ग्रंथधर्म

कश्यप के पुत्रों की उत्पत्ति – महाभारत का सोलहवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)

“कश्यप के पुत्रों की उत्पत्ति” नामक यह कथा महाभारत के आदि पर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। इसमें पिछले अध्याय की कथा को विस्तार दिया गया है। इस अध्याय में उनकी प्रथम पत्नी कद्रू से हज़ार नागों के पैदा होने और द्वितीय पत्नी विनता से अरुण व गरुड नामक दो पुत्रों की उत्पत्ति की कहानी है। कश्यप के पुत्रों की उत्पत्ति ही आगे चलकर जनमेजय के सर्प-यज्ञ की कथा से जुड़ती है। पढ़ें “कश्यप के पुत्रों की उत्पत्ति” कथा। शेष महाभारत पढ़ने के लिए कृपया यहाँ देखें – महाभारत की कथा

शौनक उवाच
सौते त्वं कथयस्वेमां विस्तरेण कथां पुनः ⁠।
आस्तीकस्य कवेः साधोः शुश्रूषा परमा हि नः॥⁠ १॥
शौनक जी बोले—
सूतनन्दन! आप ज्ञानी महात्मा आस्तीक की इस कथा को पुनः विस्तार के साथ कहिये। हमें उसे सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा है॥⁠ १॥

मधुरं कथ्यते सौम्य श्लक्ष्णाक्षरपदं त्वया ⁠।
प्रीयामहे भृशं तात पितेवेदं प्रभाषसे॥⁠ २॥
सौम्य! आप बड़ी मधुर कथा कहते हैं। उसका एक-एक अक्षर और एक-एक पद कोमल है। तात! इसे सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। आप अपने पिता लोमहर्षण की भाँति ही प्रवचन कर रहे हैं॥⁠ २॥

अस्मच्छुश्रूषणे नित्यं पिता हि निरतस्तव ⁠।
आचष्टैतद् यथाख्यानं पिता ते त्वं तथा वद॥⁠ ३॥
आपके पिता सदा हम लोगों की सेवा में लगे रहते थे। उन्होंने इस उपाख्यान को जिस प्रकार कहा है, उसी रूप में आप भी कहिये॥⁠ ३॥

सौतिरुवाच
आयुष्मन्निदमाख्यानमास्तीकं कथयामि ते ⁠।
यथाश्रुतं कथयतः सकाशाद् वै पितुर्मया॥⁠ ४॥
उग्रश्रवा जी ने कहा—
आयुष्मन्! मैंने अपने कथा वाचक पिता जी के मुख से यह आस्तीक की कथा जिस रूप में सुनी है, उसी प्रकार आप से कहता हूँ॥⁠ ४॥

पुरा देवयुगे ब्रह्मन् प्रजापतिसुते शुभे ⁠।
आस्तां भगिन्यौ रूपेण समुपेतेऽद्भुतेऽनघ॥⁠ ५॥
ते भार्ये कश्यपस्यास्तां कद्रूश्च विनता च ह ⁠।
प्रादात् ताभ्यां वरं प्रीतः प्रजापतिसमः पतिः॥⁠ ६॥
कश्यपो धर्मपत्नीभ्यां मुदा परमया युतः ⁠।
वरातिसर्गं श्रुत्वैवं कश्यपादुत्तमं च ते॥⁠ ७॥
हर्षादप्रतिमां प्रीतिं प्रापतुः स्म वरस्त्रियौ ⁠।
वव्रे कद्रूः सुतान् नागान् सहस्रं तुल्यवर्चसः॥⁠ ८॥
ब्रह्मन्! पहले सत्ययुग में दक्ष प्रजापति की दो शुभ लक्षणा कन्याएँ थीं—कद्रू और विनता। वे दोनों बहिनें रूप-सौन्दर्य से सम्पन्न तथा अद्भुत थीं। अनघ! उन दोनों का विवाह महर्षि कश्यप जी के साथ हुआ था। एक दिन प्रजापति ब्रह्मा जी के समान शक्तिशाली पति महर्षि कश्यप ने अत्यन्त हर्ष में भरकर अपनी उन दोनों धर्म पत्नियों को प्रसन्नता पूर्वक वर देते हुए कहा—‘तुममें से जिसकी जो इच्छा हो वर माँग लो।’ इस प्रकार कश्यप जी से उत्तम वरदान मिलने की बात सुनकर प्रसन्नता के कारण उन दोनों सुन्दरी स्त्रियों को अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। कद्रू ने समान तेजस्वी एक हजार नागों को पुत्र रूप में पाने का वर माँगा॥⁠ ५—८॥

