जरत्कारु से पितरों का अनुरोध – महाभारत का तेरहवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)
“जरत्कारु से पितरों का अनुरोध” नामक महाभारत की यह कथा आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। यह महाभारत का तेरहवाँ अध्याय है। इसमें 32 श्लोक हैं। इसमें आस्तीक के पिता जरत्कारु का वर्णन है कि किस तरह वे तपस्वी की भाँति जीवन-निर्वाह कर रहे थे। ऐसे ही घूमते-घूमते एक दिन वे अपने पितरों से मिलते हैं। पितर एक गड्ढे में उलटे टंगे दिखाई देते हैं।
कथा के अनुसार पूछने पर जरत्कारु से पितरों का अनुरोध है कि वे विवाह कर लें, ताकि वंशवृद्धि हो और पितर इस दशा से छुटकारा पा सकें। पढ़िए यह रोचक कथा “जरत्कारु से पितरों का अनुरोध”। महाभारत के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत की कथा।
शौनक उवाच
किमर्थं राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः ।
सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद् वदस्व मे ॥ १ ॥
निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषतः ।
आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थं जपतां वरः ॥ २ ॥
मोक्षयामास भुजगान् प्रदीप्ताद् वसुरेतसः ।
कस्य पुत्रः स राजासीत् सर्पसत्रं य आहरत् ॥ ३ ॥
स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रोऽभिधत्स्व मे ।
शौनक जी ने पूछा—सूत जी! राजाओं में श्रेष्ठ जनमेजय ने किसलिये सर्पसत्र द्वारा सर्पों का अन्त किया? यह प्रसंग मुझसे कहिये। सूतनन्दन! इस विषय की सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन कीजिये। जप-यज्ञ करने वाले पुरुषों में श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीक ने किसलिये सर्पों को प्रज्वलित अग्नि में जलने से बचाया और वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्र का आयोजन किया था, किसके पुत्र थे? तथा द्विजवंशशिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? यह मुझे बताइये ॥ १—३ ॥
सौतिरुवाच
महदाख्यानमास्तीकं यथैतत् प्रोच्यते द्विज ॥ ४ ॥
सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर ।
उग्रश्रवा जी ने कहा—ब्रह्मन्! आस्तीक का उपाख्यान बहुत बड़ा है। वक्ताओं में श्रेष्ठ! यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो ॥ ४ ॥
शौनक उवाच
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम् ॥ ५ ॥
आस्तीकस्य पुराणर्षेर्ब्राह्मणस्य यशस्विनः ।
शौनक जी ने कहा—सूतनन्दन! पुरातन ऋषि एवं यशस्वी ब्राह्मण आस्तीक की इस मनोरम कथा को मैं पूर्णरूप से सुनना चाहता हूँ ॥ ५ ॥
सौतिरुवाच
इतिहासमिमं विप्राः पुराणं परिचक्षते ॥ ६ ॥
कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु ।
पूर्वं प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः ॥ ७ ॥
शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान् ।
तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम् ॥ ८ ॥
