ज्ञानयोग पर अष्टम प्रवचन – स्वामी विवेकानंद
“ज्ञानयोग पर अष्टम प्रवचन” में स्वामी विवेकानंद बताते हैं कि कैसे व्यक्ति सुख-दुःख से परे जा सकता है और आपने स्वरूप का साक्षात्कार कर सकता है। पढ़ें “ज्ञानयोग पर अष्टम प्रवचन”। स्वामी विवेकानंद की प्रस्तुत पुस्तक के शेष प्रवचन पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग पर प्रवचन।
सुख और दुःख दोनों ही जंजीरें हैं, एक स्वर्णिम और दूसरी लौह; किन्तु दोनों ही हमें बांधने के लिए एक समान दृढ़ हैं और अपने वास्तविक स्वरूप के साक्षात्कार करने में हमें रोकती हैं। आत्मा दुःख या सुख नहीं जानती। ये तो केवल स्थितियाँ है और स्थितियाँ अवश्य सदैव बदलती रहती है। आत्मा का स्वभाव आनन्द और अपरिवर्तनीय शान्ति है। हमें इसे ‘पाना’ नहीं है, वह हमें ‘प्राप्त’ है। आओ, हम अपनी आँखों से कीचड़ धो डालें और उसे देखें। हमें आत्मा में सदैव प्रतिष्ठित रहकर पूर्ण शान्ति के साथ संसार की दृश्यावली को देखना चाहिए। वह तो केवल शिशु का खेल मात्र है और उससे हमें कभी क्षुब्ध न होना चाहिए। यदि मन प्रशंसा से प्रसन्न हो तो वह निन्दा से दुःखी होगा। इन्द्रियों के या मन के भी सभी आनन्द क्षणभंगुर हैं, किन्तु हमारे अन्तर में एक सच्चा असम्बद्ध आनन्द है, जो किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं है । ‘यह आत्मा का आनन्द ही है, जिसे संसार धर्म कहता है।’ जितना ही अधिक हमारा आनन्द हमारे अन्तर में होगा, उतने ही अधिक हम आध्यात्मिक होंगे। हम आनन्द के लिए संसार पर निर्भर न हों।
कुछ दीन मछुआ स्त्रियों ने भीषण तूफान में फँसकर एक सम्पन्न व्यक्ति के बगीचे में शरण पायी। उसने उनका दयापूर्वक स्वागत किया, उन्हें भोजन दिया और जिनके सुवास से वायुमण्डल परिपूर्ण था, ऐसे पुष्पों से घिरे हुए एक सुन्दर ग्रीष्मवास में विश्राम करने के लिए छोड़ दिया। स्त्रियाँ इस सुगन्धित स्वर्ग में लेटीं तो, किन्तु सो न सकीं। उन्हें अपने जीवन से कुछ खोया हुआ-सा जान पड़ा और उसके बिना वे सुखी न हो सकीं। अन्त में एक स्त्री उठी और उस स्थान को गयी जहाँ कि वे अपनी मछली की टोकरियाँ छोड़ आयी थीं। वे उन्हें ग्रीष्मवास में ले आयीं और तब एक बार फिर परिचित गन्ध से सुखी होकर वे सब शीघ्र ही गहरी नींद में सो गयीं।
संसार मछली की हमारी वह टोकरी न बन जाय, जिस पर हमें आनन्द के लिए निर्भर होना पड़े। यह तामसिक या तीनों (गुणों) में से निम्नतम द्वारा बँधना है। इनके बाद वे अहंवादी आते हैं जो सदैव ‘मैं’, ‘मैं’ की बात करते हैं। कभी-कभी वे अच्छा काम करते हैं और आध्यात्मिक बन सकते हैं। ये राजसिक या सक्रिय हैं। सर्वोच्च अन्तर्मुख स्वभाववाले (सात्त्विक) हैं, जो आत्मा में ही रहते हैं। ये तीन गुण हर मनुष्य में भिन्न अनुपात में हैं और विभिन्न गुण विभिन्न अवसरों पर प्रधानता प्राप्त करते हैं। हमें तमस् और रजस् को जीतने का और तब उन दोनों को सत्त्व में मिला देने का अवश्य प्रयत्न करना चाहिए।
