ज्ञानयोग पर प्रथम प्रवचन – स्वामी विवेकानंद
“ज्ञानयोग पर प्रथम प्रवचन” में स्वामी विवेकानंद ज्ञान योग के आधारभूत तत्त्वों को समझाते हैं। साथ ही समझाते हैं कि यह अन्य योगों से कैसे भिन्न है। स्वामी विवेकानंद की प्रस्तुत पुस्तक के शेष प्रवचन पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग पर प्रवचन।
ॐ तत् सत्! ॐ का ज्ञान विश्व के रहस्य का ज्ञान प्राप्त कर लेना है। ज्ञानयोग का उद्देश्य वही है जो भक्तियोग और राजयोग का है, किन्तु प्रक्रिया भिन्न है। यह योग दृढ़ साधकों के लिए है; उनके लिए है जो न तो रहस्यवादी, न भक्तिमान, अपितु बौद्धिक हैं। जिस प्रकार भक्तियोगी प्रेम और भक्ति के द्वारा उस सर्वोपरि परम से पूर्ण एकता की सिद्धि का अपना मार्ग ढूँढ़ निकालता है, उसी प्रकार ज्ञानयोगी विशुद्ध बुद्धि के द्वारा ईश्वर के साक्षात्कार का अपना मार्ग प्रशस्त करता है। उसे सभी पुरानी मूर्तियों को, सभी पुराने विश्वासों और अन्धविश्वासों को और ऐहिक या पारलौकिक सभी कामनाओं को निकाल फेंकने के लिए तत्पर रहना चाहिए और केवल मोक्ष-लाभ के लिए कृतनिश्चय होना चाहिए। ज्ञान के बिना मोक्ष-लाभ नहीं हो सकता है। वह तो इस उपलब्धि में निहित है कि हम यथार्थतः क्या हैं और यह कि हम भय, जन्म तथा मृत्यु से परे हैं। आत्मा का साक्षात्कार ही सर्वोत्तम श्रेयस् है। वह इन्द्रियों और विचार से परे है। वास्तविक ‘मैं’ का तो ज्ञान नहीं हो सकता। वह तो नित्य ज्ञाता (विषयी) है और कभी भी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान सापेक्ष का होता है, निरपेक्ष पूर्ण का नहीं। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त सभी ज्ञान ससीम है – वह कार्य और कारण की एक अन्तहीन शृंखला है। यह संसार एक सापेक्ष संसार है, यथार्थ सत्य की छाया या आभास मात्र है; तथापि चूँकि यह (संसार) संतुलन का ऐसा स्तर है कि जिस पर सुख-दुःख प्रायः समान रूप से संतुलित हैं, इसलिए यही एक स्तर है जहाँ मनुष्य अपने यथार्थ स्वरूप का साक्षात् कर सकता है और जान सकता है कि वह ब्रह्म है।
यह संसार ‘प्रकृति का विकास और ईश्वर की अभिव्यक्ति है’। वह माया या नाम-रूप के माध्यम से देखे हुए परमात्मा या ब्रह्म की हमारी व्याख्या है। संसार शून्य नहीं है, उसमें कुछ वास्तविकता है। संसार केवल इसीलिए ‘प्रतीयमान’ होता है कि इसके पीछे ब्रह्म का ‘अस्तित्व’ है।
विज्ञाता को हम कैसे जान सकते हैं?1 वेदान्त कहता है, “हम वह (विज्ञाता) हैं, किन्तु हम कभी उसे विषयतया जान नहीं सकते, क्योंकि वह कभी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता।” आधुनिक विज्ञान भी कहता है कि ‘वह’ कभी जाना नहीं जा सकता । फिर भी समय-समय पर हम उसकी झलक पा सकते हैं। संसार-भ्रम एक बार टूट जाने पर वह हमारे पास पुनः लौट आता है, किन्तु तब हमारे लिए उसमें कोई वास्तविकता नहीं रह जाती। हम उसे एक मृगतृष्णा के रूप में ही ग्रहण करते हैं। इस मृगतृष्णा के परे पहुँचना ही सभी धर्मों का लक्ष्य है। वेदों ने निरन्तर यही उपदेश दिया है कि मनुष्य और ईश्वर एक हैं, किन्तु बहुत कम लोग इस पर्दे (माया) के पीछे प्रवेश कर पाते और परम सत्य की उपलब्धि कर पाते हैं।
जो ज्ञानी बनना चाहे, उसे सर्वप्रथम भय से मुक्त होना चाहिए। भय हमारे सब से बुरे शत्रुओं में से एक है। इसके बाद जब तक किसी बात को ‘जान न लो’ इस पर विश्वास न करो। अपने से निरन्तर कहते रहो, “मैं शरीर नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ, मैं विचार नहीं हूँ, मैं चेतना भी नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ।” जब तुम सब छोड़ दोगे तब यथार्थ आत्म-तत्त्व रह जाएगा। ज्ञानी का ध्यान दो प्रकार का होता है:
- हर ऐसी वस्तु से विचार हटाना और उसको अस्वीकार करना जो हम ‘नहीं है’।
