसी के भीतर वह अधिक प्रकाशित है और किसी के भीतर कम, किन्तु उस आत्मा में इस भेद का कोई अर्थ नहीं। एक व्यक्ति के वस्त्रों में से उसके शरीर का अधिकांश दीख पड़ता है और दूसरे व्यक्ति के वस्त्रों में से उसके शरीर का अल्पांश ही, पर इससे शरीर में किसी प्रकार का भेद नहीं हो जाता। केवल शरीर के अधिकांश या अल्पांश को आवृत करनेवाले वस्त्रों का ही भेद दीख पड़ता है। आवरण अर्थात् देह और मन के तारतम्बानुसार ही आत्मा की शक्ति और पवित्रता प्रकाशित होती है । अतएव यहाँ पर यह बात समझ लेनी है कि वेदान्तदर्शन में शुभ और अशुभ नामक दो पृथक् वस्तुएँ नहीं हैं । वही एक पदार्थ शुभ और अशुभ दोनों होता है और उनके बीच की विभिन्नता केवल परिमाणगत है । आज जिस वस्तु को हम सुखकर कहते हैं, कल कुछ अच्छी परिस्थिति प्राप्त होने पर उसी को दुःखकर कह सकते हैं। जो अग्नि हमें सर्दी से बचाती है, वही हमें भस्म भी कर सकती है, तो यह क्या अग्नि का दोष हुआ? अतएव, यदि आत्मा शुद्धस्वरूप और पूर्ण हो, तो जो व्यक्ति असत्-कार्य करता है, वह अपने स्वरूप के विपरीत आचरण करता है – वह अपने स्वरूप को नहीं जानता। एक खूनी के भीतर भी वही शुद्धस्वरूप आत्मा है। उसकी मृत्यु नहीं होती। वह उसकी भूल थी, वह उसकी ज्योति को प्रकाशित नहीं कर सका, उसको उसने आच्छादित कर रखा है । फिर जो व्यक्ति सोचता है कि वह हत हुआ उसकी भी आत्मा हत नहीं होती। आत्मा नित्य है – उसका कभी भी नाश नहीं हो सकता। “अणु से भी अणु, बृहत् से भी बृहत् वह सब का प्रभु प्रत्येक मानवहृदय के गुह्य प्रदेश में वास करता है । निष्पाप व्यक्ति प्रभु की कृपा से उसे देखकर सभी प्रकार के शोक से रहित हो जाता है । जो देह?- होकर भी देह में रहता है, जो देशविहीन होकर भी देश में रहनेवालों के समान हैं, उस अनन्त, सर्वव्यापी आत्मा को इस प्रकार जानकर ज्ञानी व्यक्ति का दुःख सम्पूर्ण रूप से दूर हो जाता है।”

“इस आत्मा को वकृता-शक्ति, तीक्ष्ण मेधा अथवा वेदाध्ययन के द्वारा नहीं पाया जा सकता।” इस प्रकार कहना ऋषियों के लिए परम साहस का कार्य था। पहले ही कहा है ऋषिगण चिन्तन-जगत् में बड़े साहसी थे । वे कहीं पर रुक जानेवाले व्यक्ति नहीं थे। हिन्दू लोग वेद को जिस सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, उस भाव से ईसाई लोग भी बाइबिल को नहीं देखते। वेद के विषय में तुम लोगों की धारणा है कि किसी मनुष्य ने ईश्वरानुप्राणित होकर उसे लिखा है; किन्तु हिन्दुओं की धारणा है कि जितने पदार्थ जगत् में हैं, उनके अस्तित्व का कारण है वेद में उनका नाम उल्लिखित होना। उनका विश्वास है कि वेद द्वारा ही जगत् की सृष्टि हुई है। जो कुछ ज्ञान कहा जाता है, वह सब वेद में ही है । जिस प्रकार आत्मा अनादि अनन्त है, उसी प्रकार वेद का प्रत्येक शब्द भी पवित्र एवं अनन्त है । सृष्टिकर्ता का सम्पूर्ण मन मानो इस ग्रन्थ में प्रकाशित है। वे इसी भाव से वेद को देखते है। यह कार्य नीतिसंगत क्यों है? – क्योंकि ऐसा वेद कहते हैं। यह कार्य अन्याय क्यों है? – क्योंकि ऐसा वेद कहते हैं। वेद के प्रति लोगों की ऐसी श्रद्धा रहने पर भी इन ऋषियों का सत्यानुसन्धान में कितना साहस है देखो! वे कहते है, ‘नहीं, बारम्बार वेद के अध्ययन से भी सत्य प्राप्त नहीं होने का। “वह आत्मा जिसके प्रति प्रसन्न होती है, उसी को वह अपना स्वरूप दिखलाती है ।” किन्तु इससे एक आशंका उठ सकती है कि तब तो आत्मा पक्षपाती है । इसलिए यम कहते है “जो असत्-कार्य करनेवाले हैं, जिनका मन शान्त नहीं है, वे इसे कभी नहीं पा सकते। जिनका हृदय पवित्र है, जिनका कार्य पवित्र है और जिनकी इन्द्रियाँ संयत है, उन्हीं के निकट यह आत्मा प्रकाशित होती है ।”

