कैकेयी का चरित्र चित्रण
कैकेयी जी महाराज केकय-नरेश की पुत्री तथा महाराज दशरथ की तीसरी पटरानी थीं। ये अनुपम सुन्दरी, बुद्धिमती, साध्वी और श्रेष्ठ वीराङ्गना थीं। महाराज दशरथ की तीन पटरानियाँ थीं – कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। वे इनसे सर्वाधिक प्रेम करते थे। इन्होंने देवासुर संग्राम में महाराज दशरथ के साथ सारथि का कार्य करके अनुपम शौर्य का परिचय दिया और महाराज दशरथ के प्राणों की दो बार रक्षा की।
यदि शम्बरासुर से संग्राम में महाराज के साथ महारानी कैकयी न होतीं तो उनके प्राणों की रक्षा असम्भव थी। महाराज दशरथ ने अपनी प्राण-रक्षा के लिये इनसे दो वर माँगने का आग्रह किया और इन्होंने समय पर माँगने की बात कहकर उनके आग्रह को टाल दिया। इनके लिये पति-प्रेम के आगे संसार की सारी वस्तुएँ तुच्छ थीं।
रामायण महाकाव्य के अनुसार महारानी कैकेयी भगवान श्रीराम से सर्वाधिक स्नेह करती थीं। श्रीराम के युवराज बनाये जाने का संवाद सुनते ही ये आनन्दमग्न हो गयीं। मन्थरा के द्वारा यह समाचार पाते ही इन्होंने उसे अपना मूल्यवान् आभूषण प्रदान किया और कहा, “मन्थरे! तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया है। मेरे लिये श्रीराम अभिषेक के समाचार से बढ़कर दूसरा कोई प्रिय समाचार नहीं हो सकता। इसके लिये तू मुझ से जो भी मांगेगी, मैं अवश्य दूंगी।” माता कैकेयी के पुत्र भरत थे।
इसी से पता लगता है कि ये श्रीराम मे कितना प्रेम करती थीं। इन्होंने मन्थरा की विपरीत बात सुनकर उसकी जीभ तक खींचने की बात कही। इनके श्रीराम के वनगमन में निमित्त बनने का प्रमुख कारण श्रीराम की प्रेरणा से देवकार्य के लिये सरस्वती देवी के द्वारा इनकी बुद्धि का परिवर्तन कर दिया जाना था।
महारानी कैकेयी ने भगवान श्रीराम की लीला में सहायता करने के लिये जन्म लिया था। यदि श्रीराम का अभिषेक हो जाता तो वनगमन के बिना श्रीराम का ऋषि-मुनियों को दर्शन, रावण वध, साधु परित्राण, दुष्ट-विनाश, धर्म-संरक्षण आदि अवतार के प्रमुख कार्य नहीं हो पाते। इससे स्पष्ट है कि कैकेयीजी ने श्रीराम की लीला में सहयोग करने के लिये ही जन्म लिया था। इसके लिये इन्होंने चिरकालिक अपयश के साथ पापिनी, कुलयातिनी, कलङ्किनी आदि अनेक उपाधियों को मौन होकर स्वीकार कर लिया।
चित्रकूट में जब माता कैकेयी औरा राम से एकान्त में मिलीं, तब इन्होंने अपने नेत्रों में आँसू भरकर उनसे कहा, “हे राम! माया से मोहित होकर मैंने बहुत बड़ा अपकर्म किया है। आप मेरी कुटिलता को क्षमा कर दें, क्योंकि साधुजन क्षमाशील होते हैं। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये आपने ही मुझसे यह कर्म करवाया है। मैंने आपको पहचान लिया है। आप देवताओं के लिये भी मन, बुद्धि और वाणी से परे हैं।”
भगवान् श्री राम ने उनसे कहा, “महाभागे! तुमने जो कहा, वह मिथ्या नहीं है। मेरी प्रेरणा से ही देवताओं का कार्य सिद्ध करनेके लिये तुम्हारे मुख से वे शब्द निकले थे। उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। अब तुम जाओ। सर्वत्र आसक्तिरहित मेरी भक्ति के द्वारा तुम मुक्त हो जाओगी।”
भगवान श्रीराम के इस कथन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि कैकेयी जी श्रीराम की अन्तरंग भक्त, तत्त्वज्ञान सम्पन्न और सर्वथा निर्दोष थीं। इन्होंने सदा के लिये अपकीर्ति का वरण करके भी श्रीराम की लीला में अपना विलक्षण योगदान दिया।