सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)
“सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन” नामक यह व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने 27 अक्टूबर 1896 को लन्दन में दिया था। यह भाषण उनकी प्रसिद्ध किताब ज्ञानयोग में संकलित है। इसमें स्वामी जी बता रहे हैं कि सर्वत्र ब्रह्म या आत्मा को देखना ही प्रकृत धर्म है और वेदांत का सार है। सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन में वे बताते हैं कि त्याग का अर्थ भावना-हीन होना नहीं, बल्कि भगवान को कण-कण में देखना है। इस पुस्तक के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग।
हमने देखा कि हम अपने दुःखों को दूर करने की कितनी ही चेष्टा क्यों न करें, परन्तु फिर भी हमारे जीवन का अधिकांश भाग अवश्यमेव दुःखपूर्ण रहेगा। और यह दुःखराशि वास्तव में हमारे लिए एक प्रकार से अनन्त है। हम अनादि काल से इस दुःख के प्रतिकार की चेष्टाएँ करते आ रहे हैं, पर यह जैसा था, वैसा ही अब भी है। हम इस दुःख को दूर करने लिए जितने ही उपाय निकालते हैं, उतना ही हम देखते हैं कि जगत् में और भी कितना दुःख गुप्त भाव से विद्यमान है। हमने यह भी देखा कि सभी धर्म कहते हैं – इस दुःख-चक्र से बाहर निकलने का एकमात्र उपाय है ईश्वर। सभी धर्म कहते हैं, जैसा इस युग में व्यावहारिक लोग हमें मानने की सलाह देते हैं, कि यदि संसार को उसके परिदृश्यमान रूप में ही ग्रहण कर लिया जाए, तो फिर दुःख के सिवा और कुछ न रहेगा। वे यह भी कहते हैं – इस जगत् के अतीत और भी कुछ है। यह पंचेन्द्रियग्राह्य जीवन, यह भौतिक जीवन ही सब कुछ नहीं है – यह तो केवल एक लघु अंश मात्र है, सतही मात्र है। इसके पीछे, इसके परे वह अनन्त विद्यमान है, जहाँ दुःख का लेशमात्र भी नहीं। उसे कोई गॉड, कोई अल्लाह, कोई जिहोवा, कोई जोव और कोई और कुछ कहता है। वेदान्ती उसे ब्रह्म कहते हैं।
सभी धर्मों के उपदेशों से साधारणतः मन में यही भावना उदित होती है कि शायद आत्महत्या करना ही श्रेयस्कर है। जीवन के दुःखों का प्रतिकार क्या है, इस प्रश्न का जो उत्तर दिया 1 जाता है, उससे तो आपाततः यही बोध होता है कि जीवन का त्याग कर देना ही इसका एकमात्र उपाय है। इस उत्तर से मुझे एक प्राचीन कथा याद आती है। किसी के मुँह पर मच्छर बैठा था। उसके एक मित्र ने उस मच्छर को मारने के लिए इतने जोर से ऐसा मारा कि मच्छर के साथ ही वह मनुष्य भी मर गया! दुःख के प्रतिकार का उपाय भी मानो ठीक इसी प्रकार का संकेत देता है। जीवन और जगत् दुःखमय है, यह एक ऐसा तथ्य है, जिसे जगत् को जानने का साहस करने वाला कोई व्यक्ति अस्वीकार नहीं कर सकता।
किन्तु संसार के समस्त धर्म इसका क्या प्रतिकार बताते हैं? वे कहते हैं कि यह संसार कुछ नहीं है, इस संसार के बाहर ऐसा कुछ है, जो वास्तविक सत्य है। यहीं पर कठिनाई प्रारम्भ होती है । यह उपाय तो मानो हमें अपना सब कुछ नष्ट करके फेंक देने का उपदेश देता है । तब फिर यह प्रतिकार का उपाय कैसे होगा? तब क्या कोई उपाय नहीं है? एक उपाय और भी बतलाया जाता है । वह यह है : वेदान्त कहता है – विभिन्न धर्म जो कुछ कहते हैं, सब सत्य है, पर इसका ठीक-ठीक अर्थ समझ लेना होगा। बहुधा लोग धर्मों के उपदेशों को गलत समझ लेते हैं, और धर्म भी अपने अर्थ को स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं करते। मस्तिष्क एवं हृदय दोनों की ही हमें आवश्यकता है । अवश्य हृदय बहुत श्रेष्ठ है – हृदय के माध्यम से ही जीवन को उच्च पथ पर ले जाने वाली महान् प्रेरणाएँ आती हैं। मस्तिष्कवार पर हृदयशून्य होने की अपेक्षा मैं तो यह सौ बार पसन्द करूँगा कि मेरे कुछ भी मस्तिष्क न हो, पर थोड़ा-सा हृदय हो। जिसके हृदय है, उसी का जीवन सम्भव है, उसी की उन्नति सम्भव है; किन्तु जिसके तनिक भी हृदय नहीं, केवल मस्तिष्क है, वह सूखकर मर जाता है ।