आत्मा के सम्बन्ध में एक सुन्दर उपमा दी गयी है । आत्मा को रथी, शरीर को रथ बुद्धि को सारथी मन को लगाम और इन्द्रियों को अश्वों की उपमा दी गयी है । जिस रथ के घोड़े अच्छी तरह संयत हैं, जिस रथ की लगाम मजबूत है और सारथि के द्वारा दृढ़ रूप से पकड़ी हुई है, उसका रथी विष्णु के उस परमपद को पहुँच सकता है, किन्तु जिस रथ के इन्द्रियरूप घोड़े दृढ़भाव से संयत नहीं हैं तथा मनरूपी लगाम मजबूती से पकड़ी हुई नहीं है वह रथ अन्त में विनाश -को प्राप्त होता है। सभी प्राणियों में अवस्थित आत्मा चक्षु अथवा किसी दूसरी इन्द्रिय के समक्ष प्रकाशित नहीं होती, किन्तु जिनका मन पवित्र हुआ है, वे ही उसे देख पाते हैं। जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध से अतीत है, जो अव्यय है, जिसका आदि-अन्त नहीं है, जो प्रकृति के अतीत है, अपरिणामी है, उसको जो प्राप्त करते हैं, वे मृत्युमुख से मुक्त हो जाते हैं । किन्तु उसे पाना बहुत कठिन है; यह मार्ग तेज छुरे की धार पर चलने के समान अत्यन्त दुर्गम है । मार्ग बहुत लम्बा और जोखिम का है, किन्तु निराश मत होओ, दृढ़तापूर्वक बड़े चलो, ‘उठो, जागो और उस चरम लक्ष्य पर पहुँचने तक रुको मत।’

