राम कहानी – जातक कथा
“राम कहानी” जातक कथाओं में आती है। यह प्रचलित राम-कथा से थोड़ी-सी भिन्न है। इसमें दुःख के समय स्वयं पर नियंत्रण रखने की शिक्षा मिलती है। अन्य जातक कथाएं पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – जातक कथाएँ।
राम कहानी: जातक कथा – Ram Kahani: Jatak Katha In Hindi
दशरथ जातक की गाथा – [लक्ष्मण और सीता दोनों उस सरोवर में प्रवेश करें, भरत कहते हैं कि राजा दशरथ ने शरीर त्याग दिया।]
वर्तमान कथा – पिता की मृत्यु का दुःख
एक बार जब भगवान बुद्ध जेतवन में निवास करते थे, एक पुरुष को उन्होंने पिता के शोक में व्याकुल देखा। उन्होंने अपने मन में सोचा कि उपदेश देने के लिये यही समय उपयुक्त है और एक शिष्य को साथ लेकर उसके घर गए। वहां उन्होंने उससे उसके दुःख का कारण पूछा। उसने कहा, “मेरा पिता मुझसे बहुत ही स्नेह रखता था। उसके न रहने से अब इस संसार में मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता।” .
भगवान् ने कहा, “हे भाई! तुम इसलिये दुःखी हो क्योंकि तुम्हें सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु आदि का रहस्य नहीं मालूम। प्राचीन काल में जो लोग शरीर की आठ अवस्थाओं से परिचित होते थे, वे इस प्रकार दुखी नहीं होते थे।”
उस आदमी के आग्रह करने पर भगवान ने नीचे लिखी राम कहानी उसे उसी समय सुनाई–
अतीत कथा – राम कहानी
“राम कहानी” शुरु करते हुए भगवान बुद्ध ने कहा – एक बार बनारस में दशरथ नामक एक प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे। उन्होंने पाप के मार्ग का त्याग कर दिया था और पवित्र जीवन व्यतीत करते थे। उनके रनिवास में १६ हजार रानियां थीं। प्रधान महिषी से उन्हें राम और लक्ष्मण नाम के दो पुत्र तथा सीता नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। प्रधान महिषी का देहान्त हो जाने पर उसके स्थान पर दूसरी रानी ने उस पद का भार सम्हाल लिया। इस रानी से भी राजा को भरत नामक एक पुत्र प्राप्त हुआ।
राम विद्या, गुण और शील में असाधारण व्यक्ति थे; इसी से लोग उन्हें राम पण्डित भी कहा करते थे। तीनों भाइयों
और सीता में परस्पर स्नेह था और वे एक दूसरे के लिये त्याग करने को सदा तयार रहते थे।
एक बार नई पटरानी से प्रसन्न होकर राजा दशरथ ने उससे वरदान माँगने को कहा। इसपर उसने कहा, “समय आने पर माँग लूंगी।” एक दिन राजा को प्रसन्न देख रानी ने कहा, “आपने मुझे वरदान देने का वचन दिया था न?”
राजा ने कहा, “हाँ हाँ, जब तुम्हारा जी चाहे मांग सकती हो।”
रानी ने साहस करके कहा, “तो फिर मेरे पुत्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दीजिये न !”
राजा उसकी बात सुनकर सन्न रह गए। उन्हें उससे घृणा हो गई। उन्होंने उसे क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखा और कहा, ‘हट काली नागिन, मेरे सामने से दूर हो!’
रानी चुपचाप चली गई, परन्तु वह भी अपनी बात पर डटी रही और बार-बार राजा से वरदान माँगती रही। राजा ने दुःखी होकर कहा, “मेरे लिए दोनों बड़े पुत्र अग्नि के समान तेजस्वी हैं। क्या तू उनकी मृत्यु की कामना करके अपने पुत्र को राज्य दिलाना चाहती है?”