परन्तु हम यह भी जानते है कि जो केवल अपने हृदय के द्वारा परिचालित होते हैं, उन्हें अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं, क्योंकि प्रायः ही उनके भ्रम में पड़ने की सम्भावना रहती है । हमको चाहिए – हृदय और मस्तिष्क का समन्वय। मेरे कहने का अर्थ यह नहीं कि हृदय के लिए मस्तिष्क को और मस्तिष्क के लिए हृदय को हानि पहुँचाएँ। वरन् प्रत्येक व्यक्ति का हृदय अनन्त हो और साथ ही साथ उसमें अनन्त परिमाण में विचार-बुद्धि भी रहे। इस संसार में हम जो कुछ चाहते हैं, उसकी क्या कोई सीमा है? क्या संसार अनन्त नहीं है? यहाँ तो अनन्त परिमाण में भावना के (हृदय के) विकास के लिए और उसके साथ साथ अनन्त परिमाण में बुद्धि और संस्कृति के लिए अवकाश है । वे दोनों अनन्त परिमाण में आएँ – वे दोनों समानान्तर रेखा में साथ साथ विस्तृत होते रहें ।
अधिकांश धर्म तथ्य तो समझते हैं, पर ज्ञात होता है कि सभी एक भ्रम में पड़ जाते हैं – वे सभी हृदय के द्वारा भावनाओं के द्वारा परिचालित होते हैं । संसार में दुःख है, अतएव इसका त्याग कर दो, यह बहुत अच्छा उपदेश है – एकमात्र उपदेश है इसमें सन्देह नहीं। ‘संसार का त्याग करो!’ इस विषय में कोई दो मत नहीं हो सकते कि सत्य को जानने के लिए असत्य का त्याग करना होगा – अच्छी वस्तु पाने के लिए बुरी वस्तु का त्याग करना होगा, जीवन प्राप्त करने के लिए मृत्यु का त्याग करना होगा।
पर यदि इस मतवाद का यही तात्पर्य हो कि हम जिसे जीवन नाम से समझते हैं उस पंचेन्द्रियगत जीवन का त्याग करना होगा, तब फिर हमारे पास क्या शेष रहा? और जीवन का अर्थ भी क्या है? यदि हम उसे त्याग दें तो क्या बच रहता है? जब हम वेदान्त के दार्शनिक अंश की आलोचना करेंगे तो हम इस तत्त्व को और भी अच्छी तरह समझ सकेंगे, पर अभी मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि केवल वेदान्त में इस समस्या की युक्तिसंगत मीमांसा मिलती है । यहाँ पर मैं वेदान्त का वास्तविक उपदेश क्या है, यही कहूँगा। वेदान्त शिक्षा देता है – ‘जगत् को ब्रह्मस्वरूप देखो।’
वेदान्त वास्तव में जगत् को एकदम उड़ा नहीं देना चाहता। यह ठीक है कि वेदान्त में जिस प्रकार वृत्ति वैराग्य का उपदेश है, उस प्रकार और कहीं भी नहीं है, पर इस वैराग्य का अर्थ आत्महत्या नहीं है – अपने को सुखा डालना नहीं है। वेदान्त में वैराग्य का अर्थ है, जगत् को ब्रह्मरूप देखना – जगत् को हम जिस भाव से देखते हैं, उसे हम जैसा जानते हैं, वह जैसा हमारे सम्मुख प्रतिभात होता है, उसका त्याग करना और उसके वास्तविक स्वरूप को पहचानना। उसे ब्रह्म स्वरूप देखो – वास्तव में वह ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है; इसी कारण सब से प्राचीन उमनिषद् में हम देखते हैं, ईशावास्यमिद सर्व यत्किंच जगत्या जगत्’ – ‘जगत् में जो कुछ है, वह सब ईश्वर से ढक लेना होगा।’2
समस्त जगत् को ईश्वर से ढक लेना होगा। यह किसी मिथ्या आशावादिता से नहीं जगत् के अशुभ और दुःख-कष्ट के प्रति आँखें मीचकर नहीं, वरन् वास्तविक रूप से प्रत्येक वस्तु के भीतर ईश्वर के दर्शन द्वारा करना होगा। इसी प्रकार हमें संसार का त्याग करना होगा। और जब संसार का त्याग कर दिया, तो शेष क्या रहा? ईश्वर। इस उपदेश का तात्पर्य क्या है? यही कि तुम्हारी पत्नी भी रहे उससे कोई हानि नहीं, उसको छोड़कर जाना नहीं होगा, वरन् इसी पत्नी में तुम्हें ईश्वरदर्शन करना होगा। सन्तान का त्याग करो – इसका क्या अर्थ है? क्या बाल-बच्चों को लेकर रास्ते में फेंक देना होगा, जैसा कि सभी देशों में कुछ नर-पशु