सृष्टि कुछ ‘बना देना’ नहीं है, वह तो सम-संतुलन को पुनः प्राप्त करने का एक संघर्ष है, जैसे किसी कार्क के परमाणु एक जलपात्र की पेंदी में डाल दिये जाने पर, वे पृथक्-पृथक् और गुच्छों में ऊपर की ओर झपटते हैं और जब सब ऊपर आ जाते हैं और सम-संतुलन पुनः प्राप्त हो जाता है तो समस्त गति या ‘जीवन’ एक हो जाता है। यही बात सृष्टि की है; यदि सम-सन्तुलन प्राप्त हो जाय तो सब परिवर्तन रुक जाएँगे। जीवन नामधारी वस्तु समाप्त हो जाएगी। जीवन के साथ अशुभ अवश्य रहेगा, क्योंकि सन्तुलन पुनः प्राप्त हो जाने पर संसार अवश्य समाप्त हो जाएगा, क्योंकि समत्व और नाश एक ही बात है। सदैव बिना दुःख के आनन्द ही पाने की कोई सम्भावना नहीं है। या बिना अशुभ के शुभ पाने की, क्योंकि जीवन स्वयं ही तो खोया हुआ सम-सन्तुलन है। जो हम चाहते हैं, वह मुक्ति है, जीवन आनन्द या शुभ नहीं । सृष्टि शाश्वत है, अनादि, अनन्त, एक असीम सरोवर में सदैव गतिशील लहर। उसमें अब भी ऐसी गहराइयाँ हैं, जहाँ कोई नहीं पहुँचा और जहाँ अब ऐसी निस्पन्दता पुनः स्थापित हो गयी है; किन्तु लहर सदैव प्रगति कर रही है, सन्तुलन पुनः स्थापित करने का संघर्ष शाश्वत है। जीवन और मृत्यु उसी तथ्य के विभिन्न नाम हैं, वे एक सिक्के के दो पक्ष हैं। दोनों ही माया हैं, एक बिन्दु पर जीवित रहने के प्रयत्न की अगम्य स्थिति और एक क्षण बाद मृत्यु। इस सब से परे सच्चा स्वरूप है, आत्मा। हम सृष्टि में प्रविष्ट होते हैं और तब वह हमारे लिए जीवन्त हो जाती है। वस्तुएँ स्वयं तो मृत हैं, केवल हम उन्हें जीवन देते हैं; और तब मूर्खों के सदृश हम घूमते हैं और या तो उनसे डरते हैं या उनका उपभोग करते हैं। संसार न तो सत्य है न असत्य, वह सत्य की छाया है।
कवि कहता है कि ‘कल्पना सत्य की स्वर्णाच्छादित छाया’ है। आभ्यन्तर जगत्, सत्य जगत् बाह्य से असीम रूप से बड़ा है। बाह्य जगत् तो वास्तविक जगत् का छायात्मक प्रक्षेप मात्र है। जब हम ‘रस्सी’ देखते हैं, ‘सर्प’ नहीं देखते; और जब ‘सर्प’ होता है, ‘रस्सी’ नहीं होती; दोनों का अस्तित्व एक साथ नहीं हो सकता। इसी प्रकार जब हम संसार देखते हैं, हम आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर पाते, वह केवल एक बौद्धिक कल्पना रहती है। ब्रह्म के साक्षात्कार में व्यक्तिगत अहं और संसार की सब चेतना नष्ट हो जाती है। प्रकाश अन्धकार को नहीं जानता, क्योंकि उसका प्रकाश में कोई अस्तित्व नहीं है; इसी प्रकार ब्रह्म ही सब है। जब हम किसी ईश्वर को मानते हैं तो वास्तव में वह हमारी अपनी आत्मा ही होती है, जिसे हम अपने से