हम देखते हैं, समस्त उपनिषदों का केन्द्रीय भाव साक्षात्कार या अपरोक्षानुभूति ही है । इसके सम्बन्ध में मन में समय समय पर अनेक प्रकार के प्रश्न उठेंगे; विशेषतः आधुनिक लोगों की ओर से। इसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में प्रश्न उठेंगे एवं और भी अनेक प्रकार के सन्देह आएँगे पर ये प्रश्न करते समय हम यह देखेंगे कि प्रत्येक बार हम अपने पूर्व-संस्कारों द्वारा परिचालित होते हैं। हमारे मन पर इन पूर्व-संस्कारों का अतिशय प्रभाव है । जो बाल्यकाल से केवल सगुण ईश्वर और मन के व्यक्तित्व (the personality of the mind) की बात सुनते आये है, उनके लिए पूर्वोक्त बातें निश्चय ही अत्यन्त कठोर और कर्कश मालूम पड़ेगी, किन्तु वे यदि उन्हें सुनें और उन पर मनन करें तो वे बातें उनकी नस-नस में भिद जाएँगी, और फिर इस तरह की बातें सुनकर वे भयभीत न होंगे। मुख्य प्रश्न है, दर्शन की उपयोगिता अर्थात् व्यावहारिकता के सम्बन्ध में। उसका केवल एक ही उत्तर दिया जा सकता है : यदि उपयोगितावादियों के मत में सुख का अन्वेषण करना ही मनुष्य का कर्तव्य है, तो जिन्हें आध्यात्मिक चिन्तन में सुख मिलता है, वे क्यों न आध्यात्मिक चिन्तन में सुख का अन्वेषण करें? अनेक लोग विषय-भोग में सुख पाने के कारण विषय-सुख का अन्वेषण करते हैं, किन्तु ऐसे अनेक व्यक्ति हो सकते है, जो उच्चतर आनन्द का अन्वेषण करते हों। कुत्ता खाने-पीने से ही सुखी हो जाता है। वैज्ञानिक कुछ तारों की स्थिति जानने के लिए ही विषय-सुख को तिलांजलि दे शायद किसी पर्वत के शिखर पर वास करता है । वह जिस अपूर्व सुख का आस्वाद पाता है, कुत्ता उसे नहीं समझ सकता। कुत्ता उसे देखकर शायद हँसे और उसे पागल कहे। हो सकता है, बेचारे वैज्ञानिक के पास विवाह करने भर को भी पैसे न रहे हों, हो सकता है, वह बड़ा सादा जीवन बिताता हो । पर हो सकता है कि कुत्ता उस पर हँसता हो। किन्तु वैज्ञानिक कहेगा, “भाई कुत्ते, तुम्हारा सुख केवल इन्द्रियों में है; तुम उसके अतिरिक्त और कोई भी सुख नहीं जानते; पर मेरे लिए तो यही सब से बढ़कर सुख है। और यदि तुम्हें अपने मनोनुकूल सुखान्वेषण का अधिकार है, तो मुझे भी है ।” हम यही भूल करते हैं कि हम समस्त जगत् को अपने ही अनुसार चलाना चाहते हैं। हम अपने ही मन को सारे जगत् का मापदण्ड बनाना चाहते हैं। तुम्हारी दृष्टि में उन पुराने इन्द्रिय-विषयों में ही सब से अधिक सुख है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मुझे भी उन्हीं में सुख मिलेगा। और जब तुम अपने मत पर अड़ने लगते हो, तो मेरा तुमसे मतभेद हो जाता है। लौकिक उपयोगितावादी (Worldly utilitarian) के साथ धार्मिक व्यक्ति का यही प्रभेद है । वे कहते हैं – “देखो हम कितने सुखी हैं । हमें पैसा मिलता है पर हम तुम्हारे धर्म-तत्त्वों को लेकर माथापच्ची नहीं करते। वे तो अनुसन्धानातीत हैं । उन सब का अन्वेषण न कर हम बड़े मजे में हैं । “यह बहुत अच्छी बात है। उपयोगितावादियों के लिए ठीक है । किन्तु यह संसार बड़ा भयानक है । यदि कोई व्यक्ति अपने भाई का कोई अनिष्ट न करके सुख प्राप्त कर सके तो ईश्वर उसकी उन्नति में सहायक हो। पर जब वह व्यक्ति आकर मुझे अपने मत के अनुसार कार्य करने का परामर्श देता है और कहता: है “यदि तुम इस तरह नहीं करते तो तुम मूर्ख हो, “तो मैं उससे कहता हूँ? “तुम गलत हो, क्योंकि तुम्हारे लिए जो सुखकर है, वह मेरे लिए बिलकुल विपरीत है । यदि मुझे सोने के चन्द टुकड़ों के लिए दौड़ना पड़े तो मैं तो मर जाऊँ। “धार्मिक व्यक्ति यही उत्तर देगा। सच तो यह है कि जिसने निम्नतर भोगवासनाओं का अन्त कर’ लिया है वही धर्माचरण कर सकता है । हमें अपने अनुभव प्राप्त करने होंगे; जहाँ तक हमारी दौड़ है वहाँ तक दौड़ लेना होगा। जब इस संसार में अपनी दौड़ पूरी कर लेते हैं, तभी हमारी दृष्टि के समक्ष परलोक का द्वार खुलता है ।