करते हैं? नहीं, कभी नहीं! वह तो पैशाचिक काण्ड’ है – वह धर्म नहीं है। तो फिर क्या? उनमें ईश्वर का दर्शन करो। इसी प्रकार सभी वस्तुओं के सम्बन्ध में जानो। जीवन में, मरण में सुख में, दुःख में – सभी अवस्थाओं में ईश्वर समान रूप से विद्यमान है । केवल आँखें खोलकर उसके दर्शन करो। वेदान्त यही कहता है; तुमने जगत् की जिस रूप में कल्पना कर रखी है, उसे छोड़ो क्योंकि तुम्हारी कल्पना अत्यन्त आशिक अनुभूति पर – क्षीण तर्क और युक्ति पर, तुम्हारी अपनी दुर्बलता पर आधारित है। उसे त्याग दो; हम इतने दिन जगत् को जैसा सोचते थे, इतने दिन जिसमें अत्यन्त आसक्त थे, वह तो हमारे द्वारा रचित एक मिथ्या जगत् है – उसको छोड़ो। आँखें खोलकर देखो, हम अब तक जिस रूप में जगत् को देख रहे थे, वास्तव में उसका अस्तित्व वैसा कभी नहीं था – वह स्वप्न था, माया थी। जो था, वह था एकमात्र प्रभु। वे ही सन्तान के भीतर वे ही पत्नी में, वे ही पति में, वे ही अच्छे में, वे ही बुरे में वे ही पाप में, वे ही पापी में, वे ही हत्याकारी में, वे ही जीवन में और वे ही मरण में वर्तमान हैं ।
यह कथन अवश्य ही भयानक है । किन्तु वेदान्त इसी को प्रमाणित करना, इसी की शिक्षा देना और प्रचार करना चाहता है। इसी विषय को लेकर वेदान्त का प्रारम्भ होता है।
हम बस इसी प्रकार सर्वत्र ब्रह्मदर्शन करके ही जीवन की विपत्तियों और दुःखों को टाल सकते हैं। कुछ इच्छा मत करो। कौन हमें दुःखी करता है? हम जो कुछ दुःख-भोग करते हैं, वह वासना से ही उत्पन्न होता है। मान लो, तुम्हें कुछ चाहिए। और जब वह पूरा नहीं होता, तो फल होता है – दुःख। यदि इच्छा न रहे, तो दुःख भी नहीं होगा। यहाँ भी मुझे गलत समझ लेने की आशंका है, अतः यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि वासनाओं, इच्छाओं के त्याग तथा समस्त दुःख से मुक्त हो जाने से मेरा आशय क्या है। दीवार में कोई वासना नहीं है, वह कभी दुःख नहीं भोगती। ठीक है, पर वह कभी उन्नति भी तो नहीं करती। इस कुर्सी में कोई वासना नहीं है, कोई कष्ट भी उसे नहीं हैं, परन्तु यह कुर्सी की कुर्सी ही रहेगी। सुख-भोग के भीतर भी एक गरिमा है, और दुःख-भोग के भीतर भी। यदि साहस करके कहा जाए, तो यह भी कह सकते हैं कि दुःख की उपयोगिता भी है। हम सभी जानते हैं कि दुःख से कितनी बड़ी शिक्षा मिलती है। हमने जीवन में ऐसे सैकड़ों कार्य किये हैं, जिनके बारे में बाद में हमें लगता है कि वे न किये जाते तो अच्छा होता, पर तो भी इन सब कार्यों ने हमारे लिए महान् शिक्षक का कार्य किया है। मैं अपने सम्बन्ध में कह सकता हूँ कि मैंने कुछ अच्छे कार्य किये है, यह सोचकर भी मैं आनन्दित हूँ और अनेक बुरे कार्य किये हैं, यह सोचकर भी आनन्दित हूँ – मैंने कुछ सत्कार्य किया है, इसलिए भी सुखी हूँ और अनेक भूलें की हैं इसलिए भी सुखी हूँ, क्योंकि उनमें से प्रत्येक ने मुझे कुछ न कुछ उच्च शिक्षा दी है। मैं इस समय जो कुछ हूँ, वह अपने पूर्व-कर्मों और विचारों का फलस्वरूप हूँ। प्रत्येक कार्य और विचार का एक न एक फल हुआ है और ये फल ही मेरी उन्नति की समष्टि है।
अब यहाँ एक कठिन समस्या आती है। हम सभी जानते है कि वासना बड़ी बुरी चीज है, पर वासना-त्याग का अर्थ क्या है? फिर शरीर-रक्षा किस प्रकार होगी? इसका आत्मघाती उत्तर भी पहले की भांति आपाततः यही मिलेगा कि वासना का संहार करो और उसके साथ ही वासनायुक्त मनुष्य को भी मार डालो। पर यथार्थ समाधान यह है ऐसी बात नहीं कि तुम धन-सम्पत्ति न रखो आवश्यक वस्तुएँ और विलास की सामग्री न रखो। तुम जो जो आवश्यक समझते हो सब रखो यहाँ तक की उससे अतिरिक्त वस्तुएँ भी रखो। इससे कोई हानि नहीं। पर तुम्हारा प्रथम और प्रधान कर्तव्य है – सत्य को जान लेना उसको