होरी (लोकगीत)
होरी (लोकगीत) स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया “नवल” द्वारा ब्रज भाषा में रचित होली पर्व को समर्पित कविता है। आनंद लें होरी (लोकगीत) काव्य का–
आयौ होरी कौ त्यौहार, होरी खेलौ मेरे बीर।
कोउ लै आवै चोआ-चंदन कोऊ कुंकुमी रोरी
कोऊ ढोल मँजीरा ल्यावै, रंग की भरी कमोरी
कोऊ नाचै कोऊ गावै, कोऊ बजावै तारी
छोटे बड़े, सिबई मिलि खेलौ, अपनी-अपनी बारी
नारी नर लै रंग अबीर, होरी खैलौ मेरे बीर।
गोपी-ग्वाल स्याम-स्यामा हू मिलिजुलि खैलो होरी।
काहु ने रोरी मली गाल सों काहू ने रँग में बोरी।
रँग बरसत सरसत सुख अद्भुत ब्रजबासिनिहि ठगौरी।
टेरै एक सखी दूजी कौं नंद के द्वार चलौरी।
दौरीं-रंग बिरंगे चीर, होरी खैलौ मेरे बीर।
दै पाती सुअनें कोऊ पठबै, कोऊ काग उड़ावै।
फागुन में सैंया सों मिलिवे सोने चोंच मढ़ावै।
काहू की बायीं भुज फरकै, काहू की चोली चरकै।
कोऊ गिनि-गिनि धरै कँकरियाँ, छाती धड़-धड़-धड़कै।
करकै, कजरा हू बेपीर, होरी खेलौ मेरे बीर।
पिचकारिनि में प्रेम रंग भरि तकि-तकि ऐसौ मारौ।
चढ़िकै ना उतरै फिरि कबहूँ, तन मन दोउ रंगि डारौ।
एक रहे हैं एक रहेंगे सबकौ यही सिखाऔ।
जितने भूले भटके हैं उन सब कौं राह दिखाऔ।
गाऔ होरी राँझा हीर, होरी खैलौ मेरे बीर।
एक साल में एक बार ही फागुन महिना आबै।
एक दूसरे सौं मिलिबे को नीको औसरु ल्याबै।
ऐसी होरी हिलि-मिलि खैलौ, भेद भाव सब भागें।
पूरब पच्छिम, उत्तर, दक्खिन, अपनौ ही घरु लागें।
जागै देश-प्रेम की पीर, होरी खेलों मेरे बीर ।
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।