यह विषयभोग-वासना कभी कभी एक अन्य रूप लेकर आती है, ‘जो ऊपर से बड़ा रमणीय है, पर जिसमें खतरे की आशंका है। वह यह है – हम बहुत प्राचीन काल से प्रत्येक धर्म में यह धारणा पाते हैं कि एक ऐसा समय आएगा, जब संसार का समस्त दुःख समाप्त हो जाएगा, केवल सुख ही अवशिष्ट रह जाएगा और पृथ्वी स्वर्ग में परिणत हो जाएगी। पर मेरा इस बात पर विश्वास नहीं है। हमारी पृथ्वी जैसी है, वैसी ही रहेगी। यह बात कठोर तो है, किन्तु इसके अतिरिक्त मैं और कोई मार्ग नहीं देखता। यह पुरानी गठिया के समान है । उसे एक स्थान से हटा देने पर वह दूसरे स्थान में चली जाती है। कुछ भी क्यों न करो, वह किसी तरह पूर्णरूपेण दूर नहीं हो सकती। दुःख भी इसी तरह है । अति प्राचीन काल में लोग जंगल में रहा करते थे और एक दूसरे को मारकर खा लेते थे। वर्तमान काल में मनुष्य एक दूसरे का मांस नहीं खाते, परन्तु एक दूसरे को ठगा खूब करते हैं। छल-कपट से नगर के नगर, देश के देश ध्वंस हुए जा रहे हैं। निश्चय ही यह किसी अधिक उन्नति का परिचायक नहीं है। फिर, तुम लोग जिसे उन्नति कहते हो, उसे भी मैं उन्नति नहीं मानता – वह तो वासनाओं की लगातार वृद्धि मात्र है । यदि मुझे कोई बात स्पष्ट दिखती है तो वह यही है कि वासना से केवल दुःख का आगमन होता है। वह तो याचक की अवस्था है, सर्वदा ही कुछ न कुछ के लिए याचना करते रहना – बस, चाहना, चाहना, चाहना! यदि वासना पूर्ण करने की शक्ति गणितीय क्रम (arithmetical progression) से बढ़े, तो वासना की शक्ति ज्यामितीय क्रम (Geometrical progression) से बढ़ती है। इस संसार के सुख-दुःख की समष्टि सर्वदा समान है। समुद्र में यदि एक तरंग कहीं पर उठती है, तो निश्चय ही कहीं पर एक गर्त उत्पन्न होगा। यदि किसी मनुष्य को सुख प्राप्त हुआ है, तो निश्चय ही किसी दूसरे मनुष्य या पशु को दुःख हुआ है। मनुष्यों की संख्या बढ़ रही है, पर कुछ प्राणियों की संख्या घट रही है। हम उनका विनाश करके उनकी भूमि छीन रहे हैं, हम उनका समस्त खाद्यद्रव्य छीन रहे हैं। तब हम किस तरह कहें कि सुख लगातार बढ़ रहा है? सबल जाति दुर्बल जाति का ग्रास कर रही है, पर क्या तुम समझते हो कि सबल जाति इससे कुछ सुखी होगी? नहीं, वे फिर एक दूसरे का संहार करेंगी। मेरी तो समझ में नहीं आता कि व्यावहारिक दृष्टि में यह संसार कैसे स्वर्ग बन जाएगा। तथ्य उसके विरुद्ध है। सैद्धान्तिक आधारों पर भी मैं देखता हूँ कि यह कभी सम्भव नहीं है।

पूर्णता सदैव अनन्त है। हम वस्तुतः वही अनन्तस्वरूप है – अपने उसी अनन्तस्वरूप को अभिव्यक्त करने की चेष्टा कर रहे हैं। यहाँ तक तो ठीक है। पर इससे कुछ जर्मन दार्शनिकों ने एक विचित्र दार्शनिक सिद्धान्त निकाला है – वह यह कि जब तक हम पूर्ण व्यक्त नहीं हो जाते, जब तक हम सब पूर्ण पुरुष नहीं हो जाते, अनन्त क्रमशः अधिकाधिक व्यक्त होता रहेगा। पूर्ण अभिव्यक्ति का क्या अर्थ है? पूर्णता का अर्थ है अनन्त, और अभिव्यक्ति का अर्थ है सीमा, अतः इसका यह तात्पर्य हुआ कि हम असीम रूप से ससीम होंगे। पर यह स्वतः विरुद्ध है। बाल-बुद्धि इस मत से भले ही सन्तुष्ट हो जाए, पर यह उसके मन में मिथ्यारूपी विष के बीज बोना है, और धर्म के लिए तो वह बड़ा ही हानिकारक है। हम जानते हैं कि जगत् और मानव ईश्वर के भ्रष्ट भाव हैं; तुम्हारी बाइबिल में भी कहा है कि आदम पहले पूर्ण मानव था, बाद में भ्रष्ट हो गया। ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो यह न कहता हो कि मनुष्य पहले की अवस्था से आज नीचे गिर गया है। हम हीन होकर पशु हो गये हैं। अब हम फिर उन्नति के मार्ग पर चल रहे हैं, और इस बन्धन से बाहर होने का प्रयत्न कर रहे हैं, पर अनन्त को यहाँ पूरी तरह अभिव्यक्त करने में हम कभी समर्थ न होंगे। हम प्राणपण से चेष्टा कर सकते हैं, परन्तु देखेंगे कि यह असम्भव है। अन्त में एक समय आएगा जब हम देखेंगे कि जब तक हम इन्द्रियों में आबद्ध हैं, तब तक पूर्णता की प्राप्ति असम्भव है । तब हम जिस ओर बढ़ रहे थे, उसी ओर से पीछे अपने मूल अनन्त स्वरूप की ओर लौटना आरम्भ करेंगे।