- केवल उसी पर दृढ़ रहना जो कि वास्तव में हम ‘हैं’ और वह है आत्मा – केवल एक सच्चिदानन्द परमात्मा। सच्चे विवेकी को आगे बढ़ना चाहिए और अपने विवेक की सुदूरतम सीमाओं तक निर्भयतापूर्वक इसका अनुसरण करना चाहिए। मार्ग में कहीं रुक जाने से काम नहीं बनेगा। जब हम अस्वीकार करना प्रारम्भ करें तो, जब तक हम उस विषय पर न पहुँच जायँ जिसे अस्वीकार किया या हटाया नहीं जा सकता – जो कि यथार्थ ‘मैं’ है, शेष सब हटा ही देना चाहिए। वही ‘मैं’ विश्व का द्रष्टा है, वह अपरिवर्तनशील, शाश्वत और असीम है। अभी अज्ञान की परत पर चढ़ी परत ही उसे हमारी दृष्टि से ओझल किये हुए है, पर वह सदैव वही रहता है।
एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे थे। शिखर पर बैठा हुआ पक्षी शान्त, महिमान्वित, सुन्दर और पूर्ण था। नीचे बैठा हुआ पक्षी बार-बार एक टहनी से दूसरी पर फुदक रहा था और कभी मधुर फल खाकर प्रसन्न तथा कभी कड़वे फल खाकर दुःखी होता था। एक दिन उसने जब सामान्य से अधिक कटु फल खाया तो उसने ऊपरवाले शान्त तथा महिमान्वित पक्षी की ओर देखा और सोचा, “उसके सदृश हो जाऊँ तो कितना अच्छा हो!” और वह उसकी ओर फुदक कर थोड़ा बढ़ा भी। जल्दी ही वह ऊपर के पक्षी के सदृश होने की अपनी इच्छा को भूल गया और पूर्ववत् मधुर या कटु फल खाता एवं सुखी तथा दुःखी होता रहा। उसने फिर ऊपर की ओर दृष्टि डाली और फिर शान्त तथा महिमान्वित पक्षी के कुछ निकटतर पहुँचा। अनेक बार इसकी आवृत्ति हुई और अन्ततः वह ऊपर के पक्षी के बहुत समीप पहुँच गया। उसके पंखों की चमक से वह (नीचे का पक्षी) चौंधिया गया और वह उसे आत्मसात् करता-सा जान पड़ा। अन्त में उसे यह देखकर बड़ा विस्मय और आश्चर्य हुआ कि वहाँ तो केवल एक ही पक्षी है और वह स्वयं सदैव ऊपरवाला ही पक्षी था। पर इस तथ्य को वह केवल अभी समझ पाया!2 मनुष्य नीचेवाले पक्षी के समान है, लेकिन यदि वह अपनी सर्वश्रेष्ठ कल्पना के अनुसार किसी सर्वोच्च आदर्श तक पहुँचने के प्रयत्न में निरन्तर लगा रहे तो वह भी इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि वह सदैव आत्मा ही था, अन्य सब मिथ्या या स्वप्न था। भौतिक तत्त्व और उसकी सत्यता में विश्वास से अपने को पूर्णतया पृथक् करना ही यथार्थ ज्ञान है। ज्ञानी को अपने मन में निरन्तर रखना चाहिए – ॐ तत् सत्, अर्थात् ॐ ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है। तात्त्विक एकता ज्ञानयोग की नींव है। उसे ही अद्वैतवाद (द्वैत से रहित) कहते हैं। वेदान्त दर्शन की यह आधारशिला है, उसका आदि और अन्त है। “केवल ब्रह्म ही सत्य है, शेष सब मिथ्या है और मैं ब्रह्म हूँ।” जब तक हम उसे अपने अस्तित्व का एक अंश न बना लें, तब तक अपने से केवल यही कहते रहने से हम समस्त द्वैत भाव से, शुभ तथा अशुभ से, सुख और दुःख से, कष्ट और आनन्द दोनों ही से, ऊपर उठ सकते हैं। और अपने को शाश्वत, अपरिवर्तनशील, असीम, ‘एक अद्वितीय’ ब्रह्म के रूप में जान सकते हैं।
ज्ञानयोगी को अवश्य ही उतना प्रखर अवश्य होना चाहिए जितना कि संकीर्णतम सम्प्रदायवादी, किन्तु उतना ही विस्तीर्ण भी जितना कि आकाश। उसे अपने पर पूर्ण नियन्त्रण रखना चाहिए, बौद्ध या ईसाई होने का सामर्थ्य रखना चाहिए तथा अपने को इन विभिन्न विचारों में सचेतन रूप से विभक्त करते हुए चिरन्तन सामंजस्य में दृढ़ रहना चाहिए। सतत अभ्यास ही हमें ऐसा नियन्त्रण प्राप्त करने का सामर्थ्य दे सकता है। सभी विविधताएँ उसी एक में हैं, किन्तु हमें यह सीखना चाहिए कि जो कुछ हम करें उससे अपना तादात्म्य न कर दें, और जो अपने हाथ में हो, उसके अतिरिक्त, अन्य कुछ न देखें, न सुनें और न उसके विषय में बात करें। हमें अपने पूरे जी-जान से जुट जाना और प्रखर बनना चाहिए। दिन-रात अपने से यही कहते रहो – सोऽहं, सोऽहं।
1 . विज्ञातारमरे केन विजानीयात्॥
बृ. उप. ॥२।४।१४॥
2. द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः॥
मु. उप. ३. १. १-२