दशरथ ने इस प्रश्न पर बहुत विचार किया। उन्होंने सोचा हो सकता है कि मेरे न रहने पर यह स्त्री और भी भयंकर षड्यन्त्र करे। अतः उन्होंने ज्योतिषियों से सलाह की। ज्योतिषियों ने कहा कि अभी आप बारह वर्ष और जीवित रहेंगे। उसी समय उन्होंने राम और लक्ष्मण को बुलाकर एकान्त में बात की, “देखो बेटा! यहाँ रहने से तुम्हारे लिये संकट उपस्थित हो सकता है। तुम बारह वर्ष तक किसी पड़ोस के राज्य में अथवा वन में जाकर रहो। मेरी दाह क्रिया हो जाने के उपरान्त लौट आकर अपना राज्य सम्हालना।”
इस प्रकार पिता का आदेश पाकर श्रीराम लक्ष्मण वन को चल दिये। सीता ने अपने भाइयों का साथ छोड़ना उचित न समझा और वह साथ हो ली। राम के साथ बहुत-सी जनता भी शोक संतप्त राजधानी से बाहर आई, परन्त राम ने समझा बुझाकर सबको लौटा दिया। धीरे-धीरे राम हिमालय पर्वत पर पहुँचे, जहाँ एक सुन्दर स्थान पर उन्होंने अपने लिये कुटी बनाई और वहीं रहने लगे। यहाँ पानी और कंद-मूल-फल बहुतायत से मिल जाते थे।
राम के चले जाने पर राजा दशरथ बहुत विकल रहने लगे। शोक के कारण वे अपनी आयु के शेष १२ वर्ष पूरे न कर सके और उससे पूर्व ही उनका शरीर छूट गया।
राजा का अंतिम संस्कार हो चुकने पर रानी ने आदेश दिया कि भरत का राज्याभिषेक सम्पन्न हो। परंतु प्रजा ने कहा, “नहीं, छत्र धारण करने वाले तो वनों में निवास कर रहे हैं।”
भरत ने कहा, “आप ठीक कहते हैं। मैं वन में जाकर उन्हें लौटा लाऊँगा।”
ऐसा कहकर वे राजचिन्ह लेकर हिमालय की ओर चल पड़े। जिस समय भरत आश्रम में पहुंचे तब राम कुटिया में अकेले ही थे। लक्ष्मण और सीता आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करने वन में गये थे। भरत ने राम को पिता की मृत्यु का समाचार सुनाया।
राम कहानी सुनाते हुए बुद्ध आगे बोले – राम जी गम्भीर स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्होंने शोक के वेग को सहन किया, परन्तु लक्ष्मण और सीता के आने पर सहसा यह समाचार उन्हें न सुना सके। उनके आने पर उन्होंने उन्हें सरोवर में प्रवेश करने का आदेश दिया और फिर उपरोक्त गाथा कही – भरत कहते हैं कि राजा दशरथ ने शरीर त्याग दिया।
इस दुःखद समाचार को सुन लक्ष्मण और सीता मूर्छित हो गए। लोगों ने उन्हें सरोवर से निकालकर चैतन्य किया। भरत को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पिता की मृत्यु-समाचार ने राम को थोड़ा भी विचलित नहीं किया। उन्होंने साहस करके राम से पूछा। राम ने धैर्यपूर्वक नीचे लिखी गाथाएँ कहीं–
“जब मनुष्य जोर-जोर से रोकर भी किसी को बचा नहीं सकता, तो बुद्धिमान उसके लिये अपने मन को दुखी क्यों करे।”
“कम आयु वाले बच्चे, वयस्क, बूढ़े, मूर्ख, विद्वान, धनी और निर्धन, सब का अन्त निश्चित है। इनमें से प्रत्येक को मरना होता है।”
“जैसे पके हुए फल का डाल से गिरना निश्चित है, इसी प्रकार सब प्राणियों के लिये मृत्यु भी सुनिश्चित है।”
“अतः बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि अपने साथियों की भोजनादि को व्यवस्था करे, उनकी रक्षा करे, उनकी आवश्यकतानुसार उन्हें दे और जो बचे उसे सुरक्षित रखे!”
राम पंडित का उपदेश सुनकर लोगों का शोक कम हुआ। इसके पश्चात् भरत ने पिता का राज्य राम को समर्पित करते हुए कहा, “लक्ष्मण और सीता सहित आप इसे सम्हालें।” परंतु राम ने कहा, “पिता के आदेशानुसार मैं बारह वर्ष से पूर्व राज्य नहीं ले सकता।”
“परन्तु तब तक राज्य की देख-रेख कौन करेगा?” भरत ने फिर प्रश्न किया।
राम ने कहा, “ठीक है। मैं उसका प्रबन्ध किये देता हूँ।” ऐसा कहकर उन्होंने अपनी खड़ाऊँ भरत को देते हुए कहा, “तब तक ये पादुकाएँ काम सम्हालेंगी।”
राम की पादुकाएँ लेकर भरत काशी लौट आए और उन्हें सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया। जब कभी किसी मामले पर विचार होता था तो पादुकाएँ निर्णय देती थीं। यदि निर्णय सही होता था तो पादुकाएं शांत रहती थीं, परंतु यदि निर्णय ठीक न हुआ तो दोनों पादुकाएँ ऊपर उठकर परस्पर टकराती और शब्द करती थीं, जिसका अर्थ होता था कि तुम्हारा निर्णय ठीक नहीं है।
समय बीतने पर राम लौट आये और भरत ने राज्य उन्हें सौंप दिया। राम पंडित ने १६००० वर्ष राज्य किया और अन्त में स्वर्ग लाभ किया।
राम कहानी समाप्त कर भगवान बुद्ध ने कहा, “इस कहानी में शुद्धोदन (बुद्ध के पिता) महाराज दशरथ थे। महामाया प्रधान महिषी (राम की माँ थीं) राहुल की माँ सीता थीं, आनन्द भरत था और राम तो मैं स्वयम् ही था।”
very nice and inspiring and motivating story. I liked it as a child because I got into the story so deeply that i took my heart.