प्रत्यक्ष कर लेना। यह धन किसी का नहीं है। किसी भी पदार्थ में स्वामित्व का भाव मत रखो । तुम भी कोई नहीं हो, मैं भी कोई नहीं हूँ? कोई भी कोई नहीं है । सब उस प्रभु की ही वस्तुएँ है; क्योंकि ईशोपनिषद् के प्रथम श्लोक में ही ईश्वर को सर्वत्र स्थापित करने के लिए कहा गया है । ईश्वर तुम्हारे भोग्य धन में है, तुम्हारे मन में जो सब वासनाएँ उठती हैं, उनमें है, अपनी वासना से प्रेरित हो तुम जो, जो द्रव्य खरीदते हो, उनमें भी वही है, तुम्हारे सुन्दर वसों में भी वह है, और तुम्हारे सुन्दर अलंकारों में भी वही है। इसी प्रकार विचार करना पड़ेगा। इसी प्रकार सब वस्तुओं को देखने पर, तुम्हारी दृष्टि में सब कुछ परिवर्तित हो जाएगा। यदि तुम अपनी प्रत्येक गति में अपने वस्त्रों में अपने वार्तालाप में अपने शरीर में अपने चेहरे में – सभी वस्तुओं में भगवान् की स्थापना कर लो, तो तुम्हारी आँखों में सम्पूर्ण दृश्य बदल जाएगा और जगत् दुःखमय प्रतीत न होकर स्वर्ग में परिणत हो जाएगा।
‘स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है’ ईसा कहते है। वेदान्त तथा सभी उपदेष्टा यही कहते हैं । ‘जिसके पास देखने के लिए आंख है, वह देखे, जिसके पास सुनने के लिए कान है, वह सुने।’ वह पहले से ही तुम्हारे अन्दर मौजूद है । वेदान्त यह सिद्ध करता है कि जिस सत्य को अज्ञान के कारण हम सोचते थे कि हमने उसे खो दिया है, और सारी दुनिया में उसको पाने के लिए रोते-रोते कष्ट भोगते घूमते-फिरते रहे, वह सदा ही हमारे हृदय के अन्तस्तल में वर्तमान था। उसे हम वहीं पा सकते हैं ।
यदि ‘संसार का त्याग करो’ इस उपदेश को उसके प्राचीन स्थूल अर्थ में ग्रहण किया जाए, तो निष्कर्ष यही निकलता है कि हमें कोई कार्य करने की आवश्यकता नहीं, आलसी होकर मिट्टी के ढेले की भाँति बैठे रहना ही ठीक होगा, कोई विचार या कार्य करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं अदृष्टवादी होकर, घटना-चक्र की लथाड़ें खाकर, प्राकृतिक नियमों द्वारा परिचालित होकर इधर-उधर घूमते रहने से ही काम चल जाएगा। बस यही निष्कर्ष निकलता है। किन्तु पूर्वक उपदेश का अर्थ वास्तव में यह नहीं है। हम लोगों को कार्य अवश्यमेव करना पड़ेगा। व्यर्थ की वासनाओं के चक्र में पड़कर इधर-उधर भटकते फिरनेवाले साधारण जन कार्य के सम्बन्ध में भला क्या जानें? जो व्यक्ति अपनी भावनाओं और इन्द्रियों से परिचालित है, वह भला कार्य को क्या समझे? कार्य वही कर सकता है, जो किसी वासना के द्वारा, किसी स्वार्थ के द्वारा परिचालित नहीं होता। वे ही कार्य करते हैं, जिनकी कोई कामना नहीं है । वे ही कार्य करते हैं, जो बदले में किसी लाभ की आशा नहीं रखते।
एक चित्र से अधिक आनन्द कौन प्राप्त करता है – चित्र का बेचनेवाला अथवा देखनेवाला? विक्रेता तो अपने हिसाब-किताब में ही व्यस्त रहता है, मुझे कितना लाभ होगा इत्यादि चिन्ताओं में ही मग्न रहता है। उसके मस्तिष्क में यही सब घूमता रहता है। वह केवल नीलाम के हथौड़े की ओर लक्ष्य रखता है और क्या भाव पड़ा यही सुनता रहता है । भाव किस तरह बढ़ता जा रहा है, यही सुनने में वह व्यस्त है। फिर चित्र का आनन्द वह ले कब? वे ही चित्र का आनन्द ले सकते हैं, जिनको उस चित्र की बिक्री-खरीद से कोई मतलब नहीं। वे चित्र की ओर ताकते रहते हैं और असीम आनन्द का उपभोग करते हैं । इसी प्रकार यह समग्र ब्रह्माण्ड एक चित्र के समान है; जब वासना बिलकुल चली जाएगी, तभी लोग जगत् का आनन्द ले सकेंगे; तब यह बेचने-खरीदने का भाव, यह भ्रमात्मक स्वामित्व का भाव नहीं रह जाएगा। उस समय न ऋण देनेवाला है, न खरीदनेवाला है, न बेचनेवाला है, उस समय जगत् एक सुन्दर चित्र के समान हो जाता है । ईश्वर के सम्बन्ध में इतनी सुन्दर बात मैंने और कहीं नहीं देखी – ‘वह महान् कवि है, प्राचीन कवि है – समस्त जगत् उसकी कविता है, वह अनन्त आनन्दोच्छ्वास में लिखी हुई है और नाना प्रकार के श्लोकों, छन्दों और तालों में प्रकाशित है ।’ वासना का त्याग करने पर ही हम ईश्वर की इस विश्व-कविता का पाठ और उपभोग कर सकेंगे। उस समय सारी वस्तुएँ ब्रह्मभाव धारण कर लेंगी। संसार का प्रत्येक कोना, प्रत्येक अँधेरी गली बीहड़ मार्ग और सभी गुप्त अन्धकारमय स्थान, जिन्हें हमने पहले इतना अपवित्र समझा था, ब्रह्मभाव धारण कर लेंगे। वे सभी अपना प्रकृत स्वरूप प्रकाशित करेंगे। तब हम अपने आप पर हँसेंगे और सोचेंगे, ‘यह सब रोना-चिल्लाना केवल बच्चों का खेल था, और हम जननी के समान खड़े होकर यह खेल देख मात्र रहे थे। ’
वेदान्त कहता है कि इस प्रकार के भाव से कार्य करो। वेदान्त हमें पहले इस आपातत: दिखनेवाले माया के जगत् का त्याग कर काम करने की शिक्षा देता है। इस त्याग का क्या अर्थ है? पहले ही कहा जा चुका है कि त्याग का प्रकृत अर्थ है – सब जगह ईश्वर-दर्शन। सब जगह ईश्वर- बुद्धि कर लेने पर ही हम वास्तविक कार्य करने में समर्थ होंगे। यदि चाहो, तो सौ वर्ष जीने की इच्छा करो; जितनी भी सांसारिक वासनाएँ हैं, सब का भोग कर लो, पर हाँ उन सब को ब्रह्ममय देखो उनको स्वर्गीय भाव में परिणत कर लो। यदि जीना चाहो तो इस पृथ्वी पर दीर्घ काल तक सेवापूर्ण, आनन्दपूर्ण और क्रियाशील जीवन बिताने की इच्छा करो। इस प्रकार कार्य करने पर तुम्हें वास्तविक मार्ग मिल जाएगा। इसको छोड़ अन्य कोई मार्ग नहीं है। जो व्यक्ति सत्य को न जानकर अबोध की भांति संसार के भोगविलास में निमग्न हो जाता है, समझ लो कि उसे ठीक मार्ग नहीं मिला, उसका पैर फिसल गया है । दूसरी ओर जो व्यक्ति संसार को कोसता हुआ वन में चला जाता है अपने शरीर को कष्ट देता रहता है, धीरे धीरे सुखाकर अपने को मार डालता है, अपने हृदय को शुष्क मरुभूमि बना डालता है, अपने सभी भावों को कुचल डालता है और कठोर वीभत्स और रूखा हो जाता है, समझ लो कि वह भी मार्ग भूल गया है । ये दोनों दो छोर की बातें हैं – दोनों ही भ्रम में हैं – एक इस ओर और दूसरा उस ओर। दोनों ही पथभ्रष्ट है – दोनों ही लक्ष्यभ्रष्ट हैं।
वेदान्त कहता है, इसी प्रकार कार्य करो – सभी वस्तुओं में ईश्वर- बुद्धि करो, समझो कि ईश्वर सब में है, अपने जीवन को भी ईश्वर से अनुप्राणित, यहाँ तक कि ईश्वररूप ही समझो। यह जान लो कि यही हमारा एकमात्र कर्तव्य है, यही हमारे लिए जानने की एकमात्र वस्तु है। ईश्वर सभी वस्तुओं में विद्यमान है, उसे प्राप्त करने के लिए और कहाँ जाओगे? प्रत्येक कार्य में, प्रत्येक भाव में, प्रत्येक विचार में वह पहले से ही अवस्थित है। इस प्रकार समझकर हमें कार्य करते जाना होगा। यही एकमात्र पथ है, अन्य नहीं। इस प्रकार करने पर कर्मफल तुमको लिप्त न कर सकेगा। फिर कर्मफल तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं कर पाएगा। हम देख चुके हैं कि हम जो कुछ दुःख-कष्ट भोगते हैं, उसका कारण है, ये सब व्यर्थ की वासनाएँ। परन्तु जब ये वासनाएँ ईश्वर-बुद्धि के द्वारा पवित्र भाव धारण कर लेती हैं, ईश्वरस्वरूप हो जाती हैं, तब उनके आने से भी फिर कोई अनिष्ट नहीं होता। जिन्होंने इस रहस्य को नहीं जाना है, वे जब तक इसे नहीं जान लेते, तब तक उन्हें इसी आसुरी जगत् में रहना पड़ेगा। लोग नहीं जानते कि यहाँ उनके चारों ओर, सर्वत्र कैसी अनन्त आनन्द की खान पड़ी हुई है; वे उसे अभी तक खोज निकाल नहीं पाये। आसुरी जगत् का अर्थ क्या है? वेदान्त कहता है – अज्ञान।