उग्रश्रवा जी ने कहा—शौनक जी! ब्राह्मण लोग इस इतिहास को बहुत पुराना बताते हैं। पहले मेरे पिता लोमहर्षण जी ने, जो व्यास जी के मेधावी शिष्य थे, ऋषियों के पूछने पर साक्षात् श्री कृष्णद्वैपायन (व्यास) के कहे हुए इस इतिहास का नैमिषारण्य वासी ब्राह्मणों के समुदाय में वर्णन किया था। उन्हीं के मुख से सुनकर मैं भी इसका यथावत् वर्णन करता हूँ ॥ ६—८ ॥
इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पृच्छते ।
कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ९ ॥
शौनक जी! यह आस्तीक मुनि का उपाख्यान सब पापों का नाश करने वाला है। आपके पूछने पर मैं इसका पूरा-पूरा वर्णन कर रहा हूँ ॥ ९ ॥
आस्तीकस्य पिता ह्यासीत् प्रजापतिसमः प्रभुः ।
ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रतः सदा ॥ १० ॥
आस्तीक के पिता प्रजापति के समान प्रभावशाली थे। ब्रह्मचारी होने के साथ ही उन्होंने आहार पर भी संयम कर लिया था। वे सदा उग्र तपस्या में संलग्न रहते थे ॥ १० ॥
जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरेता महातपाः ।
यायावराणां प्रवरो धर्मज्ञः संशितव्रतः ॥ ११ ॥
स कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वितः ।
चचार पृथिवीं सर्वां यत्रसायंगृहो मुनिः ॥ १२ ॥
उनका नाम था जरत्कारु। वे ऊर्ध्वरेता और महान् ऋषि थे। यायावरों में1 उनका स्थान सबसे ऊँचा था। वे धर्म के ज्ञाता थे। एक समय तपोबल से सम्पन्न उन महाभाग जरत्कारु ने यात्रा प्रारम्भ की। वे मुनि-वृत्ति से रहते हुए जहाँ शाम होती वहीं डेरा डाल देते थे ॥ ११-१२ ॥
तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वशः ।
चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः ॥ १३ ॥
वे सब तीर्थों में स्नान करते हुए घूमते थे। उन महातेजस्वी मुनि ने कठोर व्रतों की ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये अत्यन्त दुःसाध्य थी ॥ १३ ॥
वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्ननिमिषो मुनिः ।
इतस्ततः परिचरन् दीप्तपावकसप्रभः ॥ १४ ॥
अटमानः कदाचित् स्वान् स ददर्श पितामहान् ।
लम्बमानान् महागर्ते पादैरूर्ध्वैरवाङ्मुखान् ॥ १५ ॥
वे कभी वायु पीकर रहते और कभी भोजन का सर्वथा त्याग करके अपने शरीर को सुखाते रहते थे। उन महर्षि ने निद्रा पर भी विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिये उनकी पलक नहीं लगती थी। इधर-उधर विचरण करते हुए वे प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। घूमते-घूमते किसी समय उन्होंने अपने पितामहों को देखा जो ऊपर को पैर और नीचे को सिर किये एक विशाल गड्ढे में लटक रहे थे ॥ १४-१५ ॥
तानब्रवीत् स दृष्ट्वैव जरत्कारुः पितामहान् ।
के भवन्तोऽवलम्बन्ते गर्ते ह्यस्मिन्नधोमुखाः ॥ १६ ॥
उन्हें देखते ही जरत्कारु ने उनसे पूछा—‘आप लोग कौन हैं, जो इस गड्ढे में नीचे को मुख किये लटक रहे हैं ॥ १६ ॥
वीरणस्तम्बके लग्नाः सर्वतः परिभक्षिते ।
मूषकेन निगूढेन गर्तेऽस्मिन् नित्यवासिना ॥ १७ ॥
‘आप जिस वीरणस्तम्ब (खस नामक तिनकों के समूह) को पकड़कर लटक रहे हैं, उसे इस गड्ढे में गुप्त रूप से नित्य निवास करने वाले चूहे ने सब ओर से प्रायः खा लिया है’ ॥ १७ ॥2
पितर ऊचुः
यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः ।
संतानप्रक्षयाद् ब्रह्मन्नधो गच्छाम मेदिनीम् ॥ १८ ॥
