दिट्ठ मांगलिका का पुत्र – जातक कथा
“दिट्ठ मांगलिका का पुत्र” एक महत्वपूर्ण जातक कथा है। इस कहानी से सीखने को मिलता है कि दान किसे दिया चाहिए और किसे नहीं देना चाहिए। अन्य जातक कथाएँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – जातक कथाएं।
The Tale Of Dittha Mangalika’s Son: Jatak Katha In Hindi
मातंग जातक की गाथा – [“तू कहाँ से आया है? तेरे वस्त्र अत्यन्त गंदे हैं, तू अत्यंत नीच है। तेरी शक्ल भूत की सी है। तेरे शरीर पर फटे चीथड़े हैं, दान के लिए कुपात्र, बोल तू कौन है?”]
वर्तमान कथा – उदयन का अहंकार
जिस समय भगवान बुद्ध जेतवन में निवास करते थे, उसी समय कोशाम्बी में उदयन राज्य करता था। उदयन का एक बहुत बड़ा उद्यान था जिसमें वह कभी-कभी आकर विहार किया करता था। उदयन एक विलासी राजा था। इन्हीं दिनों पिंडोल भारद्वाज जेतवन से आकाश-पथ से जाते समय कौशाम्बी में उदयन के इसी उद्यान में विश्राम किया करते थे। एक दिन ऐसा हुआ कि उसी समय उदयन भी उद्यान में आया। उसके साथ बहुत-सी स्त्रियाँ थीं। पान, गान, नृत्यादि का आनन्द लेकर वह सो गया।
उसकी परिचारिकाएँ बाग में घूमने लगीं। वहाँ उन्होंने एक संन्यासी को देखा तो उसके पास जाकर कुछ उपदेश सुनने की इच्छा भी उनकी हुई। जब वे इस प्रकार पिंडोल भारद्वाज से उपदेश सुन रही थीं उसी समय उदयन की आँख खुल गई।
जब उसे यह मालूम हुआ कि उसकी दासियाँ एक संन्यासी के पास बैठी हैं तो वह क्रोध से आग बबूला हो गया और बिना सोचे समझे उस आदरणीय भिक्षु को दुर्वचन बोलन लगा। उसने अपने नौकरों को आदेश दिया कि वे लाख चींटियों की एक बोरी उस संन्यासी पर छोड़ दें। परन्तु जब उसके आदमी ऐसा करने आए तो आश्चर्य चकित रह गए क्योंकि भारद्वाज आकाश में बहुत ऊँचे उठ गए थे और हंसते हुए जेतवन की ओर यात्रा कर रहे थे।
तथागत ने यह वृत्तान्त सुना तो कहा, “उदयन ने पूर्व जन्म में भी ऐसा ही किया था।” लोगों के आग्रह पर तथागत ने पूर्व जन्म की बात कही, जिसमें दिट्ठ मांगलिका का पुत्र व उसकी कहानी इस प्रकार थी–
अतीत कथा – दिट्ठ मांगलिका का बेटा
एक बार जब काशी में ब्रह्मदत्त राज्य करता था। उस समय बोधिसत्व का जन्म काशी से बाहर एक चाण्डाल के घर हुआ। लोग चाण्डाल को छूते नहीं है। उसकी सूरत देखकर भी लोग अमंगल को आशंका करते हैं। चाण्डाल बालक का नाम मातंग रखा गया। बड़ा होने पर उसकी ज्ञान भरी बातें सुनकर लोग उसे ज्ञानी मातंग कहने लगे।
काशी के एक बड़े सेठ को एक कन्या हुई, जिसका नाम उसने दिट्ठ मांगलिका रखा। दिट्ठ मांगलिका बड़ी रूपवती
और गुणवती थी। एक बार जब वह अपने सेवकों के साथ पालकी पर सवार होकर कहीं जा रही थी, उसकी दृष्टि मातंग पर पड़ी। उसने उसका परिचय जानना चाहा, परंतु जब उसने चांडाल कहकर अपना परिचय दिया तब तो उसे क्रोध आ गया। उसने अपमान पूर्वक उसे अपने सामने से हटवा दिया।
सेवकों ने मातंग को इतना पीटा कि वह मूर्छित हो गया। चैतन्य होने पर मातंग ने संपूर्ण स्थिति पर विचार किया। “एक लड़की धन-वैभव के बल पर अपने को मांगलिका और धनहीन को अमांगलिक समझती है।” उसने उसका गर्व चूर करने का संकल्प कर लिया।
दूसरे दिन मातंग नगर सेठ के घर के मुख्य द्वार के सामने जाकर लेट गए। एक दिन, दो दिन, तीन दिन इसी प्रकार छः दिन बीत गए। दिट्ठ मांगलिका के अतिरिक्त और कोई वस्तु लेने को वह तयार न था। अन्त में सातवें दिन सेठ ने दिट्ठ मांगलिका उसके सुपुर्द कर दी।
जब दिठ्ठ मांगलिका ने उससे घर चलने को कहा तो मातंग ने उत्तर दिया, “तुम्हारे आदमियों ने मार मार कर मुझे अधमरा कर दिया है। मैं चल नहीं सकता। यदि संभव हो तो मुझे पीठ पर उठाकर ले चलो।” बिचारी दिठ्ठ मांगलिका अब क्या कर सकती थी। हजारों आदमियों के बीच से उसे अपने चांडाल पति को पीठ पर उठाकर नगर से बाहर जाना पड़ा।
