धर्मस्वामी विवेकानंद

ज्ञानयोग पर चतुर्थ प्रवचन – स्वामी विवेकानंद

“ज्ञानयोग पर चतुर्थ प्रवचन” में स्वामी विवेकानंद ने अद्वैतवाद के अनुसार सत्य की कसौटी पर विचार किया है। अवश्य पढ़ें और मनन करें। पढ़ें “ज्ञानयोग पर चतुर्थ प्रवचन”। स्वामी विवेकानंद की प्रस्तुत पुस्तक के शेष प्रवचन पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग पर प्रवचन


मनुष्य नामधारी सभी लोग अब भी यथार्थ मनुष्य नहीं हैं। प्रत्येक को इस संसार का निर्णय अपने मन से करना होता है। उच्चतर बोध अत्यधिक कठिन है। अधिकतर लोगों को साकार वस्तु भावात्मक वस्तु से अधिक जँचती है! इसके उदाहरण के रूप में एक दृष्टान्त है। एक हिन्दू और एक जैन बम्बई के किसी धनी व्यापारी के घर में शतरंज खेल रहे थे। घर समुद्र के निकट था, खेल लम्बा था। जिस छज्जे पर वे बैठे थे, उसके नीचे जल-प्रवाह ने खिलाड़ियों का ध्यान आकृष्ट किया। एक ने उसे पौराणिक कथा द्वारा समझाया कि देवगण अपने खेल में जल को एक बड़े गढ़े में डाल देते हैं और फिर उसे वापस फेंक देते हैं। दूसरे ने कहा, “नहीं, देवता उसे एक ऊँचे पहाड़ पर उपयोग के लिए खींचते हैं और जब उनका काम हो जाता है, वे उसे फिर नीचे फेंक देते हैं।” एक नवयुवक विद्यार्थी, जो वहाँ उपस्थित था, उन पर हँसने लगा और बोला, “क्या आप नहीं जानते कि चन्द्रमा का आकर्षण ज्वार-भाटा उत्पन्न करता है?” इस पर वे दोनों व्यक्ति, उससे क्रोधपूर्वक भिढ़ गये और बोले कि क्या वह उन्हें मूर्ख समझता है? क्या वह मानता है कि चन्द्रमा के पास ज्वार-भाटे को खींचने के लिए कोई रस्सी है अथवा वह इतनी दूर पहुँच भी सकता है? उन्होंने इस प्रकार की किसी भी मूर्खतापूर्ण व्याख्या को मानना अस्वीकार कर दिया! इसी अवसर पर उनका मेजबान कमरे में आया और दोनों पक्षों ने उससे पुनर्विचार की प्रार्थना की। वह एक शिक्षित व्यक्ति था और सचमुच सत्य क्या है, जानता था, किन्तु यह देखकर कि शतरंज खेलनेवालों को यह समझाना असम्भव है, उसने विद्यार्थी को इशारा किया और तब ज्वार-भाटे की ऐसी व्याख्या की जो उसके अज्ञ श्रोताओं को पूर्णतया सन्तोषजनक मालूम हुई । उसने शतरंज खेलनेवालों से कहा, “आपको जानना चाहिए कि बहुत दूर महासागर के बीच एक विशाल स्पंज का पहाड़ है। आप दोनों ने स्पंज देखा होगा और जानते होंगे, मेरा आशय क्या है! स्पंज का यह पर्वत बहुत-सा जल सोख लेता है और तब समुद्र घट जाता है। धीरे-धीरे देवता उतरते हैं और स्पंज पर्वत पर नृत्य करते हैं। उनके भार से सब जल निचुड़ जाता है और समुद्र फिर बढ़ जाता है। सज्जनो! ज्वार-भाटे का यही कारण है और आप स्वयं आसानी से समझ सकते हैं कि यह व्याख्या कितनी युक्ति-पूर्ण और सरल है।” जो दोनों व्यक्ति ज्वार-भाटा उत्पन्न करने में चन्द्रमा की शक्ति का उपहास करते थे, उन्हें ऐसे स्पंज पर्वत में, जिस पर देवता नृत्य करते हैं, कुछ भी अविश्वसनीय न लगा, देवता उनके लिए सत्य थे और उन्होंने सचमुच स्पंज भी देखा था। तब उन दोनों का संयुक्त प्रभाव समुद्र पर होना भी क्या असम्भव था?