पितर बोले—ब्रह्मन्! हम लोग कठोर व्रत का पालन करने वाले यायावर नामक मुनि हैं। अपनी संतान-परम्परा का नाश होने से हम नीचे—पृथ्वी पर गिरना चाहते हैं ॥ १८ ॥
अस्माकं संततिस्त्वेको जरत्कारुरिति स्मृतः ।
मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एव समास्थितः ॥ १९ ॥
हमारी एक संतति बच गयी है, जिसका नाम है जरत्कारु। हम भाग्यहीनों की वह अभागी संतान केवल तपस्या में ही संलग्न है ॥ १९ ॥
न स पुत्राञ्जनयितुं दारान् मूढश्चिकीर्षति ।
तेन लम्बामहे गर्ते संतानस्य क्षयादिह ॥ २० ॥
अनाथास्तेन नाथेन यया दुष्कृतिनस्तथा ।
कस्त्वं बन्धुरिवास्माकमनुशोचसि सत्तम ॥ २१ ॥
ज्ञातुमिच्छामहे ब्रह्मन् को भवानिह नः स्थितः
किमर्थं चैव नः शोच्याननुशोचसि सत्तम ॥ २२ ॥
वह मूढ़ पुत्र उत्पन्न करने के लिये किसी स्त्री से विवाह करना नहीं चाहता है। अतः वंश परम्परा का विनाश होने से हम यहाँ इस गड्ढे में लटक रहे हैं। हमारी रक्षा करने वाला वह वंशधर मौजूद है, तो भी पापकर्मी मनुष्यों की भाँति हम अनाथ हो गये हैं। साधुशिरोमणे! तुम कौन हो जो हमारे बन्धु-बान्धवों की भाँति हम लोगों की इस दयनीय दशा के लिये शोक कर रहे हो? ब्रह्मन्! हम यह जानना चाहते हैं कि तुम कौन हो जो आत्मीय की भाँति यहाँ हमारे पास खड़े हो? सत्पुरुषों में श्रेष्ठ! हम शोचनीय प्राणियों के लिये तुम क्यों शोक मग्न होते हो ॥ २०—२२ ॥
जरत्कारुरुवाच
मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः ।
ब्रूत किं करवाण्यद्य जरत्कारुरहं स्वयम् ॥ २३ ॥
जरत्कारु ने कहा—महात्माओ! आप लोग मेरे ही पितामह और पूर्वज पितृगण हैं। स्वयं मैं ही जरत्कारु हूँ। बताइये, आज आपकी क्या सेवा करूँ? ॥ २३ ॥
पितर ऊचुः
यतस्व यत्नवांस्तात संतानाय कुलस्य नः ।
आत्मनोऽर्थेऽस्मदर्थे च धर्म इत्येव वा विभो ॥ २४ ॥
पितर बोले—तात! तुम हमारे कुल की संतान-परम्परा को बनाये रखने के लिये निरन्तर यत्नशील रहकर विवाह के लिये प्रयत्न करो। प्रभो! तुम अपने लिये, हमारे लिये अथवा धर्म का पालन हो, इस उद्देश्य से पुत्र की उत्पत्ति के लिये यत्न करो ॥ २४ ॥
न हि धर्मफलैस्तात न तपोभिः सुसंचितैः ।
तां गतिं प्राप्नुवन्तीह पुत्रिणो यां व्रजन्ति वै ॥ २५ ॥
तात! पुत्र वाले मनुष्य इस लोक में जिस उत्तम गति को प्राप्त होते हैं, उसे अन्य लोग धर्मानुकूल फल देने वाले भली-भाँति संचित किये हुए तप से भी नहीं पाते ॥ २५ ॥
तद् दारग्रहणे यत्नं संतत्यां च मनः कुरु ।
पुत्रकास्मन्नियोगात् त्वमेतन्नः परमं हितम् ॥ २६ ॥
अतः बेटा! तुम हमारी आज्ञा से विवाह करने का प्रयत्न करो और संतानोत्पादन की ओर ध्यान दो। यही हमारे लिये सर्वोत्तम हित की बात होगी ॥ २६ ॥
जरत्कारुरुवाच
न दारान् वै करिष्येऽहं न धनं जीवितार्थतः ।
भवतां तु हितार्थाय करिष्ये दारसंग्रहम् ॥ २७ ॥
जरत्कारु ने कहा—पितामहगण! मैंने अपने मन में यह निश्चय कर लिया था कि मैं जीवन के सुख-भोग के लिये कभी न तो पत्नी का परिग्रह करूँगा और न धन का संग्रह ही; परंतु यदि ऐसा करने से आप लोगों का हित होता है तो उसके लिये अवश्य विवाह कर लूँगा ॥ २७ ॥
समयेन च कर्ताहमनेन विधिपूर्वकम् ।