द्वौ पुत्रौ विनता वव्रे कद्रूपुत्राधिकौ बले ⁠।
तेजसा वपुषा चैव विक्रमेणाधिकौ च तौ॥⁠ ९॥
विनता ने बल, तेज, शरीर तथा पराक्रम में कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र माँगे॥⁠ ९॥

तस्यै भर्ता वरं प्रादादत्यर्थं पुत्रमीप्सितम् ⁠।
एवमस्त्विति तं चाह कश्यपं विनता तदा॥⁠ १०॥
विनता को पतिदेव ने अत्यन्त अभीष्ट दो पुत्रों के होने का वरदान दे दिया। उस समय विनता ने कश्यपजी से ‘एवमस्तु‘ कहकर उनके दिये हुए वर को शिरोधार्य किया॥⁠ १०॥

यथावत् प्रार्थितं लब्ध्वा वरं तुष्टाभवत् तदा ⁠।
कृतकृत्या तु विनता लब्ध्वा वीर्याधिकौ सुतौ॥⁠ ११॥
अपनी प्रार्थना के अनुसार ठीक वर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। कद्रू के पुत्रों से अधिक बलवान् और पराक्रमी—दो पुत्रों के होने का वर प्राप्त करके विनता अपने को कृतकृत्य मानने लगी॥⁠ ११॥

कद्रूश्च लब्ध्वा पुत्राणां सहस्रं तुल्यवर्चसाम् ⁠।
धार्यौ प्रयत्नतो गर्भावित्युक्त्वा स महातपाः॥⁠ १२॥
ते भार्ये वरसंतुष्टे कश्यपो वनमाविशत् ⁠।
समान तेजस्वी एक हजार पुत्र होने का वर पाकर कद्रू भी अपना मनोरथ सिद्ध हुआ समझने लगी। वरदान पाकर संतुष्ट हुई अपनी उन धर्म पत्नियों से यह कहकर कि ‘तुम दोनों यत्न पूर्वक अपने-अपने गर्भ की रक्षा करना’ महातपस्वी कश्यप जी वन में चले गये॥⁠ १२॥

सौतिरुवाच
कालेन महता कद्रूरण्डानां दशतीर्दश॥⁠ १३॥
जनयामास विप्रेन्द्र द्वे चाण्डे विनता तदा ⁠।
उग्रश्रवा जी ने कहा—
ब्रह्मन्! तदनन्तर दीर्घ काल के पश्चात् कद्रू ने एक हजार और विनता ने दो अण्डे दिये॥⁠ १३॥

तयोरण्डानि निदधुः प्रहृष्टाः परिचारिकाः॥⁠ १४॥
सोपस्वेदेषु भाण्डेषु पञ्चवर्षशतानि च ⁠।
ततः पञ्चशते काले कद्रूपुत्रा विनिःसृताः॥⁠ १५॥
अण्डाभ्यां विनतायास्तु मिथुनं न व्यदृश्यत ⁠।
दासियों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनों के अण्डों को गरम बर्तनों में रख दिया। वे अण्डे पाँच सौ वर्षों तक उन्हीं बर्तनों में पड़े रहे। तत्पश्चात् पाँच सौ वर्ष पूरे होने पर कद्रू के एक हजार पुत्र अण्डों को फोड़कर बाहर निकल आये; परंतु विनता के अण्डों से उसके दो बच्चे निकलते नहीं दिखायी दिये॥⁠ १४-१५॥