पृथक् कर देते हैं और उसकी इस प्रकार पूजा करते हैं, जैसे कि वह हमसे बाहर हो; किन्तु वह सदैव हमारी अपनी आत्मा ही होती है, तथा वही एक और अद्वितीय ईश्वर है। पशु का स्वभाव, जहाँ वह है, वहीं रहने का है; मनुष्य का शुभ खोजने और अशुभ से बचने का, और ईश्वर का न तो खोजने का और न बचने का, अपितु सदैव आनन्दमय रहने का है। आओ, हम ईश्वर बनें, हम अपने हृदय महासागर जैसे बनायें, ताकि हम संसार की छोटी-छोटी बातों से परे जा सकें और उसे केवल एक चित्र की भाँति देखें। तब हम इससे बिना किसी प्रकार प्रभावित हुए इसका आनन्द ले सकेंगे। संसार में शुभ को क्यों खोजें, हम वहाँ क्या पा सकते हैं? सर्वोच्च वस्तुएँ जो वह दे सकता है, उन काँच की गोलियों के समान हैं, जो बच्चे कीचड़ के पोखरे में खेलते हुए पा जाते हैं। वे उन्हें फिर खो देते हैं और तब नये सिरे से उन्हें अपनी खोज प्रारम्भ करनी होती है। असीम शक्ति ही धर्म और ईश्वर है। यदि हम मुक्त हों, तभी हम आत्मा हैं; अमरता केवल तभी है, जब कि हम मुक्त हों; ईश्वर तभी है, जब वह मुक्त हो।
जब तक हम अहं भाव द्वारा निर्मित संसार का त्याग नहीं करते, हम स्वर्ग के राज्य में कभी प्रविष्ट नहीं हो सकते। न तो कभी कोई प्रविष्ट हुआ, न कोई कभी होगा। संसार के त्याग का अर्थ है, अहं भाव को पूर्णतया भूल जाना, उसे बिल्कुल न जानना; शरीर में रहना, पर उसके द्वारा शासित न होना। इस दुष्ट अहं भाव को अवश्य ही मिटाना होगा। मनुष्य जाति की सहायता करने की शक्ति उन शान्त व्यक्तियों के हाथ में हैं, जो केवल जीवित हैं और प्रेम करते हैं तथा जो अपना व्यक्तित्व पूर्णतः पीछे हटा लेते हैं। वे ‘मेरा’ या ‘मुझे’ कभी नहीं कहते, वे दूसरों की सहायता करने में, उपकरण बनने में ही धन्य हैं। वे पूर्णतया ईश्वर से अभिन्न हैं, न तो कुछ माँगते हैं और न सचेतन रूप से कोई काम करते हैं। वे सच्चे जीवन्मुक्त हैं, पूर्णतः स्वार्थरहित; उनका छोटा व्यक्तित्व पूर्णतया उड़ गया होता है, महत्त्वाकांक्षा का अस्तित्व नहीं रहता। वे व्यक्तित्वरहित पूर्णतया तत्त्व मात्र हैं। जितना अधिक हम छोटे-से अहं को डुबाते हैं, उतना ही अधिक ईश्वर आता है। आओ, हम इस छोटे-से अहं से छुटकारा लें और केवल बड़े अहं को अपने में रहने दें। हमारा सर्वोत्तम कार्य और सर्वोच्च प्रभाव तब होता है, जब हम अहं के विचार मात्र से रहित हो जाते हैं। केवल निष्काम लोग ही बड़े-बड़े परिणाम घटित करते हैं। जब लोग तुम्हारी निन्दा करें तो उन्हें आशीर्वाद दो। सोचो तो, वे झूठे अहं को निकाल बाहर करने में सहायता देकर कितनी भलाई कर रहे हैं। यथार्थ आत्मा में दृढ़ता से स्थिर होओ, केवल शुद्ध विचार रखो और तुम उपदेशकों की एक पूरी सेना से अधिक काम कर सकोगे। पवित्रता और मौन से शक्ति की वाणी निकलती है।