हम अनन्त जल से भरी हुई नदी के तट पर बैठकर भी प्यासे मर रहे हैं। ढेरों खाद्य सामने रखा है, फिर भी हम भूखों मर रहे हैं। यह तो रहा आनन्दमय जगत् पर हम उसे खोज नहीं पाते। हम उसी में रह रहे हैं। वह सर्वदा ही हमारे चारों ओर है, पर हम उसे सदैव और कुछ समझकर भ्रम में पड़ जाते हैं। धर्म हमें उस आनन्दमय जगत् को दिखा देना चाहता है। सभी हृदय इस आनन्द की खोज कर रहे हैं। सभी जातियों ने इसकी खोज की है, धर्म का यही एकमात्र लक्ष्य है, और यह आदर्श ही विभिन्न धर्मों में भिन्न-भिन्न भाषाओं में प्रकाशित हुआ है। भिन्न-भिन्न धर्मों में जो मतभेद हैं, वे सब केवल बोलने के दाँव-पेंच हैं, वास्तव में वे कुछ भी नहीं है । एक व्यक्ति एक भाव को एक प्रकार से प्रकट करता है, दूसरा दूसरे प्रकार से। एक जो कुछ कहता है, दूसरा भी दूसरी भाषा में शायद वही बात कहता है ।
इस सम्बन्ध में अब और भी प्रश्न उठते हैं । जो ऊपर कहा गया है, उसे मुँह से कह देना तो अत्यन्त सरल है । बचपन से ही सुनता आ रहा हूँ – ‘सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि करो, सब ब्रह्ममय हो जाएगा और तब तुम दुनिया का ठीक-ठीक आनन्द उठा सकोगे’ पर ज्योंही हम संसारक्षेत्र में उतरकर कुछ धक्के खाते है, त्योंही हमारी सारी ब्रह्मबुद्धि उड़ जाती है । मैं मार्ग में सोचता जा रहा हूँ कि सभी मनुष्यों में ईश्वर विराजमान हैं – इतने में एक बलवान् मनुष्य मुझे धक्का दे जाता है और मैं चारो खाने चित हो जाता हूँ। बस, झट मैं उठता हूँ, सिर में खून चढ़ जाता है, मुट्ठियाँ बँध जाती हैं और मैं विचारशक्ति खो बैठता हूँ। मैं बिलकुल पागल सा हो जाता हूँ। स्मृति का भ्रंश हो जाता है और बस मैं उस व्यक्ति में ईश्वर को न देख शैतान देखने लगता हूँ। जन्म से ही उपदेश मिलता है, सर्वत्र ईश्वर-दर्शन करो; सभी धर्म यही सिखाते हैं – सभी वस्तुओं में, सब प्राणियों के अन्दर सर्वत्र ईश्वर-दर्शन करो । ‘नव व्यवस्थान’ में ईसा मसीह ने भी इस विषय में स्पष्ट उपदेश दिया है। हम सभी ने यह उपदेश पाया है; पर काम के समय ही हमारी सारी अड़चनें आरम्भ हो जाती हैं । ईसप की कहानियों में एक कथा है । एक विशालकाय सुन्दर हरिण तालाब में अपना प्रतिबिम्ब देखकर अपने बच्चे से कहने लगा, “देखो मैं कितना बलवान् हूँ? मेरा मस्तक कैसा भव्य है, मेरे हाथ-पाँव कैसे दृढ़ और मांसल हैं, और मैं कितना तेज दौड़ सकता हूँ!” यह कहते न कहते उसने दूर से कुत्तों के भौंकने का शब्द सुना। सुनते ही वह जोर से भागा । बहुत दूर दौड़ने के बाद हाँफते-हाँफते फिर बच्चे के पास आया। बच्चा बोला, “अभी तो तुम कह रहे थे, मैं बड़ा बलवान् हूँ, फिर कुत्तों का शब्द सुनकर भागे क्यों?” हरिण बोला, “यही तो बात है, कुत्तों की भों-भों सुनते ही मेरा सारा ज्ञान लुप्त हो जाता है । “हम लोग भी जीवन भर यही करते रहते हैं । हम इस दुर्बल मनुष्यजाति के सम्बन्ध में कितनी आशाएँ क्यों न बाँधे, हम अपने को कितने साहसी और बलवान् क्यों न समझें, हम कितने भव्य संकल्प क्यों न करें, पर जब संकट और प्रलोभन के ‘कुत्ते’ भौंकते हैं, हम कथा के हरिण की भाँति भाग खड़े होते हैं । यदि ऐसा ही है तो फिर यह सब शिक्षा देने का क्या लाभ? नहीं अत्यधिक लाभ है। लाभ यह है कि अन्त में अध्यवसाय की ही जय होगी। एक ही दिन में कुछ नहीं हो सकता।
