खाली ही लौटा मंदिर से
“खाली ही लौटा मंदिर से” स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया ‘नवल’ द्वारा हिंदी खड़ी बोली में रचित कविता है। इस कविता की रचना 12 अप्रैल सन् 1968 में की गयी थी। इसमें कवि अपने स्नेहमय विरोध को अमूर्त जीवनरूपी प्रिय से व्यक्त कर रहा है। पढ़ें और आनंद लें “खाली ही लौटा मंदिर से” कविता का–
कितनी बार गया न मिले तुम, खाली ही लौटा मन्दिर से
इसीलिए निश्चय कर डाला, तेरे द्वार नहीं आऊँगा।
अपनी अडिग भक्ति से मैंने, अब तक तुमको खूब रिझाया
श्रद्धानत हो करके तुम पर, गंगाजल भी खूब चढ़ाया
दीप जला करके प्राणों का, मैंने नित आरती उतारी
चन्दन, चर्चित, अर्चित वन्दन से पाषाणी मूर्ति सँवारी
किन्तु रहे रूठे के रूठे, अब न कभी पूजा लाऊँगा।
तेरे द्वार नहीं आऊँगा॥
मान घटा करता है जन का रोज-रोज के घर जाने से
ज्ञान बढ़ा करता दुनियाँ का बार-बार के दुहराने से
मन्दिर में आना मेरा जो सचमुच तुमको बुरा लग गया
स्वाभिमान तो जागा मेरा, लेकिन मेरा प्यार छल गया
बने रहोगे यदि तुम बहरे, मधुर गीत क्यों कर गाऊँगा?
तेरे द्वार नहीं आऊँगा॥
मैंने चातक बनकर तुमसे, कुछ करुणा का जल माँगा था
और तुम्हारे लिए जगत का, सारा सम्भव सुख त्यागा था
किन्तु बने निष्ठुर तुम ऐसे, तेरी रही याचना थोथी
कारण बहुत निकाले मैंने, हार गया पढ़-पढ़ कर पोथी
छिप न सकेगा भेद तुम्हारा, अब तुमको सम्मुख लाऊँगा
तेरे द्वार नहीं आऊँगा॥
मेरे उर की हर धड़कन ने, लेकर तेरा नाम पुकारा
मेरी साँस-साँस ने आकर, साँवरिया का पंथ बुहारा
मेरी आँखों ने चरणों पर, कितनी गागरियाँ ढुलकाई
बने रहे पाषाण मगर तुम, मुझ पर कुछ भी दया न आई
अब तो दर्शन तभी करूँगा, जब घर पर दर्शन पाऊँगा।
तेरे द्वार नहीं आऊँगा॥
दिनांक 12-4-68
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।