चार अक्षर वाली चीख – जातक कथा
“चार अक्षर वाली चीख” जातक कथा की शिक्षा याद रखने योग्य है। दानहीन, दुःखियों की मदद न करने वाले व ग़लत काम करने वाले को नरक भोगना पड़ता है। अन्य जातक कथाएं पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – जातक कथाएँ।
The Tale Of Four Letters: Jatak Katha In Hindi
लौहकुम्भि जातक की गाथा – [निज संपति का उचित भाग में दान नहीं कर पाया। बुरे कर्म ही किये, सदा पापों में भरमाया। सुख सम्पति दो दिन का खेल दिखाकर हुए तिरोहित, कहाँ मुक्ति? इस लोह कुम्भि में घोर कष्ट है पाया।]
वर्तमान कथा – पशुओं की बलि
एक बार कौशल नरेश महाराज प्रसेनजित ने रात्रि में भयंकर चीत्कार-पूर्ण शब्द सुने। इन शब्दों में केवल एक एक अक्षर ही था और वे थे नि, हा, भा, ए। चार अक्षर वाली उस करुण चीत्कार ध्वनि के कारण राजा को रात भर नींद नहीं आई और वे शब्द उसके दिमाग में गूंजते रहे।
प्रात:काल होने पर राजा ने ब्राह्मणों को बुलाकर पूछा तो उन्होंने कहा, “राजन्! यह करुण चीत्कार-ध्वनि नरक के प्राणियों की है। इसको सुनने के भयंकर परिणाम होते हैं और राज्य, शरीर और यश तीन में से एक तो अवश्य ही नष्ट होता है।”
राजा ने घबड़ाकर पूछा, “हे ब्राह्मणो! मैं चार अक्षर वाले इस भयंकर शब्द को सुनकर रात-भर सो नहीं सका हूँ। इस समय भी मेरे मस्तिष्क में वे ही चार अक्षर घूम रहे हैं। इसके भयंकर परिणामों से मेरी रक्षा तुम्हें करना ही होगी।”
इस पर ब्राह्मणों ने चतुर्विध बलि विधान का महत्व बताकर कहा, “हे राजा! प्रत्येक योनि में से चार-चार प्राणियों की बलि देना होगी।”
राजा ने आदेश दिया और तुरन्त यज्ञ की तैयारी होने लगी। यज्ञ-कुण्ड के समीप बड़े-बड़े खूँटे गाड़े गए जिनमें बलि-जीव गाय, भैंस, घोड़े, हाथी, गधे, मनुष्य तथा अन्य अनेक पशु-पक्षी कीड़े और उरग आदि जीव थे।
महारानी मल्लिका ने जब यह सब देखा तो वे घबराई हुई राजा के समीप आई और पूछा, “महाराज, यह इतनी धूम-धाम किस लिये हो रही है?”
राजा ने रानी को पास बिठाकर रात की घटना सुनाई और कहा, “ब्राह्मणों को मैंने चतुर्विध बलि विधान करने की अनुमति दे दी है। उसके बिना यह अमंगल शांत नहीं होगा।”
“परन्तु सबसे बड़े ब्राह्मण से तो आपने परामर्श ही नहीं लिया”, रानी ने हंसते हुए कहा।
राजा ने आश्चर्य से पूछा, “सबसे बड़ा ब्राह्मण कौन? ” रानी ने कहा, “स्वयम् भगवान् बुद्ध।”
निदान, राजा रानी सहित तथागत की सेवा में जेतवन में उपस्थित हुआ।
राजा के मुख से सम्पूर्ण वृत्तांत सुन तथागत ने कहा, “हे राजा! चिन्ता की कोई बात नहीं है। नरक की यातनाएँ न सह सकने के कारण कुछ लोग चीत्कार कर उठे हैं। वही शब्द तुम्हें सुनाई दिया है। यह शब्द तुमने ही प्रथम बार नहीं सुना। इससे पूर्व भी और राजाओं ने उसे सुना है। ब्राह्मणों ने तब भी बलि विधान बताया था, परन्तु बुद्धिमानों की बात मानकर उन राजाओं ने उसे रोक दिया था। जो चार अक्षर तुमने सुने हैं वे उन्हें भी सुनाई दिये थे, परन्तु उनका अर्थ किसी की समझ में नहीं आया था। अन्त में प्रबुद्ध पुरुषों ने उनका अर्थ समझाकर उस हत्या विधान को रुकवा दिया था।” तथागत के समझाने से बलि रोक दी गई।