आराम सत्य की कसौटी नहीं है, प्रत्युत् सत्य आरामदायक होने से बहुत दूर है। यदि कोई सचमुच सत्य की खोज का इरादा करे तो उसे आराम के प्रति आसक्त न होना चाहिए। सब कुछ छोड़ देना कठिन काम है, किन्तु ज्ञानी को यह अवश्य करना पड़ता है। उसे पवित्र बनना ही होगा, सभी कामनाओं को मारना होगा और अपने को शरीर के साथ तादात्म्य से रोकना होगा। केवल तभी उसके अन्तःकरण में उच्चतर सत्य प्रकाशित हो सकेगा। बलिदान आवश्यक है और निम्नतर जीवात्मा का यह बलिदान ऐसा आधारभूत सत्य है, जिसने आत्मत्याग को सभी धर्मों का एक अंग बना दिया है। देवताओं के प्रति की जानेवाली सभी प्रसादक आहुतियाँ आत्म-त्याग की ही, जिसका कि कुछ वास्तविक मूल्य है, अस्पष्ट रूप से समझी जानेवाली अनुकरण हैं और अयथार्थ आत्म-समर्पण से ही हम यथार्थ आत्म-साक्षात्कार कर सकते हैं। ज्ञानी को शरीर-धारण के निमित्त चेष्टा न करनी चाहिए और न इच्छा करनी चाहिए। चाहे संसार गिर पड़े, दृढ़ होकर परम सत्य का अनुसरण करना चाहिए। जो ‘धुनों’ का अनुसरण करते हैं, वे ज्ञानी कभी नहीं बन सकते। यह तो जीवन भर का कार्य है; नहीं, सौ जीवनों का कार्य है। बहुत थोड़े लोग ही अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार करने का साहस करते हैं और स्वर्ग, साकार ईश्वर तथा पुरस्कार की सभी आशाओं का त्याग करने का साहस रखते हैं। उसे सिद्ध करने के लिए, दृढ़ इच्छा की आवश्यकता होती है, आगा-पीछा करना भी भारी दुर्बलता का चिह्न है। मनुष्य सदैव पूर्ण है, अन्यथा वह कभी ऐसा न बन पाता। किन्तु उसे प्राप्त करना है। यदि मनुष्य कार्य-कारणों से बद्ध हो तो वह केवल मरणशील हो सकता है। अमरत्व तो केवल निरुपाधिक के लिए ही सत्य हो सकता है। आत्मा पर किसी वस्तु की क्रिया नहीं हो सकती – यह विचार सिर्फ भ्रम है; किन्तु मनुष्य को उस ‘तत्’ के साथ अपना तादात्म्य, स्वात्मनि क्रियाभाव करना ही होगा, शरीर या मन से नहीं। उसे यह बोध होना चाहिए कि वह विश्व का द्रष्टा है, तब वह उस अद्भुत अस्थायी दृश्यावली का आनन्द ले सकता है, जो उसके सामने निकल रही है। उसे स्वयं से यह भी कहना चाहिए कि ‘मैं विश्व हूँ, मैं ब्रह्म हूँ।’ जब स्वयं मनुष्य ‘वास्तव में’ स्वयं का उस एक आत्मा के साथ तादात्म्य कर लेता है, उसके लिए सभी कुछ सम्भव हो जाता है और सभी पदार्थ उसके सेवक हो जाते हैं। जैसा श्रीरामकृष्ण ने कहा है – जब मक्खन निकाल लिया जाता है तो वह दूध या पानी में रखा जा सकता है और दोनों में से किसी में न मिलेगा; इसी प्रकार मनुष्य जब आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है तो वह संसार द्वारा दूषित नहीं किया जा सकता।

एक गुब्बारे से नीचे की स्वल्प भिन्नताएँ परिलक्षित नहीं होतीं; इसी प्रकार जब मनुष्य अध्यात्म क्षेत्र में पर्याप्त ऊँचा उठ जाता है, वह भले और बुरे लोगों का भेद नहीं देख पाता; एक बार घट पका दिये जाने पर उसका आकार नहीं बदला जा सकता। इसी प्रकार, जिसने एक बार प्रभु का स्पर्श कर लिया और जिसे अग्नि की दीक्षा मिल गयी, उसे बदला नहीं जा सकता। संस्कृत में दर्शन का अर्थ है, सम्यक् दर्शन और धर्म व्यावहारिक दर्शन है। भारत में केवल सैद्धान्तिक और आनुमानिक दर्शन का बहुत आदर नहीं है। वहाँ कोई सम्प्रदाय, मत और पन्थ (dogma) नहीं है। दो मुख्य विभाग हैं – द्वैतवादी और अद्वैतवादी। पहले पक्ष के लोग कहते हैं, “मुक्ति का मार्ग ईश्वर की दया से लभ्य है, कार्य-कारण का नियम एक बार चालू हो जाने पर कभी तोड़ा नहीं जा सकता; केवल ईश्वर, जो नियम से बद्ध नहीं है, अपनी दया से, हमें इसे तोड़ने में सहायता देता है।” दूसरे पक्ष का कहना है, “इस सारी प्रकृति के पीछे कुछ है, जो मुक्त है और उस वस्तु के मिलने से, जो सभी नियमन से परे है, हम स्वतन्त्र हो जाते हैं और स्वतन्त्रता ही मुक्ति है।”

द्वैतवाद केवल एक अवस्था है, लेकिन अद्वैतवाद अन्त तक ले जाता है। पवित्रता ही मुक्ति का सब से सीधा मार्ग है । जो हम कमायेंगे, वही हमारा है। कोई शास्त्र या कोई आस्था हमें नहीं बचा सकती। यदि कोई ईश्वर है तो ‘सभी’ उसे पा सकते हैं। किसी को यह बताने की आवश्यकता नहीं होती कि गर्मी है, प्रत्येक उसे स्वयं जान सकता है। ऐसा ही ईश्वर के लिए होना चाहिए। वह सभी की चेतना में एक तथ्य होना चाहिए। हिन्दू ‘पाप’ को वैसा नहीं मानते, जैसा कि पाश्चात्य विचार से समझा जाता है। बुरे काम पाप नहीं हैं, उन्हें करके हम किसी शासक को (परम पिता को) अप्रसन्न नहीं करते, हम स्वयं अपने को हानि पहुँचाते हैं और हमें दण्ड भी सहना होगा। आग में किसी का अँगुली रखना पाप नहीं है, किन्तु जो कोई रखेगा, उसे उतना ही दुःख उठाना होगा। सभी कर्म कोई न कोई फल देते हैं और ‘प्रत्येक कर्म कर्ता के पास लौटता है।’ एकेश्वरवाद का ही पूर्ववर्ती रूप त्रिमूर्तिवाद (जो कि द्वैतवाद है अर्थात् मनुष्य और ईश्वर सदैव के लिए पृथक्) है। ऊपर (परमार्थ) की ओर पहला कदम तब होता है, जब हम अपने को ईश्वर की सन्तान मान लेते हैं और तब अन्तिम कदम होता है, जब हम अपने को केवल एक आत्मा के रूप में अनुभव कर लेते हैं।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!
Exit mobile version