बोधिसत्व ने उसे कई दिन अपने से पृथक रखा और उसकी सब व्यवस्था उच्च वर्णियों के समान करा दी।
“मैं इसे क्या दूं और किस प्रकार इसे सम्मानित करूं,” इस प्रश्न पर विचार करने के उपरांत बोधिसत्व ने संन्यास लेने का ही निश्चय किया। उस दिट्ठ मांगलिका से कहा, “जंगल गए बिना हमारा निर्वाह नहीं हो सकता। मुझे जाना ही होगा। तुम चिन्ता मत करना।”
बोधिसत्व ने वन में संन्यास ग्रहण किया और तप और अभ्यास के द्वारा एक सप्ताह में ही अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं। अपनी अलौकिक सिद्धि के प्रभाव से मातंग काशी से बाहर चांडालों के द्वार पर आकाश-मार्ग से उतरा। पति को इस रूप में देखकर दिट्ठ मांगलिका रोने लगी। बिचारी को चांडाल पति मिला, उसका भी सुख जीवन में एक दिन न पा सकी। “आपने संन्यास क्यों ले लिया? मुझे क्यों छोड़ दिया?” आदि करुण शब्दों में उसने अपने मन का दुःख सुनाया।
मातंग ने कहा, “मैंने संन्यास इसीलिए लिया है कि तुम्हें पूर्व से भी अधिक ऐश्वर्य से युक्त कर दूँ। क्या तुम लोगों के बीच में यह कह सकोगी कि मेरा पति मातंग नहीं महाब्रह्मा है?”
दिट्ठ मांगलिका – “कह सकूंगी।”
मातंग – “और यदि लोग पूछें कि तुम्हारा पति कहाँ है, तो कहना ब्रह्मलोक गए हैं। पूर्णमासी को पूर्णचन्द्र को विदीर्ण कर वे यहाँ प्रगट होंगे!”
ऐसा कह कर मातंग हिमालय पर्वत पर चला गया। दिट्ठ मांगलिका को जैसा बताया गया था, उसने वैसा ही लोगों से कह दिया। अब सारे नगर में इस विषय पर चर्चा होने लगी।
“अरे भाई वह तो महाब्रह्मा है।”
“हमें तो सब ढोंग मालूम होता है।”
“पूर्णमासी के दिन झूठ सच सब प्रगट हो जायगा।”
इधर पूर्णमासी के दिन बोधिसत्व ने महाब्रह्मा का रूप धारण कर चन्द्र मंडल के भीतर से प्रगट होकर अपार तेज से सब को चकित कर दिया। लोगों को विश्वास हो गया। भक्तों की भीड़ की भीड़ चांडाल-निवास की ओर भागी हुई गई और वहाँ अपने देवता के स्वागत के उपयुक्त सजावट की।
इसी समय दिट्ठ मांगलिका के शरीर से बोधिसत्व के शरीर का स्पर्श हो गया और उसे गर्भ रह गया। बोधिसत्व ने कहा, “दिट्ठ मांगलिका! तुम्हें पुत्र होगा – बड़ा गौरवशाली और ऐश्वर्यवान।” ऐसा कहकर भक्तों को उपदेश देकर वे पुनः चन्द्रमंडल में समा गए।
इधर ब्रह्मा के भक्तों ने पालकी पर दिट्ठ मांगलिका की सवारी सारे नगर में घुमाई। भक्तों ने खूब भेंट दी। करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति इकट्ठी हो गई। नगर से बाहर महल, बाग-बगीचे आदि बन गए।
जिस समय दिट्ठ मांगलिका का पुत्र पैदा हुआ, उस समय उसके पास ऐश्वर्य और वैभव किसी वस्तु की कमी न थी। पंडितों ने पुत्र का नाम मांडव्यकुमार रखा। उसकी शिक्षा की अच्छी व्यवस्था की गई और १६ वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते वह पूर्ण पंडित हो गया।
मांडव्यकुमार को ब्राह्मणों का बड़ा ध्यान रहता था। एक बार उसने कई हजार ब्राह्मणों को निमंत्रित करके बड़ा भारी उत्सव मनाया। बोधिसत्व के मन में आई कि चलकर दिट्ठ मांगलिका का हाल-चाल देख आएं। अतः आकाशमार्ग से वे फटे-पुराने कपड़ों को धारण किये ही मांडव्य के महल के सामने प्रगट हुए।
मांडव्यकुमार की दृष्टि इस अमंगल मूर्ति पर पड़ते ही उसने नीच, जातिभ्रष्ट, पतित, पापी आदि दुर्वचनों से उसका अपमान किया और उपरोक्त गाथा कही – “तू कहाँ से आया है? तेरे वस्त्र अत्यन्त गंदे हैं, तू अत्यंत नीच है। तेरी शक्ल भूत की सी है। तेरे शरीर पर फटे चीथड़े हैं, दान के लिए कुपात्र, बोल तू कौन है?”