ततः पुत्रार्थिनी देवी व्रीडिता च तपस्विनी॥⁠ १६॥
अण्डं बिभेद विनता तत्र पुत्रमपश्यत ⁠।
पूर्वार्धकायसम्पन्नमितरेणाप्रकाशता॥⁠ १७॥
इससे पुत्रार्थिनी और तपस्विनी देवी विनता सौत के सामने लज्जित हो गयी। फिर उसने अपने हाथों से एक अण्डा फोड़ डाला। फूटने पर उस अण्डे में विनता ने अपने पुत्र को देखा, उसके शरीर का ऊपरी भाग पूर्ण रूप से विकसित एवं पुष्ट था, किंतु नीचे का आधा अंग अभी अधूरा रह गया था॥⁠ १६-१७॥

स पुत्रः क्रोधसंरब्धः शशापैनामिति श्रुतिः ⁠।
योऽहमेवं कृतो मातस्त्वया लोभपरीतया॥⁠ १८॥
शरीरेणासमग्रेण तस्माद् दासी भविष्यसि ⁠।
पञ्चवर्षशतान्यस्या यया विस्पर्धसे सह॥⁠ १९॥
सुना जाता है, उस पुत्र ने क्रोध के आवेश में आकर विनता को शाप दे दिया—‘माँ! तूने लोभ के वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीर का बना दिया—मेरे समस्त अंगों को पूर्णतः विकसित एवं पुष्ट नहीं होने दिया; इसलिये जिस सौत के साथ तू लाग-डाँट रखती है, उसी की पाँच सौ वर्षों तक दासी बनी रहेगी॥⁠ १८-१९॥

एष च त्वां सुतो मातर्दासीत्वान्मोचयिष्यति ⁠।
यद्येनमपि मातस्त्वं मामिवाण्डविभेदनात्॥⁠ २०॥
न करिष्यस्यनङ्गं वा व्यङ्गं वापि तपस्विनम् ⁠।
‘और माँ! यह जो दूसरे अण्डे में तेरा पुत्र है, यही तुझे दासीभाव से छुटकारा दिलायेगा; किंतु माता! ऐसा तभी हो सकता है जब तू इस तपस्वी पुत्र को मेरी ही तरह अण्डा फोड़कर अंगहीन या अधूरे अंगों से युक्त न बना देगी॥⁠ २०॥

प्रतिपालयितव्यस्ते जन्मकालोऽस्य धीरया॥⁠ २१॥
विशिष्टं बलमीप्सन्त्या पञ्चवर्षशतात् परः ⁠।
‘इसलिये यदि तू इस बालक को विशेष बलवान् बनाना चाहती है तो पाँच सौ वर्ष के बाद तक तुझे धैर्य धारण करके इसके जन्म की प्रतीक्षा करनी चाहिये’॥⁠ २१॥

एवं शप्त्वा ततः पुत्रो विनतामन्तरिक्षगः॥⁠ २२॥
अरुणो दृश्यते ब्रह्मन् प्रभातसमये सदा ⁠।
आदित्यरथमध्यास्ते सारथ्यं समकल्पयत्॥⁠ २३॥

इस प्रकार विनता को शाप देकर वह बालक अरुण अन्तरिक्ष में उड़ गया। ब्रह्मन्! तभी से प्रातःकाल (प्राची दिशा में) सदा जो लाली दिखायी देती है, उसके रूप में विनता के पुत्र अरुण का ही दर्शन होता है। वह सूर्य देव के रथपर जा बैठा और उनके सारथि का काम सँभालने लगा॥⁠ २२-२३॥

गरुडोऽपि यथाकालं जज्ञे पन्नगभोजनः ⁠।
स जातमात्रो विनतां परित्यज्य खमाविशत्॥⁠ २४॥
आदास्यन्नात्मनो भोज्यमन्नं विहितमस्य यत् ⁠।
विधात्रा भृगुशार्दूल क्षुधितः पतगेश्वरः॥⁠ २५॥
तदनन्तर समय पूरा होने पर सर्प संहारक गरुड़ का जन्म हुआ। भृगुश्रेष्ठ! पक्षिराज गरुड जन्म लेते ही क्षुधा से व्याकुल हो गये और विधाता ने उनके लिये जो आहार नियत किया था, अपने उस भोज्य पदार्थ को प्राप्त करने के लिये माता विनता को छोड़कर आकाश में उड़ गये॥⁠ २४-२५॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पादीनामुत्पत्तौ षोडशोऽध्यायः॥⁠ १६॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में सर्प आदिकी उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाला सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥⁠ १६॥

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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