‘आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:।’ आत्मा के सम्बन्ध में पहले सुनना होगा, उसके बाद मनन अर्थात् चिन्तन करना होगा, और फिर लगातार ध्यान करना होगा। सभी लोग आकाश को देख पाते हैं, भूमि पर रेंगनेवाले छोटे कीड़े भी ऊपर की ओर दृष्टि करने पर नीलवर्ण आकाश को देखते हैं, पर वह हमसे कितनी दूर है! हमारे आदर्शों के सम्बन्ध में भी यही बात है । आदर्श हमसे बहुत दूर है और हम उनसे बहुत नीचे पड़े हुए है, तथापि हम जानते हैं कि हमें एक आदर्श अपने सामने रखना आवश्यक है । इतना ही नहीं, हमें सर्वोच्च आदर्श रखना आवश्यक है । अधिकांश व्यक्ति इस जगत् में बिना किसी आदर्श के ही जीवन के इस अन्धकारमय पथ पर भटकते फिरते हैं । जिसका एक निर्दिष्ट आदर्श है, वह यदि एक हजार भूलें करता है, तो यह निश्चित है कि जिसका कोई भी आदर्श नहीं है, वह पचास हजार भूलें करेगा। अतएव एक आदर्श रखना अच्छा है। इस आदर्श के सम्बन्ध में जितना हो सके, सुनना होगा; तब तक सुनना होगा, जब तक वह हमारे अन्तर में प्रवेश नहीं कर जाता, हमारे मस्तिष्क में पैठ नहीं जाता, जब तक वह हमारे रक्त में प्रवेश कर उसकी एक एक बूँद में पुल-मिल नहीं जाता, जब तक वह हमारे शरीर के अणु-परमाणु में व्याप्त नहीं हो जाता। अतएव पहले हमें यह आत्मतत्त्व सुनना होगा। कहा है, “हृदय पूर्ण होने पर मुख बोलने लगता है” और हृदय के इस प्रकार पूर्ण होने पर हाथ भी कार्य करने लगते हैं।
विचार ही हमारी कार्य-प्रवृत्ति का नियामक है। मन को सर्वोच्च विचारों से भर लो, दिन पर दिन यही सब भाव सुनते रहो मास पर मास इसी का चिन्तन करो । पहले-पहल सफलता न भी मिले; पर कोई हानि नहीं, यह असफलता तो बिलकुल स्वाभाविक है, यह मानव-जीवन का सौन्दर्य है । इन असफलताओं के बिना जीवन क्या होता? यदि जीवन में इस असफलता को जय करने की चेष्टा न रहती तो, जीवन-धारण करने का कोई प्रयोजन ही न रह जाता। उसके न रहने पर जीवन का कवित्व कहाँ रहता? यह असफलता, यह भूल रहने से हर्ज भी क्या? मैंने गाय को कभी झूठ बोलते नहीं सुना, पर वह सदा गाय ही रहती है, मनुष्य कभी नहीं हो जाती। अतएव यदि बार बार असफल हो जाओ, तो भी क्या? कोई हानि नहीं, सहस्र बार इस आदर्श को हृदय में धारण करो, और यदि सहस्र बार भी असफल हो जाओ, तो एक बार फिर प्रयत्न करो। सब जीवों में ब्रह्मदर्शन ही मनुष्य का आदर्श है । यदि सब वस्तुओं में उसको देखने में तुम सफल न होओ, तो कम से कम एक ऐसे व्यक्ति में, जिसे तुम सब अधिक प्रेम करते हो, उसके दर्शन करने का प्रयत्न करो, उसके बाद दूसरे व्यक्ति में दर्शन करने की चेष्टा करो। इसी प्रकार तुम आगे बढ़ सकते हो। आत्मा के सन्मुख तो अनन्त जीवन पड़ा हुआ है – अध्यवसाय के साथ लगे रहने पर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी।
“वह अचल है, एक है, मन से भी अधिक द्रुतस्पन्दनशील है। इसे इन्द्रियाँ प्राप्त नहीं कर सकीं, क्योंकि यह उन सब से पहले गया हुआ है । वह स्थिर रहकर भी अन्यान्य द्रुतगामी पदार्थों से आगे जानेवाला है । उसमें रहकर ही हिरण्यगर्भ सब कर्मफलों का विधान करते हैं। वह चंचल है, स्थिर है, दूर है, निकट है, वह इस सब के भीतर है, फिर इस सबके बाहर भी है । जो आत्मा में सब भूतों का दर्शन करते हैं, और सब भूतों में आत्मा का दर्शन करते हैं, वे कुछ भी छिपाने की इच्छा नहीं करते। जिस अवस्था में ज्ञानी के लिए समस्त भूत आत्मस्वरूप हो जाते हैं, उस अवस्था में उस एकत्वदर्शी पुरुष को शोक अथवा मोह कहाँ रह सकता है?”3
सब पदार्थों का यह एकत्व वेदान्त का और एक प्रधान विषय है। हम आगे चलकर देखेंगे कि किस प्रकार वेदान्त सिद्ध करता है कि हमारा समस्त दुःख अज्ञान से उत्पन्न हुआ है। यह अज्ञान और कुछ नहीं, बल्कि यही बहुत्व की धारणा है – यह धारणा कि मनुष्य मनुष्य से भिन्न है, पुरुष और स्त्री भिन्न हैं, युवा और शिशु भिन्न हैं, राष्ट्र राष्ट्र से भिन्न है, पृथ्वी चन्द्र से पृथक् है, चन्द्र सूर्य से पृथक् है, एक परमाणु दूसरे परमाणु से पृथक् है । ऐसा बोध ही वास्तव में सब दुःखों का कारण है । वेदान्त कहता है कि यह भेद वास्तविक नहीं है । यह भेद केवल भासित होता है, ऊपर से दीख पड़ता है । वस्तुओं के अन्तस्तल में वही एकत्व विराजमान है। यदि तुम भीतर जाकर देखो, तो इस एकत्व