मातंग ने उसके प्रश्न के उत्तर में कहा–
“भले आदमी, हजारों आदमी खा-पी रहे हैं। खाने की कमी नहीं है। तुम जानते हो कि हमें जो दिया जाय, उसी पर गुजर करना होता है। अतः इस नीच जाति वाले को भी कुछ आपके इस भोज का आनन्द मिल जाने दो।”
दिट्ठ मांगलिका का पुत्र मांडव्यकुमार बोला, “अरे नीच! यह भोजन पवित्र आचरण वाले ब्राह्मणों के लिए बना है। तुझ जैसे अपवित्र व्यक्ति को कैसे मिल सकता है।”
मातंग ने फिर कहा, “यहाँ बहुत से कुपात्र भोजन कर रहे हैं। खोज करने से उनसे अच्छे पात्र मिल सकते हैं।”
निदान, मांडव्य ने उसे बाहर निकाल देने का आदेश सेवकों को दिया। परन्तु उनके आने से पूर्व ही बोधिसत्व
आकाश में बहुत ऊँचे उठ गये थे। ब्राह्मण तथा मांडव्यकुमार आश्चर्यचकित देखते रह गए।
बोधिसत्व नगर के पूर्व द्वार पर पहुँचे और वहाँ कुछ भिक्षा प्राप्त कर भोजन किया। इधर नगर के देवताओं में संन्यासी के अपमान से क्षोभ उत्पन्न हुआ और भूत-प्रेतादि मांडव्यकुमार के महल पर जाकर उपद्रव करने लगे।
ब्राह्मणों की गर्दनें ऐंठ गई। मांडव्यकुमार के हाथ-पैर पकड़ गए और गर्दन एकदम पीछे मुड़ गई। वह मरा नहीं परन्तु कष्ट और पीड़ा से मूर्छित हो गया। दिट्ठ मांगलिका को पुत्र की इस दशा का समाचार मिला तो रोती-विलाप करती वहाँ आ उपस्थित हुई।
लोगों ने उसे बताया कि एक संन्यासी फटे-चीथड़े पहने यहाँ आया था। तेरे पुत्र ने उसका अपमान करके निकलवा दिया। वह आकाश मार्ग से पूर्व की ओर गया है।
दिट्ट मांगलिका समझ गई कि वह संन्यासी सिवाय मातंग के और कोई अन्य नहीं हो सकता है। वह भागी हुई उनके समीप गई। उनके पैरों पर गिरकर पुत्र की प्राणरक्षा की प्रार्थना की।
बोधिसत्व ने अपने कमंडल में पड़े हुए कुछ जूठे चावलों के कण देते हुए कहा, “इन्हें इनमें से कुछ अपने पुत्र के मुख में डाल दो और कुछ को पानी में मिलाकर सब ब्राह्मणों को पिला दो। सब बच जायंगे। परन्तु अपने पुत्र को समझा दो कि उसे दान करते समय जाति, वेष आदि नहीं देखना चाहिए, बल्कि योग्यता के अनुसार पात्र देखकर दान देना चाहिए।”
दिट्ठ मांगलिका ने ब्राह्मणों सहित पुत्र को विपत्ति से छुड़ाकर मातंग के कहे अनुसार उपदेश दिया, जिसके अनुसार वह अपने जीवन भर चलता रहा।
तथागत ने कथा समाप्त करके कहा, “पूर्व जन्म में उदयन ही मांडव्यकुमार था और मातंग तो मैं था ही।”