राजा के जिज्ञासा प्रगट करने पर तथागत ने नीचे लिखी कथा सुनाई–
अतीत कथा – चार अक्षर और उनका अर्थ
एक बार जब काशी में ब्रह्मदत्त का राज्य था। बोधिसत्व का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। बड़े होने पर उन्होंने गृहस्थ जीवन त्याग कर संन्यास ले लिया और हिमालय पर्वत पर कुटी बनाकर तपस्या और योगाभ्यास करने लगे।
उस समय काशी के राजा को इसी प्रकार की चीत्कार ध्वनि सुनाई दी थी और उसने भी ये ही चार अक्षर सुने थे। ब्राह्मणों ने उस समय भी चतुर्विधि बलि विधान की व्यवस्था की थी।
बोधिसत्व को योग बल से यह सब मालूम हुआ तो इन असंख्य प्राणियों की हत्या रोकने के लिए वे योग-शक्ति से तुरंत काशी जा पहुंचे और राजा को कहलाया कि उन चार अक्षरों का अर्थ वे समझा सकते हैं।
राजा हाथी पर बैठ उनकी सेवा में उपस्थित हुआ और अपनी चिन्ता का कारण निवेदन किया। बोधिसत्व ने कहा – राजा! पापियों को दंड देने के लिए नरक में लौहकुम्भि नामक एक यातना दी जाती है। लोहे के एक बड़े घड़े में तेल खौलता है। उसी में प्राणियों को डाल दिया जाता है। उबलते हुए तेल में ये ऊपर नीचे आते जाते हैं परंतु घड़े का मुख छोटा होने से मुख तक नहीं आ पाते।
हजारों वर्षों बाद जब कभी वे घड़े के मुख पर ऊपर उठ आते हैं, तो चिल्लाकर अपनी पीड़ा विश्व को सुनाते है। जो चार अक्षर सुनाई देते हैं वास्तव में वे उनकी बातों के प्रथम अक्षर हैं। अगला अक्षर बोल सकने के पूर्व ही वे पुनः नीचे चले जाते हैं। उनकी पूरी बात आज तक किसी को सुनने को नहीं मिली। परंतु योगबल से मैं उनके हृदय की बात जानता हूँ। चारों पापी जो कहना चाहते हैं, वह मैं चार छंदों में तुम्हें सुनाता हूँ–
(१) नि…
निज संपति का उचित भाग में दान नहीं कर पाया, बुरे कर्म ही किये सदा, नित पापों में भरमाया। सुख-सम्पति दो दिन का खेल दिखाकर हुए तिरोहित, कहाँ मुक्ति! इस लोहकुम्भि में घोर कष्ट है पाया।
(२) हा…
हाय! हाय! दुःखियों की विपदा अब मैंने पहचानी, कोई हृदय द्रवित होगा क्या सुनकर मेरी बानी? बीत रहे हैं युग पर युग, पर अंत कहाँ कष्टों का, अरे नरक-यातना कभी भी होती नहीं पुरानी।
(३) भा…
भाग्य-चक्र भी कर्मों के अनुसार हमें ले जाता, किन्तु नरक के इन कष्टों का छोर नहीं दिख पाता। बोए थे विष-बीज धरा पर करके जो नादानी, आज उन्हीं कटु-गरल-फलों को रो-रो कर हूँ खाता।
(४) ए…
एक बार इस लोहकुम्भि से यदि पाऊँ छुटकारा, एक बार यदि भाग्य मुझे दे फिर से नर-तन प्यारा। सच कहता हूँ करुणा के जल से मन का मल धोकर, सत्कर्मों को अर्पित कर दूंगा मैं जीवन सारा।
इस कथा को सुन राजा को संतोष हो गया। उसने बलि विधान रुकवा दिया और यज्ञ-कुण्ड मुँदवाकर समस्त बलि जीवों को मुक्त कर दिया।