तथा यद्युपलप्स्यामि करिष्ये नान्यथा ह्यहम् ॥ २८ ॥
किंतु एक शर्त के साथ मुझे विधि पूर्वक विवाह करना है। यदि उस शर्त के अनुसार किसी कुमारी कन्या को पाऊँगा, तभी उससे विवाह करूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं ॥ २८ ॥
सनाम्नी या भवित्री मे दित्सिता चैव बन्धुभिः ।
भैक्ष्यवत्तामहं कन्यामुपयंस्ये विधानतः ॥ २९ ॥
(वह शर्त यों है—) जिस कन्या का नाम मेरे नाम के ही समान हो, जिसे उसके भाई-बन्धु स्वयं मुझे देने की इच्छा से रखते हों और जो भिक्षा की भाँति स्वयं प्राप्त हुई हो, उसी कन्या का मैं शास्त्रीय विधि के अनुसार पाणिग्रहण करूँगा ॥ २९ ॥
दरिद्राय हि मे भार्यां को दास्यति विशेषतः ।
प्रतिग्रहीष्ये भिक्षां तु यदि कश्चित् प्रदास्यति ॥ ३० ॥
विशेष बात तो यह है कि मैं दरिद्र हूँ, भला मुझे माँगने पर भी कौन अपनी कन्या पत्नी रूप में प्रदान करेगा? इसलिये मेरा विचार है कि यदि कोई भिक्षा के तौर पर अपनी कन्या देगा तो उसे ग्रहण करूँगा ॥ ३० ॥
एवं दारक्रियाहेतोः प्रयतिष्ये पितामहाः ।
अनेन विधिना शश्वन्न करिष्येऽहमन्यथा ॥ ३१ ॥
पितामहो! मैं इसी प्रकार, इसी विधि से विवाह के लिये सदा प्रयत्न करता रहूँगा। इसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा ॥ ३१ ॥
तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै ।
शाश्वतं स्थानमासाद्य मोदन्तां पितरो मम ॥ ३२ ॥
इस प्रकार मिली हुई पत्नी के गर्भ से यदि कोई प्राणी जन्म लेगा तो वह आप लोगों का उद्धार करेगा, अतः आप मेरे पितर अपने सनातन स्थान पर जाकर वहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें ॥ ३२ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुतत्पितृसंवादे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में जरत्कारु तथा उनके पितरों का संवाद नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥
- यायावर का अर्थ है सदा विचरने वाला मुनि। मुनि-वृत्ति से रहते हुए सदा इधर-उधर घूमते रहने वाले गृहस्थ ब्राह्मणों के एक समूह-विशेष की यायावर संज्ञा है। ये लोग एक गाँव में एक रात से अधिक नहीं ठहरते और पक्ष में एक बार अग्निहोत्र करते हैं। पक्षहोम सम्प्रदाय की प्रवृत्ति इन्हीं से हुई है। इनके विषय में भारद्वाज का वचन इस प्रकार मिलता है— यायावरा नाम ब्राह्मणा आसंस्ते अर्धमासादग्निहोत्रमजुह्वन्। यायावर लोग घूमते-घूमते जहाँ संध्या हो जाती है वहीं ठहर जाते हैं।
- यहाँ भूलोक ही गड्ढा है। स्वर्गवासी पितरों को जो नीचे गिरने का भय लगा रहता है उसी को सूचित करने के लिये यह कहा गया है कि उनके पैर ऊपर थे और सिर नीचे। काल ही चूहा है और वंश परम्परा ही वीरणस्तम्ब (खस नामक तिनकों का समुदाय) है। उस वंश में केवल जरत्कारु बच गये थे और अन्य सब पुरुष काल के अधीन हो चुके थे। यही व्यक्त करने के लिये चूहे के द्वारा तिनकों के समुदाय को सब ओर से खाया हुआ बताया गया है। जरत्कारु के विवाह न करने से उस वंश का वह शेष अंश भी नष्ट होना चाहता था। इसीलिये पितर व्याकुल थे और जरत्कारु को इसका बोध कराने के लिये उन्होंने इस प्रकार दर्शन दिया था। जरत्कारु से पितरों का अनुरोध इसी हेतु हुआ।