को देखोगे – मनुष्य-मनुष्य में एकत्व, नर-नारी में एकत्व, जाति-जाति में एकत्व ऊँच-नीच में, एकत्व, धनी और । दरिद्र में एकत्व, देवता और मनुष्य में एकत्व, मनुष्य और पशु में एकत्व। सभी तो एक हैं। और यदि और भी भीतर प्रवेश करो, तो देखोगे – अन्य प्राणी भी एक ही हैं । जो इस प्रकार एकत्वदर्शी हो चुके हैं, उनको फिर मोह नहीं रहता। वे अब उसी एकत्व में पहुँच गये हैं, जिसको धर्मविज्ञान में ईश्वर कहते हैं। उनको अब मोह कैसे रह सकता है? मोह उनको होगा ही कैसे? उन्होंने सभी वस्तुओं का आभ्यन्तरिक सत्य जान लिया है, सभी वस्तुओं का रहस्य जान लिया है । उनके लिए अब दुःख कैसे रह सकता है? वे अब किसकी कामना-वासना करेंगे? वे सारी वस्तुओं के अन्दर वास्तविक सत्य की खोज करके ईश्वर तक पहुँच गये हैं, जो जगत् का केन्द्रस्वरूप है, जो सभी वस्तुओं का एकत्व-स्वरूप है । यही अनन्त सत्ता तदेजति है, यही अनन्त ज्ञान है, यही अनन्त आनन्द है । वहाँ मृत्यु नहीं, रोग नहीं, दुःख नहीं, शोक नहीं, अशान्ति नहीं। है केवल पूर्ण एकत्व – पूर्ण आनन्द। तब वे किसके लिए शोक करेंगे? वास्तव में उस केन्द्र में, उस परम सत्य में मृत्यु नहीं है, दुःख नहीं है, किसी के लिए शोक करना नहीं है, किसी के लिए दुःख करना नहीं है।
“वह चारों ओर से घेरे हुए है, वह उज्वल है, देहशून्य है व्रणशून्य है, स्नायुशून्य है, वह पवित्र और निष्पाप है, वह कवि है, मन का नियामक है, सब से श्रेष्ठ और स्वयम्पू है, वह सर्वदा ही यथायोग्य सभी की काम्य वस्तुओं का विधान करता है,।”4 जो इस अविद्यामय जगत् की उपासना करता है, वह अन्धकार में प्रवेश करता है। जो इस जगत् को ब्रह्म के समान सत्य समझकर उसकी उपासना करता है, वह अन्धकार में भटकता है। और जो आजीवन इस संसार की ही उपासना करता है, उससे ऊपर और कुछ भी नहीं पाता, वह तो और भी घने अन्धकार में भटकता है । किन्तु जिन्होंने इस परम सुन्दर प्रकृति का रहस्य जान लिया है, जो प्रकृति की सहायता से प्रकृति के परे ब्रह्म का दर्शन करते है, वे मृत्यु का अतिक्रमण करते हैं एवं प्रकृति के परे ब्रह्म की कृपा से अमरत्व का लाभ करते हैं।
“हे सूर्य, स्वर्ण के पात्र द्वारा तुमने सत्य का मुख ढक रखा है। उसे तुम हटा दो, जिससे मुझ सत्यधर्मा को उसका दर्शन हो सके। तुम्हारे भीतर जो सत्य है, उसे मैंने जान लिया; तुम्हारी किरण और तुम्हारी महिमा का यथार्थ अर्थ मैंने समझ लिया, और तुममें जो चमकता है, उसका भी मैंने दर्शन किया; मैं तुम्हारा परम रमणीय रूप देखता हूँ। तुम्हारे अन्दर जो यह पुरुष है, वही मैं हूँ।”
- ईशोपनिषद् १
- ‘अनेजदेक मनसो जवीयो नैनहेक अनुचर पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोपुन्यानत्येति तिष्ठत् तस्मित्रपो मातरिश्वा दधाति। ।
तत्देज्ति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत: । ।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेपु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते। ।
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवावृद्वजानत: ।
तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत: । । – ईशोपनिषद् ४-७ - स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविर शुद्धमपापविद्धम् कविर्मनीषी परिभूः
स्वयम्यूर्याथातव्यतोर्ग्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाप्य: । । – ईशोपनिषद् – ८ - हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखर तत्त्व पूषत्रपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये। ।
तेजो यत्ते रूप कल्याणतर्म तत्ते पश्यामि। योऽसावसौ पुरुष: सोपृहमस्मि।
ईशोपनिषद, १५, १६
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