यही त्याग है। तब, हम इस जाल में जिस प्रक्रिया द्वारा पड़ गये थे, उसको उलटकर उसमें से हमें बाहर निकल आना होगा – तभी नीति और दया-धर्म का आरम्भ होगा। समस्त नीति-संहिता का मूलमन्त्र क्या है? मैं नहीं मैं नहीं; तू ही, तू ही। हमारे पीछे जो अनन्त विद्यमान है उसने अपने को बहिर्जगत् में व्यक्त करने के लिए इस ‘मैं’ का रूप धारण किया है । अनन्त की अभिव्यक्ति की चेष्टा में इस ‘मैं’ -रूप फल की उत्पत्ति हुई है। अब इस ‘मैं’ को फिर पीछे लौटकर अपने अनन्त स्वरूप में मिल जाना होगा। जितनी बार तुम कहते हो ‘मैं नहीं, तू उतनी ही बार तुम लौटने की चेष्टा करते हो और जितनी बार तुम कहते हो ‘तू नहीं, मैं’ उतनी बार अनन्त को यहाँ अभिव्यक्त करने का तुम्हारा मिथ्या प्रयास होता है। इसी से संसार में प्रतिद्वन्द्विता, संघर्ष और अनिष्ट की उत्पत्ति होती है । पर अन्त में त्याग – अनन्त त्याग का आरम्भ होगा ही। यह ‘मैं’ मर जाएगा। अपने जीवन के लिए तब कौन यत्न करेगा? यहाँ रहकर इस जीवन के उपभोग करने की व्यर्थ वासना और फिर इसके बाद स्वर्ग जाकर उसी तरह रहने की वासना – अर्थात् सर्वदा इन्द्रिय-सुखों में लिप्त रहने की वासना ही मृत्यु को लाती है।

यदि हम पशुओं की विकसित अवस्था हैं, तो जिस विचार से यह सिद्धान्त उपलब्ध हुआ, उसी विचार से यह सिद्धान्त भी हो सकता है कि पशु मनुष्य की भ्रष्ट अवस्था है । तुमने यह कैसे जाना कि वैसा नहीं है? तुमने देखा है कि क्रमविकासवाद का प्रमाण केवल इतना ही है : तुम्हें निम्नतम से लेकर उच्चतम प्राणी तक क्रमशः ऊर्ध्वगामी स्तर में जानेवाले शरीरों की एक श्रेणी मिलती है। किन्तु उससे तुमने यह किस प्रकार सिद्धान्त निकाला कि उसमें गति सदा निम्नतर से उच्चतर की ही ओर हो सकती है उच्चतर से निम्नस्तर की ओर कभी नहीं? तर्क दोनों ही ओर समान रूप से लागू हो सकता है और मेरा तो विश्वास है कि एक बार नीचे से ऊपर फिर ऊपर से नीचे गति करके इस देह-श्रेणी का आवर्तन हो रहा है। क्रमसंकोचवाद स्वीकार किये बिना क्रमविकासवाद किस तरह सत्य हो सकता है? उच्चतर जीवन के निमित्त हम जो प्रयत्न करते हैं, उससे यह सिद्ध होता है कि किसी उच्च अवस्था से हमारा पतन हुआ है। ऐसा होना अनिवार्य है, केवल ब्यौरों में भिन्नता हो सकती है । मैं सर्वदा उस मत को अपनाता हूँ, जिसे ईसा, बुद्ध और वेदान्त ने एक स्वर से घोषित किया है कि समय आने पर हम सभी पूर्णता प्राप्त कर लेंगे, किन्तु इस अपूर्णता को त्याग देने के बाद ही। यह जगत् कुछ भी नहीं है – अधिक से अधिक उस सत्य का एक विकृत चित्र – उसकी एक छाया मात्र है। हमें उस सत्य तक पहुँचना ही होगा। और त्याग ही हमें सत्य तक पहुंचाएगा! नीति का अर्थ ही त्याग है। हमारे प्रकृत जीवन का प्रत्येक अंश त्याग है। हम वास्तव में जीवन के उन्हीं क्षणों में साधुता से युक्त होते हैं और प्रकृत जीवन का भोग करते हैं, जब हम ‘मैं’ की चिन्ता से विरत होते हैं। इस तुच्छ पृथक् अहंता का नाश होनी ही चाहिए। तभी हम देखेंगे कि हम सत्य में हैं वह सत्य ही ईश्वर है, वही हमारा प्रकृत स्वरूप है – वह सर्वदा हमारे साथ रहता है, वह हममें रहता है । उसी में सर्वदा वास करो, उसी में स्थित रहो। वही एकमात्र आनन्दपूर्ण अवस्था है। आत्मसंस्थ जीवन ही केवल जीवन है। आओ हम सब उस आत्मोपलब्धि के लिए प्रयास करें ।


  1. The Secret of Death (मृत्यु का रहस्य)

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सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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